पं. सोहन लाल द्विवेदी की ये पंक्तियां उस महापुरुष को समर्पित हैं जिन्होंने सारे विश्व को एक नयी दिशा दी। उन्होंने जो कुछ कहा और किया वह इतिहास बन गया। जिनके सत्कर्मों ने उन्हे जीते जी संत बना दिया क्योंकि वे दुनिया की मोहमाया से अपने आपको अलग रख पाए और सच के रास्ते पर चलते रहे। उन्होंने पूरे देश का आचरण ही बदल डाला। उनका व्यक्तित्व हमेशा प्रेरणा देता रहता है। अपने जीवन में वे जब-जब अत्यंत विनीत लगे तब-तब वे अत्यंत शक्तिशाली थे साथ ही अत्यंत व्यावहारिक भी। । उनको सारा विश्व मोहन दास करमचंद गांधी के नाम से जानता है।''चल पड़े जिधर दो पग डगमग, चल पड़े
कोटि पग उसी ओर,
पड़ गयी जिधर भी एक दृष्टि, गड़ गये
कोटि दृग उसी ओर।''
उनका जन्म 2 अक्तूबर 1869 को गुजरात के काठियावाड़ के पोरबन्दर नामक स्थान पर हुआ था। उनके पिता का नाम करमचंद गांधी था। करमचंद गांधी राजकोट के दीवान थे। गांधी जी की माता का नाम पुतली बाई गांधी था। चालीसवें साल के बाद करमचंद गांधी ने पुतली बाई से शादी की थी। ये उनकी चौथी पत्नी थीं। उनसे एक कन्या और तीन पुत्र हुए। तीसरे पुत्र मोहनदास थे। वे बनिया परिवार से थे तथा उनका परिवार वैष्णव था। पुतलीबाई अत्यधिक धार्मिक और श्रद्धालु महिला थीं। गांधी जी के दादा का नाम उत्तम चंद गांधी था। बचपन में गांधी जी के माता-पिता एवं मित्र उन्हें मोनिया कह कर पुकारते थे।
गांधी जी की प्रारंभिक शिक्षा राजकोट में प्रताप कुंवरबा प्राथमिक विद्यालय में 1876 से 1879 तक हुई। सात साल की उम्र में गांधी जी को पोरबंदर छोड़ना पड़ा क्योंकि उनके पिताजी राजकोट के दीवान बना दिये गए। पोरबंदर से उनके पिताजी राजस्थानिक कोर्ट के सदस्य बनकर राजकोट आए। राजकोट में गांधीजी ने अल्फ्रेड स्कूल में शिक्षा प्राप्त की।
बचपन मे देखे गये दो नाटक श्रवण-पितृभक्ति एवं सत्य हरिश्चंद्र का गांधीजी के व्यक्तित्व पर काफी प्रभाव पड़ा। खासकर “हरिश्चन्द्र” का जिसने सत्य के लिए हर चीज़ का बलिदान कर दिया तथा प्राण त्यागने के पूर्व जिसे दारुण दुखों का निरंतर सामना करना पड़ा था। एक बार उनके मन में कोई बात बैठ जाती तो उसको निकाला नहीं जा सकता था। जैन सुधारक राजाचन्द्र का भी उनके व्यक्तित्व पर स्पष्ट प्रभाव मिलता है।
स्कूल के दिनों में गांधीजी का क्रिकेट खेल एवं कसरत में मन नहीं लगता था। उस समय उनका यह ग़लत ख्याल था कि शिक्षा के साथ कसरत का कोई संबंध नहीं है। बाद में उन्हें अपनी इस भूल का अहसास हुआ कि विद्याभ्यास में व्यायाम का, शारीरिक शिक्षा का मानसिक शिक्षा के समान स्थान होना चाहिए।
गांधीजी की लिखावट का अक्षर बहुत ही ख़राब था। गांधीजी कहा करते थे कि अक्षर बुरे होना अपूर्ण शिक्षा की निशानी है। बचपन में वे अपना अक्षर सुधार नहीं पाए और बड़े होकर प्रयास कर के भी वह अच्छा नहीं हो सका। उनका कहना था कि सुलेख शिक्षा का ज़रूरी अंग है।
गांधीजी राम नाम जपते थे। राम नाम जपने की सलाह उनके परिवार की नौकरानी रम्भा ने दी थी। गांधीजी को बचपन में भूत-प्रेत का डर लगता था। रम्भा ने उन्हें समझाया कि इसकी दवा रामनाम है। इसलिए बचपन में भूत-प्रेतादि से बचने के लिए उन्होंने रामनाम जपना शुरु किया।
