मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

फ़ुरसत में ... 115 एक अलग तस्वीर - 2014 में ...?

फ़ुरसत में ... 115

एक अलग तस्वीर - 2014 में ...?

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मनोज कुमार

आजकल इलेक्ट्रॉनिक और अन्य मीडिया में बहस छिड़ी हुई है कि दिल्ली से, केन्द्र नहीं राज्य  सरकार द्वारा, जो संकेत दिए जा रहे हैं, वे कहीं ‘रामलीला नाटक’ की तरह तो नहीं हैं? हर दल उसे आशंका की नज़र से देखते हुए ‘नाटक’ और सिर्फ नाटक करार देने पर आमादा है। अपने-अपने दलों से लोग इतिहास और वर्तमान को खंगालकर ऐसे कई प्रतीक-पुरुष/महिला को सामने ला रहे हैं जिन्होंने ‘कॉमन मैन’ की ज़िन्दगी जीने की राह अपनाई। अहंकार, पदलोलुपता और शान-ओ-शौकत का पर्याय बन चुकी राजनीति में ऐसे सांकेतिक बदलाव और कुछ दे रहे हों या नहीं, एक सुखद अहसास तो दे ही रहे हैं। आशंका की चादर कितनी भी मोटी क्यों न हो, एक विश्वास की किरण तो उसे चीरती हुई आगे बढ़ ही रही है कि चलो यह एक शुरूआत ही सही, अच्छी बात, शुभ संकेत है।

मुझे सत्तर के दशक का एक वाकया शेयर करने का मन हो रहा है। एक आंदोलन के बाद नया जनादेश आया था और एक नई पार्टी के नेतृत्व में सरकार बनी थी। जेल में बंद किए गए एक नेता हमारे शहर से लोकसभा के प्रत्याशी थे। भारी बहुमत से जनता ने उन्हें विजयी बनाया। वे देश के सूचना-प्रसारण मंत्री और उद्योग मंत्री बने। उस शहर को उन्होंने दूरदर्शन केन्द्र, थर्मल पावर और आईडीपीएल जैसी संस्थान दिए।

उस दिग्गज एवं कद्दावर नेता की एक आम सभा हो रही थी। सभा में उन्होंने अपने क्षेत्र के हर ‘कॉमन मैन’ को यह आश्वासन दिया कि जब भी किसी का दिल्ली आना हो वे उनके आवास पर सादर आमंत्रित हैं! उन्होंने यह भी कहा, “हम आपका ख़्याल रखेंगे।“ उन दिनों मैं कॉलेज का विद्यार्थी हुआ करता था और एक प्रतियोगिता परीक्षा के सिलसिले में एक-दो सप्ताह बाद ही मुझे दिल्ली जाना था। मैं उनकी बात से अत्यंत प्रभावित हुआ, लेकिन उनका अता-पता तो मुझे मालूम था नहीं। सोचा उनसे ही क्यों नहीं पूछ लिया जाए। उनका भाषण समाप्त हो चुका था। धन्यवाद ज्ञापन की औपचारिकता चल रही थी। मैं सीधे मंच पर चढ़ गया। ऐसी कोई सुरक्षा व्यवस्था नहीं थी कि एक ‘कॉमन मैन’ मंच तक न पहुंच पाए। इक्का-दुक्का लाल टोपी वाले हाथ में डंडा लिए यहां-वहां खड़े थे। किंतु बिना किसी बाधा के मैं उन तक पहुंच गया और अपनी मंशा उन्हें बताई। अपनी क़लम और क़ागज़ का टुकड़ा उन्हें दिया और कहा – ‘अपना पता दीजिए, मैं आऊंगा।’ उन्होंने अपना नाम और ’21 – विलिंगडन क्रिसेंट, नई दिल्ली’ लिखकर दे दिया।

दो सप्ताह बाद मैं उनके उस सरकारी आवास के सामने खड़ा था। द्वार पर न कोई ताम-झाम, न कोई अंतरी-संतरी की फ़ौज! जो भी सुरक्षा-कर्मी रहा होगा उसने एक-आध औपचारिक प्रश्न किए और जब अपने शहर का नाम मैंने उसे बताया, तो आगे का मेरा प्रवेश बाधा रहित हो गया। उनके दर्शन हुए। वे प्रसन्न दिखे। मेरे रहने की व्यवस्था कर दी गई। पूरा आदर-सम्मान मिला।

न जाने क्यों आज के परिप्रेक्ष्य में यह घटना मुझे याद आ गई। जब इसे देखता हूं और आज के बारे में सोचता हूँ तो मन में एक कसक सी उठती है। यह ठीक है कि जिसे नौटंकी कहा जा रहा है वह राजनीति की दिशा बदलेगा या नहीं – यह प्रश्न भविष्य के गर्त में है, लेकिन बेहतरी की दिशा में एक कदम तो है ही। लालबत्ती और सुरक्षा का घेरा इतना महत्वपूर्ण क्यों मान लिया गया? या कब यह सुरक्षा व्यवस्था की सीमा लाँघकर स्टेटस सिम्बल बन गया। और अब इन लावलश्कर को त्यागने का साहस ‘कॉमन मैन’ के नुमाइंदे, करने से क्यों कतराते हैं?

राजनीति सेवा का माध्यम है या शासन करने का? यदि सेवा है, तो सुविधाभोगी होकर किया जाना चाहिए या ‘कॉमन मैन’ के बीच उसके जैसा रहकर उनकी तरह जीवन-यापन करते हुए? ‘जनसेवक’ शब्द सुनने में सुनने में अच्छा लगता है, उस तरह का व्यवहार भी देखने को मिले तो और अच्छा लगेगा। जो बदलाव की शुरूआत हुई है वह और आगे बढ़े – ऐसी कामना करने में हर्ज़ क्या है? देश का ‘कॉमन मैन’ बदलाव चाहता है, यह तो अब तक ‘खास लोगों’ को समझ में आ ही गया होगा।

नए साल की शुरूआत कल से होने वाली है। फिर शुरू होगी एक राजनीतिक घमासान भी, तो क्या 2014 में हमें एक बिल्कुल अलग तस्वीर देखने को मिलेगी? 9149_a

सोमवार, 30 दिसंबर 2013

रघुवीर सहाय- नयी कविता के महत्त्वपूर्ण कवि

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30 दिसंबर पुण्य तिथि पर

नयी कविता के महत्त्वपूर्ण कवियों में से एक श्री रघुवीर सहाय का जन्म 9 दिसम्बर, 1929 को लखनऊ के मॉडल हाउस मुहल्ले में एक शिक्षित मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ था। इनके पिता श्री हरदेव सहाय लखनऊ के बॉय एंग्लो बंगाली स्कूल में साहित्य के अध्यापक थे। दो वर्ष की उम्र में मां श्रीमती तारा सहाय की ममता से वंचित हो चुके रघुवीर की शिक्षा-दीक्षा लखनऊ में ही हुई थी। 1951 में इन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी साहित्य में एम.ए. की उपाधि प्राप्त की। 16-17 साल की उम्र से ही ये कविताएं लिखने लगे, जो ‘आजकल’, ‘प्रतीक’ आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही। 1949 में इन्होंने ‘दूसरा सप्तक’ में प्रकाशन के लिए अपनी कविताएं अज्ञेय को दे दी थीं जो 1951 में प्रकाशित हुईं। एम.ए. करने के बाद 1951 में ये अज्ञेय द्वारा संपादित ‘प्रतीक’ में सहायक संपादक के रूप में कार्य करने दिल्ली आ गए। प्रतीक के बंद हो जाने के बाद इन्होने आकाशवाणी दिल्ली के समाचार विभाग में उप-संपादक का कार्य-भार संभाला। 1957 में आकाशवाणी से त्याग-पत्र देकर इन्होंने मुक्त लेखन शुरू कर दिया। इसी वर्ष इनकी ‘हमारी हिंदी’ शीर्षक कविता जो ‘युग-चेतना’ में छपी थी को लेकर काफ़ी बवाल मचा। 1959 में फिर से आकाशवाणी से तीन साल के लिए जुड़े। वहां से मुक्त होने के बाद वे ‘नवभारत टाइम्स’ के विशेष संवाददाता बने। वहां से ये ‘दिनमान’ के समाचार संपादक बने। अज्ञेय के त्याग-पत्र देने के बाद वे 1970 में ‘दिनमान’ के संपादक बने। व्यवस्था विरोधी लेखों के कारण 1982 में वे ‘दिनमान’ से ‘नवभारत टाइम्स’ में स्थानांतरित कर दिए गए। किंतु इस स्थानांतरण से असंतुष्ट होकर उन्होंने 1983 में त्याग-पत्र दे दिया और पुनः स्वतंत्र लेखन करने लगे। 30 दिसंबर 1990 को उनका निधन हुआ था।

रचनाएं :

कविता संग्रह : सीढ़ियों पर धूप में, आत्महत्या के विरुद्ध, हंसो-हंसो जल्दी हंसो, लोग भूल गए हैं, कुछ अते और कुछ चिट्ठियां

