शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2024

95. दक्षिण अफ़्रीका छोड़ने का निर्णय

 गांधी और गांधीवाद

95. दक्षिण अफ़्रीका छोड़ने का निर्णय


गांधीजी 1900 में

1901

प्रवेश

1901 में बोअर युद्ध की समाप्ति हुई। गांधीजी बोअर युद्ध के काम से मुक्त हो चुके थे। वह एक महीने रुकने के लिए गए थे, उसके बदले वह वहाँ छह वर्ष रह चुके थेगांधीजी को आशा थी कि युद्ध में भारतीय समुदाय की भूमिका से ब्रिटिश अधिकारियों को प्रसन्न होना चाहिए और उनकी न्याय भावना भारतीय निवासियों के प्रति गोरों की दुश्मनी को कम करने में मदद करेगी। बोअर युद्ध के समाप्त हो जाने के बाद ब्रिटिश सरकार ने दक्षिण अफ़्रीका के क़ानून कायदों की जांच-पड़ताल के लिए एक समिति बिठा दी। उसे यह काम सौंपा गया था कि जो भी नियम क़ानून ब्रिटिश विधान से मेल न खाता हो और महारानी विक्टोरिया की प्रजा के नागरिक अधिकारों में बाधक हों, उन्हें रद्द कर दिया जाए। समिति ने महारानी विक्टोरिया की प्रजा का अर्थ ‘गोरी प्रजा’ लिया और नए सुधारों में प्रवासी भारतीयों के अधिकारों का कहीं ज़िक्र नहीं हुआ।

युद्ध के बाद के इस अनुभव ने उनकी विचारधारा को बदल डाला। गांधीजी ने कभी भी दक्षिण अफ्रीका में स्थायी रूप से बसने का लक्ष्य नहीं रखा था। भारत की सेवा करना हमेशा से उनका सपना रहा था। गांधीजी के पास भारत से बराबर पत्र आ रहे थे। गोखले, दिनशा वाच्छा, फिरोजशाह मेहता आदि एक ही बात कहते थे कि गांधीजी भारत लौटकर देश में काम करें। उनके बच्चों का भविष्य भी उन्हें परेशान कर रहा था। उनकी शिक्षा पहले ही काफी प्रभावित हो चुकी थी। अब गांधीजी को लगने लगा कि स्थानीय भारतीयों में नया आत्मविश्वास पनपा है और अपने अधिकारों के लिए वे व्यवस्थित ढंग से लड़ सकते हैं। वे अब अन्याय का प्रतिकार करने में भी समर्थ थे। इसलिए अब गांधीजी को लगने लगा कि जब भारत उनको बुला रहा है तो मातृभूमि की सेवा के लिए भारत लौट जाना चाहिए। उन्हें डर था कि अब दक्षिण अफ्रीका में उनका मुख्य काम कहीं पैसा कमाना न होकर रह जाए। वकालत से पैसा कमाना ही तो उनका जीवन-ध्येय नहीं था। यदि वे दक्षिण अफ़्रीका में रुके रहे तो कुछ न कुछ काम तो अवश्य ही कर लेंगे, पर वह उनका मुख्य धंधा धन कमाना भर ही रह जाएगा। वे समझते थे, स्वदेश में भी ग़ुलामी है, वहां उनकी ज़रूरत अधिक है। दक्षिण अफ़्रीका में प्रवासी भारतीयों की सेवा के लिए कुछ कार्यकर्ता भी अब तक तैयार हो चुके थे। कुछ हिन्दुस्तानी नवयुवक दक्षिण अफ्रीका  से इंग्लैण्ड जाकर बैरिस्टर बनकर आ चुके थे। नेटाल का काम देखने के लिए मनसुखलाल नाजर और ख़ान तो थे ही। गांधीजी को लग रहा था कि भारत में उनकी ज़्यादा ज़रूरत है। इसलिए आठ वर्षों तक वहां रहकर देशवासियों की सेवा करते रहने के बाद 1901 में गांधी जी ने दक्षिण अफ़्रीका छोड़ने का निर्णय किया।

