गांधी और गांधीवाद-157
1912
गोखले की दक्षिण अफ़्रीका की यात्रा
दक्षिण अफ़्रीका के आंदोलन की गूंज भारत तक पहुंची। भारत में ‘वायसरीगल काउंसिल के ऑफ इंडिया’ के गोपालकृष्ण गोखले ने रंगभेद के ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ बुलंद की थी। भारत और इंग्लैंड दोनों ही देशों में गोखले जी को अत्यंत सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर और भारत सेवक समिति के अध्यक्ष गोखले जी केन्द्रीय विधानसभा के सदस्य थे। कलकत्ते की बड़ी काउंसिल के भीतर और बाहर से भी वे दक्षिण अफ़्रीका के भारतीयों के अधिकारों की लड़ाई का हर तरह से समर्थन करते रहे थे। मुम्बई में प्रसिद्ध बैरिस्टर फिरोजशाह मेहता भी दक्षिण अफ़्रीका के भारतीयों की समस्या के निदान में रुचि रखते थे। गांधी जी की गोखले में परम श्रद्धा थी। पिछले पंद्रह वर्षों से उनका गांधी जी से पत्र-व्यवहार चला आ रहा था। वे उनके राजनीतिक गुरु थे। उनके आग्रह पर गोखले ने दक्षिण अफ़्रीका का दौरा किया। उनकी दक्षिण अफ़्रीका की योजना ब्रिटिश सरकार की मंजूरी से बनी थी। उनके आने के पहले तक अफ़्रीका के गोरों को भारत या भारतवासियों के बारे में कोई खास जनकारी नहीं थी। गोरों का मानना था कि भारतीय जनता अनपढ़, निकम्मी, रूढ़िग्रस्त और संस्कारहीन थी। कुल मिलाकर भारतीयों का स्थान गोरों के नौकर-चाकर से अधिक का नहीं था। इसीलिए तो वे भारतीयों को कुली कहते थे।
गांधी जी काफ़ी दिनों से गोखले जी और अन्य कई भारतीय नेताओं से निवेदन कर रहे थे कि वे दक्षिण अफ़्रीका जाकर भारतीयों की स्थिति से अवगत हों। गोखले जी 1911 में इंग्लैंड में थे। उनके साथ गांधी जी का पत्र-व्यवहार चलता रहता था। भारतमंत्री के साथ उन्होंने सलाह-मसविरा किया कि दक्षिण अफ़्रीका जाकर उन्हें पूरे मसले को समझना चाहिए। भारत मंत्री को उनकी यह योजना पसंद आई। गोखले जी ने अपने छह सप्ताह के दक्षिण अफ़्रीकी दौरे की सूचना गांधी जी को दी। गांधी जी के हर्ष का ठिकाना न रहा। उन्होंने निश्चय किया कि गोखले जी का ऐसा स्वागत सम्मान किया जाए जैसा कभी किसी बादशाह का भी न हुआ हो। इस स्वागत में शामिल होने के लिए गोरों को भी निमंत्रण दिया गया। यह तय किया गया कि जहां-जहां सार्वजनिक सभा होगी वहां के मेयर को सभा का सभापति बनाया जाएगा। रेलवे स्टेशनों को सजाया जाएगा। जोहान्सबर्ग स्टेशन को सजाने में पंद्रह दिन लगे। कालेनबैक के निर्देशन में वहां एक सुंदर चित्रित तोरण बनाया गया था।
गोखले जी लंदन में थे। वहीं से उनका दक्षिण अफ़्रीका का कार्यक्रम था। भारत मंत्री ने दक्षिण अफ़्रीका की सरकार को सूचना दे दी। ब्रिटिश सरकार ने उनकी दक्षिण अफ़्रीका की यात्रा का प्रबंध किया था। स्टीमर में उनके लिए प्रथम श्रेणी की व्यवस्था की गई थी। ब्रिटिश सरकार का एक वरिष्ठ अफ़सर उनकी हिफ़ाज़त के लिए साथ भेजा गया था। दक्षिण अफ़्रीकी सरकार ने उन्हें अपना राजकीय मेहमान माना। उनके प्रवास की सुख-सुविधा के लिए जनरल स्मट्स ने ट्रेन का अपना निजी सैलून उनके उपयोग के लिए दिया था। 22 अक्तूबर 1912 को वे केपटाउन पहुंचे। उन दिनों गांधी जी टॉल्सटॉय फार्म पर रहते थे। कालेनबाख और ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन के अध्यक्ष कछालिया के साथ गांधी जी गोखले जी का स्वागत करने केपटाउन बंदरगाह गए। वहां सैंकड़ो भारतीय एकत्रित हुए। गांधी जी और गोखले जी एक दूसरे के गले मिले। गोखले जी ने गांधी जी से कहा, “देखो गांधी, बहुत दिनों से तुम बुलाते थे, तो मैं आ गया। मैं यहां से विदा होऊं तब तक जो चाहो सो मेरा उपयोग कर लो, मैं कुछ नहीं जानता। तुम जानो, तुम्हारा काम जाने। बाद में मुझे दोष न देना।”54
