राष्ट्रीय आन्दोलन
362. ग्रामोद्योग-संघ
की स्थापना
1934
गांधीजी ने कांग्रेस से रिटायरमेंट ले लिया और
गांव के उद्योगों और दूसरे रचनात्मक कामों को फिर से शुरू करने और उन्हें आगे
बढ़ाने में दोगुने जोश और जोश के साथ लग गए। उन्होंने वर्धा के सत्याग्रह आश्रम
में अपना घर बना लिया और उसे कामों का अड्डा बना दिया। अक्तूबर 1934 की बंबई कांग्रेस ने जहाँ गांधीजी के इस्तीफे
को मंजूर किया, वहीं उनके निर्देशन में अखिल भारत ग्रामोद्योग संघ की
स्थापना का प्रस्ताव भी पास किया। इस तरह 26 अक्तूबर को ग्रामोद्योग-संघ की स्थापना हुई। ग्रामोद्योग
संघ कांग्रेस की राजनैतिक हलचल से परे रहकर ग्रामोद्योग की रक्षा और उन्नति एवं
गांवों के नैतिक तथा आर्थिक उत्थान के लिए काम करने के उद्देश्य से बनाई गई थी।
1915 में भारतीय राजनीति में प्रवेश करने के बाद से
ही गांधीजी गाँवों के प्रति नया दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता पर ज़ोर देते आ रहे थे। ज़मीन
पर बेहद दबाव और सहायक उद्योगों
के अभाव के कारण गाँवों में कभी छः तो कभी बारहों महीने बेकारी बनी रहती थी। किसानों
की यह घोर दरिद्रता गांधीजी को एक क्षण भी चैन नहीं लेने देती थी। चरखे से किसानों को तात्कालिक राहत मिल जाती थी, इसीलिए गांधीजी उसका काफी समर्थन और प्रचार
करते थे। इस संस्था ने दस वर्षों में अपना कारोबार
खूब बढा लिया था। 5300 गाँवों में इसकी शाखाएं थीं और इसने कुल मिलाकर 2,20,000 कताई करनेवालों, 20,000 बुनकरों और 20,000 धुनकरों को रोज़ी रोटी दी थी और गाँवों में दो
करोड रुपए से भी ज्यादा का भुगतान किया था।
गांधीजी गांवों के प्रति नया दृष्टिकोण अपनाने
की आवश्यकता पर ज़ोर देते थे। वे गांवों की बेकारी और दरिद्रता से दुखी रहते थे।
इसे दूर करने के उपाय सोचते रहते थे। अखिल भारतीय चरखा संघ की स्थापना से किसानों
को तात्कालिक राहत तो मिल ही जाती थी। लेकिन यह काम समुद्र में बूंद की तरह था।
देश की 85 प्रतिशत जनता गांव में रहती थी। इसलिए उनका आर्थिक और सामाजिक पुनरुत्थान
देश को विदेशी शासन से मुक्त करने की आवश्यक शर्त थी।
गांधीजी के अस्पृश्यता-निवारण के कार्यक्रम का
एक आर्थिक पहलू भी था। हरिजनों की आर्थिक स्थिति को उन्नत किए बिना उनका उद्धार असंभव ही था।
इस दृष्टि से भी ग्रामोद्योगों का पुनर्विकास गांधीजी के निकट अत्यंत आवश्यक और अपरिहार्य
हो गया था। 14 दिसंबर को वर्धा में बिना किसी शोर-शराबे के, धूल भरे माहौल में ऑल-इंडिया विलेज
इंडस्ट्रीज एसोसिएशन का जन्म हुआ। इसका श्रेय जमनालाल बजाज को जाता है, जिन्होंने एसोसिएशन के इस्तेमाल के लिए
बिल्डिंग्स के साथ काफी ज़मीन अलग रखी। पहले मैनेजमेंट बोर्ड के खास सदस्यों में
ऑर्गनाइज़र और सेक्रेटरी जे. सी. कुमारप्पा, डॉ.
