गांधी और गांधीवाद
120. धार्मिक जिज्ञासा
गांधीजी की गीता और कंठी
प्रवेश
गांधीजी की जहां एक ओर आत्मा
के आंतरिक जीवन के प्रति उत्सुकता बनी रहती थी, वहीं दूसरी ओर वे शरीर की उचित देखभाल के प्रति भी काफ़ी जिज्ञासु थे।
जब हम थोड़ा गहरे जाकर उनको समझने का प्रयत्न करते हैं तो पाते हैं कि उनकी चाहे जो
भी व्यावसायिक और राजनीतिक प्रतिबद्धताएं रही हों,
नैतिक नियमों के अनुरूप कर्म करना और स्वास्थ्य या
प्रकृति के नियमों के अनुसार जीवन जीने के उनके विचार को सत्य की खोज के अंगों के
रूप में ही देखा जा सकता है।
थियॉसोफी
के वातावरण के संसर्ग में
अपनी इन्हीं जिज्ञासाओं के
कारण न सिर्फ़ लंदन में बल्कि दक्षिण अफ़्रीका की पहली यात्रा में ही गांधीजी ईसाई
वातावरण के संपर्क में आए थे। इस बार भी वे थियॉसोफी वातावरण के संसर्ग में आए। उन्होंने मादाम
ब्लावात्स्की से मिले, उनकी पुस्तक द की टू थियोसोफी पढ़ी, और "ब्लावात्स्की लॉज" में भी भाग लिया, लेकिन धार्मिक समस्याओं में उनकी रुचि को बढ़ाने के अलावा, थियोसोफी उन्हें प्रबुद्ध करने में विफल रही।
जोहान्सबर्ग में उनकी वकालत
काफ़ी बढ़ गई थी। अब अकेले काम संभालना मुश्किल हो रहा था। गांधीजी ने दो अंगेज़ों को
मदद के लिए अपने साथ आर्टिकल क्लर्क के रूप में रख लिया। उनमें से एक लुइस
वाल्टर रीच (Louis
Walter Ritch) थे। वे एक सफल व्यापारी थे, जिनका विवाह एक बड़े परिवार में हुआ
था। गांधीजी के सुझाव पर उन्होंने अपना व्यापार बंद कर दिया और गांधीजी के क़ानूनी
व्यवसाय में आर्टिकल क्लर्क के रूप में मदद करने लगे। वे दो साल तक गांधीजी के साथ
रहे, फिर इंगलैंड चले
गए जहां उन्होंने अपना क़ानूनी अध्ययन ज़ारी रखा।
गांधीजी के पास आने के पहले
मि. रिच एक वाणिज्यिक कम्पनी के व्यवस्थापक थे। वे थियॉसोफिस्ट थे। वह थियोसोफिकल
सोसाइटी की जोहान्सबर्ग शाखा के प्रमुख सदस्यों में से एक थे। उन्होंने गांधीजी का परिचय जोहान्सबर्ग की थियॉसोफी सोसायटी से
कराया। कुछ बुनियादी मतभेद के कारण गांधीजी उन लोगों की सोसाइटी के सदस्य तो नहीं
बने लेकिन बराबर उस सोसायटी के संपर्क में रहे। उसके सदस्यों के साथ गांधीजी की
धर्म-चर्चा होती रहती थी। उनकी पुस्तकें पढ़ते रहते थे। उन्हें मैडम
ब्लावात्स्की की रचनाओं का विस्तृत पाठ सुनना अच्छा लगता था और वे चर्चाओं में
शामिल होते थे। उनकी सभा में उन्हें बोलने का जब भी
अवसर मिलता, तो वे सदस्यों के सिद्धांत और आचरण में भेद की आलोचना करने से नहीं
चूकते। पर इस आलोचना के कारण उन्होंने आत्म-निरीक्षण करना सीखा। इस तरह उन्होंने
सामाजिक आचरण के बौद्धिक औचित्य से परिपूर्ण नैतिक आधार और उसी के साथ अंतःकरण से
पहचानी जा सकने वाली धार्मिक आस्था की खोज की। अगर नैतिक मूल्य आचरण को दिशा और
मानदंड प्रदान करते हैं तो धार्मिक आस्था अक्षुण्ण` शक्ति का स्रोत होती है।
