मंगलवार, 16 जुलाई 2013

जोहांसबर्ग में टॉल्सटाय फार्म की स्थापना

गांधी और गांधीवाद-151
1909

जोहांसबर्ग में टॉल्सटाय फार्म की स्थापना

लंदन से गंधी जी 1909 के अंत तक वापस आ गए। वहां का उनका राजनीतिक उद्देश्य पूरा नहीं हुआ था। ब्रिटिश सरकार ने दक्षिण अफ़्रीका उपनिवेश की नीति को रोकने में अपनी असमर्थता व्यक्त कर दी थी। दक्षिण अफ़्रिका वापस आने पर एक परीक्षा की घड़ी उनके सामने थी। उन्हें अब लगने लगा था कि धीमे पड़ चुके सत्याग्रह को तेज़ करना होगा। इसके लिए स्वैच्छिक त्याग करने वाले सत्याग्रहियों को उन्हें एकजुट रखना था। सत्याग्रही को बलिदान देने योग्य होने के लिए सादगी, शुद्धि, संयम और अनुशासन अपनाने के लिए संघर्ष करना पड़ता था। इसके साथ ही सत्याग्रही के जेल जाने पर उसके परिवार व आश्रितों की देखभाल का प्रश्न भी महत्वपूर्ण था। हालांकि एक तरफ़ सत्याग्रह आंदोलन पूरे उत्साह और जोश से चल रहा था, वहीं दूसरी तरफ़ जेल, देश-निकाला और भारी-भारी ज़ुर्मानों से सत्याग्रह आंदोलन को सरकार द्वारा कुचलने का भरपूर प्रयास किया जा रहा था। लेकिन जोश हमेशा तो बना नहीं रह सकता था। धीरे-धीरे आंदोलन संकट के दौर में पहुंचा। प्रतिबद्ध सत्याग्रही तो जेल आते-जाते रहे, लेकिन बहुसंख्यक आंदोलनकारी थक गये थे। सरकार का अड़ियल रवैया बरकरार था, अतः आंदोलन लंबा खिंचनेवाला था।

आंदोलन जब लंबा खिंचने लगा तो लोगों का उत्साह धीरे-धीरे कम होने लगा। एक बार तो यह हालत हो गई कि केवल प्रमुख सत्याग्रही ही बचे। तब तक भारतीय समुदाय ने आंदोलन पर लगभग 10,000 पाउंड खर्च कर दिए थे। लेकिन खर्च की भी एक सीमा थी। गांधी जी को हर माह 165 पाउंड की ज़रूरत थी, जिससे वे लंदन और जोहान्सबर्ग में ऑफिस चला पाते, ज़रूरतमंद परिवारों की मदद कर पाते, और ‘इंडियन ओपिनियन’ को चला पाते। लड़ाई लंबे अरसे तक चलानी थी, इसके लिए पैसे की चिंता गांधी जी को तो थी ही। गांधी जी जनसेवा पर ही लगभग पूरा समय और शक्ति लगा रहे थे। इसलिए वकालत के पेशे के लिए उनके पास कम समय ही बचा था और रुचि भी काफ़ी कम ही थी। इसलिए पहले की तरह इस पेशे से हो रही आय को जनसेवा के काम लगा पाने का साधन उनके पास नहीं था। संयोग से केपटाउन में उतरते ही गांधी जी को तार मिला कि सर रतनजी जमशेदजी टाटा ने सत्याग्रह कोष में 25 हज़ार रुपया दिया है। उस समय इतना रुपया काफ़ी था। इस सहायता से गांधी जी का काम चल निकला।

