गुरुवार, 26 अक्टूबर 2017

लेटर टू छट्ठी मैय्या !


हे छट्ठी मैय्या,
प्रणाम !





तब, सज गया सब घाट-बाट? कैसा लग रहा है इस बार हमारे बिना? हम भी आपही की तरह साल में एक ही बार आते थे। कभी-कभी तो कनफ़्युज हो जाते थे कि हमरे माता-पिता, सखा-संगी, अरिजन-परिजन आपकी प्रतीक्षा करते हैं या हमारी। वैसे बात तो एक्कहि है... हमारे आने पर आप आती थी या आपके आने पर हम। ई बार ममला गड़बड़ा गया। हम आ नहीं पाये। चलिये कम से कम आप आ गयीं, पर्व तो हो ही जायेगा। दरअसल उ का है कि हम परेशान हो गये...! पन्द्रह दिन पहिलैह से सब फोन-फान करके भुका दिया.. आ रहे हैं कि नहीं? कौन तारीख को आ रहे हैं? जब पता चल गया कि नहीं आ रहे हैं तैय्यो फोन... ई बार बड़ी मिस कर रहे हैं, आये काहे नहीं ब्ला... ब्ला... ब्ला। सब हमरे माथा भुका रहा है आपसे कौनो पूछा? आपके मर्जी के बिना तो कुच्छो होता नहीं है, फिर हमरे नहीं आने की जवाबदेही भी आपही उठाइये।
गाँव का लोग तो भावुक है। पूछेगा ही। मगर एक बात बताइये, आप हमको मिस नहीं कर रही हैं का? बचपन से ही आपसे गहरा नाता रहा है। जनम के छः दिन बादे छट्ठी पूजा हुआ था। उसके बाद से तो बस सिलसिला चलता ही रहा। जो उमर में केला का पत्ता हमरे लंबाई से ज़्यादा था तब भी पूरा का पूरा कदली-स्तम्भ कंधा पर चढ़ाकर ले जाते थे आपका घाट सजाने। आपके पैर में नरम घास तक भी ना चुभे, इ खातिर अपने नन्हे हाथों में खुरपी-कुदाली पकड़कर एकदम से दूभवंश-निकंदन कर देते थे। एकाध-बार तो आपके भोग लगने से पहले ही आपका ठेकुआ भी चुराकर खा लिये। और फिर दोनो गाल पर दादी का थप्पर! और सुबह में घाट पर कान-पकड़ कर उठक-बैठक। एक से एक संस्मरण जुड़ा है... लिखने बैठ जायें तो महापुराण बन जायेगा। लेकिन बताइये बीस बरस की वार्षिक सेवा के बदले हमको तीस सौ किलोमीटर दूर फेंक दिये। मगर हम हृदय में कौनो बात लगा नहीं रखते हैं। और संबंध भी माँ-बेटे का है। सब-कुछ भूल विसराकर हर साल एहि भरम में जाते रहे कि हमरे खातिर आप आती हैं। लेकिन ई बार इहो भरम जाता रहा। लेकिन इतना गरंटी के साथ कह सकते हैं कि अभी तक भले नहीं पता चला हो मगर कल सुबह तक आपको भी हमरी कमी जरूर खलेगी। देखियेगा न... ई बार पोखर के बदले अंगने-अंगने गड्ढा खुदाया है।  हम शहर क्या आ गये पूरा गाँवे में शहर ढुक गया है। सीडी पर शारदा सिन्हा का गीत बजेगा... केलबा के पात पर उगेला सुरुज मल झाँके-झुँके’। पता नहीं केला का थम असली है कि उहो पिलास्टिक वाला हो गया। जो भी हो माफ़ कर दीजियेगा। हमरे बाद सब बच्चे सब है। और हाँ, घबराइयेगा मत... लाइट और जनरेटर का दुरुस्त व्यवस्था है।
याद है, उ साल...! कई वर्षों के बाद से रेवाखंड के सोये हुए सांस्कृतिक विरासत को आपही के घाट पर फिर से जगाये थे। पृथ्वीराज चौहान नाटक खेल थे। "चार बांस चौबिस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण ! एते पर सुल्तान है मत चूको चौहान!!" आपके चक्कर में चंदबरदायी बनकर पृथ्वीराज के साथे-साथ मर भी गये थे। हाँ, आपके चक्कर में नहीं तो और क्या? अरे, सांझ में सब हाथ उठाने के बाद घरे जाकर घूरा तापे और फिर सुबह में किरिण फूटे के वक्त आये। कौनो सोचता ही नहीं था कि छट्ठी मैय्या घाट पर अकेले कैसे रात काटेगी। आपका अकेलापन दूर करने के लिये नाटक करवा दिये। सांझ से लेकर सुबह तक घाट रहे गुलजार। और आप हैं कि ई बार हमहि को अकेला छोड़ दिये, अयं? वर्षों बाद ई भार भी नाटक होगा, फिर से पृथ्वीराज चौहान। हम तो हैं नहीं। आपही देखकर बताइयेगा कि खेल कैसा बना। हाँ, चंदबरदायी के रोल पर जरूर ध्यान दीजियेगा। हम आयें चाहे नहीं आयें आप आ गयी हैं और सुरुजदेव तो रोजे उगते हैं, तो छठ व्रत भी पूरा हो ही जायेगा। हम नहीं आये, कौनो बात नहीं। हर साल की तरह सुबह का अर्घ्य लेकर आप श्रद्धावनत रेवाखंड पर अपना सारा अशीष उलीच दीजियेगा। और हाँ, एक विनती और है, अर्घ्य देते वक्त जब हमारी माँ की आँखों में आँसू आ जाये तो आप अपना कलेजा थाम लीजियेगा। अब और ज़्यादा नहीं लिखा जा रहा है।
आशा करते हैं अगले साल भेंट होगी। तब तक सूरुज महराज को हमारा प्रणाम कहियेगा और अगर गलती से कौनो भक्त मिलावट वाला मिठाई चढ़ा दिया हो तो अपना ध्यान रखियेगा।
आपका,
करण समस्तीपुरी