गीता
की गहराई में
उनके जीवन को सबसे अधिक प्रभावित करने वाली पुस्तक थी
भगवद्गीता। हालाँकि, दो भाई, जो थियोसोफिस्ट थे, ने अप्रत्यक्ष रूप से
उनकी अच्छी सेवा की। गीता से गांधीजी का पहला परिचय थियोसोफिकल सोसायटी
की संगत में आने से हुआ था। भारतीय विद्या में गहरी रुचि होने के कारण, उन्होंने उनके साथ भगवदगीता पढ़ने की इच्छा व्यक्त की और उन्हें खुश
करने के लिए, उन्होंने सहमति व्यक्त
की। थियॉसोफिस्ट उन्हें न सिर्फ़ अपनी मंडली में शामिल करना
चाहते थे, बल्कि वे गांधीजी से हिंदू धर्म के बारे में भी कुछ जानना और सीखना
भी चाहते थे। थियॉसोफी एक दार्शनिक और धार्मिक प्रणाली जो ईश्वर और दुनिया के बारे
में सिखाने के लिए प्राचीन धर्मों और मिथकों के साथ रहस्यमय अंतर्दृष्टि को जोड़ती
है। थियॉसोफी की पुस्तकों पर हिंदू धर्म का काफ़ी प्रभाव गांधीजी ने पाया था। चूंकि
थियॉसोफिस्ट संस्कार और पुनर्जन्म को मानते थे इसलिए उन्हें लगा कि गांधीजी उनकी
सहायता कर सकेंगे। पर गांधीजी की संस्कृत की जानकारी बहुत कम थी। प्राचीन धर्म
ग्रंथ संस्कृत में थे। अनुवादों के द्वारा भी उनका अध्ययन न के बराबर ही था। जब उन्होंने गीता
पढ़ना शुरू किया तो उन्हें यह जानकर शर्मिंदगी महसूस हुई कि यद्यपि वे संस्कृत
भाषा से परिचित थे और उन्होंने इस काव्य को पाठ के रूप में कई बार पढ़ा था, फिर भी वे इसके सूक्ष्म अर्थों को समझने में पूरी तरह असमर्थ थे। उन्होंने
स्वयं उस पुस्तक का अध्ययन करने का निश्चय किया। ज्यों-ज्यों वे इसे गहराई से पढ़ने
लगे, त्यों-त्यों इस
पर उनकी श्रद्धा अगाध होती गयी और उन्हें अपार प्रसन्नता भी मिली। जिन
परिस्थितियों में उन्होंने इसे पढ़ा, अपनी धरती से दूर और
अजनबियों के बीच, उससे इसका प्रभाव और गहरा हो गया। यह एक बहुमूल्य रत्न की खोज जैसा
था जो लंबे समय से उनका था, उनके पास था, लेकिन वे इसे पहचान नहीं पाए थे। उन्होंने कहा, "गीता ने मेरे
लिए जीवन का एक नया दृष्टिकोण खोला। इसने मेरी आत्मा को ऐसे छूआ जैसे शायद यह केवल
पूर्व के किसी बच्चे को ही छू सकती है; मुझे आखिरकार वह प्रकाश
मिल गया था, जिसकी मुझे ज़रूरत थी।" जो बात उन्हें विशेष रूप से आकर्षित
करती थी वह है दूसरे अध्याय के अंत में, इच्छा और जुनून के खतरों
के बारे में दृढ़ चेतावनी; यदि कोई इन्द्रियगत विषयों पर विचार करता है, तो आकर्षण
उत्पन्न होता है; आकर्षण से इच्छा बढ़ती है, इच्छा की ज्वाला प्रचंड
जुनून में बदल जाती है, जुनून से लापरवाही पैदा होती है; फिर स्मृति -
सभी धोखा खा जाती है - महान उद्देश्यों को छोड़ देती है, और मन को क्षीण
कर देती है, जब तक कि उद्देश्य, मन और मनुष्य सभी नष्ट नहीं हो जाते।
उन्नीस वर्ष की अवस्था में जब
गांधीजी लंदन पहुंचे थे, तो उन दिनों अपने थियॉसोफिस्ट मित्रों के आग्रह पर सर एड्विन ऑर्नाल्ड द्वारा रचित भगवद्गीता का