कहानी संग्रह : रास्ता इधर से है, जो आदमी हम बना रहे हैं

निबंध संग्रह : लिखने का कारण, ऊबे हुए सुखी, वे और नहीं होंगे जो मारे जाएंगे, भंवर लहरें और तरंग, शब्द शक्ति, यथार्थ यथास्थिति नहीं।

अनुवाद : मेकबेथ और ट्रेवेल्थ नाइट, आदि।

रघुवीर सहाय की विचारधारात्मक दृष्टि

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जो नयी काव्य-धारा उभरकर सामने आई उसमें रचनाकारों का एक समुदाय लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति उदासीन था और वह राजनीति-विरोधी होता गया। उस प्रयोगवाद और नयी कविता की संधि के लगभग एकमात्र अत्यंत महत्त्वपूर्ण कवि रघुवीर सहाय ही थे, जिन्होंने अपनी जनतांत्रिक संवेदनशीलता को क़ायम रखा। नयी कविता के बाद की युवा विद्रोही कविता का मुहावरा बनानेवालों में भी वे अग्रणी कवि हैं। ‘आत्महत्या के विरुद्ध’ काव्य संग्रह के द्वारा उन्होंने प्रतिपक्षधर्मी समकालीन कविता को राजनीतिक अर्थमयता और मानवीय तात्कालिकता प्रदान की। वे ‘शिल्प क्रीड़ा कौतुक’ का उपयोग कर रोमांटिक गंभीरता को छिन्न-भिन्न करके नये अर्थ संगठन को जन्म देते हैं, जो जीवन की विडम्बनापूर्ण त्रासदी को प्रत्यक्ष करता है।

देखो वृक्ष को देखो कुछ कर रहा है

किताबी होगा वह कवि जो कहेगा

हाय पत्ता झर रहा है।

पतझर में नयी रचना का संकेत उत्पीड़ित-शोषित जीवन में नए बदलाव को भी संकेतित करता है। उनकी कविता में विचार-वस्तु अपनी विविधता में और वैचारिक स्पष्टता में सत्य बनकर उभरती है। उनका मानना था कि विचारवस्तु का कविता में ख़ून की तरह दौड़ते रहना कविता को जीवन और शक्ति देता है, और यह तभी संभव है जब हमारी कविता की जड़ें यथार्थ में हों। उन्होंने कविता की विचारवस्तु को अपने समय और समाज के यथार्थ से तो जोड़ा ही, वे अपने समय के आर-पार देखपाने में समर्थ हुए। वे मानते हैं कि वर्तमान को सर्जना का विषय बनाने के लिए ज़रूरी है कि रचनाकार वर्तमान से मुक्त हो। वर्तमान की सही व्याख्या कर भविष्य का एक स्वप्न दिखा जिसे साकार किया जा सकता हो। सभी लुजलुजे हैं में कहते हैं -

खोंखियाते हैं, किंकियाते हैं, घुन्‍नाते हैं

चुल्‍लु में उल्‍लू हो जाते हैं

मिनमिनाते हैं, कुड़कुड़ाते हैं

सो जाते हैं, बैठ जाते हैं, बुत्ता दे जाते हैं

झांय झांय करते है, रिरियाते हैं,

टांय टांय करते हैं, हिनहिनाते हैं

गरजते हैं, घिघियाते हैं

ठीक वक़्त पर चीं बोल जाते हैं

सभी लुजलुजे हैं, थुलथुल है, लिब लिब हैं,

पिलपिल हैं,

सबमें पोल है, सब में झोल है, सभी लुजलुजे हैं।

शोषक वर्ग की चालबाज़ियों को उन्होंने बख़ूबी नंगा किया और दया, सहानुभूति और करुणा जैसे भावों में नाबराबरी और अभिजात्यवादी अहं की गंध महसूस की। मनुष्य और मनुष्य के बीच समानता और सामाजिक न्याय उनके रचनाकर्म का लक्ष्य रहा। नारी के प्रति भी उनका दृष्टिकोण समता का रहा। उनका मानना था कि लोगों के जागते रहने की एक तरकीब यह है कि लोग वास्तविक जनजीवन के विकासोन्मुख तत्वों से अपने को सक्रिय संबंद्ध रखें। उन्होंने मध्यवर्गीय समाज को यह अहसास दिलाया कि अधिनायकवादी ताक़तों का मुक़ाबला संगठित होकर ही किया जा सकता है।

नयी कविता के अन्य कवियों की भांति, रघुवीर सहाय ने प्रतीकों, बिम्बों और मिथकों का सहारा बहुत कम लिया है। इन्होंने बोलचाल की भाषा के साधारण शब्दों का प्रयोग अधिक किया है, जिसे डॉ. नामवर सिंह ‘असाधारण साधारणता’ कहते हैं। भाषा में सहज प्रवाह उनकी कविता की प्रमुख विशेषता है। सहाय जी की भाषा, आधुनिक हिन्दी के काव्य की दृष्टि से सफल और एक अलग स्वाद रखती है। न्याय और बराबरी के आदर्श को बहुत ही सूक्ष्म स्तर पर कवि सहाय ने अपनी चेतना में आत्मसात किया। हमने देखा शीर्षक कविता में कहते हैं,

जो हैं, वे भी हो जाया करते हैं कम

हैं ख़ास ढ़ंग दुख से ऊपर उठने का

है ख़ास तरह की उनकी अपनी तिकड़म

हम सहते हैं इसलिए कि हम सच्चे हैं

हम जो करते हैं वह ले जाते हैं वे

वे झूठे हैं लेकिन सब से अच्छे हैं

रघुवीर सहाय उस काव्यतत्व का अन्वेषण करने पर अधिक ज़ोर देते थे जो कला की सौंदर्य परम्परा को आगे बढाता है। उनकी शुरु की कविताओं में भाषा के साथ एक खिलंदड़ापन मिलता है जो संवेदना के साथ बाद में काव्यगत विडंबना के लिए काम आता है। उनकी एक मशहूर कविता दुनिया की भाषा में यही क्रीड़ाभाव देखा जा सकता है,

लोग या तो कृपा करते हैं या ख़ुशामद करते हैं

लोग या तो ईर्ष्या करते हैं या चुग़ली खाते हैं

लोग या तो शिष्टाचार करते हैं या खिसियाते हैं

लोग या तो पश्चात्ताप करते हैं या घिघियाते हैं

न कोई तारीफ़ करता है न कोई बुराई करता है

न कोई हंसता है न कोई रोता है

न कोई प्यार करता है न कोई नफ़रत

लोग या तो दया करते हैं या घमण्ड

दुनिया एक फंफुदियायी हुई सी चीज़ हो गयी है।

इसी तरह के भाषिक खिलंदड़ेपन की एक और कविता है जो मध्यमवर्गीय लोगों के बारे में है, सभी लुजलुजे हैं जिसमें ऐसे चुने हुए शब्दों का इस्तेमाल किया गया है जो कविता में शायद ही कभी प्रयुक्त हुए हों,

खोंखियाते हैं, किंकियाते हैं, घुन्नाते हैं

चुल्लु में उल्लू हो जाते हैं

मिनमिनाते हैं, कुड़कुड़ाते हैं

सो जाते हैं, बैठ रहते हैं, बुत्ता दे जाते हैं।

भाषा का यह खेल उनकी काव्य यात्रा में गंभीर होते हुए अपने जीवन की बात करते-करते एक और जीवन की बात करने लगता है, कवितामेरा एक जीवन है में,

मेरा एक जीवन है

उसमें मेरे प्रिय हैं, मेरे हितैषी हैं, मेरे गुरुजन हैं

उसमें मेरा कोई अन्यतम भी है:

पर मेरा एक और जीवन है

जिसमें मैं अकेला हूं

जिस नगर के गलियारों फुटपाथों मैदानों में घूमा हूं

हंसा-खेला हूं

.....

