मंगलवार, 2 जुलाई 2024

गांधी और गांधीवाद 3. गांधीजी का बचपन

 

गांधी और गांधीवाद

                          महात्मा गांधी

 

 

 











3. गांधीजी का बचपन (1870-81)

 मनोज कुमार

प्रारंभिक शिक्षा

बाल्यकाल में मोहनदास एक जगह स्थिर हो कर नहीं बैठ पाते थे या तो वे खेलने में व्यस्त रहा करते थे या फिर घूमने फिरने में मोहन को पोरबंदर के एक प्रारंभिक विद्यालय में दाखिल किया गया। वहां उन्हें पहाड़े याद रखना बड़ा कठिन लगता था। वह एक औसत दर्ज़े के छात्र थे। स्वभाव से शर्मीले और दब्बू थे। बात करने से घबराते थे और खेलकूद से दूर रहते थे। सात साल की उम्र में गांधी जी को पोरबंदर छोड़ना पड़ा क्योंकि उनके पिताजी राजकोट के दीवान बना दिये गए। पोरबंदर से उनके पिताजी राजस्थानिक कोर्ट के सदस्य बनकर राजकोट आए। बालक मोहन को पोरबंदर की याद आती थी, उसे नीला समुद्र और बंदरगाह में जहाज़ों की याद आती थी। राजकोट में गांधीजी ने प्रारंभिक शिक्षा पूरी की और आगे की शिक्षा अल्फ्रेड स्कूल में प्राप्त की। हर सुबह वह समय पर स्कूल जाते थे और स्कूल खत्म होते ही वापस घर भाग जाते थे। किताबें ही उनकी एकमात्र साथी थीं और वह अपना सारा खाली समय अकेले ही पढ़ने में बिताते थे। गांधीजी मेहनत और लगन से अपने पाठों को पढ़ा करते थे। लेकिन वह रटकर नहीं सीखते थे। संस्कृत में कमजोर थे। ज्यामिति उन्हें सबसे अच्छी लगती थी क्योंकि इसमें तर्क करना पड़ता था।

पिता का प्रभाव

गांधीजी के पिता करमचंद गांधी स्कूली शिक्षा ज़रा भी नहीं पाई थी। लेकिन उन्हें दुनियादारी का बहुत ज्ञान था। वह एक सांसारिक आदमी थे। धर्म और आध्यात्म में उन्हें कोई खास रुचि नहीं थी। हां उनके घर पर जैन मुनियों, पारसी दरवेशों और मुस्लिम औलियों का आना जान लगा रहता था। यदा-कदा उनकी चर्चाओं को सुनने का अवसर गांधीजी को मिल जाया करता था। इस तरह कई धर्मों के विद्वानों को साथ बैठकर मैत्रीपूर्ण ढंग से चर्चा करते देख धार्मिक सहिष्णुता की छाप बालक गांधी के मन पर अंकित हो गई।

माता का प्रभाव

माता पुतली बाई एक योग्य महिला थीं। रनिवास में उनकी इज़्ज़त थी। राजपरिवार की महिलाओं से उनकी मैत्री थी। घर-परिवार के कामों में रमे रहना उन्हें काफी सुहाता था। कपड़ों और गहनों का शौक उन्हें ज़रा भी नहीं था। पढी-लिखी वो खास नहीं थीं। धर्मग्रंथों में भी पारंगत नहीं थीं, लेकिन वह एक धार्मिक महिला थीं। प्रार्थना करना, मंदिर जाना, व्रत-उपवास करना उनके रोज़ाना के कार्यक्रम थे। उनका गांधीजी के व्यक्तित्व पर काफ़ी प्रभाव था। गांधीजी ने भी नियम-संयम, व्रत-उपवास और प्रार्थना उनसे ही सीखी थी। इसके अलावा जो बात उन्होंने अपनी माता से सीखी वह थी अपने और दूसरों के बच्चे में अंतर नहीं करना। बाद में सबको एक नज़र से देखना बापू के आश्रम जीवन का अंग बन गया। उन्होंने कहा भी है, मैंने सदाचार और पवित्र जीवन का पाठ अपने माता-पिता से सीखा।

सभी धर्मों को समान दृष्टि से देखना

बचपन में माता पुतलीबाई उन्हें भगवान शिव, विष्णु और जैन मंदिरों के साथ-साथ पीर-पैगम्बरों की समाधियों पर ले जाया करती थीं। काबा गांधी के मकान में सभी धर्मों के अनुयायी आते-जाते रहते थे। हिन्दू पंडितों, जैन साधुओं, मुसलमान मुल्लाओं और पारसी सन्तों का घर में आना-जना लगा रहता था। उनकी बातें बालक मोहन बड़े ध्यान से सुनते। इसका उन पर यह असर पड़ा कि वे सभी धर्मों को समान दृष्टि से देखने लगे। वे यह समझ चुके थे कि सभी धर्म ईश्वर की ओर जाने के रास्ते हैं।

श्रवण पितृ-भक्तिनाटक का प्रभाव

एक बार उनके मन में कोई बात बैठ जाती तो उसको निकाला नहीं जा सकता था। बचपन में गांधीजी नेश्रवण पितृ-भक्तिनामक नाटक पढ़ा था। इससे वे बहुत प्रभावित हुए। श्रवण कुमार का अपने माता-पिता को कंधे पर बहंगी में बिठाकर तीर्थ कराने ले जाने वाले दृश्य ने उनके मन पर गहरा प्रभाव डाला। उनहोंने निश्चय किया, 'मुझे भी श्रवण जैसा बनना है।' माता-पिता की सेवा को उन्होंने अपना आदर्श बना डाला। माता-पिता की आज्ञा का पालन उनका मूल-मंत्र हो गया।

"सत्यवादी हरिश्चन्द्र नाटक का प्रभाव

एक नाटक मंडली गांधीजी के शहर में आई थी। इस मंडली ने ‘सत्यवादी हरिश्चन्द्र’ नाटक दिखलाया था। हरिश्चन्द्र” ने सत्य के लिए हर चीज़ का बलिदान कर दिया तथा प्राण त्यागने के पूर्व उन्हें दारुण दुखों का निरंतर सामना करना पड़ा था।  नाटक सत्य हरिश्‍चंद्र का गांधीजी के व्यक्तित्व पर काफी प्रभाव पड़ा। गांधीजी के मन में हमेशा चलता रहता की हरिश्चंद्र की तरह सब सत्यवादी क्यों नहीं होते? उन्होंने यह मान लिया कि हरिश्चंद्र पर जैसी विपत्तियाँ पडीं वैसी विपत्तियों ओ भोगना और सत्य का पालन करना ही जीवन का वास्तविक सत्य है हरिश्चंद्र की सत्यवादिता और वचन-पालन ने बालक मोहनदास को सत्य का पुजारी बना दिया।

भविष्य का गांधी

हालाकि गांधीजी अपने बचपन में भारत में पैदा हुए लाखों अन्य बच्चों से अलग नहीं दिखते थे, फिर भी वह कोई साधारण बच्चा नहीं थे। धीरे-धीरे उनके व्यक्तित्व का निर्माण हो रहा था। उन्हें एक महान साम्राज्य से लड़ना था। और उनकी लड़ाई अहिंसक होने वाली थी। उन्हें बिना हथियार उठाए अपने देश को आज़ाद कराना था। लोग उन्हें महात्मा कहने वाले थे। उस महात्मा को देश के लिए अपना जीवन बलिदान करना था।

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