प्रफुल्ल घोष, शंकरलाल बैंकर और डॉ. खान साहिब थे। बोर्ड की
लिस्ट में ये सलाहकार थे: रवींद्रनाथ टैगोर, सर
जे. सी. बोस, सर पी. सी. रे, सर
सी. वी. रमन, डॉ. अंसारी और दूसरे।
गांधीजी जो कहते थे सबसे पहले स्वयं उसपर आचरण
करके दिखाते थे। वह वर्धा से थोडी दूर सेवाग्राम में रहते थे। यह बहुत ही छोटा और पिछडा हुआ गाँव था। सेवाग्राम
गांधीजी के ग्राम-कल्याण योजनाओं का केन्द्र तो था ही, अखिल भारतीय ग्रमोद्योग संघ
का प्रधान कार्यालय भी मगनवाड़ी (वर्धा) में रखा गया। कम पूँजी और सिर्फ गाँव की ही मदद से चल सकने वाले उद्योगों की सहायता, विकास और विस्तार के लिए यहां पर एक प्रशिक्षण
केन्द्र भी खोला गया।
भारत के सात लाख गाँवों को गरीबी, बीमारी और अज्ञान के अभिशापों से मुक्त करना आसान काम नहीं था। इसके लिए विभिन्न क्षेत्रों
में निरंतर काम करते रहने की ज़रूरत थी। गांधीजी जानते थे कि शहर के बुद्धिजीवी वर्ग की सक्रिय
सहायता के बिना गाँवों का उद्धार असंभव है। इसलिए उन्होंने कांग्रेस को अपने वार्षिक
अधिवेशन गांवों में करने की सलाह दी। फैजपुर, हरिपुरा, त्रिपुरी आदि कांग्रेस
अधिवेशन इस दिशा में सराहनीय कदम था। हर समस्या को गांधीजी गांव की आवश्यकता और
ग्रामीणों के दृष्टिकोण से देखते-समझते थे। उसका ग्रामोपयोगी हल खोजते थे।
ग्रामोत्थान श्रम-साध्य और समयसाध्य कार्य है। इसमें सतत लगे रहना पड़ता है।
गांधीजी कहते थे कि स्वदेशी का मतलब यही नहीं है कि वस्तु-विशेष देश में बनी हुई हो, बल्कि वह गाँव की बनी हुई होनी चाहिए। शहर
द्वारा गाँव के शोषण को गांधीजी ने हिंसा का ही एक रूप
माना था। उन्होंने नगरवासियों से अनुरोध किया कि वे अपने दैनिक
उपभोग की वस्तुओं को ध्यान से देखें कि उनमें कौन स्वदेशी और कौन विदेशी है और एक-एक करके
उन्हें गाँव की बनी चीज़ों से बदलते चले जाएं। गाँव की बनी चीजें कुछ महँगी हो सकती हैं, लेकिन उनकी मजदूरी और मुनाफा भी तो गांववालों को ही मिलेगा, जिन्हें रोज़ी-रोटी की इतनी अधिक आवश्यकता है। उनका
मानना था कि शहर और गाँव
के बीच के आर्थिक और सामाजिक अंतर को मिटाना ही होगा।
गांधीजी के कई सहयोगियों का कहना था कि ऐसे निरापद काम से स्वाधीनता-प्राप्ति
के लक्ष्य में क्या सहायता मिल सकती है? यह
तो मुख्य राजनैतिक सवाल को उलझन में डालकर गौण समस्याओं की ओर राष्ट्र का ध्यान आकर्षित करना हुआ। गांधीजी ने इसका जवाब दिया
था—“मेरी समझ में नहीं आता कि जब सरकार की आर्थिक नीतियों का ऊहापोह राजनैतिक
काम माना जा सकता है तो ग्रामोत्थान की अत्यंत आवश्यक समस्याओं पर सोचना-विचारना और
उनका हल खोजना राजनैतिक क्यों नहीं है?”