पर इस हाहाहूती नगरी में अकेला हूं

सहाय जी हाहाहूती नगरी जैसे भाषिक प्रयोग से पूरी पूंजीवादी सभ्यता की चीखपुकार व्यक्त कर देते हैं, इसकी गलाकाट स्पर्धा का पर्दाफ़ाश कर देते हैं। कविता के अंत में वो कहते हैं,

पर मैं फिर भी जिऊंगा

इसी नगरी में रहूंगा

रूखी रोटी खाऊंगा और ठंडा पानी पियूंगा

क्योंकि मेरा एक और जीवन है और उसमें मैं अकेला हूं।

सहाय जी की भाषा संबंधी अन्वेषण के बारे में महेश आलोक के शब्दों में कहें तो, सहाय निरन्तर शब्दों की रचनात्मक गरमाहट, खरोंच और उसकी आंच को उत्सवधर्मी होने से बचाते हैं और लगभग कविता के लिए अनुपयुक्त हो गये शब्दों की अर्थ सघनता को बहुत हल्के से खोलते हुए एक खास किस्म के गद्यात्मक तेवर को रिटौरिकल मुहावरे में तब्दील कर देते हैं।

उनकी कविताओं में लय का एक खास स्थान हमेशा रहा। उनके लय के संबंध में दृष्टि उनके इस कथन से मिलती है, आधुनिक कविता में संसार के नये संगीत का विशेष स्थान है और वह आधुनिक संवेदना का आवश्यक अंग है।

भक्ति है यह कविता उदाहरण के तौर पर लेते हैं,

भक्ति है यह

ईश-गुण-गायन नहीं है

यह व्यथा है

यह नहीं दुख की कथा है

यह हमारा कर्म है, कृति है

यही निष्कृति नहीं है

यह हमारा गर्व है

यह साधना है साध्य विनती है।

रघुवीर सहाय की काव्य भाषा बोलचाल की भाषा है। पर इसी सहजपन में यह जीवन के यथार्थ को, उसके कटु एवं तिक्त अनुभव को पूरी शक्ति के साथ अभिव्यक्त करने में समर्थ है। साथ ही यह देख कर आश्चर्य होता है कि अनेक कविताएं पारंपरिक छंदों के नये उपयोग से निर्मित हैं। साठोत्तरी दशक के हिंदी कवियों में रघुवीर सहाय ऐसे कवि हैं, जिन्होंने बड़ी सजगता और ईमानदारी से अपने काव्य में भाषा का प्रयोग किया है। वे जनता और उसकी समस्याओं से सम्बद्ध कवि हैं। उनका उद्देश्य अपने समय की विद्रूपता और विसंगतियों को उद्घाटित करना रहा है। वे विद्रूपता और विसंगतियों का चित्रण इस प्रकार करते हैं कि लोक-चेतना जागृत हो। वे अपनी रचनाओं के माध्यम से न सिर्फ़ आज की सामंती-बुर्जुआ-पूंजीवादी व्यवस्था को, जो लोकतंत्र के नाम पर सत्ता हड़पने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाती है, बल्कि जिसके उत्पीड़न-शोषण, अन्याय-अत्याचार के कारण संपूर्ण समाज में दहशत और आतंक छा गया है, को नंगा करते हैं।

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शनिवार, 28 दिसंबर 2013

फुरसत में… 114 नालंदा के खंडहरों की सैर

फुरसत में… 114

नालंदा के खंडहरों की सैर19102011(002)

मनोज कुमार

साल जाते-जाते बड़े  भाई ने दो आदेश किया।  एक कि इस ब्लॉग पर गतिविधि पुनः ज़ारी किया जाए। सो हाज़िर हूं … दूसरे ..

मेरे लिए नालंदा की यात्रा वैसे तो हमेशा विशेष ही होती है, इस बार तो और भी खास हो गई, जब इस बाबत Facebook पर Status Update लगाया तो बड़े भाई (सलिल वर्मा) का आदेश हुआ,

सलिल वर्मा Please take a full snap of ruins of Nalanda University and send me as New Year Greetings!!”

कई बार यात्रा कर चुके नालंदा को इस आदेश के तहत देखने की कोशिश, इस बार हमारी मजबूरी बन गई, नालंदा, जहां प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग  7वीं शताब्दि में आया था। उसके अनुसार उस जमाने में यहां के लोग एक तालाब में “नालंदा” नामक नाग का निवास होना बताते थे। यही कारण है कि इस नगर का नाम नालंदा पड़ा।

19102011(022)भगवान बुद्ध के पुत्र सारिपुत्र का जन्म नालंदा के पास “नालक” गांव में हुआ था। अपने जीवन के अंतिम क्षणों में उन्होंने इसी गांव में आकर अपनी मां को धर्मोपदेश दिया और निर्वाण प्राप्त किया। फलस्वरूप वह बौद्ध श्रद्धालुओं और उपासकों के लिए प्रमुख तीर्थ-स्थल हो गया। भगवान बुद्ध के बाद सबसे अधिक पूजा सारिपुत्र की ही होती है। इस महापुरुष का जन्म और निर्वाण एक ही स्थान पर होना श्रद्धा का विषय बना रहा। उनकी याद में इस जगह पर एक चैत्य का निर्माण हुआ। इस चैत्य के नज़दीक जो भिक्षु विहार बने वे बाद में अध्ययन के केन्द्र हो गए। देश के दूर-दराज के भागों से विद्यार्थी यहां आकर शिक्षा ग्रहण करते थे। पाल राजाओं ने नालंदा के निर्माण में महत्वपूर्ण निभाई।

पालि ग्रंथों में नालंदा शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए कहा गया है, “न अलं ददाती ति नालंदा” अर्थात्‌ वह जो प्रचुर दे सके। विडम्बना यह कि तुर्क आक्रमणकारी बख़्तियार ख़लजी ने अपने लूटपाट के अभियान के तहत सन 1199 में प्रचुर देने वाले नालंदा के इस विश्वविद्यालय में आग लगा दी। शिक्षा का यह महान केन्द्र जलकर खाक हो गया। आज तो सिर्फ़ वहां खंडहर बचे हैं और इन्हीं खंडहरों की तस्वीर अपने कैमरे में क़ैद कर लाने का मुझे आदेश मिला।

12022011(007)कैमरे की आंख से देखिए, इन भग्नावशेषों की दीवालों की 6 से 12 फीट की मोटाई यह साबित करती है कि विहारों की ऊंचाई काफ़ी रही होगी। साथ ही भवन भी विशाल रहे होंगे। ऊंचे भवनों तक पहुंचने के लिए चौड़ी और पक्की सीढियों के अवशेष आज भी विद्यमान है। ह्वेनसांग और बाद के दिनों में आए चीनी यात्री इत्सिंग के अनुसार यहाँ 8 भव्य विहार थे। इन महाविहारों से लगे हुए चैत्य और स्तूपों का निर्माण हुआ था। हीनयान और महायान के लिए 108 मंदिरों का निर्माण हुआ। पूरा विद्यालय एक ऊंचे प्राचीर से घिरा था।

ह्वेनसांग ने ज़िक्र किया है कि इसमें प्रवेश करने के लिए एक विशाल दरवाज़ा था। उसके बाहर खड़े द्वारपाल भी काफ़ी विद्वान होते थे। जो विद्यार्थी यहां प्रवेश पाना चाहते थे, उनकी परीक्षा ये द्वारपाल लिया करते थे, और योग्य उम्मीदवारों को ही चुना जाता था। 10 में से सिर्फ़ एक या दो विद्यार्थी ही विश्वविद्यालय के प्रवेश द्वार के भीतर जा पाते थे!

19102011(012)विश्वविद्यालय में शिक्षा ग्रहण करने के लिए कोई शुल्क नहीं लिया जाता था। आस-पास के क़रीब 100 गांवों द्वारा इसके खर्च की व्यवस्था की जाती थी। इत्सिंग ने तो 200 गांवों की बात कही है। इस विश्वविद्यालय में उन दिनों 10,000 विद्यार्थी 1500 आचार्यगण से शिक्षा ग्रहण करते थे। अर्थात प्रत्येक सात विद्यार्थी पर औसतन एक शिक्षक!

बौद्ध धर्म, दर्शन, कला, इतिहास, आदि के साथ आयुर्वेद, विज्ञान, कला, वेद, हेतु विद्या (Logic) शब्द विद्या (Philology) चिकित्सा विद्या, ज्योतिष, अथर्ववेद तथा सांख्य, दण्डनीति, पाणीनीय संस्कृत व्याकरण की शिक्षा की व्यवस्था थी।

12022011(003)नालंदा जाएं और राजगीर की चर्चा न हो ऐसा कैसे हो सकता है? प्राचीन समय से बौद्ध, जैन, हिन्दू और मुस्लिम तीर्थ-स्थल राजगीर पांच पहाड़ियों, वैराभगिरी, विपुलाचल, रत्नगिरी, उदयगिरी और स्वर्णगिरी से घिरी एक हरी भरी घाटी में स्थित है। इस नगरी में पत्थरों को काटकर बनाई गई अनेक गुफ़ाएं हैं जो प्राचीन काल के जड़वादी चार्वाक दार्शनिकों से लेकर अनेक दार्शनिकों की आवास स्थली रही हैं। प्राचीन काल में यह मगध साम्राज्य की राजधानी रही है। ऐसा माना जाता है कि पौराणिक राजा वसु, जो ब्रह्मा के पुत्र कहलाये जाते हैं, ही इस नगर के प्रतिष्ठाता थे।

18102011(013)राजगीर के प्रमुख दर्शनीय स्थलों में से एक है जरासंध का अखाड़ा है। इसे जरासंध की रणभूमि भी कहा जाता है। यह महाभारत काल में बनाई गई जगह है। यहां पर भीमसेन और जरासंघ के बीच कई दिनों तक मल्ल्युद्ध हुआ था। कभी इस रणभूमि की मिट्टी महीन और सफ़ेद रंग की थी। कुश्ती के शौकीन लोग यहां से भारी मात्रा में मिट्टी ले जाने लगे। अब यहां उस तरह की मिट्टी नहीं दिखती। पत्थरों पर दो समानान्तर रेखाओं के निशान स्पष्ट दिखाई देते हैं। इसके बारे में लोगों का कहना है कि वे भगवान श्री कृष्ण के रथ के पहियों के निशान हैं।