तेरह वर्ष की उम्र में 1882 में गांधीजी का विवाह हुआ। उनकी पत्नी का नाम कस्तूरबा बाई था। कस्तूरबा बाई के वे अत्यंत दिवाने थे पर बाद के दिनों में उन्हें अपनी इस विषयाशक्ति पर शर्म महसूस होती थी। हो सकता है इसी कारण ने बाल-विवाह पर उनके मन में बड़े कठोर विचारों को जन्म दिया और वे इसे भीषण बुराई मानते रहे। उन्होंने जीवन भर कस्तूरबा बाई में अपने जीवन की सुखशांति पाई।
बचपन में 14 वर्ष की उम्र में गांधीजी के मन में आत्महत्या का ख्याल आया। अभी तो बस उनके विवाह को एक ही साल हुआ था। वे अपना जीवन समाप्त कर देना चाहते थे। ऐसी कौन सी विपदा आन पड़ी थी। वे अपने एक रिश्तेदार के साथ आत्महत्या की योजना बनाने लगे। दोनों ही अपनी-अपनी ज़िन्दगी से ऊब गए थे। समस्या थी कि वे अपने से बड़ों की आज्ञा के बिना कोई भी काम नहीं कर पाते थे। स्वच्छंदता नहीं थी। यहां तक कि उन्हें चोरी छुपे धूम्रपान करना पड़ता था। उसके लिए कभी कभार नौकर की जेब खर्च के पैसे चुराने पड़ते थे। इस समस्या से निजात पाने के लिए उन्होंने आत्महत्या का तरीक़ा अपनाने को सोचा। अब मुख्य समस्या थी कि आत्महत्या कैसे की जाए। उन्होंने सुन रखा था कि धतुरे के बीज खाने से जहर की तरह का असर होता है। वे जंगल से धतुरे के बीज खोज लाए। फिर केदारजी मंदिर में गए। घी का दीपक जलाया। देव दर्शन किया। फिर मंदिर के एक कोने में खड़े हो गए। यहां पर उनका साहस जवाब दे गया। मन में ख्याल आया कि अगर एकदम से मृत्यु न हुई तो ...? फिरभी साहस कर दो-तीन दाने तो निगल ही गए। किन्तु इससे अधिक खाने का साहस उन्हें नहीं हुआ। उन्हें एहसास हुआ कि आत्महत्या का ख्याल जितना आसान है, उतना उसे अंजाम देना नहीं।
जब गांधीजी 16 साल के थे तो उनके पिता का देहांत हो गया।
18 वर्ष की आयु में गांधीजी ने सन् 1887 में मैट्रिक की परीक्षा पास की। मैट्रिक परीक्षा पास करने के पश्चात् गांधीजी ने श्यामल दास कॉलेज, भावनगर में दाखिला लिया।
गांधीजी ने बैरिस्टर की उपाधि इंगलैंड से ग्रहण की। 4 सितंबर 1888 को पत्नी की गोद में कुछ महीनों का बालक छोड़कर क़ानून की पढ़ाई के लिए बम्बई से इंगलैंड जलयान द्वारा रवाना हुए। मां के मन में चिंता थी कि उस नए वातावरण में पुत्र कहीं रास्ते से भटक न जाए। मां को विश्वास दिलाने के लिए एक जैन संत बेचारजी स्वामी ने इंगलैंड जाते समय गांधीजी से उनकी माता के समक्ष तीन प्रतिज्ञाएं ली थीं। ये प्रतिज्ञाएं थीं मद्य, मांस और स्त्री संग वर्जन की। जब गांधीजी ने लंदन में मैट्रिक की परीक्षा दी तो वे फ्रेंच, इंगलिश एवं केमिस्ट्री में तो पास कर गए, किंतु लैटिन में फेल हो गए। बाद में उन्होंने उसे भी पास कर लिया।
इंगलैंड में उन्होंने एक ग्रंथ पढ़ा, “लाइट ऑफ एशिया”। इसका उनके जीवन पर काफी गहरा असर देखने को मिलता है। वहां उन्होंने बाइबिल भी पढ़ी।
1891 में उन्होंने बैरिस्ट्री की परीक्षा पास की। उस साल जून में वे भारत लौट आए। जब वे बम्बई बंदरगाह पर उतरे तो अपने भाई से उन्होंने एक दुखद समाचार सुना। कुछ सप्ताह पहले उनकी मां का स्वर्गवास हो गया था। यह दुखद घटना बताकर भाई उन्हें परीक्षावधि में परेशान नहीं करना चाह रहे थे। अतः उन्होंने यह समाचार दबाए रखा। गांधीजी तो अपनी मां को यह कहने आए थे कि विदेश जाने के समय जो शपथ उन्होंने ली थी, जो वादे उन्होंने किए थे, वे पूरे कर दिखाए। पर मां अब इस दुनियां में नहीं थीं। गांधीजी के लिए यह बड़ा ही कठोर आघात था। कितना दुखद भारत आगमन था उनका!