अंगरेज़ी अनुवाद “दिव्य
संगीत” पढ़ा
था। सर एड्विन की एक और किताब “एशिया की ज्योति” उन्होंने पढ़ी थी, जो गौतम बुद्ध की जीवन कथा थी।
दक्षिण अफ़्रीका में अपने थियॉसोफिस्ट मित्र की मदद के लिए गांधीजी ने स्वामी
विवेकानंद का “राजयोग” पढ़ा। “राजयोग” गीता पर स्वामी जी द्वारा की गई टीका थी। उन्होंने “पातंजल-योगदर्शन” का भी अध्ययन किया। लेकिन
उनके जीवन को सबसे अधिक प्रभावित किया “भगवद्गीता” ने। गीता उनके लिए "आचरण का शब्दकोश" बन गई। विभिन्न टिकाओं के साथ उन्होंने गीता का अभ्यास भी शुरू किया। इसके
बाद “जिज्ञासु-मंडल” के नाम से एक छोटा-सा मंडल भी
स्थापित किया। इस प्रकार उनका नियमित अभ्यास होने लगा। वे गीता की गहराई में उतरने
लगे। अनुवाद की पुस्तक से मूल संस्कृत को समझने लगे। श्लोकों को कण्ठस्थ करने लगे।
गीता
के श्लोकों को याद करने के लिए
भगवद्गीता सात सौ छंदों की एक उत्कृष्ट महाकाव्य है। अधिकांश
छंद दो पंक्तियों के हैं; कुछ चार, छह या आठ पंक्तियों के हैं। पूरी पुस्तक अठारह प्रवचनों या अध्यायों
में विभाजित है; प्रत्येक योग विज्ञान की एक विशिष्ट शाखा से संबंधित है।
इस प्रकार गीता योग के विज्ञान और अभ्यास पर एक पुस्तक है। यह पांचवीं और दूसरी
शताब्दी ईसा पूर्व के बीच अस्तित्व में आया। यह कृष्ण और अर्जुन के बीच का संवाद
है। अपने अंग्रेज़ दोस्तों को भगवद् गीता पढ़ाने के अनुरोध ने उन्हें इस बात का
एहसास कराया कि इसे और गहराई से समझना ज़रूरी है। उन्होंने हर दिन इस पाठ के एक या
दो श्लोक याद करने का फ़ैसला किया। गीता के श्लोकों
को याद करने के लिए वे दातून और स्नान के समय का सदुपयोग करते। दातून में उन्हें
पन्द्रह और स्नान में बीस मिनट लगता था। दातुन वे खड़े-खड़े किया करते थे। सामने की
दीवार पर गीता के श्लोक लिखकर चिपका देते और उसे देखते और याद करते जाते। स्नान
करते समय इसे दुहराते जाते। इस तरह वे पूरी गीता कण्ठस्थ कर गए। गीता ने उनके आचरण
पर काफ़ी प्रभाव डाला। आचार-संबंधी कठिनाइयों का समाधान वे गीता में ढूंढ़ा करते। गांधीजी
कहते थे, “जब मुझे प्रकाश की एक किरण भी कहीं दिखाई नहीं देती, मैं उसे भगवद्गीता में खोजता
हूं और उसके किसी श्लोक में निहित आशा का संदेश मेरे भारी-से-भारी दुख को चुटकियां
बजाते दूर कर देता है। अनंत दुख, कष्ट और आपदाओं से भरे अपने इस जीवन में जो स्थिर और अविचलित रह सका
हूं उसका सारा श्रेय भगवद्गीता को ही है।” यह दृष्टांत हमें गांधीजी के समय के प्रबंधन की विशिष्टता का आभास कराता है। समय का
इसी तरह सदुपयोग करने वाले ही एक साथ इतने काम कर पाते हैं।
अपरिग्रह
और समभाव
गीता के गहन अध्ययन के बाद
उनका हृदय गीतामय हो गया। जीवन की हर समस्या का समाधान वे गीता में ही खोजने लगे।
गीता को जीवन का आदर्श मानकर उन्होंने अपने जीवन को उसी प्रकार ढालने का प्रयास
