रघुवीर सहाय- नयी कविता के
महत्त्वपूर्ण कवि
30 दिसंबर
पुण्य तिथि पर
मनोज कुमार
नयी कविता के महत्त्वपूर्ण कवियों में से एक श्री रघुवीर सहाय का
जन्म 9 दिसम्बर, 1929 को लखनऊ के
मॉडल हाउस मुहल्ले में एक शिक्षित मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ था। इनके पिता श्री
हरदेव सहाय लखनऊ के बॉय एंग्लो बंगाली स्कूल में साहित्य के अध्यापक थे। दो वर्ष
की उम्र में मां श्रीमती तारा सहाय की ममता से वंचित हो चुके रघुवीर की
शिक्षा-दीक्षा लखनऊ में ही हुई थी। 1951 में इन्होंने लखनऊ
विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी साहित्य में एम.ए. की उपाधि प्राप्त की। 16-17 साल की उम्र से ही ये कविताएं लिखने लगे, जो
‘आजकल’, ‘प्रतीक’ आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही। 1949
में इन्होंने ‘दूसरा सप्तक’ में प्रकाशन के लिए अपनी कविताएं अज्ञेय को दे दी थीं जो 1951 में
प्रकाशित हुईं। एम.ए. करने के बाद 1951 में ये अज्ञेय द्वारा
संपादित ‘प्रतीक’ में सहायक संपादक के रूप में कार्य करने दिल्ली आ गए। प्रतीक के
बंद हो जाने के बाद इन्होने आकाशवाणी दिल्ली के समाचार विभाग में उप-संपादक का
कार्य-भार संभाला। 1957 में आकाशवाणी से त्याग-पत्र देकर
इन्होंने मुक्त लेखन शुरू कर दिया। इसी वर्ष इनकी ‘हमारी हिंदी’ शीर्षक कविता जो
‘युग-चेतना’ में छपी थी को लेकर काफ़ी बवाल मचा। 1959 में फिर
से आकाशवाणी से तीन साल के लिए जुड़े। वहां से मुक्त होने के बाद वे ‘नवभारत
टाइम्स’ के विशेष संवाददाता बने। वहां से ये ‘दिनमान’ के समाचार संपादक बने।
अज्ञेय के त्याग-पत्र देने के बाद वे 1970 में ‘दिनमान’ के
संपादक बने। व्यवस्था विरोधी लेखों के कारण 1982 में वे
‘दिनमान’ से ‘नवभारत टाइम्स’ में स्थानांतरित कर दिए गए। किंतु इस स्थानांतरण से
असंतुष्ट होकर उन्होंने 1983 में त्याग-पत्र दे दिया और पुनः
स्वतंत्र लेखन करने लगे। 30 दिसंबर 1990 को उनका निधन हुआ था।
रचनाएं :
कविता
संग्रह : सीढ़ियों पर धूप में, आत्महत्या के विरुद्ध,
हंसो-हंसो जल्दी हंसो, लोग भूल गए हैं, कुछ अते और कुछ चिट्ठियां
कहानी
संग्रह : रास्ता इधर से है, जो आदमी हम बना रहे हैं
निबंध
संग्रह : लिखने का कारण, ऊबे हुए सुखी, वे और नहीं
होंगे जो मारे जाएंगे, भंवर लहरें और तरंग, शब्द शक्ति, यथार्थ यथास्थिति नहीं।
अनुवाद
: मेकबेथ और ट्रेवेल्थ नाइट, आदि।
पर 1960 में प्रकाशित उनकी पहली पुस्तक ‘सीढ़ियों पर धूप में’ में उनकी कविताएं, कहानियां और वैचारिक टिप्पणियां एक साथ संकलित हैं। इस पुस्तक का संपादन सच्चिदानंद वात्स्यायन अज्ञेय ने किया था। इस पुस्तक की रचनाएं पिछली शताब्दी के साठ के दशक की हैं। वह दौर नये साहित्य के आरंभ का दौर था। सहाय जी नये साहित्य के आरंभकर्त्ताओं में से रहे हैं। इस पुस्तक में दस कहानियां, ग्यारह लेख और अठहत्तर कविताएं हैं। कविता संग्रह 'लोग भूल गए हैं ' के लिए 1984 में रघुवीर सहाय को साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