राजगीर सिर्फ़ बुद्ध एवं उनके जीवन से संबंधित अनेक घटनाओं के लिए ही प्रसिद्ध नहीं है, यह स्थल जैन धर्मावलम्बियों के लिए भी समान रूप से प्रसिद्ध है। अन्तिम जीन महावीर ने अपने 32 वर्ष के सन्यासी जीवन का 14 वर्ष राजगीर और उसके आसपास ही बिताया था। जैनों ने भी बिम्बिसार और अजातशत्रु को अपने धर्म के समर्थक के रूप में दावा किया है। राजगीर में ही 20 वें तीर्थंकर मुनि सुव्रत नाथ का जन्म हुआ था। महावीर के 11 प्रमुख शिष्य/गण्धर की मृत्यु राजगीर के एक पहाड़ के शिखर पर हुई।

रज्जूपथ से राजगीर के विश्वशांति स्तूप की यात्रा भी काफ़ी रोमांचकारी होता है। थोड़ा भय, थोड़ा कुतूहल मिश्रित आनंद देते हैं।

ध्यान में लगे लोगों को तो नालंदा के खंडहरों के प्रांगण में भी देखा था, लेकिन विश्वशांति स्तूप में कुछ अलग ही अनुभूति हुई और हम भी ध्यान में जाने की सोची। … और देखा एक वृक्ष जिसे देख कर लगा कि निर्वण किसे कहते हैं? लेकिन इनको देख कर लगा कि ये किस ओर ध्यानस्थ हैं?12022011(002)

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बुधवार, 25 दिसंबर 2013

तुम न जाने किस जहाँ में खो गये

तुम न जाने किस जहाँ में खो गये

- सलिल वर्मा

दिल ढ़ूँढ़ता है फिर वही फ़ुर्सत के रात-दिन,

बैठे रहें तसव्वुर-ए-जानाँ किए हुए!

चचा ग़ालिब और फिर उनके बाद चचा गुलज़ार, दोनों इसी शे’र के मार्फ़त समझा गये हैं कि ज़िन्दगी में चाहे सब-कुछ मिल जाए फ़ुर्सत मिलना मुश्किल है. और ऐसे में बस फ़ुर्सत के पुराने दिनों को याद करने और मन मसोस कर रह जाने के अलावा हाथ आता भी क्या है. इन फ़ैक्ट, कभी-कभी तो मुझे भी शक़ होता था कि जितनी आसानी से अनुज मनोज कुमार जी धड़ाधड़ फुर्सत में लिख लिया करते थे, उतनी फ़ुर्सत क्या वास्तव में मिल पाती होगी? और मिलती भी हो तो “तसव्वुरे जानाँ” या “दीदारे यार” से निजात पाकर पोस्ट लिख लेते होंगे? और आज पहली बार ब्लॉग देवता/देवी को हाज़िर नाज़िर जानकर कहता हूँ कि मनोज जी से जलन भी होती थी कि यार कहाँ से इन्होंने फ़ुर्सत की खदान का अलॉटमेण्ट हासिल किया है, एकाध टोकरी हमारे पास भी भिजवा देते तो कौन सा अकाल पड़ जाता.

अब पता नहीं देश में कौन सी ईमानदारी की बयार चली कि कोयला खदान पर छापे पड़ने लगे और हमारी बुरी नज़र लग गई कि जो मोहर हम यहाँ फुर्सत में लूटते थे, उनपर मनोज जी ने ताले लगवा दिये. एकाध लाइसेंसी पोस्ट दिखाई भी दी, लेकिन उसमें वो बात कहाँ. छुप-छुप के पीने का मज़ा कुछ और था. और ये मासिक वेतन जैसी पोस्टों से भला किसी की प्यास बुझी है, अरे इस ब्लॉग की असली पोस्टें तो वो हैं, जो ऊपरी आय की तरह बहती हुई नदी रही हैं. जो मुसाफ़िर आया उसकी प्यास बुझी.

और यही नहीं, इस नदिया के घाट अनेक, जहाँ से पियें, वही मिठास और वही तृप्ति. आचार्य परशुराम राय जी की ‘शिवस्वरोदय’ एक ऐसी दुर्लभ श्रृंखला थी जिसे उन्होंने हमारे लिये सरल भाषा में उपलब्ध करवाया. यही नहीं काव्य-शास्त्र की कड़ियों में जिस सिलसिलेवार ढ़ंग से उन्होंने लिखा है वो ख़ास तौर मेरे लिये किसी क्लासरूम में बैठकर सीखने से कम नहीं था. बल्कि काव्यशास्त्र की जमात में बैठकर ही मैंने अपने बारे में जाना कि अहमक़ उन जगहों पर दरवाज़ा धकेलकर दाख़िल हो जाते हैं. जहाँ फ़रिश्ते भी पेशक़दमी से डरते हैं. आचार्य जी की आँच पर की गई ब्लॉग पर प्रकाशित कविताओं की समीक्षा अपने आप में एक मानदण्ड रही हैं. कोई उनकी समीक्षा से सहमत हो या न हो, वे अपनी तालीम और समझ से हमेशा सहमत रहे हैं. अब परशुराम हैं तो कठोर तो होंगे ही, किंतु कभी रिश्तों के नाम पर समझौता नहीं किया और अपने फ़ैसले को कभी किसी के दबाव में आकर नहीं बदला.

मेरा फोटोइसी कड़ी में एक और नाम है श्री हरीश चन्द्र गुप्त का. “आँच” पर इनकी समीक्षायें पैनी, गहरी, गम्भीर और साहित्यिक हुआ करती थीं. यह अलग बात है कि “मनोज” पर इस अल्प-विराम के पूर्व भी इन्होंने एक लम्बी छुट्टी ले रखी थी. इन्हें कम पढ़ने का मौक़ा मिला, लेकिन जो भी मिला वो एक सीखने जैसा तजुर्बा रहा. अगर कोई रचना हरीश जी की कलम की कसौटी पर परख ली जाए और उसे यदि ये अच्छा कहें तो कोई सन्देह नहीं कि वह रचना चौबीस कैरेट होगी.

मेरा फोटो“मनोज” पर एक और नियमित स्तम्भ रहा है देसिल बयना. ठेठ भाषा में कहें तो देसी कहावतें. कहावतें सिर्फ शब्दों को सजाकर एक निरर्थक से लगने वाले वाक्य का निर्माण नहीं है, बल्कि इसके पीछे एक लम्बी दास्तान होती है, एक परम्परा और एक गुज़रे ज़माने की खुशबू. यह खुशबू लेकर आपके सामने लगातार आते रहे श्री करण समस्तीपुरी. इनके देसिल बयना को अगर तस्वीर के रूप में आपके सामने रखूँ तो बस यही कह सकता हूँ कि जहाँ बाकी सारे लेख, समीक्षाएँ और संस्मरण मॉडर्न पार्टी हैं, वहीं देसिल बयना ज़मीन बैठकर पत्तल में खाने का आनन्द. रेवाखण्ड की बोली में पगा, मिठास का वह पकवान, जिसे जो न खाए बस वो पछताए. व्यक्तिगत रूप से मैंने हमेशा करण जी से ईर्ष्या की है कि आंचलिक बोली में लिखने की बावजूद भी मैं उनकी मिठास तक कभी नहीं पहुँच पाया. फिर दिल को यह कहकर तसल्ली दे लेता हूँ कि राजधानी (पटना) और गाँव में फर्क तो होता ही है. गुलिस्तान के गुलाब और गुलदस्ते के गुलाब की ख़ुशबू भी जुदा होती है.

मेरा फोटोअंत में यदि मनोज कुमार जी का ज़िक्र न किया जाए तो मेरी पोस्ट ही अधूरी रह जायेगी. कोलकाता में बैठे हुए तू ना रुकेगा कभी, तू ना झुकेगा कभी वाले स्टाइल में एक मैराथन लेखन, बिना इस बात की परवाह किये कि कौन पढ़ता है कौन नहीं. हर आलेख एक सम्पूर्ण शोध के बाद और विषय पर पूरे अधिकार के साथ लिखा हुआ. कविता और कहानी, संस्मरण और साक्षात्कार, जीवनी और दर्शन किसी भी विषय को इन्होंने अनछुआ नहीं रखा. कई बार तो लगने लगता है कि साहित्य (विज्ञान भी) की विधाओं में शायद कोई भी पत्थर इन्होंने बिना पलटे नहीं छोड़ा. केवल साहित्य को ही नहीं समेटा इन्होंने, बल्कि रिश्तों को भी समेटा.. स्वयम कोलकाता में रहकर कानपुर, बेंगलुरू, दिल्ली जैसी जगहों से सम्पर्क बनाए रखा और आचार्य जी, गुप्त जी, करण जी और मुझे जोड़े रखा.