करने लगे। गीता के अपरिग्रह और समभाव शब्द तो उनके दिल में बस गए। “अपरिग्रह” का अर्थ है आत्मा के लिए भार
स्वरूप सभी भौतिक वस्तुओं का परित्याग। इसमें धन,
संपत्ति और विषयेषणा से छुटकारा भी निहित है। और जिसे
छोड़ा न जा सके स्वयं को उसका ट्रस्टी समझकर आचरण करना, न कि मालिक बन बैठना। गीता के अध्ययन
के फलस्वरूप उन्हें ट्रस्टी शब्द का अर्थ स्पष्ट हुआ। क़ानून-शास्त्र के प्रति उनका
आदर बढ़ा। गांधीजी कहते हैं, ”जब मैंने स्वयं को राजनीति की कुंडली
में फंसा पाया तो मैंने अपने आपसे यह प्रश्न किया कि मुझे अनैतिकता, असत्य और तथाकथित राजनीतिक लाभ से पूर्णतया
मुक्त रहने के लिए क्या करना चाहिए... शुरू में,
यह एक कठिन संघर्ष था और मुझे अपनी पत्नी तथा मुझे खूब याद
है कि अपने बच्चों तक के साथ भिडना पडा। लेकिन जो भी हुआ, मैं इस निश्चित निष्कर्ष पर पहुंच गया
कि यदि मुझे उन लोगों की सेवा करनी है जिनके लिए मेरा जीवन समर्पित है और जिनके कष्टों
का मैं दैनंदिन साक्षी हूं, तो मुझे अपने धन, अपनी सारी संपत्ति का त्याग कर देना चाहिए...”
“समभाव” का अर्थ है सुख और दुख में, विजय और पराजय में, मन की एक सी वृत्ति। जीत की आशा और हार की आशंका से परे होकर अपना
काम करते जाना। “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन्”। समभाव के बल पर ही गांधीजी चाहे वह अंग्रेज अधिकारी हों या अपने
सहकर्मी, चाहे निर्धन, लाचार देशवासी हों या पूंजीपति, सबके साथ एक जैसा व्यवहार कर सके। गांधीजी कहते थे, यदि हम दुश्मनों से प्रेम करने के
लिए तैयार नहीं हैं, तो हमारा भ्रातृत्व एक उपहास की वस्तु है।”
एक
बार की बात है, धार्मिक जिज्ञासुओं के बीच चर्चा चल
रही थी। गीता के अध्ययन के बाद, गांधीजी के लिए इसका सबसे बड़ा सबक था 'अपरिग्रह'। उन्होंने तुरंत अपनी बॉम्बे-अमेरिकन
बीमा पॉलिसी को समाप्त होने दिया। 'भगवान परिवार का ख्याल रखेंगे'। लेकिन 'क्या पत्नी और बच्चे संपत्ति नहीं थे?' सीकर्स में
हुई चर्चाओं ने उन्हें आत्मनिरीक्षण के लिए प्रेरित किया। उन्होंने निष्कर्ष
निकाला कि उनकी भावनाएँ अनुशासनहीन थीं और उनमें 'समता' की कमी थी। समतापूर्ण होने के लिए
उन्हें परिवार, मित्र और
शत्रु सभी के साथ समान व्यवहार करना होगा। यह गीता का 'वैराग्य' था।
1904
और 1905 के दौरान गांधीजी, कस्तूरबाई
और उनके बेटे कभी जोहान्सबर्ग में रहते थे, कभी फीनिक्स फार्म में। दोनों जगहों पर
संयम और आत्म-नियंत्रण की समस्या ने उन्हें परेशान कर रखा था। जब भी मौका मिलता, वे अपनी मां की तरह उपवास करने लगते।
बाकी दिनों में वे दो बार फल और मेवे खाते थे। लेकिन उपवास के बाद उन्हें अपने
खाने में ज़्यादा मज़ा आता था और वे और ज़्यादा खाना चाहते थे। इसलिए उपवास
भोग-विलास की ओर ले जा सकते थे! गांधीजी का लक्ष्य 'अशरीरी' और 'इच्छा-रहितता' था, जो हिंदू विचार में ईश्वर से मिलन की ओर
