गांधी और गांधीवाद
धीरे-धीरे
गांधीजी का जीवन अभिभावक की तरह का होने लगा था। भारत से आए अनेक नौजवानों के
अलावा अपने मुंशियों को गांधीजी ने अपने पास रख लिया था। इसके अलावा अनेक अंग्रेज
और अन्य यूरोपियों को भी वे अपने साथ ठहराते थे। उनका रहन-सहन सीधा-सादा और सादगी
भरा था। सादगी के साथ इस दौर में गांधीजी को रोगों से बचाव के लिए दवा के प्रयोग
से भी अरुचि होने लगी।
उन दिनों वे डरबन में वकालत करते थे। एक दिन डॉ. प्राणजीवन मेहता उनसे मिलने आए थे। गांधीजी जी काफ़ी कमज़ोर थे। उन्हें सूजन भी थी। डॉ. मेहता ने उनका उपचार किया। उन्हें आराम हो गया। जोहान्सबर्ग में उन्हें क़ब्ज़ रहता था। उसके कारण उनका सिर भी दुखता रहता था। दवा लेकर वे इससे छुटकारा पा लेते थे। अपने खाने-पीने के प्रति भी काफ़ी सचेत रहते थे। लेकिन इन बीमारियों से उन्हें मुक्ति नहीं मिलती थी। फिर उखड़ आती थीं।
गांधीजी अपने रहन-सहन को हर प्रकार से सीध-सादा बना रहे थे। वे सुबह छह बजे उठ जाते थे। एक दिन उन्होंने मैनचेस्टर में “नो ब्रेकफास्ट एसोसियेशन” की स्थापना का समाचार पढ़ा। समाचार के अनुसार अंग्रेज बहुत बार खाते हैं। वे रात के बारह बजे तक खाते रहते हैं। उनके खाने की मात्रा भी काफ़ी होती है। फिर वे डॉक्टरों के चक्कर लगाते रहते थे। इस एसोसियेशन के अनुसार इस व्याधि से छुटकारा पाने के लिए सुबह का नाश्ता छोड़ देना चाहिए।
उन दिनों गांधीजी दिनभर में तीन बार खाते थे। दोपहर को चाय पीते थे। अल्पाहारी तो वे नहीं ही थे। चटोर भी थे, मसालेदार भोजन उनका प्रिय आहार था। छह-सात बजे तक सोते थे। इस समाचार से प्रेरित होकर उन्होंने सोचा कि सुबह का नाश्ता छोड़ दिया जाना चाहिए। उन्होंने ऐसा ही किया। कुछ दिनों तक उन्हें यह काफ़ी अखरा। पर सिर के दर्द से उन्हें छुटकारा मिल गया। उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि वे ज़रूरत से ज़्यादा आहार ले रहे थे। अल्पाहार लेना उन्हें अच्छा लग रहा था। अब वे शाकाहारी होते जा रहे थे। अल्पाहार लेते थे। उन्होंने फलों और मेवे का आहार लेना शुरू कर दिया था। सुबह शाम घर से दफ्तर तक की छः मील की दूरी पैदल तय करते थे। कुछ माह तक नमक के साथ कुछ भी नहीं पकाया जाता था। उसके बाद शक्कर छोड़ने का दौर आया। फिर अधपके भोजन का दौर आया। घर में भोजन के तत्त्वों पर बड़ी संजीदगी से बहस होती थी। मानव शरीर और उसके नैतिक गुणों पर उनके प्रभाव की गहरे से छानबीन होती थी। कुछ समय तक रक्तशोधक के रूप में कच्चे कटे हुए प्याज नियमित रूप से भोजन में शामिल रहे। एक शाकाहारी रेस्तरां में कुछ मित्रों के साथ सलाद में स्पेनी प्याज के इतने शौक़ीन थे कि खुद को प्याजखोरों के एकीकृत संघ का रूप दे दिया। लेकिन कुछ समय बाद गांधीजी इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि प्याज भावनाओं के लिए खतरनाक हैं, और इस कारण प्याज को छोड़ दिया। गांधीजी का मानना था कि दूध मानव-जीवन के भावनात्मक पक्ष को प्रभावित करता है, इसलिए दूध का सेवन त्याग दिया।