रघुवीर
सहाय की विचारधारात्मक दृष्टि
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद
जो नयी काव्य-धारा उभरकर सामने आई उसमें रचनाकारों का एक समुदाय लोकतांत्रिक
मूल्यों के प्रति उदासीन था और वह राजनीति-विरोधी होता गया। उस प्रयोगवाद और नयी
कविता की संधि के लगभग एकमात्र अत्यंत महत्त्वपूर्ण कवि रघुवीर सहाय ही थे,
जिन्होंने अपनी जनतांत्रिक संवेदनशीलता को क़ायम रखा। नयी कविता के बाद की युवा विद्रोही कविता का
मुहावरा बनानेवालों में भी वे अग्रणी कवि हैं। ‘आत्महत्या के विरुद्ध’
काव्य संग्रह के द्वारा उन्होंने प्रतिपक्षधर्मी समकालीन कविता को राजनीतिक
अर्थमयता और मानवीय तात्कालिकता प्रदान की। वे ‘शिल्प क्रीड़ा कौतुक’ का उपयोग कर
रोमांटिक गंभीरता को छिन्न-भिन्न करके नये अर्थ संगठन को जन्म देते हैं, जो जीवन
की विडम्बनापूर्ण त्रासदी को प्रत्यक्ष करता है।
देखो वृक्ष को देखो कुछ कर
रहा है
किताबी होगा वह कवि जो कहेगा
हाय पत्ता झर रहा है।
पतझर में नयी रचना का संकेत उत्पीड़ित-शोषित जीवन में नए बदलाव को भी संकेतित करता है। उनकी कविता में विचार-वस्तु अपनी विविधता में और वैचारिक स्पष्टता में सत्य बनकर उभरती है। उनका मानना था कि विचारवस्तु का कविता में ख़ून की तरह दौड़ते रहना कविता को जीवन और शक्ति देता है, और यह तभी संभव है जब हमारी कविता की जड़ें यथार्थ में हों। उन्होंने कविता की विचारवस्तु को अपने समय और समाज के यथार्थ से तो जोड़ा ही, वे अपने समय के आर-पार देखपाने में समर्थ हुए। वे मानते हैं कि वर्तमान को सर्जना का विषय बनाने के लिए ज़रूरी है कि रचनाकार वर्तमान से मुक्त हो। वर्तमान की सही व्याख्या कर भविष्य का एक स्वप्न दिखा जिसे साकार किया जा सकता हो। ‘सभी लुजलुजे हैं’ में कहते हैं -
खोंखियाते हैं, किंकियाते
हैं, घुन्नाते हैं
चुल्लु में उल्लू
हो जाते हैं
मिनमिनाते हैं, कुड़कुड़ाते
हैं
सो जाते हैं, बैठ
जाते हैं, बुत्ता दे जाते हैं
झांय झांय करते
है, रिरियाते हैं,
टांय टांय करते
हैं, हिनहिनाते हैं
गरजते हैं, घिघियाते
हैं
ठीक वक़्त पर चीं
बोल जाते हैं
सभी लुजलुजे हैं, थुलथुल
है, लिब लिब हैं,
पिलपिल हैं,
सबमें पोल है, सब
में झोल है, सभी लुजलुजे हैं।
