रविवार, 7 जुलाई 2024

7. विवाह - विषयासक्त प्रेम

 

गांधीजी और गांधीवाद

स्त्री पुरुष की सहचारिणी है, जिसे समान मानसिक सामर्थ्य प्राप्त है। - महात्मा गांधी

 

1882

7. विवाह - विषयासक्त प्रेम

बाणभट्ट ने कादम्बरी में लिखा है,

नित्यमस्नान-शौच-बाध्यो बलवान्‌ रागमलावलेपः।

नाशयति दिंमोह इवोन्मार्गप्रवर्तकः पुरुषमत्यासंगो विषयेषु।

अर्थात्‌ विषयासक्ति रूपी मल का लेप नित्य स्नान और शुद्धता से भी नष्ट नहीं होता। विषयों में आसक्ति भी उसी प्रकार मनुष्य को कुमार्ग पर ले जाकर नष्ट कर देती है जिस प्रकार दिग्भ्रम।

गांधी जी के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। 13 वर्ष की कच्ची उम्र में, जब वे विद्यालय में ही थे, 1882 में उनका विवाह कस्तूरबाई से हुआ था। तीन सगाइयों के बाद यह विवाह हुआ था। दो में तो कन्या मर गई। मोहन की आयु जब साढ़े छह वर्ष की थी तब सात वर्ष की कस्तूरबाई के साथ उनकी तीसरी सगाई हुई थी। विवाह राजकोट से होकर पोरबंदर से हुआ गांधीजी को तो विवाह की रस्मों के लिए पहले ही पोरबंदर भेज दिया गया लेकिन उनके पिताजी को ठाकुरसाहब ने दो दिन पहले छोडा पिताजी तांगे से साठ कोस की यात्रा पर राजकोट से पोरबंदर के लिए चले रास्ते में तांगा उलट गया पिताजी पट्टियों में बेटे की शादी में शामिल हुए गांधीजी लिखते हैं, मैं तो विवाह के बाल उल्लास में पिताजी का दुःख भूल गया

कस्तूरबा, मोहनदास से बड़ी थीं। उनका जन्म 11 अप्रैल, 1869 को हुआ था माता-पिता ने बचत और सुविधा के लिहाज से तीन शादियां एक साथ कीं – मोहन, कृष्णदास और उसके एक चचेरे भाई की। कस्तूरबाई गांधी-परिवार के मित्र और पोरबंदर के एक व्यापारी गोकलदास मकनजी की पुत्री थीं। कस्तूरबाई के गांधीजी अत्यंत दिवाने थे, पर बाद के दिनों में उन्हें अपनी इस विषयासक्ति पर शर्म महसूस होती थी। हो सकता है इसी कारण ने बाल-विवाह पर उनके मन में बड़े कठोर विचारों को जन्म दिया और वे इसे भीषण बुराई मानते रहे। उन दिनों बाल-विवाह क़ानून वैध था। उन दिनों तो इसे इस हिसाब से अच्छा माना जाता था कि लोग शादी हो जाने के बाद दुनियाई आकर्षण से बचेंगे। प्रायः ऐसी शादी सुखी होती थी। कम से कम गांधी जी के बारे में तो ऐसा ही था। उन्होंने जीवन भर कस्तूरबाई में अपने जीवन की सुखशांति पाई।

नन्हीं कस्तूरबाई बड़ी ही मनस्वी लड़की थीं। वह निरक्षर थीं। गांधीजी उनको पढ़ाना चाहते थे, लेकिन उस समय की सामाजिक परिस्थितियां ऐसी थीं, कि चाहकर भी वे वैसा कर नहीं सके। हालाकि गांधी जी उन्हें बहुत कुछ सिखाना चाहते थे, लेकिन गांधी जी के विषयासक्त प्रेम ने उन्हें समय ही नहीं दिया। इसका गांधीजी को काफ़ी पश्चाताप था। यहां तक कि अपनी आत्मकथा में इसकी आत्म-निंदा करते हुए कहते हैं, मैं मानता हूं कि अगर मेरा प्रेम विषय से दूषित होता, तो आज वह विदुषी होतीं। मैं उनके पढ़ने के आलस्य को जीत सकता था, क्योंकि मैं जानता हूं कि शुद्ध प्रेम के लिए कुछ भी असम्भव नहीं है।स्वभाव से बा सीधी, स्वतंत्र और मेहनती थीं बा थोड़ी ज़िद्दी भी थीं, इसलिए कोई कितना भी दबाव डाले जो वह चाहती, वही करतीं।

शादी के बाद कस्तूरबा बाई छह महीने गांधी जी के साथ रहती थीं। छह महीने बाद कस्तूरबाई मायके चली जाती थीं। यह उन दिनों की प्रथा थी। जिसकी निष्ठा सच्ची है, उसकी रक्षा भगवान ही कर देते हैं। जहां समाज में बाल विवाह जैसी घातक परंपरा थी तो वहीं इससे मुक्ति दिलाने वाला यह रिवाज़ भी था जिससे गांधी जी की विषयासक्ति से बचाव भी हो पाता था। 13 साल से 19 साल की उम्र तक यह क्रम चलता रहा। घर की प्रथा ऐसी थी कि गांधी जी उनसे सिर्फ़ रात में ही मिल सकते थे। उन दिनों बड़ों के सामने तो स्त्री को देखा भी नहीं जा सकता था, बात-चीत तो दूर की बात थी। पत्नी की आसक्ति में मोहन रमे रहते। नतीजा यह हुआ कि उस साल वह स्कूल में फेल हो गए। अगले साल उन्होंने दो कक्षाओं की परीक्षा देकर इस नुकसान की भरपाई की। उनकी पढ़ाई ज़ारी रही।