ले जाता है। सिर्फ़ परहेज़ करना गीता के आदर्श को पूरा नहीं करता; लालसा भी नहीं होनी चाहिए। अगर खाने की
मात्रा कम करने से भूख बढ़ती है तो संयम खत्म हो जाता है। इसलिए उनका काम था स्वाद
को जीतना। कम से कम उन्होंने मसालों और मसालों का इस्तेमाल बंद कर दिया। अब शुरू
हुआ उनके जीवन भर के आहार की खोज का दौर, जो पशु को पोषण देने के साथ-साथ मनुष्य
के दिमाग को पशु से ऊपर उठा सके। यदि उन्होंने भोजन के प्रति अपने जुनून पर अंकुश
नहीं लगाया, तो वे क्रोध, अहंकार
और सेक्स जैसे प्रबल जुनून पर कैसे अंकुश लगा सकते हैं? गांधीजी
ने तर्क दिया कि हम शरीर के लिए भोजन, वस्त्र और आश्रय उपलब्ध कराने के लिए
नहीं जीते हैं। हम जीने के लिए शरीर के लिए भोजन,
वस्त्र और आश्रय उपलब्ध कराते
हैं। भौतिक वस्तुएँ आध्यात्मिक लक्ष्य तक पहुँचने का साधन मात्र हैं। जब वे लक्ष्य
बन जाते हैं, एकमात्र लक्ष्य, जैसा
कि वे आमतौर पर होते हैं, तो जीवन की संतुष्टि खो जाती है और
असंतोष मानव जाति को ग्रस लेता है। आत्मा को, अफसोस,
एक अस्थायी निवास की आवश्यकता
होती है, लेकिन एक साफ मिट्टी की झोपड़ी एक महल
की तरह ही काम करेगी, वास्तव में उससे कहीं बेहतर। शरीर को
जीवित रखना चाहिए, लाड़-प्यार नहीं करना चाहिए। आत्मा को
मुक्ति दिलाने के लिए, शरीर को मन के अनुशासन के अधीन होना
चाहिए।
उपसंहार
गांधीजी के धार्मिक विचार
स्वाभाविक रूप से चर्चा का विषय रहा है। कुछ लोग मानते थे कि 'वे बौद्ध हैं।' कुछ उन्हें 'एक ईसाई मुसलमान' के रूप में वर्णित करते थे। अन्य लोग
कल्पना करते हैं कि वे मूर्तिपूजक हैं। बहुत से लोग उन्हें थियोसोफिस्ट मानते थे। लेकिन
सवाल यह है कि क्या कोई भी धर्म प्रणाली उन्हें पूरी तरह से स्वीकार कर सकती है। जोसेफ
डोक मानते हैं, “उनके विचार ईसाई धर्म से इतने निकटता
से जुड़े हुए हैं कि उन्हें पूरी तरह से हिंदू नहीं कहा जा सकता; और हिंदू धर्म से इतने गहरे रूप से
जुड़े हुए हैं कि उन्हें ईसाई नहीं कहा जा सकता,
जबकि उनकी सहानुभूति इतनी व्यापक और कैथोलिक है कि कोई सोच सकता है कि 'वे उस बिंदु पर
पहुँच गए हैं जहाँ संप्रदायों के सूत्र अर्थहीन हैं।” गांधीजी का
मानना था कि सच्चे धर्म का वास्तविक संबंध हृदय से है, न कि बुद्धि से; और धर्म पर सच्ची आस्था का मतलब है उसका अक्षरशः आचरण। जिन लोगों के निकट धर्म पारस्परिक
प्रेम और सहिष्णुता का नहीं घृणा का पर्याय बन गया है वे गांधीजी
की धार्मिकता को कभी समझ नहीं सके और न समझ सकेंगे। उन्होंने कहा था, “ईश्वर
किसी तिजोरी में बंद नहीं है कि उसके पास केवल एक छोटे-से छेद के जरिए
ही पहुँचा जा सके। यदि हृदय पवित्र और मन
अहंकार से शून्य है तो उसके पास पहुँचने
के अरबों रास्ते खुले हुए हैं।“ महादेव देसाई ने घोषणा की थी कि 'गांधीजी
के जीवन का प्रत्येक क्षण गीता के संदेश को जीने का एक सचेत प्रयास है।' गीता
