गांधी और गांधीवाद-158
1913
सत्याग्रह फिर आरम्भ
सत्याग्रह आंदोलन में काफ़ी सूक्ष्म विचार से काम लिया जा रहा था। नीति के विरुद्ध कोई भी क़दम न उठाया जाए इस पर विशेष ध्यान रखा जाता था। जैसे ख़ूनी क़ानून केवल ट्रांसवाल के भारतीयों पर लागू किया गया था, तो इस आंदोलन में केवल ट्रांसवाल के भारतीय ही दाखिल किए गए थे। लड़ाई भी इस क़ानून को रद्द कराने तक सीमित थी। हालांकि भारतीयों की ओर से मांग होती थी कि अन्य कष्टों को भी इस लड़ाई के उद्देश्यों में शामिल किया जाए, लेकिन गांधी जी का कहना था कि इससे सत्य भंग होता है। उनका कहना था कि सत्याग्रही के लिए एक ही निश्चय होता है, वह उसे न घटा सकता है, न बढ़ा सकता है। इससे सत्याग्रहियों की संख्या कमती गई, फिर भी जो मुट्ठी भर सत्याग्रही बचे रहे थे, वे युद्ध का त्याग न कर सके। उन दिनों फिनिक्स आश्रम में बार-बार यह प्रश्न उठता रहता था कि अब आगे लड़ाई कौन लड़ेगा? सात-सात साल से लोग ट्रांसवाल की लड़ाई लड़ रहे थे। वे निरुत्साह हो रहे थे। गांधी जी ने पाया कि सत्याग्रहियों की संख्या अब 40-50 के आसपास ही रह गई थी। गांधी जी के प्रति इन लोगों की निष्ठा निर्विवाद थी। वे तो प्राणों की बाजी लगा देने वाले योद्धा थे। गांधी जी ने ऐलान किया, “इन चालीस को साथ लेकर मैं अंत तक लड़ सकता हूं। ये चालीस तो चालीस हज़ार के बराबर हैं। अगर कोई साथ नहीं देगा तो मैं अकेला ही झोंपड़ी-झोंपड़ी जाकर लोगों को तीन पौंड के अनैतिक कर का विरोध समझाऊंगा, लेकिन यह सत्याग्रह बंद नहीं होगा। सल्तनत ने भारतीय कौम और गोखले जी का अपमान किया है। यह असह्य है।”
वचन भंग हुआ
उस समय के प्रख्यात भारतीय राजनीतिज्ञ गोपाल कृष्ण गोखले ने 1912 में दक्षिण अफ्रीका की यात्रा की और जनरल स्मट्स तथा मंत्रिमण्डल के अन्य सदस्यों से भारतीयों की समस्याओं पर बातचीत की। जब वह भारत लौटे तो वह समझते थे कि एशियाटिक रजिस्ट्रेशन ऐक्ट (एशियावासियों से सम्बद्ध पंजीकरण विधेयक) और गिरमिट-मुक्त मजदूरों पर लगाया गया तीन पौण्ड का घृणित कर रद्द कर दिया जाएगा। उन्हें लगता था कि उनके जाने के बाद यूनियन पार्लियामेंट का जो अधिवेशन होगा उसमें उसे उठा देने के क़ानून का मसविदा पेश कर दिया जाएगा। ऐसा हुआ नहीं। गोखले जी के जाने के बाद एक वर्ष के भीतर ही सरकार की तरफ़ से वचन भंग हुआ। जनरल स्मट्स और जनरल बोथा अपने दिए आश्वासनों से मुकर गए। उसने यूनियन पार्लियामेंट में कहा, “गांधी जैसा चाहते हैं, वैसी मांगें पूरी करना असंभव है। नेटाल के यूरोपियन यह कर उठाने को तैयार नहीं हैं। यूनियन सरकार गिरमिटयुक्त भारतीय मज़दूरों और उनके परिवारों पर लगाए गए तीन पौंड के कर को रद्द करने का क़ानून पास करने में असमर्थ है।”
वचन-भंग की बात गांधी जी ने गोखले जी को लिखी और कहा, आप निश्चिंत रहें, हम मरते दम तक लड़ेंगे और इस कर को रद्द कराके रहेंगे। गोखले जी ने गांधी जी से पूछा था, तुम्हारे पास अधिक से अधिक और कम से कम कितने लड़ने वाले हो सकते हैं। गांधी जी ने जवाब भेजा था, अधिक से अधिक 65-66 और कम से कम 16। उन्होंने यह भी लिखा कि इतनी छोटी से तादाद के लिए मैं भारत से पैसे की मदद की अपेक्षा नहीं रखूंगा। गोखले जी का जवाब आया, “जैसे तुम लोग दक्षिण अफ़्रीका में अपना फ़र्ज़ समझते हो वैसे हम भी कुछ अपना फ़र्ज़ समझते होंगे। हमें क्या करना उचित है, यह तुमको बताने की आवश्यकता नहीं है। मैं तो महज वहां की स्थिति जानना चाहता था। हमारी ओर से क्या होना चाहिए इस बारे में सलाह नहीं मांगी थी।” इन कड़े शब्दों का मर्म गांधी जी समझ गए थे। इसंमें आश्वासन भी था, चेतावनी भी। उन्होंने इसके बाद चुप रहना ही बेहतर समझा।