मैंने भी दुबारा ब्लॉग लिखना शुरू कर दिया है. फ़ुरसत मिले न मिले, एकाकी जीवन (बाध्यता) ने इतना समय तो फिलहाल मुझे दिया है कि हफ्ते में एक पोस्ट लिख लेता हूँ. ऐसे में जब कभी उन पुरानी गलियों से गुज़रता हूँ तो एक अजीब सा सन्नाटा दिखाई देता है. आँखें फेरकर आगे बढ़ता हूँ तो लगता है कि कोई आवाज़ देकर बुला रहा है पीछे से. लेकिन पलटकर देखता हूँ तो वही ख़ामोशी. सर्दियाँ अपने शबाब पर हैं. तो फिर आइये रिश्तों की गरमाहट महसूस करें सम्बन्धों की “आँच” तापते हुये कविता-कहानी सुने-सुनायें और याद करें अपनी जड़ों को जहाँ न जाने कितना देसिल बयना आपका बाट जोह रहा है.

आज के दिन तो एक सफ़ेद बालों वाला और लाल कपड़ों वाला बाबा कन्धे पर बड़ा सा मोज़ा लिये तोहफ़े बाँटता फिरता है. आप सब लोगों से गुज़ारिश है. मेरे लिये सैण्टा बन जाइये और मुझे मेरा तोहफा दे ही डालिये. तभी तो होगी “मेरी क्रिसमस!!”

मंगलवार, 26 नवंबर 2013

फ़ुरसत में ... 113 -- नवाबगंज पक्षी-विहार की यात्रा

फ़ुरसत में ... 113

नवाबगंज पक्षी-विहार की यात्रा

मनोज कुमार

फ़ुरसत से फ़ुरसत में आया हूं ... बहुत दिनों के बाद!

पिछले हफ़्ते सरकारी काम से कानपुर जाना हुआ। राजभाषा हिंदी के क्रियान्वयन के काम से जुड़े रहने के कारण सम्मेलनों का आयोजन भी मेरा दायित्व है। कानपुर प्रवास भी इसी कड़ी का एक हिस्सा था। कोलकाता से कानपुर पहुंच कर महसूस हुआ कि यहां जाड़े का आगमन हो चुका है। अपन पूरी तैयारी से गए नहीं थे, इसलिए आधे-अधूरे तैयार लोगों के साथ जो हश्र होना चाहिए था--- वही हुआ। शाम तक नाक बहने लगी, ... और रात होते-होते अनवरत छींकों ने परेशानियां बढ़ा दी। संगी-साथी और आने वाले दर्शनार्थी तरह-तरह के उपदेश और आदेश देते रहे। उनमे से एक जो अविस्मरणीय रहा वह यह था – आता हुआ और जाता हुआ – दोनों जाड़ा बहुत ख़तरनाक होता है। इसमें सबसे ज़्यादा संभल कर रहने की ज़रूरत होती है।” मुझे भी लगा मैंने ये कौन-सी मुसीबत मोल ले ली है। ये सर्दी तो दो-तीन दिनों में चली जाएगी, पर इतने सारे आदेश और उपदेश तो मेरा जीवन-भर पीछा करते रहेंगे। हमारी तरफ़ एक कहावत बहुत प्रचलित है – “लुच्चक मौगत माघ महीना”! अपन तो कार्तिक में ही भुगत रहे थे।

ख़ैर! जैसे-तैसे बहती हुई नाक और आती-जाती छींकों की नाव पर सवार हमने सम्मेलन की वैतरणी पार कर ही ली। फिर कानपुर को प्रणाम किया और जुगल किशोर के साथ कानपुर-लखनऊ राष्ट्रीय राजमार्ग 25 द्वारा अमौसी एयरपोर्ट के लिए प्रस्थान किए।

आते हुए जाड़ों में न सिर्फ़ मेरा प्रवास का कार्यक्रम था, बल्कि इस ऋतु के आगमन के साथ-साथ बहुत से प्रवासी पक्षियों का भी भारत-प्रवास का कार्यक्रम होता है। दरअसल नवंबर से फरवरी के दौरान भारत में कई विदेशी पक्षी छुट्टियाँ बिताने आते हैं। कुछ पक्षी तो साइबेरिया जैसे दूर-दराज़ के इलाक़ों से यहां आते हैं। जाड़े के मौसम के आते ही प्रवासी पक्षियों की मौजूदगी से भारत रंगीन हो जाता है। 1200 से अधिक की संख्या में प्रवासी पक्षियों की विभिन्न प्रजातियां भारत में आकर यहां के पक्षियों की बिरादरी में शामिल होकर इनकी पहले ही से रोचक और समृद्ध परंपरा में चार चांद लगा देते हैं। पक्षियों का एक स्थान से दूसरे स्थान पर प्रवास एक अद्भुत घटना है, जो सदियों से घटित होती आ रही है। ऐसे कई अध्ययन किए जा चुके हैं जिनसे यह पता लगा है कि ये पक्षी मौसम में आए बदलाव, प्रतिकूल तापमान और भोजन की अनुपलब्धता के कारण अपने मूल स्थान से पलायन करते हैं। उनके स्थाई निवास में भोजन, आश्रय और प्रजनन का संकट पैदा हो जाता है, इसलिए ये पक्षी अनुकूल वातावरण की खोज में हज़ारों किलोमीटर की यात्रा कर भारत व अन्य देशों की तरफ़ कूच कर जाते हैं। यहां वे अंडे देते हैं, अपना परिवार बढ़ाते हैं और अपने बच्चों के साथ ख़ुशी-ख़ुशी अपने देश लौट जाते हैं।

कानपुर-लखनऊ राष्ट्रीय राजमार्ग पर कानपुर से लगभग 45 कि.मी. की दूरी पर नवाबगंज पक्षी विहार, जनपद उन्नाव के नवाबगंज तहसील के अन्तर्गत स्थित है। इस पक्षी विहार की स्थापना वन्य प्राणी (संरक्षण) अधिनियम, 1972 के अन्तर्गत वर्ष 1984 में हुई थी। यह विहार जिस जगह स्थित है, वहाँ बस, टैक्सी या निजी वाहनों से बड़ी सुगमता से पहुंचा जा सकता है। 224.60 हेक्टेयर में फैले इस पक्षी विहार की स्थापना का मुख्य उद्देश्य स्थानीय व प्रवासी पक्षियों की सुरक्षा एवं संवर्धन के साथ इनके प्राकृतवास (Habitat) का भी संरक्षण किया जाना है।

एक मित्र, गगन चतुर्वेदी से बात हो रही थी। उसने पूछा, “आजकल तुम्हारे ब्लॉग पर एक्टिविटी कम क्यों है?”

मैंने बताया, “इन दिनों पक्षियों के प्रवास पर पुस्तक लिख रहा हूं।”

उसने उल्लास से कहा, “फिर तो वापसी में तुम नवागंज पक्षी विहार ज़रूर जाओ।”

और उसके इस सुझाव ने इस पक्षी विहार जाने के प्रति मेरी उत्सुकता बढा दी। और कुछ ही देर में जब हमारी टैक्सी NH-25 पर दौड़ रही थी, मेरे मन में भी रंग-बिरंगे सैंकड़ों-हज़ारों पक्षियों के दर्शन की कल्पना दौड़ रही थी। लगभग सवा घंटे की यात्रा के पश्चात हम पक्षी विहार पहुंचे। गेट पर कोई खास गहमा-गहमी नहीं दिखी। टिकट काउण्टर के बाहर कुर्सी लगाकर धूप सेकते सज्जनों ने हमें तो निराश ही कर दिया – “अभी कहां चले आए? पक्षी तो दिसम्बर में आएंगे।”

हमने भी हिम्मत नहीं हारी, “कुछ तो दिख ही जाएंगे।”

हां, सो तो है।

फिर उन्होंने पांच मिनट तक एक रजिस्टर में हमारा नाम-धाम, ठौर-ठिकाना, हमारी गाड़ी का नम्बर आदि नोट किया और तीस रुपए के भुगतान पर हमें टिकट थमाया। मुख्य द्वार से प्रवेश करते ही, पक्षियों की जानकारी देते बड़े-बड़े बोर्ड पर जब हमारी नज़र गई, तो हमें लगा कि कुछ अलग तो दर्शन होंगे ही। हम आगे बढ़े तो कुछ युवाओं को दूरबीन लगाए निगाहबीन करते पाया। हमारा हौसला बढ़ा कि कुछ तो है। थोड़ा पछतावा भी हुआ कि काश हमारे पास भी दूरबीन होती। ख़ैर, दूरबीन न सही, पर 15x ज़ूम वाला कैमरा तो है ही, पक्षी दिखते ही खींच लूंगा फोटो!