यह तो सही था कि किसी भी धनराशि से सत्याग्रह की आत्मशुद्धि की, आत्मबल की लड़ाई नहीं चल सकती थी। इस आंदोलन के लिए चारित्र्य की पूंजी ही सबसे बड़ी पूंजी थी। एक तरफ़ तो यह हाथी और चींटी की लड़ाई थी, वहीं दूसरी तरफ़ कितनी देर चलेगी कोई कह नहीं सकता था। एक तरफ़ जनरल बोथा और जनरल स्मट्स ने एक इंच भी न हटने की प्रतिज्ञा ले रखी थी तो दूसरी तरफ़ सत्याग्रहियों ने भी मरते दम तक जूझने की क़सम उठा रखी थी। सत्याग्रहियों के लिए समय सीमा कोई मानी नहीं रख रहा था, एक वर्ष लगे या अनेक वर्ष! उनके लिये लड़ाई ज़ारी रखना ही प्रमुख बात थी। लड़ाई का मतलब था जेल जाना, देशनिकाला होना, सरकारी दमन का बढ़ना। प्रवासी भारतीयों पर सरकारी दमन का असर होने लगा। कई व्यापारियों को भारी नुकसान उठाना पड़ा। कई लोग आजीविकाविहीन हो गये। आजीविका के बिना सत्याग्रही उद्विग्न होते जा रहे थे। भूखों रहकर और अपनों को भूखों मारकर भी लड़ाई में जुटे रहने वालों की संख्या कम होती गई। कई आंदोलन से अलग हो गए। जेल जाने वाले सत्याग्रहियों की संख्या कम होती गई। थोड़े से चुने हुए पक्के लोग ही गिरफ़्तार हो रहे थे। जेल गए सत्याग्रहियों के परिवार के सदस्य काफ़ी मुसीबत में थे। गांधी जी को अच्छा नहीं लगता था कि जेल जाने वाले सत्याग्रहियों को अपने परिवार की सुरक्षा के बारे में इस प्रकार से चिंतित होना पड़े। कौम की ख़ातिर वे नौकरी, धंधा, आमदनी, सबकुछ छोड़कर जेल गए थे। उनके बाल-बच्चे, बूढ़े, मां-बाप आदि बड़ी कठिनाई में थे। गांधी जी को लगता था कि कौम का फ़र्ज़ है कि वे इन बेसहारा परिवारों की परवरिश करें।

सत्याग्रह-मंडल ऐसे सत्याग्रहियों के परिवार के भरण-पोषण के लिए हर महीने पैसे देता था। लेकिन अब सत्याग्रहियों के परिवारों के भरण-पोषण के लिए इकट्ठा किया गया कोष धीरे-धीरे खाली होता जा रहा था। गांधी जी की वकालत तो लगभग बंद-सी ही थी। जो कुछ भी उनकी जमा-पूंजी थी, वह भी सत्याग्रह की भेंट चढ़ चुकी थी। इंडियन ओपिनियन’ को चलाने के लिए भी पैसों की ज़रूरत थी। खर्च को काफ़ी हद तक कम किए बिना सत्याग्रह की लड़ाई को लंबे समय तक चला पाना लगभग असंभव था। गांधी जी को लगा कि यह मुश्किल एक ही तरह से हल हो सकती है कि सारे कुटुंबों को एक जगह रखा जाए और सब साथ रहकर काम करें। इसलिए गांधी जी ने सत्याग्रही क़ैदियों के परिवारों को किसी सहकारी खेत पर बसाने का निश्चय किया। लेकिन गांधी जी के सामने सबसे बड़ा प्रश्न था कि सत्याग्रहियों के परिवार के सौ दो सौ लोगों को कहां रखा जाए। ऐसी जगह कहां मिलेगी? शहर में इतना लंबा-चौड़ा स्थान मिल भी नहीं सकता था जहां बहुत से परिवार घर बैठे कोई उपयोगी धंधा कर सकें। यह तो स्पष्ट था कि उन्हें ऐसा स्थान पसंद करना था जो शहर से न बहुत दूर हो और न बहुत नजदीक। गांधी जी से जुड़े अधिकांश सत्याग्रही ट्रांसवाल में बसे हुए थे। आश्रम की स्थापना फिनिक्स में हुई थी। ‘इंडियन ओपीनियन’ वहां छपता था। थोड़ी खेती भी वहां होती थी। और भी कई सुविधाएं वहां थीं। पर यह स्थान ट्रांसवाल से चार सौ मील दूर था। आन्दोलन का केन्द्र जोहान्सबर्ग था और फीनिक्स वहां से इतनी दूर था कि रेल द्वारा वहां जाने में पूरे तीस घंटे लगते थे। इतनी दूर कुटुंबों को लाना बहुत ही टेढ़ा और महंगा काम था। ट्रांसवाल के लोगों की व्यवस्था स्थानीय तौर पर ही करना उन्हें श्रेयस्कर लगा। गांधी जी ने निश्चय किया कि एक आश्रम ट्रांसवाल में भी स्थापित किया जाए जहां सत्याग्रहियों को उनके परिवार के साथ बसाया जाए। कई सत्याग्रही जेल में थे। उनके बच्चे अनाथ हो गए थे। यदि आश्रम बन जाता तो इन बेसहारा परिवारों को एक सहारा मिल जाता।