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शनिवार, 1 जुलाई 2017

अंतरराष्ट्रीय चुटकुला दिवस - मस्ती बिखेरने वाली हंसी बांटें

मनोज कुमार
आज संसार में हर व्यक्ति किसी न किसी दुख-दर्द से ग्रसित है। रोज़ी-रोटी की चिंता में लोग इस कदर व्यस्त है कि हंसना ही भूल गए हैं। हंसी को दुनिया की सबसे कारगर दवाई माना जाता है। दिल-खोलकर मस्ती बिखेरने वाली हंसी, कष्टों को विदा करने की अचूक दवा है। और खूबी की बात यह है कि यह दवा बिना किसी क़ीमत और बिना किसी लागत के मिलती है। हंसना स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होता है, क्योंकि हंसना एक योग है। रात को हास्य योग का अभ्यास करने से सारी चिंताएं मिट जाती हैं और नींद अच्छी आती है। हंसते समय हमारा दिमाग तनावमुक्त हो जाता है और इधर-उधर भटक रहा मन स्थिर हो जाता है, जिससे ध्यान लगाना असान हो जाता है। इससे सकारात्मक ऊर्जा का विकास होता है।
हंसते रहने से आत्मविश्‍वास में वृद्धि होती है। जिस दिन आप खूब हंसते-मुस्कुराते हैं, उस दिन आपके पुराने शारीरिक दुख-दर्द भी आपको कम सताते हैं। चिंता, दुख, गुस्से, चिड़चिड़ेपन, आदि से निज़ात मिलती है। और सौ बात की एक बात कि हंसता-मुस्कुराता चेहरा बहुत अच्छा लगता है! इसलिए उस दिन को बेकार समझो, जिस दिन आप हंसे नहीं।

