“लुटेरा” - अच्छी
और अलग फ़िल्म
शोभा कपूर और एकता कपूर
द्वारा बालाजी मोशन पिक्चर्स बैनर तले निर्मित ‘उड़ान’ फेम निर्देशक विक्रमादित्य मोटवाणे द्वारा निर्देशित
फ़िल्म ‘लुटेरा’ का हर फ्रेम एक पेंटिंग की तरह सजा हुआ है। यह एक गंभीर निर्देशक
की ऐसी फ़िल्म है जो अहिस्ता-आहिस्ता दिल में समाती चली जाती है और वहीं बस जाती
है। मोटवाणे ने इस फ़िल्म में कहानी कहने की एक ऐसी कला ईजाद की है जिसमें दृश्य कहानी
कहता है, कलाकारों की आंखें बोलती हैं, उनकी भाव-भंगिमाएं कहानी को बहा ले जाती
हैं और दर्शक भाव-विभोर होकर इसके हरेक दृश्य में डूब जाता है। साहित्यिक भाषा में
कहें तो फिल्म में चाक्षुष बिम्ब से चित्र भरे पड़े हैं। इस बात का अंदाजा आप इसी
से लगा सकते हैं कि 140 मिनट की इस फ़िल्म
के सभी संवादों को अगर एक साथ कर दिया जाए तो संवादों की अदायगी में लगा समय 20 मिनट से अधिक के नहीं होगा।
यह फ़िल्म सिर्फ़ दो
व्यक्तियों, वरुण (रणवीर) और पाखी (सोनाक्षी), की कहानी है। जगह बंगाल का माणिकपुर
गांव। फ़िल्म के पूर्वार्ध में ऐसा लगता है कि बांगाल के कैनवास पर चित्रकारी की गई
है। फ़िल्म के छायाकार महेन्द्र शेट्टी ने कलाकारों की, कहानी की, और जिस पृष्ठभूमि
पर कहानी का ताना-बाना बुना गया उन पृष्ठभूमियों की, मासूमियत, कोमलता और सहजता को
एक-एक फ्रेम में इस ख़ूबसूरती को यूं क़ैद किया है कि दर्शक हर दृश्य से प्यार करने लगे।
कथानक उस काल का है जब ज़मींदारी प्रथा का उन्मूलन हो रहा था। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
में, जब भारतीय सरकार द्वारा ज़मींदारी प्रथा की समाप्ति की घोषणा की जाने वाली थी,
वरुण पुरातात्ववेत्ता के रूप में दर्शकों के सामने आता है। पाखी उस क्षेत्र के ज़मींदार
रायचौधरी (बरुण चंदा) की पुत्री है। पहली नज़र के दीवाने प्यार की तरह पाखी वरुण के
प्यार में डूब जाती है। वरुण के दिल में भी उसके लिए कुछ-कुछ होता है। लेकिन
परिस्थियां कुछ ऐसी करवट लेती हैं कि वरुण पाखी से तय विवाह नहीं कर पाता बल्कि
आपराधिक पृष्ठभूमि में चल रहे इस प्यार को छोड़ वह बहुमूल्य मूर्ति लेकर भाग जाता
है।
नसीब उन्हें फिर मिलाता
है। इस बार हिमाचल प्रदेश के डलहौजी में। पुलिस से भागता फिरता वरुण क्षय रोग से
पीड़ित पाखी के घर में शरण लेता है। अपने अंतिम दिन गिन रही पाखी नफ़रत-प्यार और
भूली-बिसरी बातों के मायाजाल में फंसी रह जाती है। उसके घर के सामने एक पेड़ है। उस
पेड़ की अंतिम पत्ती में वह अपनी ज़िन्दगी की डोर बांधे उस पत्ती के गिरने का इंतज़ार
करती है। यह दृश्य संभवतः अमेरिकी लेखक ओ. हेनरी की कहानी ‘द लास्ट लीफ’ से
प्रेरित लगती है।
अभिनेताओं के चयन में काफ़ी
सूझ-बूझ दर्शाई गई है। इसके पहले ‘बैंड बाजा बारात’ और ‘लेडिज़ वर्सेस रिक्की बहल’
से अपना सिक्का जमा चुके रणवीर न सिर्फ़ लुक में अच्छे लगे हैं, बल्कि उनकी
बॉडी-लैंगुएज से भी उन्होंने अभिनय की छाप छोड़ी है। वरुण प्रेमी भी है, लुटेरा भी।
प्यार के लिए मर-मिटने वाला भी और धोखेबाज़ भी। वरुण के चरित्र की जटिलता को
उन्होंने अपने अभिनय के द्वारा बखूबी प्रस्तुत किया है।
अब तक अन्य मसाला फ़िल्मों
में ग्लैमरस रोल कर चुकीं सोनाक्षी ने इस चुनौतीपूर्ण फ़िल्म के ज़रिए अपनी अभिनय
क्षमता का अद्भुत प्रदर्शन किया है। एक बंगाली बाला को साड़ी पहन कर उन्होंने
जीवन्त कर दिया है तथा अपने नेचुरल एक्टिंग से जीवन के दोनों पक्षों, जब वह प्रेम
रस में डूबी होती हैं तब, और जब प्रेम में छली जाने के बाद में दर्द में डूबी होती
हैं तब, उन्होंने अपने चेहरे की भाव-भंगिमाओं के द्वारा बेमिसाल अभिनय का प्रदर्शन
करते हुए अपने चरित्र को जीवंत कर दिया है। प्रेम और पीड़ा की सघनता को जीती, अवसाद