सशर्त भारत वापस लौटने की स्वीकृति

गांधीजी ने अपने विचार मित्रों के सामने रखा। उनका निर्णय सुनकर नेटाल इंडियन कांग्रेस के मित्रों में मायूसी फैल गई। दक्षिण अफ़्रीका में रहने वाले भारतीयों ने गांधीजी को अपना संकटहारी माना था। उन सबने गांधीजी से वहीं रुके रहने की प्रार्थना की। गांधीजी उनका दिल नहीं तोड़ना चाहते थे। उन्हें इस प्रकार छोड़ना आसान भी नहीं था। गांधीजी ने उनसे वादा किया कि भविष्य में जब कभी भी उनकी आवश्यकता पड़ेगी, वे अवश्य आएंगे। नेटाल, दक्षिण अफ़्रीका के उनके साथी तो यह नहीं चाहते थे कि गांधीजी भारत वापस जाएं, गांधीजी को इस शर्त पर भारत वापस लौट जाने की स्वीकृति मिली कि यदि एक साल के भीतर दक्षिण अफ्रीका के भारतीयों को उनकी मदद की ज़रूरत हुई तो वे पुन: वापस लौट जाएंगे। शर्त कड़ी थी, पर गांधीजी तो वहां के लोगों के प्रेम बंधन में जकड़े हुए थे। वे उन्हें निराश नहीं कर सकते थे। दोस्तों की बात ठुकराना उनके वश की बात नहीं थी। बिना किसी हिचकिचाहट के, उन्होंने अपने दोस्तों द्वारा रखी गई शर्त को स्वीकार कर लिया और अपनी योजना को आगे बढ़ाने के लिए उनकी अनुमति प्राप्त कर ली। नेटाल इंडियन कांग्रेस ने अफ़सोस के साथ गांधीजी के मानद सचिव पद से इस्तीफ़ा स्वीकार कर लिया और उनके द्वारा अथक सेवा के लिए उनके प्रति गहरी कृतज्ञता व्यक्त करते हुए प्रस्ताव पारित किए। 20 अक्तूबर, 1901 को उनका प्रस्थान तय किया गया।

विदाई समारोह

यह ख़बर चारों तरफ़ फैल गई। सब जान गए कि गांधीजी सपरिवार भारत लौट रहे हैं। अक्तूबर 1901 तक गांधीजी ने सारे केस निबटाए और अपनी वकालत समेट लिए। चार-पांच वर्षों में गांधीजी की समाज-सेवा, ईमानदारी आदि ने उन्हें लोकप्रिय बना दिया था। उनके जाने की पूर्व संध्या पर नेटाल के भारतीय समुदाय ने गांधीजी को अपने स्नेह से अभिभूत कर दिया। 12 अक्टूबर 1901 को दोपहर 3.30 बजे पारसी रुस्तमजी ने उनके सम्मान में अपने निवास पर लगभग 100 मेहमानों के लिए एक पार्टी दी। समय-समय पर साथी या वकील मित्र उनको और उनके परिवार को मूल्यवान उपहार या आभूषण आदि सौगात देते रहते थे। दक्षिण अफ़्रीका के भारतीयों ने गांधीजी और उनके परिवार के सम्मान में अनेक विदाई समारोह आयोजित किए। चारों तरफ़ से पार्टियां होने लगीं। स्वागत-सत्कार अलग। विदाई समारोहों में उन्हें हर जगह क़ीमती भेंट हीरे-जवाहरात उपहार स्वरूप दिए गए। कुछ ने कस्तूरबाई को सोने के ज़ेवर भेंट में दिए। उनके प्रशंसकों द्वारा कृतज्ञता और स्नेह के प्रतीक के रूप में उन पर और कस्तूरबा पर बरसाए गए उपहारों ने उन्हें बेचैन कर दिया। भेंटों में सोने, चांदी और यहां तक कि हीरे की चीज़ें थीं। गांधीजी सोच में पड़ गए कि क्या उन चीज़ों को स्वीकार करने का उनका अधिकार है? प्रश्न यह था कि यदि वे उन चीज़ों को स्वीकार कर लेते, तो अपने मन को यह कैसे समझाते कि क़ौम की सेवा वे पैसे लेकर नहीं करते? भेटों को देखकर तो यही लग रहा था कि ये उनकी सार्वजनिक सेवा के निमित्त से ही मिली हैं।