हंसने और हंसाने का सबसे आसान तरीका है चुटकुला। दुनियां में हंसी फैलाने के लिए 1 जुलाई को अंतरराष्ट्रीय चुटकुला दिवस के रूप में मनाया जाता है। तो आज के इस अंतरराष्ट्रीय चुटकुला दिवस पर आप सबों को ढ़ेर सारी हंसियां मुबारक। सबके साथ हंसी बांटिए, चुटकुलों से ही सही।
दुनिया के महानतम कॉमेडीयन अभिनेता चार्ली चैपलीन का कहना था, ज़िन्दगी में सबसे बेकार दिन वह है जिस दिन आप नहीं हंसे। इसलिए,
किताब-ए-ग़म में ख़ुशी का ठिकाना ढूंढ़ो,
अगर जीना है, तो हंसी का बहाना ढूंढ़ो।
एक मुस्कान ही शांति की शुरुआत है! हंसे मुस्कुराएं, शांति फैलाएं!!

सलीके का मज़ाक़ अच्छा, करीने की हंसी अच्छी,
अजी जो दिल को भा जाए वही बस दिल्लगी अच्छी।

ऐसे ही हंसी-दिल्लगी करने वाले शर्माजी और वर्माजी में गहरी दोस्ती है। दोनों एक साथ एक ही दफ़्तर में काम करते थे। तीन दशक से भी अधिक की नौकरी करने के बाद दोनों एक साथ ही दो वर्ष पूर्व सेवा निवृत्त हुए। उनकी मित्रता आज भी यथावत बनी हुई है। वे रोज़ मॉर्निंग वाक के लिए साथ ही जाते हैं। घर के समीप ही एक पार्क है, गोल्डन पार्क। प्रतिदिन उस पार्क में गप-शप करते, हँसी-ठहाके लगाते हुए वे सैर करते हैं और टहलना सबसे अच्छा व्यायाम है को चरितार्थ करते हैं। पार्क के कोने में लाफ्टर क्लब के कुछ सदस्य एकत्रित होते हैं। शर्माजी-वर्माजी को यह क्लब रास नहीं आता। इस अर्टिफिशियल हँसी के लिए कौन इसका सदस्य बने। हम तो नेचुरल ठहाके लगाते ही हैं।
उस दिन पार्क के कोने वाले हिस्से से गुज़रते हुए उन्हें ठहाकों की आवाज़ सुनाई नहीं दी। विस्मय हुआ। शर्माजी ने वर्माजी से पूछा, बंधु, इन्हें क्या हुआ? आज इनके ठहाके नहीं गूंज रहे !”
वर्माजी ने कहा, रेसेशन का दौर है। मंहगाई आसमान छू रही है।
शर्माजी ने कहा, उसका ठहाकों से क्या लेना देना?
वर्माजी ने समझाया, शर्माजी ये नया युग है। हमारा ज़माना थोड़े ही रहा। हम तो फाकामस्ती में भी ठहाके लगाते रहें हैं। आज तो हर चीज़ में कटौती करनी पड़ रही है। लोग अब ठहाकों की जगह छोटी सी मुस्कान से ही काम चला ले रहें हैं।