1942 में गांधीजी ने “आरोग्य कुंजी” पुस्तक लिखी थी। “इंडियन ओपिनियन” में भी उन्होंने आहार-विषयक प्रयोग पर “आहार-विषयक सामान्य ज्ञान” नामक पुस्तक में विस्तार से लिखा था। हालाकि यह पुस्तक केवल “इंडियन ओपिनियन” के पाठकों के लिए लिखी गई थी, लेकिन पश्चिम के साथ-साथ पूर्व के पाठकों के बीच भी यह काफ़ी लोकप्रिय रही। कई लोगों ने अपने जीवन के दैनिक जीवन यापन में परिवर्तन किया और लाभान्वित हुए।
गांधीजी का मानना था कि एक बच्चा माता का जो दूध पीता है उसे इसके सिवा और किसी दूध की ज़रूरत ही नहीं है। हरे और सूखे फलों के अलावा मनुष्य का कोई आहार नहीं है। बादाम जैसे बीजों और अंगूर जैसे फलों में शरीर और वृद्धि के लिए आवश्यक पोषण और आहार मिल जाते हैं। जो इस तरह के आहार पर जीना सीख लेता है उसके लिए ब्रह्मचर्य आदि व्रत और आत्म-संयम आसान हो जाते हैं। जैसा आहार वैसी डकार, अर्थात मनुष्य जैसा खाता है वैसा बनता है।
किंतु इन नियमों का जीवन भर गांधीजी पालन न कर सके। खेड़ा ज़िले में सिपाहियों की भरती के समय वे अपनी ग़लती से काफ़ी बीमार पड़ गए। चिकित्सकों ने उन्हें दूध लेने को कहा। गांधीजी इसके पक्ष में नहीं थे। उन्होंने वैद्यों-डॉक्टरों आदि की सलाह ली। किसी ने इसके बदले मूंग का पानी, तो किसी ने महुए का तेल और किसी ने बादाम के दूध का सुझाव दिया। इन चीज़ों का प्रयोग करने के उपरान्त तो वे और भी बीमार पड़ गए। उन्होंने बिस्तर पकड़ लिया।
गाय-भैंस का दूध तो गांधीजी ले ही नहीं सकते थे। व्रत के पालन के लिए यह ज़रूरी था। किंतु उन्होंने गोमाता और भैंस माता के दूध न लेने की क़सम खाई थी। जब उन्हें बकरी का दूध लेने को कहा गया तो वे मना नहीं कर सके। हालाकि अपनी आत्मकथा में वे लिखते हैं, “बकरी माता का दूध लेते समय भी मैंने यह अनुभव किया कि मेरे व्रत की आत्मा का हनन हुआ है।”
हालाकि गांधीजी यह मानते हैं कि आहार, या खान-पान के साथ आत्मा का संबंध नहीं है, फिर भी दृढ़ निश्चय से कहते हैं, “जो मनुष्य ईश्वर से डरकर चलना चहता है, जो ईश्वर के प्रत्यक्ष दर्शन करने की इच्छा रखता है, ऐसे साधक और मुमुक्षु के लिए अपने आहार का चुनाव – त्याग और स्वीकार – उतना ही आवश्यक है, जितना कि विचार और वाणी का चुनाव – त्याग और स्वीकार – आवश्यक है।”
साथ ही वे यह भी सलाह देते हैं कि दूध छोड़ने के पहले लोग डॉक्टर या वैद्य की सलाह ज़रूर लें। गांधीजी यह भी कहते हैं कि उनकी इस पुस्तक में दूध की जो मर्यादा सूचित की गई है उस पर चलने की लोग ज़िद न करें।
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मनोज कुमार
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कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
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