भेंट में क़ीमती उपहार

मूल्यवान गहनों के साथ जब गांधीजी घर लौटे, तो कस्तूरबा उन्हें ख़ुशी से उलट-पलट कर देख रही थीं और गांधीजी चुपचाप एक ओर खड़े रहे। गांधीजी परिवार सहित भारत रवाना होने वाले थे। रवाना होने के एक दिन पहले की शाम को गांधीजी दक्षिण अफ़्रीकी समुदाय के द्वारा दी गई क़ीमती उपहारों की सूची बनाने लगे। गुजराती हिंदुओं ने कस्तूरबाई को पचास गिन्नी का सोने का हार, एक हीरे की पिन, एक हीरे की अंगूठी, एक सोने की घड़ी, एक सोने की चेन, सात सोने के सिक्कों वाला एक सोने का पर्स, एक चांदी का कप और प्लेट भेंट की थीगांधीजी पेशोपेश में पड़ गए कि उन्हें और उनके परिवार को हार स्वीकार करने चाहिए या नहीं। पूरी रात गांधीजी सो नहीं पाए। गहनों से सजा कमरा था। अपने कमरे में चक्कर काटते रहे। वे उलझन में थे। जहां एक तरफ़ इतनी क़ीमती उपहार छोड़ना कठिन लग रहा था, वहीं दूसरी तरफ़ उन्हें रखना उससे भी अधिक कठिन लग रहा था। वे ख़ुद ही प्रश्न करते, “मैं शायद भेंटों को पचा पाऊं, पर मेरे बच्चों का क्या होगा? स्त्री का क्या होगा? उन्हें शिक्षा तो सेवा की मिलती है। उन्हें हमेशा समझाया जाता था कि सेवा के दाम नहीं लिये जा सकते।अपने भीतर की उथल-पुथल और खुद से बहस करने के बाद, आखिरकार उसे अपनी अंतरात्मा की शांति मिली जब उन्होंने फैसला किया कि वह अपनी कीमती चीज़ों को अपने पास रखने के बजाय उन्हें समुदाय के लिए समर्पित कर देंगे। अपने विचार को व्यावहारिक रूप देने से पहले, उन्हें अपने परिवार को इस दृष्टिकोण के लिए तैयार करना ज़रूरी था।

कस्तूरबा को समझाना मुश्किल

कुल मिलाकर लगभग एक हजार पाउंड का सोना और गहने थे, और उन्होंने सोचा कि उन्हें नेटाल इंडियन कांग्रेस के उपयोग के लिए एक कोष बनाने के लिए बेच दिया जाना चाहिए। उनके मन में यह चल रहा था कि इन गहनों पर मेरा क्या हक़ है? मैंने तो अपने देशवासियों को बिना किसी पुरस्कार के सेवा करने का प्रण किया था। ये जो दिया गया वह तो जनसेवा के बदले दिया गया है। इसे रख लेना उचित नहीं है। उन्होंने अंत में यह निर्णय लिया कि उन्हें उन ज़ेवरातों को नहीं रखना है। पारसी रुस्तमजी आदि को इन गहनों का ट्रस्टी नियुक्त कर इनसे दक्षिण अफ़्रीका में एक सार्वजनिक ट्रस्ट स्थापित करेंगे। गांधीजी को मालूम था कि कस्तूरबा को समझाना कठिन होगा। हां, उन्हें विश्वास था कि बच्चों को समझाने में ज़रा भी कठिनाई नहीं होगी। उन्होंने सोचा कि बच्चों का सहारा इस बात की पैरवी के लिए लिया जाए। हुआ भी ऐसा ही। सुबह होते ही गांधीजी ने अपने चौदह वर्ष के पुत्र हरिलाल और नौ वर्ष के मणिलाल को बुलाया और दोनों से इस विषय पर चर्चा की। दोनों बेटों ने लोभ-लालसा के बिना भेंट-आभूषण नहीं लेना चाहिए, ऐसा अपना स्पष्ट मत दिया। वे बोले कि उन्हें इन गहनों की ज़रूरत नहीं है, ये सब लौटा देने चाहिए। गांधीजी ख़ुश हुए। बोले, “तो तुम अपनी मां को समझा सकोगे न?”

बच्चों ने कहा, “ज़रूर, ज़रूर! यह काम हमारा समझिए। उसे कौन ये गहने पहनने हैं? वह तो हमारे लिए ही रखना चाहती है। हमें उनकी ज़रूरत नहीं है, फिर ज़िद क्यों करेगी?”

