बापू - 30 जनवरी को महाप्रयाण : अन्तिम शब्द – ‘हे राम!’
1948 का साल कोई बहुत ताजगी भरी शुरुआत लेकर नहीं आया था। मंगलवार 13 जनवरी 1948 को दिन के ग्यारह बजकर पचपन मिनट पर गांधी जी ने बिना किसी को सूचित किए अपने जीवन का अंतिम उपवास शुरु किया। 11 बजकर 55 मिनट पर गांधीजी के जीवन का अंतिम उपवास शुरु हुआ। उस दिन प्रर्थना सभा में उन्होंने घोषणा की थी कि अपना आमरण अनशन वे तब तक जारी रखेंगे जब तक दंगा ग्रसित दिल्ली में अल्प संख्यकों पर हो रहे अत्याचार और नरसंहार बंद नहीं होता। इसके संबंध में उन्होंने मीरा बहन को लिखा था : “मेरा सब से बड़ा उपवास”।
18 जनवरी को 12 बजकर 45 मिनट पर सभी सात समुदायों के लिखित आश्वासन पर कि `वे न सिर्फ दिल्ली में बल्कि पूरे देश में साम्प्रदायिक सौहार्द्र का वातावरण पुनः स्थापित करेंगे’, 78 वर्ष की उम्र के गांधीजी ने 121 घंटे 30 मिनट का उपवास गर्म पानी एवं सोडा वाटर ग्रहण कर भंग किया। दिल्ली में विभिन्न दलों और पार्टियों के प्रतिनिधियों ने गांधीजी की उपस्थिति में एक प्रतिज्ञापत्र पर हस्ताक्षर किये जिसमें उन्होंने दिल्ली में शांति बनाये रखने का जिम्मा लिया। उस समय की स्थिति से क्षुब्ध गांधीजी ने राजाजी को पत्र लिखकर अपनी मनः स्थिति इन शब्दों में प्रकट की थी –
“अब मेरे इर्द-गिर्द शांति नहीं रही, अब तो आंधियां ही आंधियां हैं।”
इस उपवास के बाद सांप्रदायिक उपद्रवों का जोर बराबर घटता गया। गांधीजी ने भविष्य की योजनाओं की ओर अपना ध्यान लगाया। राजनैतिक स्वाधीनता के बाद गांधीजी का ध्यान रचनात्मक कार्य़ों की ओर अधिक आकर्षित होने लगा। लेकिन रचनात्मक कार्य़ों को पुनः हाथ में लेना मानो बदा ही न था। 20 जनवरी को झंझावात के चक्र ने अपना पहला रूप दिखाया जब बिड़ला भवन की प्रार्थना सभा में गांधीजी बोल रहे थे तो पास के बगीचे की झाड़ियों से एक हस्त निर्मित बम फेंका गया। वे बाल-बाल बच गये। वह तो अच्छा हुआ कि बम अपना निशाना चूक गया, वरना देश को अपूरनीय क्षति 10 दिन पहले ही हो गयी होती। उन्होंने बम विस्फोट पर ध्यान न देकर अपना भाषण जारी रखा। उसी शाम की सभा में अपने श्रोताओं को संबोधित करते हुए गांधीजी ने निवेदन किया कि बम फेंकने वाले के प्रति नफ़रत का रवैया अख़्तियार न किया जाए। बम फेंकने वाले को उन्होंने “पथभ्रष्ट युवक” कहा और पुलिस से आग्रह किया कि उसे “सतायें” नहीं, किंतु प्रेम और धीरज से समझा कर सही मार्ग पर लायें। मदन लाल नाम का यह “पथभ्रष्ट युवक” पश्चिम पंजाब का शरणार्थी था और गांधीजी की हत्या के षड़यंत्रकारी दल का सदस्य था। दूसरे दिन जब उन्हें विस्फोट के समय जरा भी न घबराने के लिए बधाइयां दी गई तो उन्होंने कहा : “सच्ची बधाई के योग्य तो मैं तब होऊंगा जब विस्फोट का शिकार होकर भी मैं मुस्कराता रहूं और हमला करने वाले के प्रति मेरे मन में जरा भी विद्वेष न हो।”