गांधीजी की 'आध्यात्मिक संदर्भ पुस्तक' थी, उनका
दैनिक मार्गदर्शक। इसमें निष्क्रियता की निंदा की गई थी, और
गांधीजी ने हमेशा निष्क्रियता की निंदा की। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि इसमें
बताया गया है कि कर्म के साथ आने वाली बुराइयों से कैसे बचा जाए; गांधीजी
ने जोर देकर कहा कि यही 'गीता की केंद्रीय शिक्षा' है।
गांधीजी का मानना था कि प्राचीनतम अभिलेखों का हिंदू धर्म, मूर्तिपूजा से मुक्त एक शुद्ध धर्म था;
भारत
का आध्यात्मिक धर्म भौतिकवाद से भ्रष्ट हो गया है,
और
इस कारण उसने राष्ट्रों की कतार में अपना स्थान खो दिया है; युगों-युगों से, ईश्वर, जो सबमें व्याप्त है, ने स्वयं को
विभिन्न रूपों में प्रकट किया है, मोक्ष के उद्देश्य से, मनुष्यों को सही मार्ग पर वापस लाने के उद्देश्य से अवतार लिया है।
गीता में कृष्ण कहते हैं: "जब धर्म का क्षय होता है और जब अधर्म प्रबल होता
है, तब मैं स्वयं को प्रकट करता हूँ। अच्छाई की रक्षा
के लिए, बुराई के विनाश के लिए, धर्म की दृढ़ स्थापना के लिए मैं बार-बार जन्म लेता हूँ।" उनके
लिए धर्म एक अत्यंत व्यावहारिक चीज़ है। यह सभी कार्यों का आधार है। राजनीति, नैतिकता, वाणिज्य, विवेक से जुड़ी
हर चीज़ धर्म ही होनी चाहिए। स्वाभाविक रूप से, उनकी कल्पना "पर्वत
पर उपदेश" (Sermon on the Mount) से गहराई से प्रेरित होती है, और वहाँ चित्रित
आत्म-त्याग के विचार के साथ-साथ भगवद गीता और एशिया के प्रकाश (The Light of
Asia)
में उनकी पूरी सहमति मिलती है। ईश्वर की आत्मा के मार्गदर्शन में आत्म-नियंत्रण, आत्म-त्याग, आत्म-समर्पण, उनके जीवन की
अवधारणा में, सभी के अंतिम लक्ष्य की ओर कदम बढ़ाने वाले पत्थर हैं - बुद्ध का
लक्ष्य, जॉन द इवेंजलिस्ट का लक्ष्य, जैसा कि वे इसकी
व्याख्या करते हैं - मुक्ति प्राप्त मनुष्य का ईश्वर में पूर्ण रूप से लीन होना। क्या
कोई धार्मिक पंथ उनके विचारों को व्यक्त करने के लिए पर्याप्त होगा। यहूदी और ईसाई, हिंदू, मुसलमान, पारसी, बौद्ध और
कन्फ्यूशियस, सभी ने उनके दिल में अपनी जगह बनाई है।
गांधीजी के धार्मिक विचारों में कट्टरता नहीं
थी। उनका धर्म प्रेम और उदारता का धर्म है जो पूरी दुनिया को ईश्वर का परिवार मानता है और अपने पराये
के अंतर को समाप्त करता है। गांधीजी के लिए गीता मनुष्य की आसक्ति खत्म करने वाला अनपुम ग्रन्थ
है। भारत आने के बाद कौशानी प्रवास में गांधीजी ने गीता पर आधारित अपनी महत्वपूर्ण कृति
"अनासक्ति योग" की रचना की थी। इस कृति में गांधीजी ने गीता के सन्देश
को बहुत सहज सरल भाषा में प्रस्तुत किया है। गीता गांधीजी की ‘मार्गदर्शिका', ‘आचार संहिता', ‘धर्म-कोश', 'आत्मिक प्रेरणा का स्रोत’ और 'संकट में सच्चा मित्र और सहायक' थी।
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मनोज कुमार