पर बचपन में गांधी जी, जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, विषयासक्त थे। जैसा विषयासक्त प्रेमी थे वैसे ही वहमी पति भी थे। और साथ ही ईर्ष्यालू भी। वे कस्तूरबाई पर दबाव डालते कि बिना पूछे कहीं मत जाओ, यहां नहीं जाओ, वहां नहीं जाओ। गांधीजी बताते हैं कि किसी किताब में पढ़ा था, 'एक पत्नी-व्रत पालना पति का धर्म है' मगर इसका नतीजा क्या हुआ? गांधीजी को लगा कि अगर मुझे एक पत्नी व्रत पालना है तो पत्नी को एक पति का व्रत पालना चाहिए। वह ईर्ष्यालू पति बन 'पालना चाहिए' से वह 'पलवाना चाहिए' के विचार पर पहुंच गए और अगर पलवाना है, तो उन्हें पत्नी की निगरानी रखनी चाहिए... उन्हें हमेशा यह देखना चाहिए कि उनकी स्त्री कहां जाती है? तात्पर्य यह कि पति के रूप में गांधीजी पत्नी पर नियंत्रण रखना चाहते थे। उनके आने-जाने पर चौकसी रखते। नाराज़ होकर कस्तूर उसका विरोध करतीं। कस्तूर को जहां इच्छा होती वहाँ बिना गांधीजी से पूछे ज़रूर जातीं। गांधीजी के वहम को उनकी मित्रता भी बढाती थी। मित्रों की बात में आकर वे धर्मपत्नी को कष्ट पहुंचाते थे। गांधीजी को लगता था कि उनकी पत्नी उनकी अनुमति के बिना कहीं जा ही नहीं सकती। ऐसा लगता है कि उन्होंने तो पति की सत्ता चलाना शुरू कर दिया था कस्तूरबा का विरोध जब बढ़ता तो दोनों में बोलचाल भी बंद हो जाती बाद में जब गांधी जी को अहिंसा का सूक्ष्म ज्ञान हुआ तो और जब वह ब्रह्मचर्य की महिमा को समझे तो उन्हें यह बात समझ में आई कि पत्नी सहचारिणी है, सहधर्मिणी है, दासी नहीं। सन्देह में जिए गए अपने दिनों को बाद में याद कर गांधी जी लिखते हैं, मुझे अपनी मूर्खता और विषयान्ध निर्दयता पर क्रोध आता है और मित्रता-विषयक अपनी मूर्च्छा पर दया आती है।

योगवासिष्ठ में कहा गया है, ‘भोगा भवमहारोगाः तृष्णाश्चमृगतृष्णिकाः। अर्थात्‌ विषयभोग संसार के महारोग हैं और तृष्णाएं मृगतृष्णा है। इसी तरह की मृगतृष्णा में हुई भूल को महात्मा गांधी जी ने अपने जीवन का काला दाग मानते हुए इसे ‘दुहरा कलंक कहा है। यह घटना उनके पिता की मृत्यु जे जुड़ी है। उस समय गांधी जी सोलह साल के थे। उनके पिता जी बीमार रहते थे। गांधी जी अपने पिता की सेवा-सुश्रुषा करते थे। उनके घाव धोने से लेकर मरहम लगाना, दवा पिलाना और रात में पैरों की मालिश करने का काम भी करते थे। पैर दबाते-दबाते जब पिताजी सो जाते थे तब गांधी जी सोने जाते थे। उन दिनों गांधी जी के चाचाजी भी वहीं थे। वे उनके पास ही सोते थे। कस्तूरबा बाई भी घर में ही थीं, इसलिए गांधी जी अपने विषयासक्त प्रेम में भी मगन थे। एक रात चाचा के द्वारा इज़ाज़त दिए जाने के बाद गांधी जी बीमार पिता के सिरहाने से उठकर अपने शयन-गृह में पहुंचे और गहरी नींद में सो रही कस्तूरबा बाई को जगाया। वे तब गर्भावस्था में थीं। पांच-सात मिनट बाद ही नौकर ने दरवाज़ा खटखटाया और पिता के देहावसान की सूचना दी। गांधी जी को बहुत पश्चाताप हुआ कि अगर वे विषयान्ध होते तो उस अंतिम घड़ी में अपने पिताजी के साथ होते। सेवा के समय भी विषय की इच्छा के काले दाग को गांधी जी कभी भूल नहीं पाए। पिता के प्रति सब कुछ छोड़ सकने वाले गांधी जी विषय को नहीं छोड़ सके, और इसे वे अक्षम्य त्रुटि मानते रहे। इसीलिए एक पत्नी और एक पति व्रत को ब्रह्मचर्य व्रत मानने वाले और एक पत्नी व्रत का पालन करने वाले गांधीजी अपने को विषयान्ध मानते थे। कस्तूरबा बाई ने जिस बच्चे को जन्म दिया वह भी 3-4 दिन ही जीवित रहा। इस पूरे प्रकरण में गांधी जी की पीड़ा बहुत गहन थी। काफ़ी दिनों तक यह उन्हें सालती रही। भारवि ने किरातार्जुनीय में कहा है, ‘आपातरम्या विषयाः पर्यन्तपरितापिनः। अर्थात्‌ विषय-भोग तत्काल ही रमणीय प्रतीत होते हैं, अन्ततः वे ताप ही पहुंचाते हैं।

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मनोज कुमार

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