हरमन कालेनबे
लेकिन नया आश्रम बनाना आसान काम नहीं था। गांधी जी के पास इतना धन नहीं था। इस विषय पर उन्होंने अपने मित्र हरमन कालेनबाख से चर्चा की। उन्होंने मदद का आश्वासन दिया। गांधी जी के जर्मन शिल्पकार मित्र हरमन कालेनबाख ने उनकी इस परियोजना को मूर्त रूप देने के लिए जोहान्सबर्ग से 21 मील दूर लॉले स्टेशन के पास जंगल में 1100 एकड़ सस्ती जमीन खरीदी और 30 मई 1910 को सत्याग्रहियों को बिना किसी भाड़े लगान के काम में लाने का अधिकार दे दिया। यहां की ज़मीन उबड़-खाबड़ थी। संतरों, खुबानी और आलू-बुखारों के पेड़ों वाले इस एक हज़ार एकड़ ज़मीन में लगभग एक हज़ार फलवाले पेड़ थे। सिंचाई की भी यहां अच्छी व्यवस्था थी। पानी के लिए एक झरना और दो कुंए थे। जहां रहना था उस जगह से वह झरना कोई 500 गज दूर था। इसलिए पानी कांवर पर भरकर लाने की मेहनत तो थी ही। पहाड़ी की तलहटी में पांच-सात आदमियों के रहने लायक़ एक छोटा-सा मकान भी बना हुआ था। रेलवे स्टेशन लॉले क़रीब एक मील पर था और जोहान्सबर्ग 21 मील पर।
टॉल्सटॉय फार्म की ज़मीन

गांधी जी ने इस जगह पर रूस के संत के नाम पर “टालस्टाय फार्म” के नाम से एक छोटी-सी बस्ती बसाई। गांधी जी की टॉलस्टॉय के प्रति परम श्रद्धा थी। उनके साथ गांधी जी की जीवन के मूल्य और आदर्शों के बारे में पत्र-व्यवहार होता रहता था। टॉल्सटॉय भी श्रमजीवन में विश्वास रखते थे। रूस के एक गांव में रहकर वे आजीवन शरीर-श्रम करते रहे। इन विचारों से प्रभावित होकर 4 जून, 1910 को अपने परिवार के साथ गांधी जी वहां रहने चले गए। कालेनबेक भी साथ में थे। जब सत्याग्रही जेल में नहीं होता, तो यहां रह सकता था, जब वह जेल में होता तो उसका परिवार यहां रह सकता था। वहां सारा काम स्वावलंबन से होता था।

आश्रम का जीवन
चालीस वर्ष के भरे यौवन में गांधी जी ने टॉल्सटॉय फार्म की स्थापना की थी। अब गांधी जी के पास दो सामुदायिक बस्तियां थीं। फीनिक्स बस्ती से ‘इंडियन ओपिनियन’ प्रकाशित होता था और वहां उनकी पत्नी और बच्चे रहते थे। फीनिक्स बस्ती की तरह ही टॉल्सटॉय फार्म भी एक सहकारी बस्ती थी। यहां का जीवन गांधी जी के लिए सबसे फलदायक और सुखकर दिन थे। यहीं गांधी जी के कई विचार पल्लवित और पुष्पित हुए।  उन्होंने सफल-समृद्ध बैरिस्टरी को हमेशा के लिए छोड़ दिया था और परिवार सहित यहां चले आए थे। इस जंगल जैसी जगह में संन्यासी ब्रह्मचारी का जीवन जीने लगे थे। इस जंगल में न कोई मकान था, न ही कोई व्यवस्था। उन्हें कठिनाइयों में ही सुख मिलता था। जिसे लोग आत्मनिषेध कहते हैं, उसे वे आत्मपरिपूर्णता मानते थे। अपने हृदय की प्रसन्नता के लिए वे एक किसान और मज़दूर की तरह अपने हाथों से काम करते थे। इस स्थान में उनका यह आग्रह था कि घर का कोई काम नौकर से न लिया जाए और खेती-बारी का काम भी जितना अपने हाथों से हो सकता है किया जाए।