हम झील के किनारे बने पैदल पथ (Pedestrian path way) पर आगे बढ़े। कल्पना तो यह कर रखी थी कि झुंड के झुंड प्रवासी पक्षी दिखेंगे, ... उन्हें कैमरे में क़ैद करूंगा, ... लेकिन स्थिति उलट थी। सिवाए झाड़-झंखाड़, जंगल, सड़े-गले पदार्थों के कुछ भी नज़र नहीं आ रहा था। यहां तक कि झील का पानी भी कहीं साफ-सुथरा नहीं। हम आगे बढ़े तो सड़क पर काम करते मज़दूर मिले। पूछने पर उन्होंने बताया कि दर्शनार्थी की सुविधा के लिए साइकिल ट्रैक बन रहा है। हम ख़ुश हुए, अगली बार बेहतर सुविधाएं मिलेंगीं।

रास्ते के दोनों ओर दूर-दूर तक नज़र दौड़ाते हम आगे बढ़ रहे थे, पर कहीं भी प्रवासी पक्षी तो क्या स्थानीय पक्षी भी नहीं दिख रहे थे। तभी एक कर्मचारी दिखा। उनसे पूछा, तो उन्होंने बताया, ‘पक्षी देखना था, तो सुबह पांच बजे आते। अभी तो सब झाड़ियों में छुप गए होंगे।’ तब ग्यारह बज रहे थे। फिर भी हम हिम्मत हारने को तैयार नहीं थे। आगे बढ़ते गए। एक आदमी उल्टी दिशा से आता दिखा। उससे पूछा, “पक्षी कहां दिखेंगे? दिखेंगे भी या नहीं?” उसने बताया, “आगे जाकर दाएं मुड़ जाइए, जंगल है ... दिख जाएंगे।”

IMG_5790हम उनके बताए रास्ते पर बढ़ चले। शुद्ध, शांत, स्थिर प्राकृतिक वातावरण में चलने का अभूतपूर्व सुख तो मिल रहा था, लेकिन प्रवासी पक्षियों के न दिख पाने का दुख भी साथ-साथ चल रहा था। पक्षी तो मिल नहीं रहे थे, पानी में कमल दिखा हमने उसकी तस्वीर उतार ली। आगे बढ़े, तो सड़क की बाईं ओर किसी बड़े पक्षी का कंकाल मिला। बाहरी किसी व्यक्ति का काम तो यह होगा नहीं, शायद स्थानीय जीवों का दुस्साहस हो यह। ऊपर नज़रें उठाई तो देखा एक बड़े पेड़ की शाखा पर मधुमक्खियों ने अपना छाता बना रखा था। हमने इधर-उधर नज़रें दौड़ाई। तभी काफ़ी दूर पक्षियों का एक दल दिखा। हमने कैमरे को फोकस कर उनपर निशाना साधा और शटर दबाया। हमें लगा, हमारी तीर्थ-यात्रा सफल हुई। कुछ और दिखे जो पानी पर चहलकदमी कर रहे थे। वे भी हमारे कैमरे में क़ैद हुए।

कुछ ही दूर आगे बढ़ने पर देखा कि एक पक्षी रास्ते के किनारे बैठा है। दाईं ओर नज़र घुमाई तो एक और पक्षी दिखा जो तेज़ी से कभी ज़मीन पर, तो कभी पेड़ की शाखाओं पर उड़-उड़ कर बैठ रहा था। इतना तो हम संतुष्ट हुए कि पांच-छह प्रकार के प्रवासी पक्षियों के दर्शन हुए। यदि हम तड़के भोर में आते तो शायद अधिक देख पाते और क़रीब से देख पाते।

यह पक्षी विहार काफ़ी बड़ा है। इसके बीचों-बीच में एक बड़ी झील है। उसके चारों तरफ़ पैदल पथ बने हैं। जगह-जगह पर View Shed और Watch Tower बने हैं। सच मानिए अगर आप पक्षी-दर्शन के शौकीन हैं, तो यहां अवश्य पधारिये, धैर्य और लगन के साथ सारा दिन बिताइए, बड़े मनोरम, सुंदर, रंग-बिरंगे प्रवासी पक्षियों से आपकी मुलाक़ात होगी। स्थानीय जानकारों के अनुसार दिसम्बर का महीना इनके दर्शन के लिए उपयुक्त होता है।

इस पक्षी विहार में कई तरह के पक्षी आते हैं – जैसे – सीकपर (Northern Pintail), लालसर (Red-crested Pochard), चेता बत्तख (Garganey Teal), लाल सीर (Common Pochard), चमचा बाजा (Spoonbill Duck), नीलसर (Mallard), डुबडुबी (Little Grebe), अंधा बगला (Pond Heron), जामुनी जलमुर्गी (Purple Moorhen), गुगराल (Spot-billed Duck), नकटा (Comb Duck), छोटी सिल्ही (Lesser Whistling Teal), टिटीरी (Red-wattled Lapwing), गाय बगला (Cattle Egret), पटोखा बगला (Intermediate Egret), छोटा लालसर (Wigeon), ठेकारी (Common Coot), बेखुर बत्तख (Gadwall), जलपीपी (Bronze-winged Jacana), पिहो (Pheasant-tailed Jacana), छोटा पनकौवा (Indian Cormorant), अंजन (Grey Horn), नरी अंजन (Purple Heron), घोघिंल (Asian Openbill Stork), सारस (Sarus Crane), काला बाजा (Black-headed Ibis), लोहा सारस (Black-necked Stork), सवन (Bar-headed Goose), पनवा (Darter)।

इस पक्षी विहार की यात्रा से लैटते हुये, अशानुरूप संख्या में पक्षियों को न देख पाने का क्षोभ तो था ही, साथ ही यह बात भी मन को साल रही थी कि हम प्रकृति के प्रति ईमानदार नहीं हैं. हमने अपने चारों ओर प्रदूषण का एक सैलाब जमा कर रखा है. यह भी एक कारण है कि जिस सोच के साथ मैं पक्षियों के दर्शन के लिये गया था, वह अधूरा रहा। पर्यावरण के प्रति हमारे संकल्प सिर्फ़ दर्शनों और सिद्धांतों तक ही सीमित रह जाते हैं, व्यवहार में हम प्रकृति और प्रकृतवासी और उनके प्रकृतवास के प्रति काफ़ी क्रूर हैं। शायद इसी कारण से हमें पक्षी दिखे भी तो काफ़ी कम और जो दिखे वो भी बड़े डरे, सहमे से लग रहे थे।

भोले प्रवासी पक्षी तो शायद अगले महीने आएंगे ही, क्योंकि उनके अपने घर में संकट होगा, तो वे अपने लिए एक बेहतर वातावरण की तलाश में यहाँ चले ही आएंगे, लेकिन सबसे चिंताजनक बात, स्थानीय पक्षियों का भी न दिखाई देना है। हमें स्थानीय व प्रवासी पक्षियों की सुरक्षा एवं इनके प्राकृतवास के संरक्षण की दिशा में निरंतर गंभीरता से न सिर्फ़ सोचना बल्कि अनुपालन भी करना चाहिए।

“पर्यावरण संतुलन हेतु वन एवं वन्य जीवों की रक्षा करें।”

***

शनिवार, 7 सितंबर 2013

विकट अतिथि

विकट अतिथि

मनोज कुमार

बेटा और लोटा परदेश में ही चमकता है” – इस कहावत को कहने वाले ने सही ही कहा है। हम पिछले 25 साल से परदेश में ही अपनी चमक छोड़ रहे हैं। महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, पंजाब और बंगाल की भूमि पर सेवा करते हुए दो दशक से अधिक हो गए। परदेश की पोस्टिंग जब-जब घरवालों के मनोनुकूल रहा, तो आने-जाने वालों से घर भरा-पूरा रहता रहा है।

हमारे एक मित्र हैं झा। सप्ताह में दो दिन तो उनके साथ भेंट-मुलाक़ात और बतकही हो ही जाती है। पता नहीं क्यों मेरे लेखन से प्रभावित रहते हैं और कभी-कभार उसकी प्रशंसा भी कर देते हैं। “गंगा सागर” यात्रा-वृत्तांत पढ़कर इतने प्रभावित हुए कि गंगा सागर की यात्रा करके ही उन्होंने दम लिया।

हाल-फिलहाल में मैंने एक फ़िल्म की समीक्षा की थी। उसे पढ़कर वे काफ़ी प्रेरित हुए और पिछले सप्ताह उन्होंने कहा कि अब तो इसे देखना ही होगा। बल्कि अपनी बात पर ज़ोर देकर बोले – इसी सप्ताहांत में देखूंगा। गुरुवार को जब दफ़्तर में उनसे भेंट हुई तो मैंने उनसे पूछा, -- देख आए ‘फ़िल्म’? झाजी ने मायूस स्वर में कहा, -- “अरे अलग ही कहानी हो गई! दोनों दिन (शनिवार-रविवार) इस कदर व्यस्त रहे कि फ़िल्म देख ही नहीं पाए। घर से अतिथि आ गए थे। उनके बच्चों का यहां (कोलकाता में) इम्तहान था। सो उनके सत्कार में ही लगा रहा।”

मेरे चेहरे की कुटिल मुसकान शायद वे पढ़ नहीं पाए। यहां भी स्थिति वही थी। “जो गति तोरा, सो गति मोरा” वाली स्थिति से मैं भी गए सप्ताहांत गुज़र चुका था। आज कल स्थिति भी बदल-सी गई है। जिसके आने की कोई तिथि न हो, वाली स्थिति तो अब रही नहीं। अब तो मोबाइल पर अपने आने की सम्पूर्ण सूचना देकर वे पधारते हैं, ताकि उनके आवभगत-सत्कार में कोई कमी न रह जाए। इसलिए सिर्फ़ ‘तिथि’ कहकर भी काम चलाया जाना उचित जान पड़ता है।