पर वह इतना आसान काम नहीं था। हरिलाल ने अपनी मां के सामने उपहार वापस देने का प्रस्ताव रखा, लेकिन कस्तूरबा को यह बात अच्छी नहीं लगी। भेंट में एक 50 गिन्नी मूल्य का हार भी था। वह कस्तूरबा को भेंट किया गया था। लेकिन गांधीजी उसे भी रखने के पक्ष में नहीं थे। वह भी तो उनकी सार्वजनिक सेवा के बदले मिला था। बा तब तक उन उपहारों को अपनी मिल्कियत मान चुकी थीं। वे उन्हें लौटाने को तैयार नहीं थीं। बा की आंखों से अश्रु धारा निकल पड़ी और वे गांधीजी को कोसते हुए बोलती जा रही थीं, “भले आपको ज़रूरत न हो और लड़कों को भी न हो। बच्चों को तो जिस रास्ते लगा दो, उसी रास्ते वे लग जाते हैं। भले मुझे न पहनने हैं, पर मेरी बहुओं का क्या होगा? उनके तो ये चीज़ें काम आएंगी न? क्या सोना संकट के समय काम नहीं आता? और कौन जानता है कल क्या होगा? इतने प्रेम से दी गयी चीज़ें वापस नहीं की जा सकतीं। घर आई लक्ष्मी को कोई ठुकराता है क्या?” मैं इन्हें नहीं लौटाने दूंगी।

एक तरफ़ जहां बच्चे दृढ़ रहे वहीं दूसरी तरफ़ गांधीजी के तो अपने निर्णय से डिगने का सवाल ही नहीं था। उन्होंने धीरे से कहा, “लड़कों का ब्याह तो होने दो। हमें कौन उन्हें बचपन में ब्याहना है? बड़े होने पर तो वे स्वयं ही जो करना चाहेंगे, करेंगे। और हमें कहां गहनों की शौकीन बहुएं खोजनी हैं? इतने पर भी कुछ कराना ही पड़ा, तो मैं कहां चला जाऊंगा?”

बा ने तर्क दिया, “जानती हूं आपको। मेरे गहने तो उतरवा दिए न! जिन्होंने मुझे सुख से न पहनने दिये, वह मेरी बहुओं के लिए क्या लाएंगे? लड़कों को आप अभी से बैरागी बना रहे हैं! ये गहने वापस नहीं दिये जा सकते। और, मेरे हार पर आपका क्या अधिकार है? आपको जो उपहार मिले हैं, उन्हें आप लौटा दीजिए, लेकिन जो मुझे मिले हैं, इन्हें मैं नहीं लौटाऊंगी।

गांधीजी की अपनी दलील थी, “पर यह हार तुम्हारी सेवा के बदले में मिला है या मेरी सेवा के?”

बा अपनी ज़िद पर कायम रहीं, “कुछ भी हो। आपकी सेवा भी मेरी सेवा हुई। मुझे रुला-रुलाकर सेवा करने के लिए विवश किया है आपने। ग़ैरमर्दों के गू-मूत उठाएं हैं हमने। आपकी ख़ातिर मैंने दिन-रात एक करके मेहनत-मशक्कत की है। क्या वह सेवा नहीं है? आपने चाहे जिस किसी को मुझपर थोप दिया और मुझे ख़ून के घूंट पीने पर मज़बूर किया, लेकिन उन सबके लिए मैं मरती खपती रही।

बा के सारे बाण नुकीले थे। बापू को चुभ भी रहे थे। पर उन्हें तो गहने वापस करने ही न थे।