क़ानून की प्रैक्टिस करने के लिए वे राजकोट आए। इसी समय एक ऐसी घटना हुई जो काफी महत्वपूर्ण साबित हुई। उनके बड़े भाई, लक्ष्मीदास, राजा के सलाहकार के रूप में काम करते थे। उन पर आरोप था कि उन्होंने राणा साहब को ग़लत सलाह दी थी। उनकी इच्छा थी कि वे राज्य के प्रधानमंत्री बनें। उन्होंने गांधीजी को राजकोट स्थित ब्रिटिश अधिकारी से मध्यस्थता करने हेतु राजी किया ताकि यह काम आसानी से हो सके। लक्ष्मीदास को मालूम था कि अपने लंदन प्रवास के समय से ही गांधीजी की इस अधिकारी से जान पहचान थी। जब गांधीजी इस व्यक्ति से मिले तो उसने मदद करने से इंकार कर दिया। और जब गांधीजी इस काम के लिए अड़ गए तो उसने अपने चपरासी को आदेश दिया कि गांधीजी को उसके कमरे से धक्के मार कर बाहर कर दे। इस घटना से गांधीजी को गहरा आघात हुआ। इसने उनकी जीवनधारा ही बदल दी। इस घटना ने उन्हें अंग्रेजों के जुल्मों का स्वाद चखा दिया साथ ही उन्हें अंग्रेजों को भारत से खदेड़ने की प्रेरणा मिली। दक्षिण अफ्रिका में इसी तरह की एक और घटना ने उन्हें सबक सिखाया जब मार्टिज़बर्ग स्टेशन पर ब्रिटिश रेल अधिकारी द्वारा उन्हें घोर अपमान का सामना करना पड़ा।
24 वर्ष की आयु में अप्रैल 1893 में उन्हें दक्षिण अफ्रीका जाना पड़ा। एक गुजराती कंपनी दादा अब्दुल्लाह एण्ड कंपनी के मुक़दमे की पैरवी करने के लिए वे डरबन पहुंचे। संयोग से दक्षिण अफ्रीका की धरती पर क़दम रखने वाले वे पहले भारतीय बैरिस्टर थे। इस कंपनी ने एक अन्य कंपनी के ख़िलाफ़ चालीस हजार पाउंड हर्जाना का एक केस किया था। उनकी इच्छा थी कि गांधीजी उनका मुक़दमा लड़ें क्योंकि गांधीजी अच्छी तरह से अंगरेजी बोल सकते थे एवं उन्हें अंगरेजी क़ानून की भी अच्छी जानकारी थी। इसके अतिरिक्त वे चाहते थे कि उनके फार्म के लिए अंगरेजी पत्राचार भी गांधीजी ही करें।
उनका न्योता स्वीकार कर गांधीजी मई 1893 में नटाल के डरबन बंदरगाह पर काठियावाड़ी पोशाक में उतरे। चौबीस वर्षीय गांधीजी को इस बात का अंदाजा नहीं था कि वहां उनका जीवन ही बदल जाने वाला था। डरबन में एक सप्ताह रहने के बाद वे प्रिटोरिया के लिए रवाना हुए। प्रिटोरिया डरबन की राजधानी थी। रास्ते में उन्हें तरह-तरह का अपमान झेलना पड़ा। जब गाड़ी नाटाल की राजधानी मार्टिज़बर्ग पहुंची तो एक बार एक गोरे ने उन्हें ट्रेन की प्रथम श्रेणी के डब्बे से उतार दिया था। गांधीजी के पास प्रथम श्रेणी का टिकट था, फिर भी उन्हें जबरदस्ती उतार दिया गया। जाड़े की ठंडी रात थी। प्रतीक्षालय में ठिठुरते हुए उन्होंने रात बिताई। इस घटना ने उन्हें झकझोड़ कर रख दिया। अब वे एक बदले हुए व्यक्ति थे। मोहनदास ने निश्चय किया कि वे अब “नहीं” कहेंगे। उन्होंने प्रण किया कि चाहे जो भी क़ीमत चुकानी पड़े, वे इस तरह के अन्यायों के ख़िलाफ़ लड़ेंगे।
