राष्ट्रीय आन्दोलन
361. गांधीजी
का कांग्रेस से अलग होना
1934
गांधीजी की गतिविधियों और बातों से यह अफवाह
फैल गई कि वह कांग्रेस को पूरी तरह से छोड़ने का इरादा रखते हैं। उन्होंने इसकी पुष्टि
भी की और वर्धा, 17 सितंबर, 1934
को लिखे एक लंबे बयान में इसके कारण भी बताए। "यह अफवाह सच थी कि मैंने
कांग्रेस से सारे संबंध तोड़ने के बारे में सोचा था। वर्किंग कमेटी और
पार्लियामेंट्री बोर्ड की मीटिंग के दौरान वर्धा आए मेरे दोस्तों के कहने पर, मैं उनसे सहमत था कि मेरे लिए कांग्रेस छोड़ना
ज़्यादा सुरक्षित होगा। पंडित गोविंद बल्लभ पंत और रफी अहमद किदवई ने एक बीच का
रास्ता सुझाया था, कि संगठन के किसी भी सक्रिय प्रशासन में हिस्सा
लिए बिना कांग्रेस में ही रहा जाए, लेकिन सरदार वल्लभभाई पटेल और मौलाना अबुल कलाम
आज़ाद ने उस रास्ते को पूरी तरह से मना कर दिया था। सरदार वल्लभभाई पटेल मुझसे
सहमत थे कि मेरे लिए कांग्रेस से रिटायर होने का समय आ गया है, लेकिन कई दूसरे लोग इस बात से सहमत नहीं थे।
सभी फायदे और नुकसान पर ठीक से सोचने के बाद, मैंने आखिरी कदम को कम से कम अक्टूबर में
कांग्रेस की मीटिंग के बाद तक टालने का सुरक्षित और समझदारी भरा रास्ता अपनाया है।
कांग्रेस के बहुत बड़े बुद्धिजीवी मेरे तरीके और विचारों, और उन पर आधारित प्रोग्राम से थक चुके थे। मैं
कांग्रेस की प्राकृतिक वृद्धि में मदद करने के बजाय रुकावट था। सबसे ज़्यादा प्रजातंत्रिक
और प्रतिनिधि संगठन बने रहने के बजाय, उस पर मेरा व्यक्तित्व हावी था। उसमें तर्क करने की आज़ादी नहीं थी।”
गांधीजी को यह विश्वास हो गया था कि उनके कुछ
अनुयायियों को उनके तरीक़ों से अरुचि हो गई है। कई कांग्रेसियों और गांधीजी के
नज़रिए में एक बढ़ता हुआ और बहुत बड़ा अंतर था। ऐसा उनका मानना था कि सहमत न होते
हुए भी वे उनकी नीतियों को स्वीकार करने का बहाना करते हैं। कांग्रेस पर उनका
व्यक्तित्व इस कदर छा गया है कि उसके जनवादी काम करने में बाधा पहुंचती है। यह
उचित नहीं है।
दृष्टिकोण संबंधी मतभेद तो कई और थे। सविनय
अवज्ञा आंदोलन के स्थगित होने से मतभेदों ने उग्र रूप धारण कर लिया था। असहयोग
आन्दोलन का जन्मदाता होने के बावजूद, गांधीजी
को पूरा यकीन था कि देश के मौजूदा हालात में और सिविल रेजिस्टेंस की कोई आम स्कीम
न होने पर, कांग्रेस के अंदर एक पार्लियामेंट्री पार्टी
कांग्रेस के बनाए किसी भी कार्यक्रम का ज़रूरी हिस्सा है, लेकिन
इस बात पर कांग्रेसजनों के बीच बहुत ज़्यादा मतभेद थे। कई कांग्रेसी निराश हो गए थे।
अस्पृश्यता निवारण के संबंध में गांधीजी के नैतिक और धार्मिक
दृष्टिकोण को उनके बहुत से अनुयायी सही नहीं मानते थे। छुआछूत पर भी, गांधीजी के सोचने का तरीका शायद कई
कांग्रेसियों से अलग था। उनके लिए, यह
एक बहुत ही धार्मिक और नैतिक मुद्दा था। कई लोग मानते थे कि इस सवाल को इस तरह
उठाकर सिविल प्रतिरोध संघर्ष के रास्ते में रुकावट डालना उनकी बहुत बड़ी गलती थी।
जब गांधीजी ने चरखा चलाने पर फिर से ज़ोर
देना शुरू किया और उसे “राष्ट्र का दूसरा फेफडा” कहा तो उनके अनेक सहयोगियों को उनकी यह बात भी