उपहार ट्रस्ट में नाम

बा के सारे तर्क धरे रह गए। जैसे-तैसे उन्होंने कस्तूरबाई से सहमति प्राप्त की। 15 अक्तूबर 1901 को उपहार लौटा दिए। 1896 से 1901 तक जो भी उपहार मिले थे उनका एक ट्रस्ट बना दिया। उन्होंने सभी वस्तुओं की एक सूची बनाई और उन्हें सार्वजनिक सम्पत्ति के रूप में एक न्यास बनाकर अफ्रीकन बैंक निगम में जमा कर दिया। इसका उपयोग दक्षिण अफ़्रीका में रहने वाले भारतीयों के कल्याण के लिए गांधीजी अथवा ट्रस्टियों की इच्छा के अनुसार किया जाए, इस शर्त के साथ सारे उपहार बैंक में रख दिया गया। दिन बीतने के साथ कस्तूरबाई को भी इसके औचित्य की प्रतीति हो गई। गांधीजी अपना मत सबको समझाने में सफल हुए कि सार्वजनिक सेवा के लिए निजी भेंटें नहीं हो सकतीं। कस्तूरबाई का दिल टूट गया और गांधी को यह जानकर खुशी हुई कि उनका सबसे बड़ा बेटा हरिलाल अपने पिता के नक्शेकदम पर चल रहा है।

नेटाल के भारतीयों ने उन्हें "प्रेम के अमृत से नहलाया।" भारी मन से गांधीजी अपने परिवार के साथ 1901 के अंत में भारत के लिए रवाना हुए।

उपसंहार

संभवतः पूरी तरह से जागरूक हुए बिना ही गांधीजी धीरे-धीरे उस शक्ति की गतिशीलता की ओर बढ़ रहे थे, जिसका उपयोग उन्होंने बाद में भारत के स्वतंत्रता के अहिंसक संघर्ष में इतने प्रभावी ढंग से किया। दक्षिण अफ्रीका में उनके प्रवास ने उन्हें अपने कार्यकलापों का लक्ष्य स्वार्थ के बजाय सेवा करना सिखाया था। गांधीजी इस प्रसंग के बारे में लिखते हैं: “अपने इस कदम के लिए मुझे कभी पछतावा नहीं हुआ। कुछ समय बाद कस्तूरबाई की समझ में भी आ गया कि मेरा यह कदम सही था। इसकी वजह से हम जीवन में अनेक प्रलोभनों से बच गये हैं।  बाद में सत्याग्रह आंदोलन के समय यह धन काफी काम आया।समाज सेवक को उपहार लेने का कोई हक़ नहीं होता, ऐसा आदर्श अपरिग्रह को 1901 में गांधीजी ने स्वयं चरितार्थ कर दिखाया। काश समाज-सेवा के नाम पर राजनीति करने वाले आज के नेतागण इस तथ्य का पालन करते!

... और जब परिवार के साथ गांधीजी भारत के लिए रवाना हुए तो अफ़्रीका में एक नई चेतना और नई क्रान्ति का सूत्रपात हो चुका था। इधर गांधीजी ने अभी तक खुद को नहीं पाया था। उनके पास कोई स्थिर लक्ष्य या वास्तविक व्यवसाय नहीं था। जब वह भारत लौटे, तो उनकी महत्वाकांक्षा बॉम्बे में एक लॉ ऑफिस खोलने की थी। यह बॉम्बे वकील बनने का उनका तीसरा प्रयास था और पहले की तरह ही असफल रहा।

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मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद

संदर्भ : यहाँ पर

 

गुरुवार, 3 अक्तूबर 2024

94. लॉर्ड कर्ज़न का कार्यकाल

 गांधी और राष्ट्रीय आन्दोलन

94. लॉर्ड कर्ज़न का कार्यकाल


1899

प्रवेश

लॉर्ड कर्ज़न का कार्यकाल भारत के वायसराय के तौर पर 6 जनवरी, 1899 से 18 नवंबर, 1905 तक रहा। उसका पूरा नाम जॉर्ज नैथानिएल कर्ज़न था 1859 में जन्मे 39 साल की उम्र में कर्ज़न भारत के सबसे कम उम्र का वायसराय बना था उसकी प्रशासनिक नीतियों और सुधारों का भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन और भारत में औपनिवेशिक सरकार की भविष्य की नीतियों पर भी बहुत प्रभाव पड़ा।

प्रशासन की कार्यकुशलता

वायसराय लॉर्ड कर्जन का कार्यकाल प्रशासन की कार्यकुशलता के लिए विख्यात रहा है। उसने कहा भी था, मेरी दृष्टि में शासित लोगों के संतोष का दूसरा नाम ही प्रशासन है। हालांकि उसने प्रशासनिक लालफीताशाही पर अंकुश लगाने का प्रयास किया लेकिन वह निष्ठावान अधिकारियों का कोई समूह नहीं बना सका और 1905 में उसने त्यागपत्र दे दिया।