इसी तरह जब चार्ल्सटाउन से जोहान्सबर्ग जाने के लिए बग्गी पकड़नी थी तो पहले तो उन्हें बैठने की अनुमति ही नहीं दी गई पर काफी आग्रह करने पर गोरों ने अपमानित करने के उद्देश्य से उन्हें साथ चलने की अनुमति तो दी पर बग्गी में नहीं, बल्कि कोचवान के साथ बाहर बक्से पर बैठने को कहा। वे उधर गए तो उन्हें कोचवान के पास भी बैठने लायक नहीं समझा गया। उन्हें आदेश मिला कि वे पायदान पर बैठें। उनके सब्र का बांध टूट गया। उन्होंने इसका विरोध किया। फलस्वरूप उन्हें मारा पीटा गया। इतना ही नहीं, जोहान्सबर्ग स्टेशन पर उतरने के बाद रात बिताने के लिए गांधीजी ने होटल में कमरा लेना चाहा। गोरों ने तय कर लिया था कि उन्हें जगह नहीं देनी है, अतः जहां भी वे गए उन्हें जवाब मिला कि कोई भी कमरा खाली नहीं है। जोहान्सबर्ग से प्रिटोरिया जाने के लिए उन्होंने प्रथम श्रेणी का टिकट मांगा, तो बुकिंग क्लर्क ने टिकट देने से इंकार कर दिया। गांधीजी ने रेलवे क़ानूनों का हवाला दिया़ तब जाकर उन्हें टिकट मिला। लेकिन फिर उन्हें डब्बे से धक्का मार कर बाहर किया जाने लगा। यह अन्याय एक गोरे व्यक्ति से देखा न गया और उसने विरोध किया तब किसी तरह उन्हें पहले दर्जे में यात्रा करने दिया गया।
इस तरह के कटु अनुभव उन्हें विद्रोह एवं विरोध की प्रेरणा देते रहे। उन्होंने “इंडियन फ्रेंचाइज बिल” के विरोध में पहला जन प्रतिरोध किया। इस विधेयक के पास होने से भारतीयों को नटाल विधानमंडल के सदस्यों के चुनाव में मताधिकार के प्रयोग से वंचित होना पड़ता।
मुक़दमा समाप्त होने पर गांधीजी लौटने की तैयारी कर रहे थे। स्थानीय भारतीयों ने उनसे प्रार्थना की कि वे एक महीने और रुक जायें और इस विधेयक के ख़िलाफ़ आंदोलन का नेतृत्व करें। गांधीजी तैयार हो गए। दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी विभिन्न भारतीय समुदायों को संगठित करने का लगातार प्रयास करते रहे। इसके लिए उन्होंने 1894 में नटाल भारतीय कांग्रेस नाम से एक पार्टी गठित की। इसके साथ बाद में “इंडियन ओपीनियन” नामक एक अख़बार भी निकालना शुरु किया।
1896 के मध्य में अपनी पत्नी और बच्चों को लाने वे भारत आए। राजकोट में अपने पैतृक निवास से उन्होंने एक पम्फ़लेट निकाला जिसे “ग्रीन पम्फ़लेट” कहा जाता है। इसमें भारतीयों की दुर्दशा का विवरण था। उन्होंने भारतीयों के साथ हो रहे दुर्व्यवहार को देखा था एवं एक साम्राज्यवादी नीति का विरोध वे ज़रूरी मानते थे। पम्फ़लेट तो प्रिंट हो गया था पर इसकी ज़िल्दसाज़ी एवं बंधाई के लिए आवश्यक राशि न जुटा पाने के कारण उन्होंने पड़ोसी बच्चों की मदद से इसका सिलाई करा दी और एक हरे काग़ज़ से इस पर कवर चढ़ा दिया। फलतः इसका नाम पड़ा “ग्रीन पम्फ़लेट” ! यह ब्रिटिश हुक़ूमत के ख़िलाफ़ गांधीजी की पहली आवाज़ थी।