उचित नहीं लगी। गांधीजी का मानना था कि हम इसलिए खत्म हो रहे हैं क्योंकि हम
सिर्फ़ एक फेफड़ा इस्तेमाल कर रहे हैं, और
फिर भी कुछ ही कांग्रेसियों को पूरे भारत में चरखे की ताकत पर भरोसा है।
हलाकि सोशलिस्ट ग्रुप बनने का उन्होंने स्वागत
किया था, फिरभी उदीयमान समाजवादी गुट को वे खुद
ही अविश्वास की दृष्टि से देखते थे। उन्हें जल्दबाज़ों की टोली कहते थे।
कांग्रेस के बुद्धिजीवी वर्ग और उनके विचारों में
सबसे अधिक अंतर था अहिंसा के प्रश्न को लेकर। लगातार पन्द्रह वर्षों तक
सिखाने और आचरण करने के बाद भी अपने को गांधी मतावलंबी कहने वाले लोग अहिंसा को न तो ठीक से समझ पाए थे और न ही अपना
सके थे। सामूहिक सविनय अवज्ञा आम कांग्रेस-जन को ज़रूर पसंद आई थी, लेकिन वह तो गांधीजी की अहिंसात्मक कार्यप्रणाली
का सिर्फ एक अंग थी।
गांधीजी ने पटना में सिविल रेजिस्टेंस को
रोकने की सिफारिश की थी और सिविल
रेजिस्टेंस के साफ नतीजे हासिल न कर पाने की नाकामी की ओर ध्यान दिलाया था। उनका
मानना था कि न ही हम आतंकवादियों को यह दिखा पाए कि हमें अपनी अहिंसा पर उनकी
हिंसा से ज़्यादा भरोसा है। इसके उलट, हममें
से कई लोगों ने उन्हें यह महसूस कराया कि हमारे दिलों में भी वैसी ही हिंसा की
भावना है जैसी उनके दिलों में है। हमारी सोच, बात
और काम में पूरी तरह अहिंसा नहीं रही।
रचनात्मक कार्यक्रम उसका दूसरा पहलू था, जिसे अधिकांश कांग्रेसजन अराजनैतिक समझते थे। कांग्रेस ने अपने विधान में “शांतिपूर्ण और उचित उपायों” द्वारा स्वराज्य की प्राप्ति शब्द डाल दिए थे।
गांधीजी के “सत्यतापूर्ण और अहिंसक” शब्दों को उड़ा दिया गया था। गांधीजी को लगने
लगा कि उनका व्यक्तित्व एक दुःस्वप्न का काम कर रहा है और कांग्रेस में
विचार-स्वातंत्र्य का गला घोंट रहा है।
इन मतभेदों के कारण अक्तूबर, 1934 में गांधीजी कांग्रेस
से अलग हो गए। उन्होंने पटेल को कहा था, “मैं कांग्रेस को आज़ाद
कर रहा हूं, और अपनी इच्छानुसार काम करने के लिए ख़ुद आज़ाद हो रहा हूं। ... मैं
नाराज़ होकर, तैश में आकर या निराशा के कारण पृथक
नहीं हो रहा हूँ।” वे अकसर कहते थे, “मैं तो अब पार्टी का
चवन्निया सदस्य तक नहीं हूं।” वह कांग्रेस को आज़ाद
कर रहे थे और अपनी इच्छानुसार काम करने के लिए खुद आज़ाद हो रहे थे। उसके
बाद के तीन वर्षों तक उन्होंने राजनैतिक कार्यों में नहीं, ग्रामीण अर्थव्यवस्था के अध्ययन, मनन और ग्रामोद्धार के
काम में लगाए।
बै. त्रिकमदास ने गांधीजी से कहा, “समाजवादियों ने कांग्रेस छोड़ने का तय किया है।” तब गांधीजी ने कहा था, 'मेरा उपवास समाप्त होने तक कांग्रेस में बने रहो। सम्भव है कि शायद मैं ही तुम्हारे पक्ष में शामिल हो जाऊँ।’
लेकिन कांग्रेस उन्हें
अकेला छोड़ने का जोखिम नहीं उठा सकती थी।
बम्बई
कांग्रेस
अक्तूबर 1934 की बंबई कांग्रेस ने
गांधीजी के कांग्रेस से इस्तीफ़े को मंजूर कर लिया। इसके साथ ही इस अधिवेशन में
गांधीजी के निर्देशन में अखिल भारतीय ग्रामोद्योग संघ की स्थापना का प्रस्ताव भी
पास कर दिया। गांधीजी का कांग्रेस से रिटायर होने का इरादा सिर्फ एक नए अध्याय की
शुरुआत थी; वह बड़े रचनात्मक काम