शोषक वर्ग की चालबाज़ियों को उन्होंने बख़ूबी नंगा किया और दया, सहानुभूति और करुणा जैसे भावों में नाबराबरी और अभिजात्यवादी अहं की गंध महसूस की। मनुष्य और मनुष्य के बीच समानता और सामाजिक न्याय उनके रचनाकर्म का लक्ष्य रहा। नारी के प्रति भी उनका दृष्टिकोण समता का रहा। उनका मानना था कि लोगों के जागते रहने की एक तरकीब यह है कि लोग वास्तविक जनजीवन के विकासोन्मुख तत्वों से अपने को सक्रिय संबंद्ध रखें। उन्होंने मध्यवर्गीय समाज को यह अहसास दिलाया कि अधिनायकवादी ताक़तों का मुक़ाबला संगठित होकर ही किया जा सकता है।
नयी
कविता के अन्य कवियों की भांति, रघुवीर सहाय ने प्रतीकों, बिम्बों और मिथकों का
सहारा बहुत कम लिया है। इन्होंने बोलचाल की भाषा के साधारण शब्दों का प्रयोग अधिक
किया है, जिसे डॉ. नामवर सिंह ‘असाधारण साधारणता’ कहते हैं। भाषा में सहज प्रवाह उनकी कविता की प्रमुख विशेषता है। सहाय
जी की भाषा, आधुनिक हिन्दी के काव्य की दृष्टि से सफल और एक
अलग स्वाद रखती है। न्याय और बराबरी के आदर्श को बहुत ही सूक्ष्म स्तर पर कवि सहाय
ने अपनी चेतना में आत्मसात किया। ‘हमने देखा’ शीर्षक कविता में कहते हैं,
जो हैं, वे भी हो जाया करते हैं कम
हैं ख़ास ढ़ंग दुख
से ऊपर उठने का
है ख़ास तरह की
उनकी अपनी तिकड़म
हम सहते हैं
इसलिए कि हम सच्चे हैं
हम जो करते हैं
वह ले जाते हैं वे
वे झूठे हैं
लेकिन सब से अच्छे हैं
रघुवीर सहाय उस काव्यतत्व का अन्वेषण करने पर अधिक ज़ोर देते थे जो कला की सौंदर्य परम्परा को आगे बढाता है। उनकी शुरु की कविताओं में भाषा के साथ एक खिलंदड़ापन मिलता है जो संवेदना के साथ बाद में काव्यगत विडंबना के लिए काम आता है। उनकी एक मशहूर कविता ‘दुनिया’ की भाषा में यही क्रीड़ाभाव देखा जा सकता है,
लोग या तो कृपा करते हैं या ख़ुशामद करते हैं
लोग या तो
ईर्ष्या करते हैं या चुग़ली खाते हैं
लोग या तो
शिष्टाचार करते हैं या खिसियाते हैं
लोग या तो पश्चात्ताप
करते हैं या घिघियाते हैं
न कोई तारीफ़ करता
है न कोई बुराई करता है
न कोई हंसता है न
कोई रोता है
न कोई प्यार करता
है न कोई नफ़रत
लोग या तो दया
करते हैं या घमण्ड
दुनिया एक
फंफुदियायी हुई सी चीज़ हो गयी है।
इसी तरह के भाषिक खिलंदड़ेपन की एक और कविता है जो मध्यमवर्गीय लोगों के बारे में है, ‘सभी लुजलुजे हैं’ जिसमें ऐसे चुने हुए शब्दों का इस्तेमाल किया गया है जो कविता में शायद ही कभी प्रयुक्त हुए हों,
खोंखियाते हैं, किंकियाते हैं, घुन्नाते हैं
चुल्लु
में उल्लू हो जाते हैं
मिनमिनाते
हैं, कुड़कुड़ाते हैं
सो जाते
हैं, बैठ रहते हैं, बुत्ता दे जाते
हैं।
भाषा का यह खेल उनकी काव्य यात्रा में गंभीर होते हुए अपने जीवन की बात करते-करते एक और जीवन की बात करने लगता है, कविता ‘मेरा एक जीवन है’ में,
मेरा एक जीवन है
उसमें मेरे प्रिय
हैं, मेरे हितैषी हैं, मेरे गुरुजन
हैं
उसमें मेरा कोई
अन्यतम भी है:
पर मेरा एक और
जीवन है
जिसमें मैं अकेला
हूं
जिस नगर के
गलियारों फुटपाथों मैदानों में घूमा हूं
हंसा-खेला हूं
.....