में डूबी नायिका के रूप में यह उनका अभिनय ही था कि प्रेमिका को नायक द्वारा दिया
गया धोखा एक बार तो दर्शक को खराब लगता है, पर नायक से नफ़रत नहीं होती। नायिका
प्यार में धोखा देने वाले को कोई सज़ा नहीं दिलाना चाहती, ख़ुद को मिटाने की राह पर
चल देती है। उनकी संवाद अदायगी की सरलता, मासूमियत और भोलापन इस फ़िल्म की प्रेम
कहानी को अलग स्तर पर ले जाता है। उनकी यह प्रभावशाली भूमिका उन्हें एक से अधिक
पुरस्कार दिला दे तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। बंगाली ज़मींदार और पाखी के पिता
की भूमिका में बरुण चंदा ने अपने सधे अभिनय का प्रदर्शन किया है। पुलिस अधिकारी की
भूमिका में आदिल हुसैन भी लाजवाब हैं। वरुण के मित्र के रूप में विक्रांत मैसी ने
भी अपनी जबर्दस्त उपस्थिति दर्ज़ कराई है। दिव्या दत्ता ने भी अपनी छोटी सी भूमिका
में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।
तकनीकी पक्ष को देखें तो
फ़िल्म एक पीरियड फ़िल्म है और परिवेश को जीवन्त प्रस्तुत करने के लिए इसके
प्रोडक्शन डिजायनर और कॉट्यूम डिजायनर निश्चित रूप से बधाई के पात्र हैं। लगता है
उन्होंने काफ़ी शोध के बाद 1950 के दशक के
चरित्र और परिवेश को संवारा और निखारा है। संवाद लेखक अनुराग कश्यप के सहज-सरल
शब्दों में संप्रेषित संवादों की बात न की जाए तो उनके प्रति नाइंसाफ़ी होगी। फ़िल्म
के उतार-चढ़ाव और जटिलतम परिस्थितियों को उन्होंने सहज-सरल संवादों से सजाया-संवारा
है। अमित त्रिवेदी और अमिताभ भट्टाचार्य ने भावपूर्ण और परिवेश के अनुकूल संगीत
दिया है। मोनाली ठाकुर का गीत ‘संवार लूं ..’ बेहद लोकप्रिय हो चुका है। मोहन
शेट्टी की सिनेमैटोग्राफी का एंगल और विजन ने फ़िल्म की ख़ूबसूरती को बढ़ाने में
महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उनके कैमरावर्क के कारण यह फ़िल्म एक कविता की तरह
पर्दे पर दिखती है। एडिटिंग से थोड़ी शिकायत तो रह ही जाती है। चुस्त और कुशल
एडिटिंग इस फ़िल्म की गति को बढ़ा सकती जहां चूक तो हो ही गई है।
हालांकि अपनी धीमी गति से
कभी-कभी, खास कर मध्यांतर के बाद फ़िल्म ऊब पैदा करती है, और यह प्रेम कहानी आपके
धैर्य की परीक्षा लेती प्रतीत होती है, लेकिन इसके बावजूद फ़िल्म की कई विशेषताएं
एक बार तो इसे देखने लायक बनाती ही हैं। ज़िन्दगी सरल रेखा नहीं है। आदमी जो सोचता
है वह होता नहीं है। अगर ऐसा होता तो ज़िन्दगी ज़िन्दगी नहीं होती। अनहोनी के धागे
से बुनी गई यह कहानी दर्शक, कहानी सबको प्रश्नवाचक के घेरे में रखती है और इस
सिनेमा की यही खूबसूरती है। इस फ़िल्म में एक कहानी है, जो कहानी प्रेम कहानी है।
इसीलिए आजकल की बिना कहानी की फ़िल्मों से अच्छी और अलग है यह फ़िल्म। इसी तरह के
प्रयोग और दर्शकों का इन प्रयोगों में विश्वास, माड़-धाड़ और तड़क-भड़क से अलग अच्छी,
साफ-सुथरी फ़िल्म के निर्माण में निर्माता-निर्देशकों को प्रेरित करेंगी। निर्देशक
की यह दूसरी ही फ़िल्म है और इस फ़िल्म को देखकर उनसे और भी कई साफ-सुथरी, अच्छी
फ़िल्मों की उम्मीद बंधती है।
लोगों से यह जानकर अच्छा लगा है कि इस फिल्म में निर्देशक ने बाबा नागार्जुन की कविता पढ़वाते हुए नायक नायिक में प्रेम करा दिया है... हालांकि फिल्म को लूटेरा कहना कुछ हज़म नहीं हुआ। अंग्रेजी में तो समझ में आता है कि एकता कपूर को न्यूमेरालॉजी पर कुछ अधिक ही भरोसा है, मगर हिंदी में तो इसे शुद्ध लिखा जाना चाहिए था, यहां तो कोई अंकविज्ञान काम नहीं करता.. वैसे यह फिल्म देखी नहीं है
जवाब देंहटाएंलुटेरा वास्तव में एक अच्छी फिल्म लगी. बहुत दिनों बाद एक सुखद: एह्सास सा हुआ... ठहरा हुआ.