कुछ लोग गांधीजी की आलोचना करते हुए कहते कि
गांधीजी अपनी पिछड़ी सोच के तहत विज्ञान और उद्योग की प्रगति से मुंह मोड़कर जिस
आदिकालीन अर्थ-नीति की सिफ़ारिश कर रहे हैं, वह तो देश को ग़रीबी के गड्ढे से कभी
उबरने ही नहीं देगी। पश्चिमी टेक्नॉलोजी या पश्चिमी बाजार का जब महात्मा गांधी
विरोध करते थे, उसे पिछड़ी सोच की निशानी नहीं कहा जा सकता। गांधीजी कहा करते थे, ‘मास प्रोडक्शन’
और ‘प्रोडक्शन फ़ॉर दि मासेज़’ में बड़ा अन्तर है। मुक्त उद्यम में बड़े पैमाने
पर उत्पादन तो ज़रूर होता है, लेकिन यह अमीरों को और अमीर और ग़रीबों को और ग़रीब बना
देता है। वह मशीनों के विरोध में नहीं थे। चरखा भी तो एक मशीन ही था। वह उस यंत्र
का उपयोग चाहते थे जो जनता को लाभ पहुंचाने वाला हो।
गांधीजी के लिए स्वराज और आजादी का मतलब सिर्फ
मानचित्र पर एक अलग मुल्क का होना भर नहीं था। वह चाहते थे देश भी आजाद हो और देश
के लोगों की सोच भी आजाद हो। इसीलिए वह ग्रामोद्योग को बढ़ावा देने, देश के अंदर बने उत्पाद को ज्यादा से ज्यादा
बढ़ावा देने की बात करते थे।
यह उनका पश्चिमी तकनीकों के खिलाफ सत्याग्रह
था। उनकी सोच थी कि अगर हम पश्चिम तकनीकों और बाजार से जुड़े रहेंगे तो फिर लोगों
को अपनी अहमियत और मौलिकता का आभास नहीं होगा, जो किसी भी स्वतंत्र समाज के लिए पहली जरूरत
होती है। जब गांधीजी पश्चिमी तकनीकों का विरोध करते थे तब वह उनसे नफरत नहीं करते
थे और न उन्हें खारिज करते थे। वह कहते थे हमारे लिए वह न जरूरी है न प्रासंगिक।
अंग्रेजों की एक साजिश भी थी कि वह हमें मशीनों
पर इस तरह निर्भर करें जिससे हम कभी उबर नहीं पाए। हमारे हुनर और कारोबार को
समाप्त कर दिया गया था। गांधीजी ने इस चुनौती को पहले ही भांप लिया। उन्होंने
लोगों के बीच पश्चिमी तकनीक के विरोध को अस्मिता से जोड़ा। लोगों में राष्ट्रीय
भावना को जगाया। गांधीजी का यह भी मानना था कि मशीन इंसान के सोच को नियंत्रित
करती है, एक सीमा में बांधती है। वह मशीन पर निर्भरता को खुली सोच में सबसे बड़ी
बाधा भी मानते थे।
आदर्श भारतीय गाँव की गांधीजी की कल्पना एक ऐसे
‘गणतन्त्र’ की थी, जो
अपनी मुख्य आवश्यकताओं के लिए पडोसियों पर निर्भर न हो। गांधीजी
के अहिंसात्मक समाज के आदर्श का मूलाधार राजनैतिक सत्ता का विकेन्द्रीकरण
था। गांधीजी की राय में अहिंसात्मक समाज का संगठन इस प्रकार से किया जाए कि आंतरिक
असमानताओं और तनावों को समाप्त किया जा सके। कारखानों की सभ्यता पर अहिंसात्मक
समाज का निर्माण नहीं किया जा सकता। केवल आत्म-निर्भर गांवों पर ही उसका निर्माण
हो सकता है। गांधीजी कहते थे, “ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था की जो मेरी कल्पना है,
उसमें शोषण के लिए कोई स्थान नहीं है। इसलिए हिंसा भी नहीं है। क्योंकि शोषण से
हिंसा का उदय होता है। इसलिए अहिंसामूलक होने से पहले ग्राममूलक होना ज़रूरी है।”
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
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