अकाल से संबंधित सुधार

1899 में, जब कर्जन को वायसराय के रूप में नियुक्त किया गया था, भारत के कई क्षेत्र, विशेष रूप से दक्षिणी और पश्चिमी भाग, बड़े पैमाने पर अकाल से पीड़ित थे। कर्जन ने सुनिश्चित किया कि प्रभावित लोगों को पर्याप्त राहत मुहैया कराई जाए। लोगों को भुगतान के आधार पर काम दिया जाता था और किसानों को राजस्व के भुगतान से छूट दी जाती थी।

कृषि से संबंधित सुधार

पंजाब भूमि अलगाव अधिनियम 1900 में आया, जिसने किसानों से साहूकारों को धन के हस्तांतरण की अनुमति नहीं दी थी, जब किसान अपने कर्ज का भुगतान करने में असमर्थ थे। कर्जन ने इसके लिए कुछ मानक सिद्धांत तय किया। सहकारी ऋण समितियां अधिनियम, 1904 में बना ताकि नागरिकों को मुख्य रूप से जमा और ऋण के लिए समाज का गठन करने में सक्षम बनाया जा सके। इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य किसानों को धन की आवश्यकता वाले साहूकारों के पास जाने से बचाना था, क्योंकि वे साहूकारों से अत्यधिक ब्याज दर वसूलते थे।

रेलमार्ग के निर्माण में प्रगति

उसने 1901 में एक रेलवे आयोग का गठन किया, जिसके अध्यक्ष श्री रॉबर्टसन थे। इस आयोग ने दो साल बाद अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की जिसकी सिफारिशों को कर्ज़न ने स्वीकार कर लिया। परिणामस्वरूप उसके समय में रेलमार्ग के निर्माण में काफी प्रगति हुई और 6,000 मील नई रेल लाइनें बिछाई गईं। इतनी लंबी रेल लाइनें किसी अन्य वायसराय के कार्यकाल में नहीं बिछाई गईं। इसके अलावा, रेलवे का प्रशासन लोक निर्माण विभाग, जो पहले रेलवे को नियंत्रित करता था, के बजाय एक नवगठित रेलवे बोर्ड को सौंप दिया गया था, जिसमें तीन सदस्य शामिल थे,

आर्थिक नीतियाँ 

वर्ष 1899 में ब्रिटिश मुद्रा को भारत में कानूनी निविदा घोषित किया गया और एक पाउंड को पन्द्रह रुपए के बराबर घोषित किया गया था। नमक-कर की दर को कम किया गया।  इसके अतिरिक्त आयकर दाताओं को छूट दी गई। कर्ज़न ने वित्तीय विकेंद्रीकरण की नीति का समर्थन किया और इस प्रचलन को समाप्त कर दिया।

विक्टोरिया मेमोरियल स्मारक

कलकत्ता में विक्टोरिया मेमोरियल स्मारक बनाने की उसने योजना की आधारशिला रखी।

पुलिस में सुधार

1902 मेंलॉर्ड कर्ज़न ने ब्रिटिश भारत के प्रत्येक प्रांत में पुलिस के प्रशासन और कामकाज को देखने के लिए सर एंड्रयू फ्रेजर के तहत एक पुलिस आयोग का गठन किया। इस आयोग की सिफारिश पर उसने पुलिस में सुधार के नाम पर पुलिस की संख्या काफी बढ़ाई जिससे सरकारी ख़र्च में डेढ़ करोड़ रुपए सालाना की वृद्धि हुई। सिपाही और अधिकारी दोनों के लिए प्रशिक्षण स्कूल स्थापित किए गए।

कलकत्ता निगम अधिनियम, 1899

कलकत्ता के यूरोपीय समुदायों की हितों की रक्षा के लिए उसने कलकत्ता नगर निगम में भारतीय सदस्यों की संख्या कम कर दी। यह अधिनियम स्वशासन की अवधारणा के खिलाफ था क्योंकि इसने निर्वाचित विधायिकाओं की संख्या को कम करते हुए मनोनीत विधायिकाओं की संख्या में वृद्धि की। इस प्रकार, इस अधिनियम ने भारतीयों को सीधे विधायिका में निर्वाचित होने से वंचित कर दिया।