स्मट्स ने असेम्बली भवन में यह घोषणा करके कि नेटाल के यूरोपीय लोग गिरमिटियों पर से तीन पौंड का वार्षिक कर हटाए जाने के लिए तैयार नहीं हैं, अंतिम संघर्ष को और क़रीब ला दिया। इससे इस क्रूर कर को युद्ध के कारणों में शामिल कर लेने का सुयोग गांधी जी को सहज ही मिल गया। चलती लड़ाई के बीच सरकार की ओर से कोई वचन दिया जाए और फिर से उस वचन का भंग किया जाए तो यह वचन भंग चलते सत्याग्रह के कार्यक्रम में दाखिल कर लेना नीति विरुद्ध नहीं था। उससे भी बड़ी बात यह थी कि भारत के गोखले जी सरीखे प्रतिनिधि को दिया हुआ वचन तोड़ा जाए तो यह उनका ही नहीं, सारे भारत का अपमान था और यह अपमान सहन नहीं किया जा सकता था। इसलिए तीन पौंड कर को सत्याग्रह के युद्ध में शामिल कर लिया गया और इससे गिरमिटिया भारतीयों को भी सत्याग्रह में शामिल होने का मौक़ा मिल गया। अब तक ये लोग आंदोलन के बाहर ही रखे गए थे। 1913 में फिर सत्याग्रह आंदोलन छिड़ गया। इस बार सत्याग्रह का दायरा बड़ा था। इकरारनामे की अवधि ख़त्म होने पर भी दक्षिण अफ़्रीका में बसे भारतीयों पर तीन पौण्ड का कर लगाया गया था। इसके ख़िलाफ़ भी सत्याग्रह छिड़ा। भारतीय में ज़्यादातर ग़रीब थे और बमुश्किल एक महीने में 10 शिलिंग कमा पाते थे। तीन पौण्ड का कर उनके लिए बहुत ज़्यादा था। जब इसके ख़िलाफ़ सत्याग्रह शुरु हुआ, तो लगभग सारे भारतीय इसमें शामिल हो गए और सत्याग्रह सही मायने में जनआंदोलन बन गया।
सरकार की इस वादाख़िलाफ़ी ने सत्याग्रह आंदोलन में नई जान फूंक दी। गांधी जी ने तैयारियां शुरू कर दी। इस बार की लड़ाई में शांति से बैठना तो हो ही नहीं सकता था। सज़ाएं भी लंबी होनी तय थी। इसलिए टॉल्सटॉय फ़ार्म को बंद कर देने का निश्चय किया गया। वैसे भी मर्दों के जेल से छूटने के बाद वे अपने परिवार के साथ अपने-अपने घर चले गए थे। जो लोग बचे थे, उनमें से अधिकांश फीनिक्स के थे। इसलिए निश्चय हुआ कि सत्याग्रहियों का केन्द्र फीनिक्स हो। फिर भी समस्या तो यह थी ही कि जो आंदोलन एक बार ठण्डा पड़ गया था उसके लिए उत्साह कैसे जुटाया जाए। किंतु सरकार ने ही उसके लिए वो मौक़ा जुटा दिया। सरकार के एक नए फैसले के अनुसार दक्षिण अफ़्रीका में क्रिश्चियन रीति के अलावा की गई सारी शादियां, और वे शादियां जिनका रजिस्ट्रेशन नहीं हुआ था, निरस्त कर दी गईं थीं।
***
बहुत सुंदर पोस्ट । गाँधी है कहीं अभी भी :)
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन अपना अपना नज़रिया - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंगाँधी पर ब्लॉग जगत में इतना कार्य किसी और ने नहीं किया , साधुवाद आपको !
जवाब देंहटाएंसारगर्भित ज्ञानवर्धक आलेख...
जवाब देंहटाएंलंबे अंतराल के फिर अपने पसंदीदा ब्लॉग पर :) छूटा हुआ खाली समय में पढ़ना पड़ेगा
जवाब देंहटाएंगान्धी जी के व्यक्तित्व को शब्दों में बाँधना आसान नही है । आपके प्रयासों को नमन
जवाब देंहटाएंबेहतरीन प्रस्तुति के लिए आपको बहुत बहुत बधाई...
जवाब देंहटाएंनयी पोस्ट@आप की जब थी जरुरत आपने धोखा दिया (नई ऑडियो रिकार्डिंग)