पर इस हाहाहूती
नगरी में अकेला हूं
सहाय जी हाहाहूती नगरी जैसे भाषिक प्रयोग से पूरी पूंजीवादी सभ्यता की चीखपुकार व्यक्त कर देते हैं, इसकी गलाकाट स्पर्धा का पर्दाफ़ाश कर देते हैं। कविता के अंत में वो कहते हैं,
पर मैं फिर भी जिऊंगा
इसी नगरी में
रहूंगा
रूखी रोटी खाऊंगा
और ठंडा पानी पियूंगा
क्योंकि मेरा एक
और जीवन है और उसमें मैं अकेला हूं।
सहाय जी की भाषा संबंधी अन्वेषण के बारे में महेश आलोक के शब्दों में कहें तो, “सहाय निरन्तर शब्दों की रचनात्मक गरमाहट, खरोंच और उसकी आंच को उत्सवधर्मी होने से बचाते हैं और लगभग कविता के लिए अनुपयुक्त हो गये शब्दों की अर्थ सघनता को बहुत हल्के से खोलते हुए एक खास किस्म के गद्यात्मक तेवर को रिटौरिकल मुहावरे में तब्दील कर देते हैं।”
उनकी कविताओं में लय का एक खास स्थान हमेशा रहा। उनके लय के संबंध में दृष्टि उनके इस कथन से मिलती है, “आधुनिक कविता में संसार के नये संगीत का विशेष स्थान है और वह आधुनिक संवेदना का आवश्यक अंग है।”
‘भक्ति है यह’ कविता उदाहरण
के तौर पर लेते हैं,
भक्ति है यह
ईश-गुण-गायन नहीं
है
यह व्यथा है
यह नहीं दुख की
कथा है
यह हमारा कर्म है, कृति
है
यही निष्कृति
नहीं है
यह हमारा गर्व है
यह साधना है – साध्य
विनती है।
भाषा में सहज प्रवाह उनकी कविता की प्रमुख विशेषता है। सहाय जी की भाषा, आधुनिक हिन्दी के काव्य की दृष्टि से सफल और एक अलग स्वाद रखती है। न्याय और बराबरी के आदर्श को बहुत ही सूक्ष्म स्तर पर कवि सहाय ने अपनी चेतना में आत्मसात किया। ‘हमने देखा’ शीर्षक कविता में कहते हैं,
जो हैं, वे भी हो जाया करते हैं कम
हैं ख़ास ढ़ंग दुख
से ऊपर उठने का
है ख़ास तरह की
उनकी अपनी तिकड़म
हम सहते हैं
इसलिए कि हम सच्चे हैं
हम जो करते हैं
वह ले जाते हैं वे
वे झूठे हैं
लेकिन सब से अच्छे हैं
पत्रकारिता एवं साहित्य कर्म में रघुवीर सहाय कोई फ़र्क़ नहीं मानते थे। पत्रकारिता के क्षेत्र में भी उन्होंने एक नई और क्रिएटिव भाषा गढ़ी। आधुनिक सभ्य समाज के लिए न्याय, समता, स्वतंत्रता, और बंधुत्व जैसे लोकतांत्रिक मूल्यों पर उनकी गहरी आस्था थी। असमानता और अन्याय का प्रतिकार सहाय जी की रचनाओं का संवेदनात्मक उद्देश्य रहा है, उन्होंने जहां भी इसका अभाव देखा, उसके ख़िलाफ़ आवाज उठाई।
निर्धन जनता का शोषण है
कहकर आप हंसे
लोकतंत्र का अंतिम क्षण है
कहकर आप हंसे
सबके सब हैं भ्रष्टाचारी
कहकर आप हंसे
चारों ओर बड़ी लाचारी
कहकर आप हंसे
कितने आप सुरक्षित होंगे मैं सोचने लगा
सहसा मुझे अकेला पाकर फिर से आप हंसे
रघुवीर सहाय की काव्य भाषा बोलचाल की भाषा है। पर इसी सहजपन में यह जीवन के यथार्थ को, उसके कटु एवं तिक्त अनुभव को पूरी शक्ति के साथ अभिव्यक्त करने में समर्थ है। साथ ही यह देख कर आश्चर्य होता है कि अनेक कविताएं पारंपरिक छंदों के नये उपयोग से निर्मित हैं। साठोत्तरी दशक के हिंदी कवियों में रघुवीर सहाय ऐसे कवि हैं, जिन्होंने बड़ी सजगता और ईमानदारी से अपने काव्य में भाषा का प्रयोग किया है। वे जनता और उसकी समस्याओं से सम्बद्ध कवि हैं। उनका उद्देश्य अपने समय की विद्रूपता और विसंगतियों को उद्घाटित करना रहा है। वे विद्रूपता और विसंगतियों का चित्रण इस प्रकार करते हैं कि लोक-चेतना जागृत हो। वे अपनी रचनाओं के माध्यम से न सिर्फ़ आज की सामंती-बुर्जुआ-पूंजीवादी व्यवस्था को, जो लोकतंत्र के नाम पर सत्ता हड़पने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाती है, बल्कि जिसके उत्पीड़न-शोषण, अन्याय-अत्याचार के कारण संपूर्ण समाज में दहशत और आतंक छा गया है, को नंगा करते हैं।
***