शुक्रवार की शाम एक पुराने मित्र का बरसों बाद फोन आया, जो कि हाल-चाल से शुरू होते ही दूसरे वाक्य में ‘हमें तो भूल ही गए, न फोन करते हो, न कोई खबर लेते हो’ पर आ पहुंचा। हमारी प्रतिक्रिया की न तो उसे आवश्यकता थी न ही परवाह। वह तो धारा-प्रवाह बोलता गया, जिसका न कोई ओर था न छोर। जब वह अपने मन्तव्य पर पहुंचा, तब तक वह आरोप-प्रत्यारोप के पांच मिनट ले ही चुका था। मन्तव्य स्पष्ट करते हुए बोला, “बेटी जा रही है। उसकी मां तो घबरा रही थी, हम बोले कि चाचा तो वहां पर है ही, फिर क्या सोचना? हम भी जाते लेकिन एक ठो ज़रूरी काम से दिल्ली जाना है। तुम देख लेना। उसका मामा भी साथे है।” ... मैंने बात के सिलसिले को विराम देने के हेतु से गाड़ी और बर्थ का नम्बर लिया और फोन को रखा।

सुबह-सुबह उठकर स्टेशन पहुंचा तो मालूम हुआ कि गाड़ी चार घंटे लेट है। खैर चार घंटे बाद दुबारा स्टेशन पहुंचा और मामा-भांजी को लेकर घर आए। उन्हें ड्रॉईंग रूम में छोड़ सब्जी-भाजी के प्रबंध हेतु बाज़ार गया। बाज़ार से घंटे भर बाद लौटा तो पाया कि मामा की वाचलता से पूरा घर गुंजायमान था। सोफ़े पर एक तरफ़ उनका पैंट-शर्ट किसी उपेक्षित प्राणी की तरह पड़ा था, और श्रीमान पालथी मार कर विराजमान थे। औपचारिकता निभाने मैं भी बैठ गया। महोदय टीवी को उच्चतम वौल्यूम पर सुनने के शौकीन लगे, और बात करते वक़्त वे अपनी आवाज़ को टीवी की आवाज़ से तेज़ रखने पर तत्पर रहते थे। घर में दोनों आवाज़ों का जो मिलाजुला इफेक्ट पैदा हो रहा था, वह महाभारत के युद्ध के दृश्य के समय के बैकग्राउंड म्यूज़िक से मैच करता हुआ था।

थोड़ी ही देर में महाशय ऐसा खुले कि लगा जन्म-जन्मांतर का नाता हो। मेरी स्टडी टेबुल पर पड़े बैग पर उनकी निगाहें गईं, तो प्रसन्नता की वह लकीर उनके चेहरे पर दिखी, मानों बिल्ली को दूध दिख गया हो। बोले, -- “मेहमान! बैग तो ज़ोरदार है। आपको तो ऑफिसे से मिल जाता होगा। इसको हम रख लेते हैं। आपको तो दूसरा मिलिए जाएगा।” संकोच से मेरा किसी नकारात्मक प्रतिक्रिया न करना उनके लिए सकारात्मक प्रभाव उत्पन्न कर गया और उन्होंने बैग पर क़ब्ज़ा जमा लिया। मेरे मन में बड़ा ही कसैला-सा विचार उमड़ा – इन मेहमानों के चलते आए दिन न सिर्फ़ शनिवारों-रविवारों की हत्या होती है, बल्कि घर की संपदा पर भी डाका पड़ता है।

दोपहर अभी होने को ही था कि श्रीमान का स्वर टीवी की आवाज़ से ऊँचा हुआ – “खाने में क्या बना है?” अभी हम जवाब देते उसके पहले ही उनका दूसरा वाक्य उछल रहा था, -- “पटने में यदि आप होते तो बताते हम आपको कि माछ कैसे बनता है?” फिर तो बातों-बातों में उन्होंने अपने ज्ञान का भंडार हमारे लिए खोल के रख दिया। बोलते रहे, -- “अरे इस सब जगह कोनो माछ मिलता है, सब चलानी है, बस चलानी। तलाब का फ़रेस मछली का बाते अलग है। आइए कभी हमरे यहां तलाब का मछली खिलाएंगे त आपको पता चलेगा कि मछली का मिठास क्या होता है? उसके सामने ई सब मछली त पानी भरेगा। बिना मसल्ला के जो माछ बनता है उसको खाने का मज़ा त उधरे आता है।” अपनी इस थ्यौरी को हमारे सामने परोसते-परोसते वे इतने उत्तेजित हो गए कि पालथी मारकर सोफे पर ही चढ़ गए। -- अब जिस मुद्रा में वे थे, उसे बैठना कहना उनकी शान में गुस्ताख़ी ही होगी।

थोड़ी देर रुक कर वे फिर बोले, -- “मेहमान! आप थोड़े मोटे दिख रहे हैं। देखिए दोपहर के भोजन और सुबह के नाश्ते के बीच अगर नींबू-पानी का शरबत पी लिया कीजिएगा ना त मोटापा अपने-आप कम हो जाएगा।” मैंने मन ही मन सोचा फ़रमाइश तो श्रीमान जी ऐसे कर रहे हैं मानों हमारे स्वास्थ्य की चिंता में घुले जा रहे हों। शायद हमारी बातें किचन में पहुंच रही थी, इसीलिए थोड़ी ही देर में शरबत लिए श्रीमती जी हाजिर थीं।

एक हाथ में शरबत का गिलास थाम उन्होंने दूसरे से अपने थैले का मुंह खोला और एक पोटली मेरी श्रीमती जी की तरफ़ बढ़ाते हुए बोले, -- “ये आपकी मां ने भिजवाया है। ठेकुआ, खजूर और निमकी है।” मेरी श्रीमती जी ने पोटली का बड़ा आकार और उसके अन्दर के सामान की मात्रा के अनुपात में भारी अन्तर पाया तो उनके चेहरे के भाव में स्वाभाविक परिवर्तन आया। शायद उसे भांपते हुए महाशय ने जल्दी-जल्दी कहना शुरू कर दिया, -- “इसमें जो था वह थोड़ा कम है। गाड़ी लेट हो रही थी, त हम सोचे कि अब क्या रस्ता-पैरा का खाएं। साथे त खाने का सामान हइए है, वहां जाकर क्या खाएंगे, अपना हिस्सा अभिए खा लेते हैं। यह बोलकर वे हा-हा-हा करके हंसने लगे।”

थोड़ी देर बाद लघुशंका निवारण के लिए जब महाशय के चरणकमल स्नानगृह में पड़े तो वहां उन्हें खुले हुए वाशिंग मशीन के दर्शन हुए और उनकी बांछें खिल गईं। उनका हर्षित स्वर फूट पड़ा, -- “अरे मेहमान वाह! इ त कपड़ा धोने का मशीन है। रस्ता में सब कपड़ा पसीना से खराब हो गया है। जब मशीन चलिए रहा है त हम सबको धोइए लेते हैं।” इतना कह कर उन्होंने उस मशीन का जी भर कर सदुपयोग किया और यहां तक कि अपने धुले हुए कपड़े भी धो डाले। मन ही मन मैं दुहरा रहा था, -- ‘मंगनी के चन्दन, लगा ले रघुनन्दन’

भोजन का समय हो चुका था। हम डायनिंग टेबुल पर जमे। भोजन परोसे जाते ही महाशय की ट्वेन्टी- ट्वेन्टी की शतकीय पारी शुरू हो गई। थाली में रोटी गिरती नहीं कि वह सीमा-रेखा के बाहर पहुंच जाती थी। मतलब जितनी तेजी से वह उनकी तरफ़ पहुंचती, उससे भी अधिक तेज़ी से उनके उदरस्थ हो जाती थी। ऐसा लग रहा था कि उन्हें जुगाली की भी फ़ुरसत नहीं थी। ऐसे दृश्य को देख कर मेरे मन में यह उमड़ा –

हनुमान की पूंछ में लग न पाई आग।

लंका सारी जल गई गए निशाचर भाग॥

लगभग एक रीम रोटियों को निगल चुकने के बाद भाई साहब बेड पर पसरे और पलक झपकते ही उनके स्टीरियोफोनिक नासिका गर्जन ने पूरे घर में आतंक फैलाना शुरू कर दिया। उस ध्वनि का प्रवाह श्वांस के उच्छवास और प्रच्छ्वास के साथ कभी द्रुत तो कभी मध्यम लय में अपनी छटा बिखेर रहा था। ध्वनि का उखाड़-पछाड़ घर के अध्ययनशील प्राणियों की एकाग्रता दिन में भी भंग कर रही थी। ऐसा होता भी क्यों नहीं आखिर उनके आरोह-अवरोह कभी पंचम स्वर तो कभी सप्तम सुर में लग रहे थे। घर की लीला अब मेरे बर्दाश्त के बाहर थी। खिन्न होकर मैंने घर के बाहर निकल जाने में ही अपनी भलाई समझी।