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मंगलवार, 14 मार्च 2017

प्रश्न पूछो दिवस

प्रश्न पूछो दिवस

मनोज कुमार

आज अंतरराष्ट्रीय प्रश्न पूछो दिवस (International Ask a Question Day) है। इसका लक्ष्य लोगों को अधिक और बेहतर प्रश्न पूछने के लिए प्रेरित करना है, ताकि वो मिलने वाले उत्तर से लभान्वित हो सकें।
एरिक हाफर का कहना था, “भाषा की खोज प्रश्न पूछने के लिये की गयी थी। उत्तर तो संकेत और हाव-भाव से भी दिये जा सकते हैं, पर प्रश्न करने के लिये बोलना जरूरी है। जब आदमी ने सबसे पहले प्रश्न पूछा तो मानवता परिपक्व हो गयी। प्रश्न पूछने के आवेग के अभाव से सामाजिक स्थिरता जन्म लेती है।”
चलिए आज प्रश्न-पूछो दिवस पर मेरा प्रश्न यह है कि हम प्रश्न क्यों पूछते हैं? कुछ प्रश्न तो जानकारी संग्रह करने के लिए किए जाते हैं। कई बार बिगड़ते संबंध को बनाए रखने के लिए भी प्रश्न किए जाते हैं। तुम नाराज क्यों हुए, ऐसा क्यों हुआ, वैसा क्यों नहीं हुआ। जहां कुछ प्रश्न सीखने के लिए किए जाते हैं, वहीं कुछ प्रश्न सिखाने के लिए भी किए जाते हैं। हां कऐसे भी लोग हैं जो इसका प्रयोग दूसरे का ज्ञान जांचने-परखने के लिए करते हैंकुछ लोग किसी तीसरे का सहारा लेते हैं, “देश जानना चाहता है ....!”

प्रश्न तो हर कोई पूछता है। लेकिन हममें से कुछ ऐसे लोग भी हैं जो जागरूकता बढाने के लिए प्रभावशाली औज़ार के रूप में इसका इस्तेमाल करते हैं। सामाजिक समस्याओं और उनके समाधान और निर्णय प्राप्त करने के लिए भी कई बार हमें उन अवांछित प्रथाओं को विरुद्ध प्रश्न करने पड़ते हैं। समाज में न सिर्फ़ कई कुप्रथाएं, बल्कि  मनगढंत बातें भी फलती-फूलती रहती हैं। इन्हें चुनौती देने के लिए भी प्रश्न उठते रहने चाहिए।  कभी-कभी कुछ प्रश्नों पर गतिरोध हो जाता है, तो उस गतिरोध को दूर करने के लिए भी प्रश्न किए जाने चाहिए। गतिरोध कैसे दूर हो, इसके लिए नई संभावनाओं की तलाश के लिए भी प्रश्न होने चाहिए।
अभी-अभी चुनावों का महादौर समाप्त हुआ है। आपने देखा होगा कई नेता अपने मंचीय भाषण कौशल को और धार-दार बनाने के लिए जनता से प्रश्न करते हैं। लेकिन कई बार तो अनेक प्रश्न ऐसे होते हैं जिसका समाधान उनके पास भी नहीं होता। प्रश्नों के मायाजाल में जनता उलझी रह जाती है। प्रश्न लोगों को उलझाने के लिए नहीं बल्कि स्पष्ट और नीतिगत चिंतन को बढावा देने के लिए होने चाहिए। लक्ष्य निर्धारण और उसकी प्राप्ति के लिए होने चाहिए।
कई प्रश्न वार्तालाप को फलदायक बनाने के लिए किए जाते हैं। आजकल कोर्स आयोजित करने वालों का धन्धा काफी फल-फूल रहा है। अपनी क्लास को रोचक बनाए रखने के लिए प्रायः फैकल्टी ये कहते पाए जाते हैं कि वे ‘टू वे कम्युनिकेशन’ करना चाहते है। फिर कुछ बताने की जगह प्रश्न पूछने लगते हैं और बेचारे ‘पार्टिसिपेन्ट्स’ जवाब देते-देते उनके (फैकल्टी के) ही ज्ञान में इजाफ़ा करते प्रतीत होते हैं। हां सुनने के क्रम में पार्टिसिपेंट्स को भी स्पष्टीकरण के लिए प्रश्न करना चाहिए।
सही प्रश्न पूछना भी एक कला है। प्रश्न और प्रश्न पूछने की कला, शायद सबसे शक्तिशाली तकनीक है। जागरूकता और अभ्यास से ही कोई व्यक्ति असाधरण प्रश्न पूछने वाला बन सकता है। उत्सुकता हमारे पास एक महत्वपूर्ण औज़ार है। इसे हमेशा तराशते रहना चाहिए। कभी यह कुंद न हो। कोई प्रश्न पूछे तो उसे हतोत्साहित नहीं करना चाहिए। कई बार लोग प्रश्न पूछने वाले का यह कह कर मुंह बंद कर देते हैं कि – क्या मूर्खतापूर्ण प्रश्न कर रहे हो। ऐसे लोगों को स्टीनमेज का यह कथन ध्यान में रखना चाहिए कि मूर्खतापूर्ण-प्रश्न, कोई भी नहीं होते औरे कोई भी तभी मूर्ख बनता है जब वह प्रश्न पूछना बन्द कर दे। सबसे चालाक व्यक्ति जितना उत्तर दे सकता है, सबसे बडा मूर्ख उससे अधिक पूछ सकता है। जो प्रश्न पूछता है वह पाँच मिनट के लिये मूर्ख बनता है लेकिन जो नही पूछता वह जीवन भर मूर्ख बना रहता है।
हां यह सही है कि सही प्रश्न पूछना मेधावी बनने का मार्ग है। हमने देखा है कई छात्र प्रश्न पूछने में हिचकिचाते रहते हैं। उन्हें दोनों तरह की परेशानी होती है। एक तो वे प्रश्न को सही तरीक़े से बना ही नहीं पाते, दूसरे सटीक प्रश्न भी नहीं पूछ पाते। इसका परिणाम यह होता है कि जो वो जानना चाहते है, वह जवाब उन्हें नहीं मिल पाता।