केपटाउन में एक बड़ी सभा हुई। उस शहर के मुखिया सिनेटर डब्ल्यू. पी. श्राइनर ने सभा का सभापतित्व किया। उसने गोखले जी का स्वागत करते हुए कहा कि भारतीयों के साथ उसकी काफ़ी हमदर्दी है। गोखले जी का भाषण छोटा, परिपक्व विचारों से भरा, दृढ़ पर विनययुक्त था। उन्हें सुनकर न सिर्फ़ भारतीय बल्कि गोरे भी प्रसन्न हुए। केपटाउन से वे जोहान्सबर्ग रवाना हुए। असली लड़ाई तो वहीं के ट्रांसवाल में लड़ी जा रही थी। वे दक्षिण अफ़्रीका में पांच सप्ताह रहे। जगह-जगह पर उनका भव्य स्वागत हुआ।
टॉल्सटॉय फार्म में गोखले जी का आगमन
फार्म जब चल रहा था उसी समय गोखले जी दक्षिण अफ़्रीका गए थे। गोखले जी नाजुक तबियत वाले व्यक्ति थे। फार्म का जीवन बड़ा कठिन था। गांधी जी ने निश्चय किया कि गोखले जी को फार्म पर बुलाया जाए। फार्म में खाट जैसी कोई चीज़ नहीं थी। सभी ज़मीन पर सोते थे। गोखले जी के लिए एक खाट मंगवाई गई। दूसरी समस्या यह थी कि वहां कोई ऐसा कमरा नहीं था जहां गोखले जी को पूरा एकांत मिल सके। तय यह हुआ कि कालेनबेक के कमरे में उन्हें रखा जाएगा। स्टेशन से फार्म तक का डेढ़ मील का सफर पैदल तय किया गया। उसी दिन वर्षा भी हो गई। मौसम का ठंडा हो गया। गोखले जी को ठंड लग गई। उन्हें कालेनबेक के कमरे में ठहराया गया। वहां से रसोई दूर थी। उन्हें रसोई घर में ले जाया नहीं जा सकता था, और वहां तक खाना लाने में वह ठंडा हो जाता। पर गोखले जी ने सारे कष्ट सहते हुए एक शब्द भी नहीं कहा। यहां तक कि जब उन्हें मालूम हुआ कि फार्म में सभी लोग ज़मीन पर ही सोते हैं, तब उनके लिए जो खाट लाई गई थी उसे हटा दिया और अपना बिस्तर उन्होंने फ़र्श पर ही लगा लिया। गोखले जी देह-आदि की मालिश के लिए नौकर की सेवा ही स्वीकार करते थे। उस रात गांधी जी और कालेनबेक ने उनसे बहुत विनती की कि उन्हें पांव दबाने दें, पर गोखले जी टस से मस न हुए। उल्टे नाराज होते हुए बोले, “जान पड़ता है कि आप सब लोगों ने यह समझ लिया है कि कष्ट भोगने के लिए अकेले आप ही लोग जन्मे हो और हम जैसे लोग इसलिए पैदा हुए हैं कि तुम्हें कष्ट दें। अपनी अति की सज़ा तुम पूरी-पूरी भोग लो। मैं तुम्हें अपना शरीर छूने तक नहीं दूंगा। तुम सब लोग निबटने के लिए दूर जाओगे और मेरे लिए कमोड रखोगे। ऐसा क्यों? चाहे जितनी तकलीफ़ उठानी पड़े, मैं भोग लूंगा; पर तुम्हारा गर्व चूर करूंगा।”
गोखले जी की पूरी यात्रा के दौरान साथ रहकर गांधी जी ने उनके दुभाषिए और अनुचर का काम किया। गोखले जी जहां भी गए उनका शाही ढंग से स्वागत किया गया। वे जिस स्टेशन पर उतरते उसे ख़ूब सजाया जाता। रोशनियां की जातीं। गलीचे बिछाए जाते। मानपत्र भेंट किए जाते। जगह-जगह पर गोखले जी का भाषण हुआ। गांधी जी के विशेष आग्रह पर गोखले जी ने मराठी में भाषण दिया। गांधी जी उसका हिंदी अनुवाद करते। लोग भावविभोर होकर उनकी बातें सुनते। गांधी जी और कालेनबाख गोखले की सेवा करते। गांधी जी उनके कपड़े ख़ुद धोते, और उसपर इस्तरी भी करते। उनका भोजन भी ख़ुद ही बनाते। गोखले जी मधुमेह के मरीज़ थे, इसलिए उनके आहार का पूरा ध्यान रखा जाता। गांधी जी उनके भोजन की तैयारी पर खुद नज़र रखते। जोहान्सबर्ग में गोखले जी पन्द्रह दिनों तक रहे। गोखले जी टॉल्सटॉय फार्म और फीनिक्स आश्रम भी गए।