सांपों के बीच
यहां वे सांपों के बीच रहे और उनको इस बात की तसल्ली थी कि एक सांप भी उन्होंने नहीं मारा। रहने वालों के लिए सांपों का खतरा हमेशा बना रहता था। कालेनबेक ने सांपों पर जितना संभव हो सका उतनी पुस्तकें इकट्ठी की। इन पुस्तकों के अध्ययन के आधार पर उसने रहने वालों को विषैले और विषहीन सापों में अन्तर को समझाया। विषैले सांपों के उपद्रव और जान के नुकसान का भय तो बना रहता ही था। कालेनबेक ने इस विषय पर गांधी जी से बात भी की। गांधी जी की अहिंसा में अटूट श्रद्धा थी। लेकिन किसी आश्रम निवासी की जान की क़ीमत पर नहीं। एक दिन कालेनबेक के कमरे में एक सांप घुस आया। वह विषैला था। वह ऐसी स्थिति में थे कि न तो उसे भगा सकते थे, न ही खुद भाग सकते थे। एक लड़के ने गांधी जी को इस स्थिति की सूचना दी और उसे मारने की अनुमति मांगी। गांधी जी ने उसे ऐसा करने की इज़ाजत दे दी।

एक छोटी-सी बस्ती खड़ी की
टॉल्सटॉय फार्म
आर्किटेक्ट के रूप में कालेनबैक थे ही, एक यूरोपीयन राज मिस्त्री को भी वे अपने साथ ले आए। एक गुजराती बढ़ई नारायणदास दमानिया ने निःशुल्क सेवा प्रदान की। दूसरे बढ़ई भी थोड़े पैसे में बुला लिए गए थे। बढ़ई का आधा काम तो बिहारी नाम के एक सत्याग्रही ने किया। दो महीने से कम के समय में गांधी जी और कालेनबाख ने कुछ मज़दूरों की मदद से टीन-चद्दरों की एक छोटी-सी बस्ती खड़ी की। अपने चचेरे भाई को उन्होंने लिखा था, “जिन मज़दूरों के साथ आजकल मैं काम कर रहा हूं, उन्हें मैं अपने से बेहतर इंसान मानता हूं।” सफ़ाई का काम, शहर जाना, और वहां से सामान लाने का काम थंबी नायडू के जिम्मे था। मकान लगभग दो महीनों में बने। जब तक मकान बन रहे थे, लोगों को तंबुओं में सोना पड़ा। मकान लोहे की सफ़ेद चादरों के थे। इस तरह उन्होंने सत्याग्रहियों के परिवार के पुनर्वास की समस्या सुलझाई और उनकी रोजी रोटी का इंतजाम किया। बाद में यही फार्म गांधी आश्रम बना। यहां स्त्री और पुरुष अलग-अलग रखे गए थे। 10 स्त्रियां और 60 पुरुषों के रहने लायक मकान तुरंत बना लिए गए। एक मकान कालेनबैक के रहने के लिए बनाया गया।

इस आश्रम में लोग सादा सामुदायिक जीवन व्यतीत करते थे। बस्ती पूरी तरह आत्म-निर्भर थी। इस भूमि पर एक झरना था। वहां से कांवड़ों में भरकर पानी लाया जाता था। एक लोटा भी पानी लाना हो तो भी आने-जाने में आधा घंटा लग जाता था। लेकिन उन आश्रमवासियों और गांधी जी का उत्साह गजब का था। वहां एक सहकारी फार्म चला कर सत्याग्रह संग्राम में उनके सहयोगी तथा परिवार के लोग बहुत थोड़े में और बड़ी कठिनाई से अपनी गुजर-बसर करते थे। सच पूछा जाए तो वहां उनका जीवन जेल से भी कठोर था। गांधी जी का आग्रह था कि घर का कोई काम नौकर से न लिया जाए। खेती-बारी और घर बनाने का काम अपने हाथों से किया जाता था। पाखाना साफ़ करने से लेकर खाना पकाने तक का सारा काम सभी अपने हाथों से ही करते थे। उस समय का वर्णन करते हुए गांधीजी ने बाद में कहा थाः हम सभी मजदूर बन गए थे। हमारा पहनावा भी मजदूरों का था, पर यूरोपीय ढंग का यानी मजदूरों के पहनने के पतलून और कमीज, जो कैदियों द्वारा पहने जाने वाले कपड़े की तरह के थे।गांधी जी लिखते हैं – ‘टॉल्स्टॉय फार्म में निर्बल सबल हो गए और मेहनत सबके लिए शक्ति-वर्धक साबित हुई।’39