शुरू करना चाहते थे। कांग्रेस दिशा-निर्देश के लिए गांधीजी की तरफ देखती थी और
आज़ादी पाने के लिए सत्याग्रह के तरीके पर टिके रहने का इरादा रखती थी। राजेंद्र
प्रसाद ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा: "तरीका बिल्कुल साफ है। यह एक्टिव, डायनामिक, अहिंसक, मास एक्शन है। हम एक
बार फेल हो सकते हैं, हम दो बार फेल हो सकते हैं, लेकिन हम किसी दिन सफल
होंगे ही। कई लोगों ने अपनी जान गंवाई है। और भी कई लोगों ने आज़ादी की लड़ाई में
अपनी कुर्बानी दी है। हमें उन मुश्किलों से डरना नहीं चाहिए जो हमारे सामने हैं और
न ही डर या एहसान से अपने सीधे रास्ते से भटकना चाहिए। हमारे हथियार अद्वितीय हैं
और दुनिया इस बड़े प्रयोग की प्रगति को दिलचस्पी और बड़ी उम्मीदों के साथ देख रही
है।"
'ग्रामोद्योग-संघ कांग्रेस की राजनैतिक
हलचल से परे रहकर' ग्रामोद्योग की रक्षा
और उन्नति एवं गाँवों के नैतिक तथा आर्थिक उत्थान के लिए काम करने के उद्देश्य से
बनाई गई थी। गांधीजी अपनी और कांग्रेस की गति-विधियों को जो नई दिशा दे
रहे थे, यह प्रस्ताव उसी का
सूचक था।
28 अक्टूबर को, सेशन के आखिरी दिन, एक दिल को छू लेने
वाला दृश्य था जब गांधी कांग्रेस से अपना आधिकारिक संबंध तोड़ने के लिए पंडाल में
आए। 80,000 लोगों की पूरी ऑडियंस एक आदमी के सामने खड़ी हो गई और महान
लीडर के प्रति अपना सम्मान दिखाया। उन पर भरोसे का एक प्रस्ताव पास किया गया: "यह
कांग्रेस महात्मा गांधी की लीडरशिप में अपना भरोसा दोहराती है और... उनके फैसले को
बिना मन के स्वीकार करते हुए, देश के लिए उनकी खास
सेवाओं के लिए अपना गहरा आभार दर्ज करती है और उनके इस भरोसे को तसल्ली के साथ नोट
करती है कि जब भी ज़रूरत होगी, कांग्रेस को उनकी सलाह
और गाइडेंस मिलेगी।"
गांधी ने कहा, "कांग्रेस संगठन में
मेरी दिलचस्पी अब से दूर से देखने और उन सिद्धांतों को लागू करने तक ही सीमित
रहेगी जिनके लिए कांग्रेस खड़ी है। अगर हम पूरी तरह से सच बोलना चाहते हैं, तो हमें यह मानना
होगा कि कांग्रेस के प्रोग्राम का मुख्य हिस्सा धीरे-धीरे सामाजिक, नैतिक और आर्थिक रहा
है। और यह एक शक्तिशाली प्रोग्राम इसलिए बनता है क्योंकि यह ज़रूरी तौर पर
राजनीतिक से जुड़ा है, यानी देश को विदेशी गुलामी से
आज़ादी दिलाना, न कि विदेशी दोस्ती से, यानी विदेशी देशों के
साथ पूरी बराबरी की शर्तों पर अपनी मर्ज़ी से मेलजोल। मैं एक चेतावनी भी देना
चाहता हूँ। मुझे उम्मीद है कि कोई यह नहीं सोचेगा कि खद्दर क्लॉज़ और लेबर
फ्रैंचाइज़ तुरंत लागू नहीं होंगे। वे होते हैं। मैं लापरवाही का दोषी हूँ क्योंकि
मैंने पहले इन बातों पर ज़ोर नहीं दिया था ताकि उन्हें सिविल नाफ़रमानी शुरू करने
की एक शर्त बनाया जा सके। कांग्रेस से मेरा रिटायरमेंट उस लापरवाही का प्रायश्चित
माना जा सकता है, हालाँकि यह पूरी तरह
से अनजाने में हुई थी। मेरा मकसद सिविल नाफ़रमानी की क्षमता का विकास करना है। ऐसी
नाफ़रमानी जो पूरी तरह से सिविल को कभी भी बदले की भावना नहीं जगानी चाहिए।"
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
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