हमें प्रश्न पूछते रहना चाहिए। प्रश्न पूछते रहने से जहां एक ओर हम नई-नई चीज़ें सीखते हैं, वहीं दूसरी ओर कुछ लोग नई चीज़ों का ईज़ाद भी कर देते हैं। वैज्ञानिक मस्तिष्क उतना अधिक उपयुक्त उत्तर नही देता जितना अधिक उपयुक्त वह प्रश्न पूछता है। सेव गिरते तो पहले भी लोगों ने देखा होगा। पर उस वैज्ञानिक मस्तिष्क में ही यह बात समाई कि सेव नीचे ही क्यों गिरा? .. और हो गया ईज़ाद गुरुत्वाकर्षण का नियम।

रुडयार्ड किपलिंग ने कहा था, मैं छः ईमानदार सेवक अपने पास रखता हूँ। इन्होंने मुझे वह हर चीज़ सिखाया है जो मैं जानता हूँ। इनके नाम हैं क्या, क्यों, कब, कैसे, कहाँ और कौन।” इसलिए प्रश्न पूछते रहना चाहिए, स्वयं से भी, दूसरों से भी। हां इस बात का ध्यान अवश्य रखें, कि आपका प्रश्न न तो किसी को परेशान करने के लिए होना चाहिए और न ही किसी की विद्वता परखने के लिए।
तो आइए हम एक दूसरे से तरह-तरह के प्रश्न पूछें?

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शनिवार, 11 मार्च 2017

अभिव्यक्ति ...!

अभिव्यक्ति ...!

मनोज कुमार
महत्वपूर्ण यह नहीं कि ज़िन्दगी में आप कितने ख़ुश हैं, बल्कि यह महत्वपूर्ण है कि आपकी वजह से कितने लोग ख़ुश हैं। वास्तव में कुछ लोगों की कुछ खास बातें, उनकी कुछ खास अदाएं, उनकी अभिव्यक्ति के कुछ खास अंदाज हमें भरपूर खुशी देते हैं, वहीं कुछ लोगों के हाव-भाव, आदत-अंदाज यानी उनकी अभिव्यक्ति हमें चिढ़-कुढ़न और घुटन दे जाती है। कुछ ऐसे भी अन्दाज़ होते हैं लोगों के जिससे हँसी आती है, गुस्सा आता है और कभी-कभी खीझ भी पैदा होती है। प्रेमचन्द ने ‘मेरे विचार’ में कहा है, ‘अभिव्यक्ति मानव हृदय का स्वाभाविक गुण है’। कुछ लोगों के अभिव्यक्ति के गुणों में एक खास अंदाज होता है जिसके द्वारा वे लोगों में अलग प्रकार की छाप छोड़ जाते हैं। मिले-जुले भावों को एक साथ असर पैदा करने के पीछे उनके तकियाकलाम का अनोखा अन्दाज़ भी छिपा होता है।