जिन्हें अपने निजी काम से जोहान्सबर्ग जाना होता था, वे पैदल इक्कीस मील आते-जाते। रात के दो बजे चलना आरंभ होता, तो सुबह सात बजे के पहले पैदल चलने वाले जोहान्सबर्ग पहुंच जाते। यद्यपि गांधीजी चालीस साल से अधिक उम्र के थे और सिर्फ फल खाते थे लेकिन एक दिन में चालीस मील चलना उनके लिए बड़ी बात न थी। एक बार तो उन्होंने दिन भर में 55 मील की यात्रा की थी फिर भी पस्त नहीं हुए। टालस्टाय फार्म के सभी निवासियों तथा उनके बच्चों के लिए शारीरिक श्रम अनिवार्य था। इतने कठोर अनुशासन में रहने वालों को जेल का भय ही क्या हो सकता था?

इस आश्रम में गुजरात, मद्रास, आंध्र और उत्तर भारतीय लोग रहते थे। इसमें हिंदू, मुसलमान, पारसी और ईसाई धर्म के मानने वाले लोग रहते थे। 40 युवक, तीन बूढ़े, पांच स्त्रियां, और 30 बच्चे थे, जिनमें पांच लड़कियां थीं। निरामिष आहार होता था। रसोई का काम महिलाएं किया करती थीं। उनकी मदद के लिए एक-दो पुरुष भी होते थे। उनमें से एक गांधी जी ख़ुद थे। रसोई जितनी हो सके सादी होती थी। भोजन में चावल, दाल, तरकारी, रोटी और कभी-कभी खीर होना सामान्य नियम था। ये सारी चीज़ें एक ही बरतन में परोसी जातीं। बरतन  में थाली की जगह तसली जैसी बरतन का प्रयोग होता और लकड़ी के चमचे अपने हाथ से बना लिए गए थे। खाना तीन वक़्त दिया जाता। सबेरे छह बजे रोटी और गेंहूं का कहवा, ग्यारह बजे दाल-भात और तरकारी और शाम के साढ़े पांच बजे गेहूं की लपसी और दूध या रोटी और गेहूं का कहवा। सबको एक ही पांत में भोजन करना होता था। सबको अपने-अपने बरतन मांज कर साफ़ करना होता था। रात के 9 बजे सबको सो जाना होता। शाम के भोजन के बाद सात-साढ़े सात बजे प्रार्थना होती। प्रार्थना में भजन गाए जाते और कभी रामायण से तो कभी इसलाम के धर्मग्रंथों से कुछ पढ़ा जाता। भजन अंग्रेज़ी, हिंदी और गुजराती में होते।

गांधी जी इस फार्म पर दो वर्ष ही रहे, लेकिन इतने कम समय में ही उन्होंने इसका भव्य विकास कर दिया। सख्त भूमि को खोदकर उसमें फलों के वृक्ष लगाए गए। साग, सब्जी, फूल आदि बोए गए। एक ही रसोई थी, जिसमें सभी लोगों के लिए भोजन बनता था। पाखाना अदि की साफ़-सफ़ाई वे अपने हाथ से ही करते थे। कई महीने बाद वहां पवन चक्की लगाई गई। अब उन्हें कांवड़ में पानी लाने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी।
टॉल्सटॉय फार्म जाने का रास्ता

इस आश्रम में इतने आदमी इकट्ठे रहते थे, फिर भी किसी को कहीं कूड़ा, मैला या जूठन पड़ी दिखाई नहीं देती थी। एक गड्ढ़ा खोद रखा गया था, उसी में सारा कूड़ा डालकर ऊपर से मिट्टी डाल दी जाती। पानी कोई रास्ते में न गिराता। सब बरतनों में इकट्ठा किया जाता और उसे पेड़ों को सींचने के काम में खर्च किया जाता। जूठन और साग-तरकारी के छिलकों की खाद बनती। पाखाने के लिए रहने के मकान के पास एक चौरस डेढ़ फुट गहरा गड्ढ़ा खोदा गया था। उसी में सारा पाखाना डाल दिया जाता और ऊपर से खोदी हुई मिट्टी को भी डालकर पाट दिया जाता। इससे ज़रा भी दुर्गन्ध नहीं आती। मक्खियां भी वहां नहीं भिनभिनातीं। इसके साथ ही फार्म को खाद भी मिलता। गांधी जी का कहना है, “हम मैले का सदुपयोग करें तो लाखों रुपये की खाद बचाएं और अनेक रोगों से भी बचें। पाखाने के बारे में अपनी बुरी आदत के कारण हम पवित्र नदी के किनारे को भ्रष्ट करते हैं, मक्खियों की उत्पत्ति करते हैं और नहा-धोकर साफ-सुथरे होने के बाद, जो मक्खियां हमारी बेहूदी लापरवाही से खुले हुए विष्टा पर बैठ चुकी हैं, उन्हें अपने शरीर का स्पर्श करने देते हैं। एक छोटी सी कुदाली हमें बहुत सी गंदगी से बचा सकती है। चलने के रास्ते पर मैला फेंकना, थूकना, नाक साफ करना ईश्वर और मनुष्य दोनों के प्रति पाप है। इसमें दया का अभाव है। जंगल में रहनेवाला भी अगर अपने मैले को मिट्टी में दबा नहीं देता तो वह दंड के योग्य है।”39