24 जनवरी को अपने एक मित्र को लिखे पत्र में अपनी इच्छा व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा था कि वे तो राम के सेवक हैं। उनकी जब-तक इच्छा होगी वे अपने सभी काम सत्य, अहिंसा और ब्रह्मचर्य की राह पर चलते हुए निभाते रहेंगे। उनके सत्य की राह के, ईश्वर ही साक्षी हैं।
29 जनवरी 1948 को गांधीजी ने अपनी पौत्री मनु से कहा था,
“यदि किसी ने मुझ पर गोली चला दी और मैंने उसे अपने सीने पर झेलते हुए राम का नाम लिया तो मुझे सच्चा महात्मा मानना।”
प्रर्थना सभा में भी उन्होंने कहा था कि यदि कोई उनकी हत्या करता है, तो उनके दिल में हत्यारे के विरुद्ध कोई दुर्भावना नहीं होगी और जब उनके प्राण निकलेंगे तो उनके होठों पर राम नाम ही हो यही उनकी कामना है। और 30 जनवरी को जब वह काल की घड़ी आई तो बिलकुल वैसा ही हुआ जिसकी उन्होंने इच्छा की थी।
शुक्रवार 30 जनवरी 1948 की शाम 5 बजकर 17 मिनट का समय था। अपनी पौत्री मनु के कंधों का सहारा लेकर प्रार्थना सभा की ओर बढ़ रहे थे। दूसरी तरफ गांधीजी का सहारा बना हुई थी आभा। लोगों का अभिवादन स्वीकार करते हुए गांधीजी धीरे-धीरे सभा स्थल की ओर बढ़ रहे थे। तभी अचानक भीड़ को चीर कर एक व्यक्ति गांधीजी की ओर झुका। ऐसा लगा मानो वह उनके चरण छूना चाहता हो। मनु ने उसे पीछे हटने को कहा क्योंकि गांधीजी पहले ही काफी लेट हो चुके थे। गांधीजी समय के बड़े पाबंद रहते थे पर उस शाम नेहरुजी ओर पटेलजी के बीच उभर आए किसी मतभेद को सुलझाने के प्रयास में उन्हें 10 मिनट की देरी हो गयी थी। मनु ने उसके हाथ को पीछे की ओर करते हुए उसे हटने को कहा। उस व्यक्ति ने मनु को ज़ोर से धकेल दिया। मनु के हाथ से नोटबुक, थूकदान और माला गिर गई। ज्योंही मनु इन बिखरी हुई चीज़ों को उठाने के लिए झुकी वह व्यक्ति गांधीजी के सामने खड़ा हो गया और उसने एक के बाद एक, तीन गोलियां उनके सीने में उतार दीं। गांधीजी के मुंह से “हे राम ! ... ” निकला। उनके सफेद वस्त्र पर लाल रंग दिखने लगा। लोगों का अभिवादन स्वीकार करने हेतु उठे उनके हाथ धीरे-धीरे झुक गए। उनकी दुबली काया ज़मीन पर टिक गई।
चारों तरफ अफरा तफरी मच गई। किसी ने उन्हें बिड़ला भवन के उनके कमरे में लाकर लिटा दिया। सरदार वल्लभ भाई पटेल, जो कुछ ही देर पहले गांधी जी के साथ घंटे भर की बात-चीत करके गए थे, लौट आए। वे गांधी जी की बगल में खड़े होकर उनकी नब्ज़ टटोल रहे थे, उन्हें लगा शायद प्राण बाक़ी है। पागलों की तरह कोई दवा की थैली से एडरनलीन की गोली खोज रहा था। उसे वैसा कुछ न मिला। कोई डॉ. डी.पी. भार्गव को बुलाने चल दिया और 10 मिनट बाद वे पहुंच गए। तब तक तो बहुत देर हो चुकी थी। उन्होंने कहा, “इस धरती पर की कोई शक्ति उन्हें बचा नहीं सकती थी। भारत को राह दिखाने वाला प्रकाश- स्तंभ दस मिनट पहले ही बुझ चुका था।”
डॉ. जीवराज मेहता ने आते ही उनकी मृत्यु की पुष्टि कर दी। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री जवाहर लाल नेहरू अपने दफ्तर से भागे-भागे आए और उनकी छाती पर अपना सिर रखकर बच्चों की भांति फूट-फूट कर रोने लगे।
ठीक एक दिन पहले ही 29 जनवरी को गांधीजी ने अपनी पौत्री मनु से कहा था,