अभिव्यक्ति एक कला है। इस कला में कुछ खूब निपुण होते हैं, तो अन्य थोड़े कम। निपुणता तो सब में होती है। अब ज़रा इस शे’र पर ग़ौर फरमाएं,
“हैं और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे
कहते हैं कि ‘ग़ालिब’ का है अंदाज़े बयां और।’
मतलब कवि तो संसार में और भी बहुत अच्छे हैं, परन्तु ग़ालिब की अभिव्यक्ति की निपुणता कुछ विशेष है। अभिव्यक्ति विचारों को व्यक्त करने की कला है। विवेकानन्द जी ने कहा है, ‘बहुत-सा विचार थोड़े शब्दों में व्यक्त करना एक महती कला है’। कुछ लोग अपनी अभिव्यक्ति में मुहावरे और कहावतों का ख़ूब प्रयोग करते हैं। कुछ की अभिव्यक्ति ‘कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना’ टाइप की होती है। कुछ होते हैं, जो खड़ी-खड़ी कहने में विश्वास रखते हैं, तो कुछ खड़ी-खोटी सुनाए वाले टाइप के होते हैं। कुछ लोगों की अभिव्यक्ति में उनका तकियाकलाम भरा होता है।
अब देखिये न, एक महानगरीय मित्र से बातचीत में अभी मैंने बस इतना ही कहा था कि फ़ुरसत में जब होते हैं तो, कभी-कभी... और हमेशा भी, अपनी माटी कसकर याद आती है।तो छूटते ही उनके मुंह से निकला, “ओह शिट! मुझे भी अपना नैटिव प्लेस विजिट किए हुए कितने दिन हो गए!ऐसा लगा मानो उन्होंने अपनेनेटिव प्लेससे अपनी मुहब्बत को उस एक तकियाकलाम ओह शिटमें समेट दिया हो।

ये तकियाकलाम भी ग़जब की चीज़ है। बिना इस तकिया की टेक लिये सामने वाला अपना कोई भी कलाम मुकम्मल नहीं कर सकता। सच पूछिये तो यह फ़ुरसत से फ़ुरसतियाने और बैठकर विचारने वाली चीज़ है ही नहीं। यह तो बरबस ही निकलता है, ... निकलता रहता है। इसका मुख्य संवाद के विषय से कोई संबंध नहीं होता। आम लोग अपनी अभिव्यक्ति में माने’, ‘मतलब’, ‘आंए’, ‘हें’, ‘हूं’, आदि बोलते पाए जाते हैं, तो खास लोगओके’, ‘आई मीन’, ‘यू नो’, ‘एक्चुअलीआदि। हमारे एक प्रोफ़ेसर थे, वे तो एक्चुअलीमें लगाकर उसे लंबा खींचते थे ...एक्चुअलिश्श्श्श्श्श’! उनकी इस विशेषता ने उन्हें एक उपनाम ही दे दिया था। जब कोई पूछता कि अभी किसकी क्लास है, तो उत्तर होता, ‘एक्चुअलिश्श्श्श्श्श की