प्राचीन स्मारक अधिनियम, 1904

इस अधिनियम ने एक पुरातत्व विभाग की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया जिसका नेतृत्व एक निदेशक करता था। इस विभाग को ऐतिहासिक स्मारकों की मरम्मत, सुरक्षा और जीर्णोद्धार की जिम्मेदारी दी गई थी।

विश्वविद्यालय अधिनियम, 1904

कर्जन ने 1902 में विश्वविद्यालय आयोग की नियुक्ति की। इस आयोग की सिफारिशों के आधार पर राष्ट्रवाद के उठते ज्वार से ब्रिटिश राज की रक्षा के लिए उसने 1904 में विश्वविद्यालय अधिनियम लाया और सेनेट के सदस्यों की संख्या कम कर दी तथा बजट में कमी कर दी। इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य भारतीय विश्वविद्यालयों पर औपनिवेशिक सरकार के नियंत्रण को बढ़ाना था।

सेना में सुधार

लॉर्ड किचनर को 1902 में भारत के कमांडर-इन-चीफ के रूप में नियुक्त किया गया था। उसने कर्जन की देखरेख में सेना में कई सुधार किए। सेना को दो कमानों, उत्तरी कमान और दक्षिणी कमान में विभाजित किया। सेना के प्रत्येक डिवीजन में तीन ब्रिगेड की स्थापना की गई। इन तीन ब्रिगेड में से दो भारतीय बटालियन से और एक अंग्रेजी बटालियन से आई थी। सेना के लिए आवश्यक तोपों, राइफलों, बारूद और अन्य सभी उपकरणों की आपूर्ति बढ़ाने के लिए कई कारखाने भी स्थापित किए गए थे।

न्यायपालिका में सुधार

कर्ज़न ने कलकत्ता हाई कोर्ट में न्यायाधीशों की संख्या में वृद्धि की। न्यायालय के न्यायाधीशों के वेतन में वृद्धि की गई। भारतीय नागरिक प्रक्रिया संहिता में भी संशोधन किया गया था।

बंगाल विभाजन अधिनियम 1905

कर्ज़न के द्वारा उठाया गया सबसे अलोकप्रिय कदम था, बंग-भंग। यह कदम जान-बूझकर ‘फूट डालो और राज करो’ नीति के तहत उठाया गया था। प्रशासनिक सुविधा के दृष्टिकोण से 1874 में असम और सिलहट को बंगाल प्रेसीडेंसी से अलग कर दिया गया था। बंगाल विभाजन के उसके इस कदम के पीछे हिंदू-मुसलमान के बीच तनाव को जन्म दिया। वह पश्चिमी और पूर्वी बंगाल के राजनीतिज्ञों के बीच दरार उत्पन्न करना चाहता था। बंगाल, बिहार और उड़ीसा के विभाजन से एक तरफ़ तो विरोध का स्वर उठा ही, दूसरी तरफ़ बंगालियों में एकता की भावना भी बढ़ी। लोगों में एक नया आत्मविश्वास जगा।  लोगों ने इसे एक राष्ट्रीय अपमान समझा। बंगाल विभाजन के विरोध में हुए आन्दोलन के कारण 1905 में कर्ज़न भारत छोड़कर ब्रिटेन चला गया, लेकिन यह आंदोलन कई वर्षों तक चलता रहा। अंतत:  वर्ष 1911 में बढ़ते विरोध के कारण लॉर्ड हार्डिंग ने बंगाल विभाजन को रद्द करने की घोषणा की।