जवाब देंहटाएंअच्छी समीक्षा लिखी आपने.
फिर तो देखनी ही चाहिए...
जवाब देंहटाएंबहुत बढिया समीक्षा दी है आपने आभार
जवाब देंहटाएंइस समीक्षा को पढ़कर लग रहा है कि फिल्म देखनी पड़ेगी . बहुत बढ़िया लिखे हैं सर !
जवाब देंहटाएंसुन्दर समीक्षा, अब लगता है कि देखनी पड़ेगी।
जवाब देंहटाएंबढ़िया समीक्षा की है
जवाब देंहटाएंअब फिल्म देखकर ही बतायेंगे कि, कैसी लगी !
केवल २० मिनिट की संवाद अदायगी में १४० मिनिट का फ़िल्मांकन कुशलता दर्शाता है, हम भी देखते हैं.
जवाब देंहटाएंआभार ,देखने का कोई जुगाड़ करते हैं
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर फिल्म | मुझे तो बेहद पसंद आई |
जवाब देंहटाएंसबसे पहले तो सूनापन दूर करने की बधाई!! पुनरागमन के लिये सुस्वागतम!
जवाब देंहटाएंकल ही मैंने भी यह फिल्म देखी.. आपकी सारी प्रतिक्रया मेरे भी मन की बात व्यक्त करती है.. सोनाक्षी सिन्हा की प्रतिभा का सचमुच खुलकर इस्तेमाल हुआ है.. खासकर जब वो बीमार की भूमिका अदा करती है तो लगता है ज़माने से बीमार है.. आवाज़ से लेकर, चलने फिरने तक में बीमारी की झलक दिखाई देती है.. रणवीर सिंह के संवादों की अदायगी में स्पष्टता नहीं दिखी..
फिल्म के क्रेडिट में इसे ओ. हेनरी की कहानी "आख़िरी पत्ती" पर आधारित बताया गया है.. लेकिन ऐसा लगता नहीं.. ओ. हेनरी master of suspense ending माने जाते हैं.. मगर वैसा कुछ भी यहाँ नहीं देखने को मिला जैसा फिल्म "रेनकोट" में देखने को मिला था...!!
बाकी तो सब आपने मेरे मन की ही बात लिखी है!!
बस इसी प्रकार जारी रखिये लिखना!!
वाह !!! बहुत उम्दा लाजबाब फिल्म की समीक्षा,,,,
जवाब देंहटाएंबहुत दिनों आपकी पोस्ट देखकर अच्छा लगा,आपका स्वागत है
बढ़िया समीक्षा ..... बाकी जब देखेंगे यह पिक्चर तब पता चलेगा :)
जवाब देंहटाएंफिल्म देखनी पड़ेगी।
जवाब देंहटाएंपुरातत्व, नागार्जुन और ओ हेनरी का स्पर्श-मात्र है, नायक-नायिका का चरित्र सहज ग्राह्य नहीं है.
जवाब देंहटाएंमैंने समीक्षा में यह बात कही भी है --
हटाएं"अनहोनी के धागे से बुनी गई यह कहानी दर्शक, कहानी सबको प्रश्नवाचक के घेरे में रखती है और इस सिनेमा की यही खूबसूरती है।"
फिल्म बन रही थी , तबसे ही देखने की इच्छा थी !
जवाब देंहटाएंएकता कपूर का यह कार्य आश्चर्यजनक और संतुष्टिदायक है :)
आपकी कमी खल रही थी . अब अच्छा लग रहा है . रही बात समीक्षा की तो आपका दृष्टिकोण प्रभावित कर रहा है..
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर फिल्म समीक्षा प्रस्तुति हेतु आभार
जवाब देंहटाएंफिल्म अभी तक देखी नहीं ... इच्छा है देखने की और अब आपकी समीक्षा के बाद तो जरूर देखूंगा ...
जवाब देंहटाएंवाह .
जवाब देंहटाएंसुन्दर समीक्षा,
जवाब देंहटाएंसमीक्षा को पढ़कर लग रहा है कि फिल्म देखनी पड़ेगी .
जवाब देंहटाएंयहाँ भी पधारे ,
राज चौहान
क्योंकि सपना है अभी भी
http://rajkumarchuhan.blogspot.in
बढ़िया समीक्षा ...
जवाब देंहटाएंVikrant Rona Full Movie Free Download Watch Online Worldfree4u
जवाब देंहटाएं