नवम्बर 1896 के अंतिम दिनों में गांधीजी को नटाल से संदेश मिला कि वे शीघ्र नटाल आ जाएं। वहां कुछ ऐसी घटनाएं हो रही थी कि उनका वहां होना ज़रूरी था। अतः गांधीजी को एक बार पुनः दक्षिण अफ्रीका की यात्रा करनी पड़ी। इस बार उनके साथ कस्तुरबा बाई, उनके दो पुत्र एवं उनकी विधवा बहन का एकमात्र पुत्र भी था। जब दिसम्बर 1896 में गांधीजी दक्षिण अफ्रीका आए तो बिना मेडिकल परीक्षण के उन्हें वहां उतरने की मनाही कर दी गई क्योंकि बम्बई में उन दिनों प्लेग फैला हुआ था और गांधीजी ने इस महामारी से लड़ने हेतु अपनी सेवाएं अर्पित की थी। क्वारेंटाइन के लिए उन्हें कुछ दिन जहाज पर ही रुकना पड़ा।
जनवरी 1897 में जब ये लोग जहाज से उतरे तो गांधीजी पर भीड़ ने आक्रमण कर दिया। इस उपद्रव का कारण था नटाल के गोरों द्वारा भारतीयों पर ढ़ाए जा रहे जुल्मों के विरोध में गांधीजी ने जो भारत में कहा और लिखा था। नटाल के शवेतों ने फैसला कर लिया था कि गांधी गड़बड़ी फैलाता है। गर्भवती कस्तूरबा एवं उनके दो बच्चों को किसी तरह वाहन में बैठाकर गांधीजी के पारसी मित्र रुस्तमजी के घर शरण लेनी पड़ी। भीड़ छंटने के बाद गांधीजी एवं एक अंग्रेज, रुस्तमजी के घर की तरफ बढ़े। किन्तु रास्ते में ही लोगों ने गांधीजी को पहचान लिया। उन्हें भीड़ ने घेर लिया। पत्थर व सड़े अंडों की वर्षा की गई। किसी ने उनका कुर्ता खींचा तो कोई उन्हें पीटने लगा, धक्के देने लगा। चक्कर खाकर गिरते वक्त उन्होंने सामने के घर की रेलिंग को थामा। फिर भी उनकी पीटाई-कुटाई चलती रही। एक पुलिस अधीक्षक की पत्नी, श्रीमती अलेक्जेंडर, जो गांधीजी को पहचानती थी, वहां से गुज़र रही थी। वह बहादुर महिला गांधीजी एवं भीड़ के बीच दीवार की तरह खड़ी हो गई। बाद में पुलिस आई और उन्हें रुस्तमजी के घर तक छोड़ आई। चिकित्सक को बुलाकर गांधीजी की चोटों का इलाज करवाया गया। भीड़ ने यहां भी उनका पीछा न छोड़ा। रात घिर आई थी। वे गांधीजी की मांग कर रहे थे। “हम उसे जिन्दा जला देंगे”। भीड़ चीख रही थी। “इस सेव के पेड़ से उसे फांसी पर लटका देंगे”। गांधीजी के पास चोरी-छुपे भागने के अलावा कोई चारा नहीं था।
रंगभेद नीति के बावजूद भी गांधीजी दक्षिण अफ्रीका में ब्रिटिश शासन के प्रति निष्ठावान थे। यहां तक कि 1897-1899 के बोअर युद्ध में उनकी सहायता के लिए उन्होंने एक भारतीय एम्बुलेंस कोर्प्स की स्थापना की। उस समय उनका मानना था कि भारत को पूर्ण मुक्ति ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन रहकर ही विकास से मिल सकती है। इसलिए हमें उनकी सहायता करनी चाहिए। चिकित्सा सेवा में गांधीजी की रुचि थी। इस युद्ध में गांधीजी ने घायल सैनिकों की सेवा की तथा सैनिकों को श्वेत या अश्वेत होने का कोई भेद-भाव नहीं किया। उनकी सेवाओं से प्रभावित होकर सरकार ने उन्हें “कैसर-ए-हिन्द” की उपाधि से सम्मानित किया।
