थानेदार बदलता है
कितना ही सम्हलें लेकिन हर क़दम फिसलता है
जाने क्यों हर बार हमें ही मौसम छलता है।
खेतों खलिहानों में मंडी की दहशत फैली
बनिया सीख गया है साहू सेठों की शैली
ज़मींदार था स्थिर, थानेदार बदलता है।
गौशाले की सांठ - गांठ है बूचड़ख़ाने से
फिर भी है कुछ नहीं शिकायत तुम्हें ज़माने से
दूध नहीं चूल्हे पर अब तो ख़ून उबलता है।
पात - पात संगीत डाल कंदील कसी थी
रात किसी बंजारे की दुनिया यहीं बसी थी
उजड़ा हुआ सवेरा बरगद को खलता है।
श्यामनारायण मिश्र
कितना ही सम्हलें लेकिन हर क़दम फिसलता है
जाने क्यों हर बार हमें ही मौसम छलता है।
खेतों खलिहानों में मंडी की दहशत फैली
बनिया सीख गया है साहू सेठों की शैली
ज़मींदार था स्थिर, थानेदार बदलता है।
गौशाले की सांठ - गांठ है बूचड़ख़ाने से
फिर भी है कुछ नहीं शिकायत तुम्हें ज़माने से
दूध नहीं चूल्हे पर अब तो ख़ून उबलता है।
पात - पात संगीत डाल कंदील कसी थी
रात किसी बंजारे की दुनिया यहीं बसी थी
उजड़ा हुआ सवेरा बरगद को खलता है।