गांधी और गांधीवाद
प्रेरक
प्रसंग
363. भूल
का अनोखा प्रायश्चित
1934
नागपुर के पास अस्पृश्यता-निवारण संबंधी दौरा हो
रहा था। एक दिन की बात है। बापू का हाथ पोंछने वाला रूमाल पिछले पड़ाव पर काम-धाम
की अफरा-तफरी, भीड़-भाड़ में कहीं छूट गया। शायद सूखने के लिए फैलाया गया था, वहीं
रह गया। बापू को रूमाल की जब ज़रूरत पड़ी, तो उन्होंने महादेवभाई देसाई से मांगा।
महादेवभाई ने कहा, “खोज लाता हूं।”
उन्होंने बहुत खोजा। रूमाल नहीं मिला। बड़ी
दुविधा में थे महादेवभाई, बापू से कैसे कहा जाए कि रूमाल नहीं मिला, कहीं खो गया।
फिर भी कहना तो था ही। उन्होंने जाकर कहा, “बापू, रूमाल शायद पिछले पडाव पर छूट गया है। मिल नहीं रहा।
मैं दूसरा ला देता हूं।”
बापू कुछ देर तक चुप रहे। कुछ सोचते रहे। फिर
उन्होंने पूछा, “महादेव! वह कितने दिन तक चलता?”
महादेवभाई ने कहा, “चार महीने और चलता।”
बापू ने अपना निर्णय सुनाया, “तो फिर मैं चार महीने बिना रूमाल के ही चलाऊंगा।
भूल का यह प्रायश्चित है। बाद में दूसरा रूमाल लेंगे।”
महादेवभाई क्या बोलते?
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मनोज
कुमार
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संदर्भ : यहाँ पर
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