बड़े प्यारे-प्यारे तकियाकलाम होते हैं। तकियाकलामों में भी रिजनल वैरिएशन होता है। अपनी माटीसे हमने बात शुरू की थी तो चलिए वहीं की बात लाऊं। रेलवे कॉलोनी में जब हम रहते थे, तो हमारे पड़ोसी थे ओझा जी। उनको जो है सो कि बोलने की आदत थी। हम पटना पहुंचे, तो जो है सो कि वहां बहुते ठंढ़ा लगा। दूर कहाँ जाएँ, हमारे घर में मौजूद हमारी उत्तमार्ध की अभिव्यक्ति का तो अंदाज और भी निराला है। उनकी कही गई बातों के रिक्त स्थानों की पूर्ति हमें अथी में ढूँढकर करनी होती है। एक बानगी -
ज़रा-सा अथी देना ..!
‘? ? ?’
अथी कहां रख दिए?”
‘? ? ?’
हमारी सीतापुर वाली चाची की हर बात में बुझे कि नहीं टाँका रहता है। आज हमारे साथ तो गजबे हो गया ... बुझे कि नहीं...कुछ तकियाकलाम के साथ ऐक्शन भी जुड़ा होता है। ख़ासकर बातों को रहस्यमय बनाने और आपसे अपनापन दिखाने के लिये इसका प्रयोग होता है का कहें सर्र ...! असल बात तो ई है कि.. और कहते हुये अपने स्वर को फुसफुसाहट में तब्दील करना किंतु तीव्रता इतनी कि हर अगल-बगल वाले को बात सुनाई दे जाए और अन्दाज़ ऐसा कि बस जैसे वो घोड़े के मुँह से (फ्रॉम हॉर्सेस माउथ) सुनकर आ रहे हैं।

कुछ लोगों की अभिव्यक्ति में उनका तकियाकलाम तो सायास निकाले जाते हैं। प्रायः इसके प्रयोग से वे स्वयं अथवा अपने पूर्वजों को ग्लोरिफ़ाई करते हैं (भले ही उनके अतीत में कोई क्राउनिंग ग्लोरी न रही हो) जैसे मैनेजर की आदत है कि वह हर सूक्ति के साथ कहेगा, मेरे पिताजी कहा करते थे ..., भले ही वह बात उनके पिताजी ने नहीं, गोस्वामी तुलसीदास जी ने कही हो। वैसे भी आपके पास उसे वेरिफाई करने के लिए कोई उपाय नहीं है। इस तरह के लोगों के प्रयास से आज कबीरदास के दोहों में इतने दोहे जुड़ गए हैं कि स्वयं कबीरदास भी आज अगर हमारे बीच होते तो आश्चर्य करते कि उन्होंने इतने सारे दोहे रच डाले थे!


बिना रफ़ू के गप करने वाले कुछ लोग अपने सायास तकियाकलामों से हमें अकसर झेलादेने को तैयार बैठे होते हैं। मेरे पिता जी के एक अनन्य मित्र की बात, “तुम लोग क्या पढ़ोगे, हम लोग तो मात्र दो घंटा सोते थे, बाक़ी समय पढ़ते रहते थे।ने इतना पकाया कि इच्छा होने लगी पढ़ना ही छोड़ दें। ज़िन्दगी में सिर्फ़ एक बार विदेश यात्रा किए, वह भी काठमांडू का, रतन जी बात-बात में आपको जता ही देंगे कि उन्होंने विदेश यात्रा की है। जब हम काठमांडू गए थे तो वहां एक बात नोट की ..” , जैसे भारत में नोट करने लायक कोई बात उन्हें मिली ही नहीं। ऐसे लोग अपने विदेश यात्रा या किसी खास पोजिशन के ग्लोरिफिकेशन के कारण न सिर्फ़ इरिटेशन बल्कि ऊब पैदा करते हैं। ऐसे लोग अपनी अभिव्यक्ति द्वारा स्वयम्‌ का विज्ञापन करने के चक्कर में ख़ुद को हास्यास्पद बना लेते हैं। नतीजा यह होता है कि वे हमारी नज़रों में या हमारे दिल में जो सम्मान रखते थे, ख़ुद से, ख़ुद की हरकतों से ध्वस्त करा देते हैं। जहां एक ओर आंए’, ‘बांए’, ‘शांएजैसे अनायास निकलने वाले तकियाकलाम प्रायः लोग अपनी कमियों को छुपाने के लिए आदतन इस्तेमाल करते हैं, वहीं सायास तकियाकलाम अपनी हैसियत को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करने के लिए।