विदेश नीतियाँ

कर्ज़न ने अपने पूर्ववर्तियों शासकों के विपरीत उत्तर-पश्चिम में ब्रिटिश कब्ज़े वाले क्षेत्रों के एकीकरण, शक्ति और सुरक्षा की नीति का अनुसरण करना शुरू कर दिया। उसने चित्राल को ब्रिटिश नियंत्रण में रखा और पेशावर और चित्राल को जोड़ने वाली एक सड़क का निर्माण किया, जिससे चित्राल की सुरक्षा की व्यवस्था की गई। खैबर दर्रा, खुर घाटी, वज़ीरिस्तान आदि स्थानों से लॉर्ड कर्ज़न ने ब्रिटिश सैनिकों  को वापस बुला लिया। मध्य एशिया और फारस की खाड़ी क्षेत्र में रूसी विस्तार के डर से लॉर्ड कर्ज़न की अफगान नीति को राजनीतिक और आर्थिक हितों से जोड़ा गया था। शुरुआती दौर से ही अफगानों और अंग्रेज़ों के बीच संबंधों में दरार आ गई थी। अब्दुर रहमान (तत्कालीन अफगान अमीर) और अंग्रेज़ों के बीच एक समझौते पर हस्ताक्षर किये गए थे, जिसके तहत बाद में अफगानिस्तान को वित्तीय सहायता प्रदान करने के लिये प्रतिबद्ध किया गया था, इस प्रकार किसी  भी तरह के अफगान संबंधी तनाव से ब्रिटिश शासकों ने स्वयं को सुरक्षित किया। ब्रिटिश हित के लिये यह अनिवार्य था कि वह फारस की खाड़ी क्षेत्र में ब्रिटिश प्रभाव बनाए रखे क्योंकि रूस, फ्राँस, तुर्की आदि उस क्षेत्र में अपना प्रभाव बढ़ाने की कोशिश कर रहे थे। उस क्षेत्र में ब्रिटिश प्रभाव को सुरक्षित करने के लिये वर्ष 1903 में लॉर्ड कर्ज़न व्यक्तिगत रूप से फारस की खाड़ी क्षेत्र में गया और वहाँ ब्रिटिश हितों की रक्षा हेतु कड़े कदम उठाया। लॉर्ड कर्ज़न की तिब्बत नीति भी इस क्षेत्र में रूसी प्रभुत्व के डर से प्रभावित थी। वर्ष 1890 में तिब्बतियों ने अंग्रेज़ों के साथ एक व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर किये थे, लेकिन जब तक लॉर्ड कर्ज़न ने भारत का वायसराय पद संभाला, तब तक तिब्बत और ब्रिटिश भारत के बीच व्यापार संबंध पूरी तरह से समाप्त हो चुका  था। लॉर्ड कर्ज़न के प्रयासों ने  इन दोनों के बीच व्यापार संबंधों को पुनर्जीवित किया था जिसके तहत तिब्बत अंग्रेज़ों को भारी क्षतिपूर्ति देने के लिये सहमत हुआ।

प्रभाव

कर्ज़न की प्रतिक्रियावादी नीतियों ने भारतीयों में राष्ट्रवादी भावनाओं की एक नई भावना को प्रज्वलित किया और भारतीयों को औपनिवेशिक शासन के असली रंगों के बारे में जागरूक किया। स्वदेशी आंदोलन, असहयोग आंदोलन जैसे लगभग प्रमुख राष्ट्रवादी आंदोलनों का जन्म हुआ। राष्ट्रवाद की एक नई लहर पैदा हुई। कर्जन की प्रतिक्रियावादी नीतियों ने सांप्रदायिक संघर्ष को जन्म दिया जो आने वाले दशकों में और बढ़ गया।

उपसंहार

कर्ज़न एक निरंकुश शासक और नस्लवादी था और उसके बोल अपमानजनक होते थे। शिक्षित भारतीयों के प्रति पूरे कार्यकाल के दौरान उसका वैमनस्य बना रहा। वह भारत में ब्रिटिश राज को सुदृढ़ता से स्थापित करना चाहता था। वह कांग्रेस को ‘गंदी वस्तु’ मानता था। उसने निर्णय लिया था कि कांग्रेस पर कभी ध्यान नहीं देगा। वह कांग्रेस को राजद्रोहात्मक और ब्रिटिश सरकार के लिए खतरनाक मानता था। कर्ज़न को भारत को स्थायी रूप से ब्रिटिश राज के अधीन रहने उम्मीद  की थी। लेकिन उसके द्वारा किये गए बंगाल विभाजन और उसके बाद हुए भारी बहिष्कार और विरोध ने कॉन्ग्रेस को पुनर्जीवित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। कर्ज़न, जिसने 1900 के दशक में कान्ग्रेस को 'इसके पतन के लिये  लड़खड़ाहट या डगमगानेवाले' के रूप में संबोधित किया, अंततः  भारत को कान्ग्रेस के साथ अपने इतिहास में उस समय की तुलना में अधिक सक्रिय और प्रभावी बना दिया।

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मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद

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