1901 में गांधीजी इस शर्त पर भारत वापस लौट आए कि यदि दक्षिण अफ्रीका के भारतीयों को उनकी मदद की ज़रूरत हुई तो वे पुन: वापस लौट जाएंगे। उसी वर्ष दिनशॉ वाचा की अध्यक्षता में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन हो रहा था। गांधीजी ने उस बैठक में भाग लिया। कांग्रेस के कामकाज के ढ़ंग ने गांधीजी को प्रभावित नहीं किया। उन्हें प्रतिनिधियों के बीच एकता की कमी का एहसास हुआ। वे अंग्रेजी में वार्तालाप कर रहे थे। उनके हावभाव एवं बातचीत में पाश्चात्य शैली टपक रही थी। कैम्प की अनिवार्य ज़रूरतों, जैसे साफ-सफाई आदि की तरफ किसी का जरा भी ध्यान नहीं था। गांधीजी उन्हें सबक सिखाना चाहते थे। चुपचाप उन्होंने शौचालय एवं मूत्रालय की सफाई शुरु कर दी। लोगों ने उनसे पूछा, “आप क्यों अछूतों का काम कर रहें हैं?” गांधीजी का जवाब था “क्योंकि सवर्ण लोगों ने इस जगह को अछूत बना दिया है”।
1902 ई. में उन्हें दक्षिण अफ्रीका से एक तार मिला। वहां के लोगों ने उनसे वादानुसार आने का अनुनय किया था। जोसेफ चैम्बरलेन, उपनिवेश सचिव, लंदन से नटाल एवं ट्रांसवाल के दौरे पर आ रहे थे। नटाल कांग्रेस चाहती थी कि उनका केस गांधीजी प्रस्तुत करें। गांधीजी ने अपना वादा रखा। इस बार उनके साथ एक चचेरा भाई मगनलाल गांधी भी था, जो अब शुरु होने वाले महान संघर्ष में काफी उपयोगी सिद्ध होने वाला था।
दक्षिण अफ्रीका में अपने एक मित्र मदनजीत के प्रस्ताव पर गांधीजी ने एक अखबार “इंडियन ओपीनियन” (1904) भी निकालना शुरु किया। इसके लेखों में गांधीजी ने भारतीय समुदाय के हितों के सभी विषयों पर अपने विचार और भावनाओं को अभिव्यक्ति दी। अगले दस वर्षों में इंडियन ओपीनियन उनके संघर्ष में एक प्रमुख हथियार बना रहा।
1904 में एक बार फिर गांधीजी एक लंबी ट्रेन यात्रा पर निकले। यह यात्रा उनके जीवन में दूसरा सबसे बड़ा परिवर्तन बिंदू साबित हुई। जोहान्सबर्ग से डरबन की यात्रा थी। इसमें उन्होंने एक पुस्तक पढ़ी। इसका उनके आगे के जीवन पर काफी निर्णायक प्रभाव पड़ा। उनके एक अंग्रेज मित्र एच.एस.एल. पोलोक, जो ‘दि क्रिटिक’ का उपसम्पादक था, ने उन्हें जौन रस्किन की लिखी पुस्तक “अनटू दिस लास्ट” दी। दूसरी सुबह जब ट्रेन डरबन पहुंच रही थी, तब तक गांधीजी पुस्तक समाप्त कर चुके थे। पुस्तक का उन पर इतना प्रभाव पड़ा कि गांधीजी ने एक महाशपथ लेने का निश्चय कर लिया था। वे अपनी सारी वस्तुओं का परित्याग करने जा रहे थे। उन्होंने निश्चय किया कि रस्किन के आदर्शों की तरह ही वे अपना जीवन जिएंगे। रस्किन ने लिखा था कि धनी तो सिर्फ शक्ति संचय कर लोगों के ऊपर अपना प्रभुत्व दिखाते हैं। व्यक्ति का भला सबके भले में है। सबको रोजी-रोटी कमाने का बराबर अधिकार है। एक श्रमिक अपनी कुदाल से समाज की सेवा करता है। उस तरह की जिंदगी जो एक श्रमिक, एक कृषक जीता है, सार्थक है। गांधीजी का निर्णय असाधारण था। क्योंकि उस समय वे एक धनी व्यक्ति थे, जो अपनी वकालत से पांच हज़ार पाउंड प्रति वर्ष से भी अघिक आय सृजन कर रहे थे। उस काल के हिसाब सें यह एक बहुत बड़ी राशि थी।