एक कारखाना
गांधी जी चाहते थे कि सत्याग्रही के परिवर के सदस्य स्वालंबी बने। इस हेतु बढ़ई के काम, मोची के काम इत्यादि के लिए एक कारखाना भी तैयार किया गया। कालेनबाख की देखरेख में वह कारखाना चलता था। इस कारखाने में ज़रूरत कई चीज़ें बनती थीं। कालेनबाख ने दक्षिण अफ़्रीका के पाइनटाउन के पास मेरियन हिल में चल रहे रोमन कैथेलिक पादरियों के ट्रेपिस्ट नामक मठ में चप्पल बनाने का काम सीखा था। यह काम उन्होंने गांधी जी और फार्म के अन्य निवासियों को सिखाया। वे सब चप्पल बनाना सीख गये और मित्र मंडलियों में बेचने भी लगे। जिन्होंने बढ़ई का धंधा सीखा था, वे बक्से और संदूक आदि बनाते।

पहनावा
हरेक व्यक्ति को दो कंबल और एक तकिया दिया गया था। सभी बाहर के बरामदे मे जमीन पर सोते थे। दक्षिण अफ़्रीका के शहरों में आम तौर पर पुरुषवर्ग का पहनावा यूरोपियन ढंग का ही होता था। सत्याग्रहियों का भी था। फार्म पर उन्हें ऐसे कपड़ों की ज़रूरत नहीं थी। सभी मज़दूर बन गए थे। वे मज़दूरों का पहनावा रखते थे, पर यूरोपियन ढंग के मज़दूरों का। यानी मज़दूरों के पहनने का पतलून और उसी तरह की कमीज। मोटे आसमानी रंग के कपड़े का सस्ता पतलून और कमीज सभी पहनते।

बुनियादी शिक्षा
फार्म के बच्चे को पढ़ाने के लिए एक स्कूल भी खोला गया। यहां मस्तिष्क नहीं बल्कि हृदय द्वारा, अक्षरों नहीं बल्कि शारीरिक श्रम के द्वारा शिक्षा देने का पहला प्रयोग किया गया। बुनियादी शिक्षा की प्रणाली को गांधी जी ने यहां बड़े मेहनत से विकसित किया। गांधी जी के तीन लड़के यहां के छात्र थे। योग्य हिन्दुस्तानी शिक्षक की कमी थी। अगर मिल भी जाए तो तनख़्वाह के बिना डरबन से इक्कीस मील दूर कौन आता? इसलिए गांधी जी ख़ुद ही वहां के बच्चों को पढ़ाते थे। वे हफ़्ते में पांच दिन, (सोमवार और गुरुवार को छोड़ कर, उन दिनों वे कालेनबेक के साथ शहर जाते) दिन में तीन घंटे, हिंदी, गुजराती, इंगलिश और तमिल भाषाएं सिखाते थे। इस काम में उन्होंने केलनबैक और प्रागजी देसाई की सहायता ली। वे मस्तिष्क की अपेक्षा हृदय और चरित्र की शिक्षा पर अधिक ज़ोर देते थे। छात्रों के पाठ्यक्रम में शारीरिक श्रम को भी डाल दिया गया था। बच्चे गड्ढ़े खोदते, पेड काटते, बोझा ढोते और बढ़ईगिरी तथा मोची का काम सीखते। टॉलस्टॉय फार्म के उत्तरदायित्वों ने गांधी जी में आत्म-निग्रह और संयम में काफ़ी वृद्धि की। स्कूल में सह-शिक्षा दी जाती और गांधी जी एक मां की तरह बच्चों पर नज़र रखते थे।