गोखले जी के दक्षिण अफ़्रीका आने का उद्देश्य था भारतीय समुदाय की अवस्था का अनुमान करना और उसके सुधारने में गांधी जी की सहायता करना। जब वे दक्षिण अफ़्रीका गए, तो उनकी विद्वता, गरिमा, गंभीरता, संस्कारिता और विलक्षण राजनैतिक निपुणता देखकर गोरी सरकार चकित रह गई। प्रवासी भारतीयों ने उनकी अभूतपूर्व आवभगत की। चूंकि गोखले जी लंबे समय से असहयोग आंदोलन के साथ जुड़े हुए थे, इसलिए आंदोलन में उनकी उपस्थित से नई स्फूर्ति आई। जहां जहां वे गए वहां भारतीयों में ही नहीं, गोरी प्रजा में भी उत्साह का संचार हुआ।
जोहान्सबर्ग से गोखले जी प्रिटोरिया गए। वहां उन्हें यूनियन सरकार से मिलना था। अफ़्रीकी संघ की अधिकांश यात्रा पर गांधी जी उनके साथ रहे। लेकिन प्रिटोरिया में जब वे जनरल स्मट्स और जनरल बोथा से भी मिलने गए तो गांधी जी उनके साथ नहीं गए। गांधी जी ने गोखले जी को मुख्य मुद्दों के बारे में पहले ही बता दिया था। उन्होंने गोखले जी को 20 पेज का एक मैमोरेण्डम बनाकर दे दिया था। दो घंटे तक चली मीटिंग में बेकार झंझटों के बिना संघ की स्थापना के लिए उत्सुक, दोनों जनरलों ने वास्तव में गोखले जी से भारतीयों के ख़िलाफ़ अत्यधिक भेदभाव वाली व्यवस्थाओं को समाप्त करने का वादा किया था। गोखले जी जब मीटिंग से वापस लौटे तो बहुत आशान्वित और संतुष्ट थे। वे सरकार द्वारा किए गए सत्कार और जनरल बोथा और जनरल स्मट्स के आश्वासनों के बहलावे में आ गए। जब बैठक से लौटे तो गोखले जी ने गांधी जी से कहा, “तुम्हें एक वर्ष के भीतर भारत लौट आना है। सब बातों का फैसला हो गया। काला क़ानून रद्द हो जाएगा। इमिग्रेशन क़ानून से वर्ण-भेद वाली दफ़ा निकाल दी जाएगी। तीन पौंड का कर हटा दिया जाएगा।”
गांधी जी इस पर बिल्कुल विश्वास करने को तैयार नहीं थे, राजनीतिक विषयों में वे पेशेवर राजनीतिज्ञों से कहीं अधिक चतुर थे। उन्होंने कहा, “मुझे इसमें पूरी शंका है। इस मंत्रीमंडल को जितना मैं जानता हूं उतना आप नहीं जानते। आपका आशावाद मुझे प्रिय है, क्योंकि मैं ख़ुद भी आशावादी हूं; पर अनेक बार धोखा खा चुका हूं। इसलिए इस विषय में आपकी जितनी आशा मैं नहीं रख सकता।” गांधी जी सही थे। यह वादा पूरा न हुआ।
17 नवंबर 1912 को गोखले जी जब भारत वापस जाने लगे तो गांधी जी और कालेनबैक जंजीबार तक उन्हें छोड़ने स्टीमर में साथ गए। बोट पर गांधी जी और गोखले जी शतरंज खेलते थे। दोनों ही अच्छे खिलाड़ी थे। विदा होते समय गोखले ने गांधी जी से कहा, “देश की ख़ातिर जल्द ही भारत लौट आओ। वहां तुम्हारी बहुत ज़रूरत है।”
भारत लौटने पर मुम्बई के एक सार्वजनिक सभा में कहा था, “निःसंदेह गांधी ऐसी मिट्टी के बने हैं जिनसे नायक और शहीद बने होते हैं। उनके अंदर अपने आसपास के साधारण व्यक्तियों को भी नायकों और शहीदों में रूपांतरित करने की प्रशंसनीय आध्यात्मिक शक्ति मौजूद है।”
गोखले जी को विदा करके जब गांधी जी और कालेनबेक वापस लौट रहे थे, तो उन्हें रोक दिया गया, क्योंकि उनके पास ज़रूरी काग़ज़ात नहीं थे। कालेनबेक के पास भी काग़ज़ात नहीं थे, लेकिन उन्हें उसी समय परमिट दे दी गई। कालेनबेक को इस घटना से बेहद दुख हुआ। जब गांधी जी परमिट की प्रतिक्षा कर रहे थे, तो अधिकारी ताने कस रहे थे, “तुम एशियाई हो। तुम्हारी चमड़ी काली है। मैं यूरोपियन हूं, और देखो मेरी चमड़ी गोरी है।” सौभाग्य से भारतीय समुदाय बीच में कूद पड़ा और उनके लिए डट कर खड़ा हो गया। अधिकारियों को झुकना पड़ा। गांधी जी को कुछ घंटों में ही जाने की परमिट मिल गई।
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