गांधीजी के जीवन में एक निर्णायक मोड़ आया। यह निर्णय उनके जीवन में उनकी अंतिम सांसों तक प्रभावी रहा। सांसारिक/भौतिक वस्तुओं का त्याग एवं मानवीय आवश्यकताओं की संतुष्टि के लिए सरल व सादगी भरा जीवन जीना। सामुदायिक अस्तित्व में उनका विश्वास जागा जिसमें सभी श्रम समान था और फलित में सबकी बराबर की हिस्सेदारी थी।
1906 ई. के ग्रीष्म की एक संध्या को गांधीजी ने अपनी पत्नी कस्तूरबा के समक्ष एक घोषणा की। कहा कि उन्होंने एक शपथ ली है। अब से वे ब्रहृमचर्य व्रत का पालन करेंगे। गांधीजी के लिए ब्रहृमचर्य सिर्फ यौनेच्छा का त्याग नहीं था। यह अपनी सभी इन्द्रियों पर नियंत्रण का साधन था। भावना, भाषण, क्रोध, हिंसा, घृणा, आदि पर काबू पाना था। एक इच्छा रहित अवस्था को पाना था। कामनाओं पर विजय की यह पराकाष्ठा थी, एक ऐसी विजय जो अत्यंत ही कठिन थी। “बापू के प्रति” अपने उद्गार प्रकट करते हुए कविवर सुमित्रानंदन पंत ने लिखा है :-
“तुम शुद्ध बुद्ध आत्मा केवल
हे चिर पुराण, हे चिर नवीन।
सुख भोग खोजने आते सब,
आये तुम करने सत्य खोज,
जग की मिट्टी के पुतले जन,
तुम आत्मा के, मन के मनोज”।
11 सितम्बर 1906 को गांधीजी ने ट्रांसवाल में भारतीय प्रवासियों के विरुद्ध प्रस्तावित “दि एशियाटिक रजिस्ट्रेशन” अध्यादेश का विरोध किया। गांधीजी के अवज्ञा आंदोलन, जिसे सत्याग्रह नाम दिया गया था, का सबसे पहले इसी क़ानून के ख़िलाफ़ इस्तेमाल किया गया था। इस अध्यादेश के तहत वहां के निवासी भारतीयों को पंजीकरण कराना होता, तथा प्रमाण पत्र लेना होता था, जिस पर उनका नाम एवं अंगूठे का निशान आवश्यक था। यह पत्र हर भारतीय को हमेशा साथ रखना होता था। गांधीजी ने इसके ख़िलाफ़ सत्याग्रह आंदोलन शुरु किया। उन्होंने कहा कि इस अध्यादेश का विरोध अहिंसक होगा। इस सत्याग्रह के परिणामस्वरूप गांधीजी ने अपने जीवन में आने वाले अनेक कारावासों के सिलसिले का पहला कारावास का दण्ड पाया। जेल में गांधीजी ने थोरयो की रचना “सिविल डिसओबीडिएन्स” पढ़ी, जिसने गांधीजी पर गहरा प्रभाव डाला। थोरयो ने कहा था कि न्याय रहित अध्यादेशों को न मानने का व्यक्ति को अधिकार है। यदि अन्याय असह्य हो तो व्यक्ति को उसका विरोध करना चाहिए।
10 फरवरी 1908 को जोहान्सबर्ग में गांधीजी पर दूसरा जानलेवा हमला हुआ। स्थानीय भारतीयों का एक समूह गांधीजी एवं जनरल स्मट्स के बीच हुए समझौते, जिसके तहत स्वेच्छा से भारतीय पंजीकरण प्रमाण पत्र (फिंगर प्रिंट देकर) ले सकते थे, का विरोध कर रहे थे। उनका मत था कि “एशियाटिक रजिस्ट्रेशन” अध्यादेश 1908 वापस लिया जाना चाहिए। 31 जनवरी 1908 करे जोहान्सबर्ग में ब्रिटिश इंडियन असोशिएशन की बैठक में समझौता फार्मूला की शर्तों को गांधीजी ने विस्तार से समझाया। पर एक पठान उठ खड़ा हुआ और गांधीजी पर समुदाय के साथ धोखेबाजी का आरोप लगाया। उसने गांधीजी पर 24,000 डॉलर रिश्वत लेकर यह समझौता करने का आरोप भी लगाया। गांधीजी ने इस आरोप के बचाव में कहा कि वे स्वयं सबसे पहले फिंगर प्रिंट देकर पंजीकृत कराना चाहेंगे।