आश्रम में नौकर तो थे नहीं। पाखाना-सफ़ाई से लेकर रसोई बनाने तक के सारे काम आश्रमवासियों को ही करने होते थे। केलनबैक को खेती का बहुत शौक था। जो रसोई के काम में न लगे थे, वे कलेनबैक के साथ बगीचे का काम करते। आश्रम में यह रिवाज़ था कि जो काम शिक्षक न कर सकें वह बालकों से न कराया जाए। और बालक जिस काम में हों, उसमें उनके साथ उसी काम को करने वाला एक शिक्षक हमेशा रहे। इसलिए बालकों ने जो भी सीखा, उमंग के साथ सीखा।

वहां सभी धर्म की शिक्षा दी जाती थी। इससे बालकों में कभी असहिष्णुता नहीं आई। एक-दूसरे के धर्म और रीति-रिवाज के प्रति उन्होंने उदार-भाव रखना सीखा। सगे भाइओं की तरह हिल-मिलकर रहना सीखा। एक-दूसरे की सेवा करना सीखा। सभ्यता सीखी।

इस फर्म में सहशिक्षा का प्रयोग किया गया था। लड़के-लड़कियों को मर्यादा धर्म के विषय में खूब समझया जाता था। गांधी जी बच्चों को मां की तरह प्यार करते थे। सभी एक खुले बरामदे में सोते। लड़के-लड़कियां गांधी जी के आस-पास सोते। दो बिस्तरों के बीच तीन फुट का अंतर होता। सभी बच्चे पास के झरने में एक साथ नहाने जाते। एक दिन किसी लड़के ने गांधी जी को खबर दी कि एक युवक ने दो लड़कियों के साथ छेड़खानी की है। गांधी जी ने जांच की। बात सच निकली। उन्होंने युवकों को समझाया। पर यह उन्हें नाकाफ़ी लगा। वे दोनों लड़कियों के शरीर पर कुछ ऐसा चिह्न चाहते थे जिससे हरएक युवक यह समझ सके और जान ले कि इन बालाओं पर कुदृष्टि डाली ही नहीं जा सकती। दूसरे दिन सुबह-सुबह उन्होंने दोनों लड़कियों को बुलाया और उन्हें बाल उतार देने की विनती की। उनके बाल उतार दिए गए। इससे “सामने वाले की आंखों को न तो सुंदरता देखने को मिलेगी न उनके मन में पाप आएगा।” परिणाम अच्छा रहा। फिर से उन्हें यह छेड़खानी वाली बात नहीं सुनाई दी। गांधी जी का कहना था कि ऐसे प्रयोग अनुकरण के लिए नहीं किए गए बल्कि सत्याग्रह की लड़ाई की विशुद्धता बताने के लिए किए गए। इस विशुद्धता में ही उसकी विजय की जड़ थी। ऐसे प्रयोग के पीछे कठिन तपश्चर्या का बल होना चाहिए।

आश्रमवासियों ने रोज़ा रखा
टॉल्सटॉय फार्म में गांधी जी अपने सहयोगियों के साथ
इसी प्रयोग में उन्होंने अपने तीनों बेटे मणिलाल, रामदास और देवदास को भी फिनिक्स के बसे-बसाए घर से निकालकर अपने पास टॉल्सटॉय फार्म पर बुलवा लिया। टॉल्सटॉय फार्म जेल जाने वाले सत्याग्रहियों के परिवारों का आश्रय-स्थल बना। इस फार्म में 7 से लेकर 20 साल तक के बच्चे और युवक थे। जेल में बंद सत्याग्रहियों के इन बच्चों को गांधी जी अनौपचारिक रूप से शिक्षित करना चाहते थे। यहां एक तरण ताल भी था। उसमें बच्चे स्नान करते थे। इस फार्म में हिंदू, मुसलमान, पारसी, ईसाई सभी धर्मों के बच्चे थे। गांधी जी विशेष ध्यान देते कि प्रत्येक बच्चा अपने धर्म का पालन करे और उसका अपने-अपने धर्मग्रंथ से परिचय हो। मुसलमान के बच्चे को क़ुरआन की शिक्षा दी जाती तो ईसाई के बच्चे को बाइबिल की। रमजान के महीने में मुसलमान बच्चों ने रोज़ा रखा। उन लोगों को इतना कठिन उपवास सहन हो और अकेलापन महसूस न हो, इसलिए कालेनबाख और गांधी जी भी उन लोगों के समान दिन-भर का निर्जला व्रत रखते। इस प्रकार वहां सद्भाव और प्रीति का विकास हुआ। वहां के सभी लोगों ने स्वेच्छा से शाकाहारी आहार अपना लिया था।