“यदि किसी ने मुझ पर गोली चला दी और मैंने उसे अपने सीने पर झेलते हुए राम का नाम लिया तो मुझे सच्चा महात्मा मानना।”
और यह कैसा संयोग था कि 30 जनवरी 1948 के दिन उस महात्मा को प्रार्थना सभा में जाते हुए मनोवांछित मृत्यु प्राप्त हुई। गांधीजी के दूसरे पुत्र रामदास ने अपने बड़े भाई हरिलाल की अनुपस्थिति में उनकी अंत्येष्टि सम्पन्न की।
गांधी हत्या केस की जांच दिल्ली में डी.जे. संजीव एवं मुम्बई में जमशेद नगरवाला ने की। महात्मा गांधी की हत्या की साजिश रचने वालों मे से नारायण आप्टे, 34 वर्ष, को फांसी की सजा हुई, क्योंकि जब हत्या का हथियार लिया जा रहा था तो वह भी वहां साथ में मौज़ूद था। वीर सावरकर साक्ष्य की बिना पर रिहा कर दिए गए। नाथूराम गोडसे, मुख्य आरोपी, 39 वर्ष, को फांसी की सजा हुई। विष्णु कारकरे, 34 वर्ष, को आजीवन कारावास का दंड मिला। शंकर किष्टैय्या को सज़ा तो मिली पर अपील के बाद उसे मुक्त कर दिया गया। गोपाल गोडसे, 29 वर्ष, को आजीवन कारावास का दंड भुगतना पड़ा। दिगम्बर बडगे, 37 वर्ष, जो अवैध शस्त्र व्यापारी था, सरकारी गवाह बन गया, और उसे माफी मिल गई। मदनलाल पाहवा को आजीवन कारावास की सज़ा हुई। बिड़ला भवन में 20 जनवरी को जो हादसा हुआ था, जिसमें गांधीजी बाल-बाल बचे थे, मदनलाल पाहवा उसमें मुख्य साजिश रचने वाला था। मदनलाल पाहवा और उसके कुछ साथियों ने गांधीजी को बम से उड़ा डालने का प्रयास किया था, परन्तु गांधीजी बच गए थे, बम लक्ष्य चूक गया। मदनलाल पाहवा पकड़ा गया। ग्वालियर का रहने वाला दत्तात्रेय पारचुरे एक होम्योपैथ का डॉक्टर था, उसने हत्यारों को शस्त्र (Black Brette Automatic Pistol) की आपूर्ति की थी, को अपील पर माफ कर दिया गया। ग्वालियर का रहने वाला दत्ताराय पारचुरे एक होमियोपैथी डाक्टर था। उसने ही गांधीजी के हत्यारों, आप्टे एवं गोडसे को ब्लैक ब्रेट स्वचालित पिस्टल मुहैया कराई थी। गोडसे और आप्टे को 15 नवंबर 1949 को फांसी पर चढ़ाया गया।
ठीक ही कहा था लॉर्ड माउंट बेटन ने,
“सारा संसार उनके जीवित रहने से सम्पन्न था और उनके निधन से वह दरिद्र हो गया।”
एक ज़माने में गाँधी जी का उपहास करने वाली टाइम पत्रिका ने उनके बलिदान की तुलना अब्राह्म लिंकन के बलिदान से की। पत्रिका ने कहा कि एक धर्मांध अमेरिकी ने लिंकन को मार दिया था क्योंकि उन्हें नस्ल या रंग से परे मानवमात्र की समानता में विश्वास था और दूसरी तरफ एक धर्मांध हिंदू ने गाँधी जी की जीवन लीला समाप्त कर दी क्योंकि गाँधी जी ऐसे कठिन क्षणों में भी दोस्ती और भाईचारे में विश्वास रखते थे, विभिन्न धर्मों को मानने वालों के बीच दोस्ती की अनिवार्यता पर बल देते थे। पैगम्बर या तत्वज्ञानी होने का दावा गांधीजी ने कभी नहीं किया। उन्होंने तो बड़ी दृढ़ता से कहा थाः “गांधीवाद जैसे कोई चीज नहीं है और न मैं अपने बाद कोई पथ छोड़ जाना चाहता हूं।” उन्होंने कहा था गांधीवादी तो केवल एक ही हुआ है और वह भी अपूर्ण तथा सदोष और वह एक व्यक्ति थे, वह स्वयं।