1909 ई. में गांधीजी ने काला अध्यादेश के खिलाफ मुकदमा लड़ा। किन्तु ब्रिटिश सरकार ने इसे रद्द नहीं किया। अत: गांधीजी ने निर्णय लिया कि अब वे वकालत से धन नहीं कमाएंगे, क्योंकि वे इसका इस्तेमाल मानव हित में नहीं कर पा रहे। अत: डन्होंने वकालत छोड़ दी।
इसी समय गांधीजी लियो टालस्टॉय की पुस्तक “दि किंगडम ऑफ गॉड इज विदिन यू” पढ़ी। इस पुस्तक ने उनके मन को मथ डाला। टालस्टॉय का मत था कि नैतिक सिद्धांतों का हमें दैनिक जीवन में प्रयोग करना चाहिए। गांधीजी ने इस आदर्श को जीवन में प्रयोग करने की ठान ली।
दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी की वकालत बंद हो चुकी थी। सत्याग्रहियों के भरण पोषण के लिए इकट्ठा कोष धीरे-धीरे खाली होता जा रहा था। इन सब हालात को देखते हुए गांधीजी ने एक फार्म स्थापित किया और अपने एक जर्मन शिल्पकार दोस्त कालेन बाख की मदद से 1910 ई. में सत्याग्रहियों के परिवार की पुनर्वास की समस्या सुलझाई और उनकी रोजी रोटी का इंतजाम किया। बाद में यह फार्म गांधी आश्रम बना। उस समय इसका नाम टालस्टॉय फार्म रखा गया। 100 एकड़ भूमि पर बना यह फार्म डरबन से 14 मील की दूरी पर स्थित था।
1913 ई. में गांधीजी जब जेल से आजाद हुए तो उन्होंने निश्चय किया कि वे अपने अहिंसा एवं सविनय अवज्ञा के सिद्धांतों को वहां की सरकार के द्वारा ट्रांसवाल के बार्डर को भारतीयों के लिए बंद करने के निर्णय के विरुद्ध इस्तेमाल करेंगे। 6 नवंबर 1913 को 2037 पुरुष, 127 महिला एवं 47 बच्चों के साथ गांधीजी ने अहिंसक यात्रा शुरु की – ट्रांसवाल की सीमा की तरफ। इससे गांधीजी ने महसूस किया कि अहिंसक आंदोलन का कितना प्रभाव हो सकता है।
जुलाई 18, 1914 को गांधीजी कस्तूरबा एवं कालेन बाख सहित भारत के लिए रवाना हुए। जनवरी 1915 में बम्बई के गेट वे ऑफ इंडिया के पास भारत भूमि पर उतरने वाले गांधीजी के पास एक सूटकेस था, जिसमें एक अति महत्वपूर्ण चीज़ थी। यह कागजों का एक पुलिंदा थी, जिसमें गांधीजी के हस्त लिखित पद्य थे। इसका नाम था, “हिन्द स्वराज” ! “इंडियन होम रूल” – जो उनका अगला लक्ष्य था। भारत में, भारतीयों का अपना शासन हो। दक्षिण अफ्रीका में रंगभेदी सरकार के ख़िलाफ़ वे एक लड़ाई लड़ चुके थे। भारत में भी उन्होंने वही रणनीति अपनानी थी। दक्षिण अफ्रीका के अनुभव एक बार फिर काम आने वाले थे, एक व्यापक उद्देश्य के लिए ... ... ... ... ...
***
पुनश्च
उन जैसे महामानव के बारे में जितना भी कहा जाए कम है। रामधारी सिंह दिनकर की पंक्तियां यहां स्मरण हो रहें हैं :-
“तू कालोदधि का महास्तम्भ, आत्मा के नभ का तुंग-केतु,
वापू! तू मर्त्य, अमर्त्य, स्वर्ग, पृथ्वी, भू, नभ का महासेतु।
तेरा विराट यह रूप कल्पना पट पर नहीं समाता है,
जितना कुछ कहूं मगर कहने को शेष बहुत रह जाता है।”