इस आश्रम में हिन्दू, मुसलमान, पारसी और इसाई धर्म के लोग मिलजुलकर एक परिवार की तरह रहते थे। इस फार्म में सथाग्रहियों का आना-जाना लगा रहता था। सत्याग्रह के अंतिम युद्ध के लिए यह फार्म आध्यात्मिक शुद्धि का और तपश्चर्या का स्थान सिद्ध हुआ। यहां की दिनचर्या शरीर, मन एवं चेतना को प्रशिक्षित करती थी। आहार, पोषाक, स्वच्छता, बच्चों की शिक्षा जैसे सभी विषयों पर गांधी जी विशेष ध्यान देते थे।

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21 टिप्‍पणियां:

  1. जी आदरणीय-
    सुन्दर प्रस्तुति-

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  2. बहुत ही बेहतरीन जानकारी मिली, इस विषय में इतने विस्तार से पहले ही बार पता चला.

    रामराम.

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  3. नाम : मनोज कुमार, जन्म 1962, ग्राम – रेवाड़ी, ज़िला – समस्तीपुर, बिहार

    मनोज जी, आपका प्रोफ़ाइल आज ध्यान से पढा तो रेवाडी नाम पढकर चौंके, कारण कि हमारा भी ग्राम रेवाडी है पर वो हरियाणा में है.:)

    बहुत शुभकामनाएं.

    रामराम.

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  4. ज्ञानवर्धक... प्रेरक... आभार

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  5. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन कर का मनका डाल कर ... मन का मनका फेर - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  6. बहुत बढ़िया पोस्ट...
    ढेर सारी जानकारी साझा करने का शुक्रिया मनोज जी.

    सादर
    अनु

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  7. बहुत उम्दा,प्रेरक प्रस्तुति साझा करने का बहुत२ शुक्रिया मनोज जी.,,

    RECENT POST : अभी भी आशा है,

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  8. शुभप्रभात
    सशक्त पोस्ट
    इस विषय में इतने विस्तार से पहली बार पता चला.

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  9. गांधीजी ने श्रम को पूजा मानने वाली पीढ़ी इस देश को सौंपी जिसने जनता को आत्मबल दृढ करने में मदद की . वे अधिकारों की मांग करते थे मगर कर्तव्यों की पूर्ती करते हुए!
    गांधीजी से सम्बंधित इन उपदेशात्मक जानकारियों का बहुत आभार !

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  10. गाँधी जी पर आपका किया कार्य संग्रहनीय है मनोज भाई ,
    बधाई !

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  11. इतने जीवट से गांधी जी ... कठिनाइयों से बिना डरे .. बिना शिकायत के ...
    बहुत विस्तार से लिखा है आपने ... प्रभावी आलेख ...

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  12. आदरनीय भाई साब ..काफी दिनों बाद आज मैं आपके ब्लॉग पर आ सका ..बहुत ही ज्ञानवर्धक जानकारी मिली ..सादर प्रणाम के साथ

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  13. जीवन जीने के महाप्रयोग...तथ्यों का सुन्दर विवरण

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  14. बापू ऐसे ही जीवन दर्शन के लिए जाने जाते है और थे सारगर्भित लेख आभार

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  15. बहुत प्रसन्नता हुई कि आपने बापू के विषय में इतना कुछ लिख दिया छोटे से आलेख में । दक्षिण-अफ्रीका उनकी पहली कर्म-भूमि है । टालस्टाय आश्रम और फिनिक्स आश्रम उनके सम्पूर्ण जीवन-दर्शन के प्रतीक हैं ।

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  16. वाह... उम्दा, बेहतरीन अभिव्यक्ति..सुन्दर आलेख के लिए बधाई..

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  17. सुन्दर ज्ञानवर्धक जानकारी ....आभार

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  18. गांधी जी के विषय में आपके लेख बहुत अच्छी जानकारी देते हैं .... आभार

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