राष्ट्रीय आन्दोलन
326. सत्याग्रह
आश्रम वर्धा
जेल से छूटकर गांधीजी थोड़े दिनों के लिए साबरमती आश्रम
आए। उन्होंने आश्रम की बहनों को सभा बुलाई। उनसे जेल जाने का आह्वान किया। आश्रम
के बच्चों को हरिजन कन्या-छात्रालय में अनसूया बहन के कहने पर रखा गया। 1930 में गांधी जी ने साबरमती आश्रम छोड़ दिया और उन्होंने
प्रतीज्ञा की, “जब तक देश विदेशी दासता से मुक्त नहीं होता, मैं साबरमती आश्रम में प्रवेश नहीं
करूंगा।” इसके बाद वे सत्याग्रह आश्रम वर्धा चले आए।
जमनालाल बजाज अपने परिवार के साथ शुरुआती दिनों
में कुछ समय साबरमती आश्रम में रहे थे ताकि उनके बच्चे गांधीजी की शिक्षाओं से
प्रभावित हो सकें। साबरमती में ही उनकी सबसे बड़ी बेटी कमला की शादी साधारण आश्रम
शैली में हुई थी। जमनालाल ने गांधीजी से वर्धा में आश्रम स्थापित करने के लिए
विनोबा की सेवाएँ माँगीं। लेकिन साबरमती आश्रम के प्रबंधक मगनलाल ने कहा कि वे
विनोबा को नहीं छोड़ सकते। विनोबा को बाद में गुजरात विद्यापीठ में शिक्षक के रूप
में भेजा गया। जमनालाल ने कुछ समय बाद गांधीजी से अपना अनुरोध दोहराया और गांधीजी
ने विनोबा को वर्धा भेजा जहाँ विनोबा ने आश्रम विकसित करने में जमनालाल की मदद की।
गांधीजी अब विनोबा के साथ रहने और उनके काम को स्वयं देखने के लिए वर्धा गए थे। वे
बहुत प्रसन्न थे और वहाँ रहते हुए उन्हें बहुत शांति महसूस हुई।
वर्धा में सेवाग्राम आश्रम बनाया जाने लगा। यह
वर्धा से पांच मील की दूरी पर था। बहुत सारे लोग इस आश्रम के बनवाने में सहयोग
करने लगे। गांधीजी सेवाग्राम स्थल पर ही झोपड़ी बनाकर रह रहे थे। बाक़ी लोग शाम को
वर्धा लौट जाते। वर्धा से अश्रम स्थल का रास्ता बेहद ख़राब था। सड़क उबड़-खाबड़,
ऊंची-नीची थी। लोगों को आने-जाने में काफ़ी परेशानी का सामना करना पड़ रहा था।
कुछ लोगों ने बापू को सलाह दी कि यदि वे
प्रशासन को पत्र लिखें तो वह रास्ता प्रशासन के सहयोग से जल्दी बन जाएगा और लोगों
को आने-जाने में सुविधा होगी। गांधी जी ने मुस्कुराते हुए कहा, “प्रशासन
को लिखे बग़ैर भी यह रास्ता ठीक हो सकता है।”
गांधी जी का कहा लोग समझ नहीं पाए। गांधी जी ने
उन्हें समझाते हुए कहा, “यदि हर कोई वर्धा से आते-जाते समय इधर-उधर पड़े पत्थरों को
रास्ते में बिछाता जाय, तो रास्ता ठीक हो सकता है।”
अगले दिन से ही लोग आते-जाते समय पत्थरों को
रास्ते के लिए डालते जाते और उसे समतल करते जाते। गांधीजी के एक प्रशंसक बृजकृष्ण
चांदीवाल, जो शरीर से मोटे भी थे, एक दिन पांच मील के उस ख़राब रास्ते को बड़ी
कठिनाई से तय कर हांफते हुए आश्रम पहुंचे और पसीना पोंछते हुए गांधीजी से बोले, “क्या
दो-दो पत्थर इधर से उधर कर देने से यह रास्ता बन जाएगा? यदि आप रास्ते का काम
प्रशासन से नहीं करवा सकते तो बताइए कितना पैसा लगेगा इसके मरम्मत में, इस रास्ते
के निर्माण पर आने वाला ख़र्च मैं वहन करूंगा।”
गांधीजी मुस्कुराते हुए बोले, “आपके
दान से हमें लाभ होगा। सही है। लेकिन धन दान नहीं हमें श्रमदान चाहिए। बूंद-बूंद
से घड़ा भरता है! यदि आप भी हमारे इस श्रमदान यज्ञ में जुड़ेंगे तो इसके तीन फ़ायदे
होंगे। एक हमारा आश्रम ठीक होगा। दो आपका धन बचेगा और तीन आपका मोटापा भी कम होगा।
आप निरोगी होंगे।”
गांधीजी आश्रम का निर्माण सहयोग, सेवा और समर्पण से ही पूरा
परवाना चाहते थे।
मुन्नालाल शाह के अनुरोध पर गांधी जी ने सेवाग्राम की
स्थापना के दौरान मीरा बहन को भी बुला लिया। मीरा बहन आ गईं। उन्होंने मीरा बहन को
पास के एक गांव में रहने को राज़ी किया। गांधीजी अस्वस्थ रहते थे। उनका रक्तचाप
बिगड़ गया। डॉक्टरों ने उन्हें तन्हा वार्ड में रखने की सलाह दी।
विनोबा भावे वर्धा आश्रम के प्रबंधक थे। आश्रम का औसत मासिक
व्यय 3,000 रुपये था, जो मित्रों द्वारा वहन किया जाता था। आश्रम के पास 132 एकड़
38 गुंठा क्षेत्रफल वाली भूमि थी, जिसका
मूल्य रु. 26,972-5-6,
और इमारतें रु.
2,95,121-15-6, जो निम्नलिखित न्यासी बोर्ड के पास थी, 1. शेठ जमनलाल बजाज, 2. सार्जेंट. रेवाशंकर
जगजीवन झावेरी, 3. महादेव हरिभाई देसाई, 4. इमाम अब्दुल कादिर बावज़ीर और 5. छगनलाल
खुशालचंद गांधी। आश्रम में 55 कर्मचारी, ए.आई.एस.ए. तकनीकी स्कूल के 43 शिक्षक और
छात्र, 5 पेशेवर बुनकर, 30 कृषि मजदूर मिलाकर कुल 130 पुरुष थे। आश्रम में 49
बहनें, 10 पेशेवर मज़दूर, 7 बुनकर मिलाकर कुल 66 महिलाएँ थीं। 78 बच्चे मिलाकर
आश्रम के सदस्यों का कुल योग 277 था।
सितंबर 1933 में गांधीजी वर्धा के सत्याग्रह आश्रम में चले
गए। 30 सितंबर को उन्होंने साबरमती आश्रम को हरिजन हित के लिए सर्वेंट्स ऑफ
अनटचेबल्स सोसाइटी को दे दिया। उन्होंने लिखा: "जब अगस्त 1932 में संपत्ति को
छोड़ दिया गया था,
तो निश्चित रूप से यह
उम्मीद थी कि किसी दिन, चाहे
सम्मानजनक समझौते के माध्यम से या भारत के अपने अधिकार में आने के बाद, ट्रस्टी फिर से कब्जा कर लेंगे। लेकिन नए
प्रस्ताव के तहत,
ट्रस्टी खुद को पूरी तरह से
संपत्ति से अलग कर लेते हैं।"
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
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