जब मैं दो-ढाई घंटे बाद घर वापस आया, तो उन्हें हाथ में रिमोट पकड़े टीवी देखता पाया। किसी बेचैन आत्मा की तरह सोफा पर दोनों पांव रख कर वे बंदर की तरह उकड़ूं बैठे थे और जितनी देर मैं उनके पास रुका उतनी देर वे सौ से भी अधिक के टीवी के चैनलों पर कूदते-फांदते रहे। हमारा तो न्यूज़ तक सुनना दूभर हो गया था, मानों महाशय विवेक को ताक पर धर कर आए थे। मैंने सो ही जाने में अपनी भलाई समझी।

सुबह जब उठा तो श्रीमती जी द्वारा पहला समाचार सुनने को मिला कि ‘भाई साहब का पेट बेक़ाबू हो गया है।’ मैंने मन ही मन कहा, -- ‘जब माले मुफ़्त .. दिले बेरहम हो तो यह तो होना ही था।’ तभी महाशय जी दिखे। उन्होंने अपना नुस्खा खुद ही बताया, -- “तनी दही-केला खिला दीजिए – ऊहे पेट बांध देगा।” उनकी इच्छा फौरन पूरी की गई। पलक झपकते ही उन्होंने आधा किलो दही और आधा दर्जन केले पर अपना हाथ साफ किया और मांड़-भात खाने की अपनी फ़रमाइश भी सामने रख दी। फिर हमारी तरफ़ मुखातिब होकर बोले, -- “अब हम त ई अवस्था में बचिया के साथ नहिए जा पाएंगे। आपही उसको परीक्षा दिला लाइए।”

इधर हम झटपट तैयार होकर परीक्षा केन्द्र जाने की तैयारी कर रहे थे, उधर महाशय जी मांड़-भात समाप्त कर उपसंहार में दही-भात खा रहे थे। मुझे लगा इससे बढ़िया तो यही होता कि महाशय का पेट खराब ही न हुआ होता। बच्ची को परीक्षा दिला कर जब शाम घर वापस आए तो वे हमसे बोले, -- “मेहमान जी आप त बड़का साहेब हैं। तनी देखिए कौनो टिकट-उकट का जोगाड़ हो जाए।” इंटरनेट की दौड़-धूप के बाद हमने अपने पैसे से उनके टिकट का इंतज़ाम किया और उन्हें स्टेशन पहुंचा कर वापस घर आकर दम लिया।

हमने अभी चैन की सांस ली ही थी कि दरवाज़े की घंटी बजी। दरवाज़ा खोला तो लंबी-चौड़ी खींसे निपोरे श्रीमान जी नज़र आए। हम कुछ पूछते उसके पहले खुद ही बखान करने लगे, -- “गाड़ी छह घंटा लेट था, त हम सोचे कि पलेटफारम पर क्या बैठना, घरे चलते हैं वहीं चाह-वाह पी आते हैं।”

दूसरी बार हमने कोई रिस्क नहीं ली। उन्हें छोड़ने न सिर्फ़ प्लेटफॉर्म तक गए बल्कि उस अतिथि रूपी बैताल को गाड़ी रूपी वृक्ष पर टांगकर ट्रेन के खुलने तक का वहीं इंतज़ार करते रहे और अपनी पीठ के वैताल को उतारकर घर वापस आए और एक कटे वृक्ष की तरह बिस्तर पर गिर पड़े।

झा जी जो अबतक मेरी इस आपबीती को तन्मयता के साथ सुन रहे थे, हंसने लगे। फिर उन्होंने कहना शुरू किया, -- “हमारे एक दोस्त हैं। वे भी ऐसे ही एक विकट अतिथि से जो उनके दूर के संबंधी भी थे, बड़े परेशान रहा करते थे। एक बार उनके इस दूर के संबंधी ने फोन किया, कि वे फलानी तारीख को आ रहे हैं, उन्हें स्टेशन आकर रिसिव कर लें। इस महाशय ने झट से कह दिया था, -- उन दिनों तो हम शहर से बाहर रहेंगे। दूर के संबंधी थोड़ा निराश हुए। बोले, -- कोई बात नहीं, हम होटल में रह लेंगे।

एक दिन वे जब शाम को घर से बाज़ार जाने के लिए निकल ही रहे थे कि देखते हैं कि उनका दूर का संबंधी टैक्सी से उतर रहा है। बेचारे हैरान परेशान उलटे पांव घर की तरफ़ वापस भागे। उनके संबंधी ने उन्हें पुकारा पर उसकी पुकार को अनसुनी कर वे तेज़ कदमों से चलते रहे। संबंधी भी ढीठ की तरह उनका पीछा करता रहा। उन्होंने घर के दरवाज़े पर लगे कॉल-बेल को दबाया – घर का दरवाज़ा खुला और उनकी पत्नी प्रकट हुई। वे अपनी पत्नी पर ही बिफर पड़े। लगे ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने – “आजकल तुम कोई काम ढंग से करती ही नहीं हो। घंटा भर लगता है दरवाज़ा खोलने में। घर में एक भी सामान ठीक से अपनी जगह पर नहीं होता – ऊपर से अनाप-शनाप बकती रहती हो ...।” दो-चार मिनट ख़ामोश उनकी पत्नी अवाक हो सारी बातें सुनती रही। जब उसने देखा कि बे-सिर पैर के आरोप के साथ पति चिल्लाए जा रहे हैं, तो उसने भी ज़ोर-ज़ोर से पति को फटकारना शुरू कर दिया। दोनों के बीच महासंग्राम इस स्थिति तक पहुंच चुका था कि कभी भी यह मल्ल-युद्ध में तबदील हो सकता था। संबंधी महोदय ने ऐसी विकट स्थिति देखी तो घबड़ाकर वहां से खिसक लिए। संबंधी के खिसकते ही पति शांत होकर पत्नी को समझाने लगे – “अरी लक्ष्मी मैं तो उस घर पधार रहे विकट संबंधी के सामने यह नाटक कर रहा था, ताकि वह हमें लड़ता देख चला जाए। भला हुआ वह चला गया, वरना सोचो तुम्हारा क्या हाल होता? मैं कोई सचमुच तुम्हें थोड़े ही डांट रहा था।” यह सुन अभी पत्नी शांत ही हुई थी कि संबंधी महोदय सीढ़ी के नीचे से निकल कर सामने आए और बोले – “तो भाई साहब मैं भी सचमुच का थोड़े ही गया हूं।”

यह वाकया खत्म कर झा जी ठठा कर हंस पड़े। मैंने भी उनका साथ दिया और कहा, -- “झा जी लोग कहते हैं कि अतिथि देवो भव। ज़रा सोचिए और आप ही निर्णय कीजिए कि ऐसे अतिथि देवो भव हैं कि दानवो …!”

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बेस्ट ऑफ फ़ुरसत में …!

शनिवार, 31 अगस्त 2013

फ़ुरसत में ... हम भी आदमी थे काम के

फ़ुरसत में ... 112

हम भी आदमी थे काम के

मनोज कुमार

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुवा, पंडित भया न कोइ।

ढाई   आखर   प्रेम   का,   पढ़ै   सो    पंडित   होइ॥

कल्पना करें - कितना अच्छा लगेगा जब एक लड़का डिग्री लेकर दौड़ता हुआ अपने माता-पिता के पास आएगा और उनके चरणों में नतमस्तक होकर कहेगा – हे माते! हे तात!! मेरी मेहनत रंग लाई और आपलोगों के अशीष और शुभकमनाओं का फल है कि आज मैं `LOVE’ में पोस्ट-ग्रैजुएट हो गया हूं। फिर जिसे वो मन ही मन चाहता था उसके पास दौड़ा हुआ जाएगा और कहेगा – हे प्रिये! इस लव में पोस्ट ग्रैजुएट इंसान का प्रेम स्वीकार करो! प्रेमिका बड़े नखरे और अदा से कहेगी, ‘अहो! तुम्हें विलम्ब हो गया! अब मुझे ‘लव’ पर रिसर्च कर चुके इंसान को अपना जीवन-साथी वरन करना है।’ इस तरह प्रेम पर पी-एच.डी. किए प्रेमी का प्रेम बाज़ार में महत्त्व काफ़ी बढ़ जाएगा। ... और प्रोफ़ेसर और प्रिंसिपल की तो चांदी ही होगी। फिर तो वह पुराना और घिसा-पिटा डायलॉग नए रूप में अपनी चमक-दमक बिखराते हुए दिखेगा –“ बच्चे! मैं उस College का प्रोफ़ेसर हूं जिसके तुम स्टुडेंट हो।” और शान से कहेंगे –

रोम-रोम   रस     पीजिए,    ऐसी    रसना      होय;

‘दादू’ प्याला प्रेम का, यौं बिन तृपिति न होय।

सन्दर्भ कुछ यूँ है कि कोलकाता का एक महाविद्यालय जो देश का सबसे पुराने महाविद्यालयों में से एक था, आजकल विश्विद्यालय का दर्ज़ा पा चुका है। ख़बर है कि ‘लव’ को उसके पाठ्यक्रमों में शामिल कर लिया गया है। सुनने में आया है कि अमेरिका के मैसचुसेट्स विश्विद्यालय में ‘सोशियोलॉजी ऑफ लव’ पढ़ाया जात है। हो सकता है यह धारणा वहीं से उठा ली गई हो। हम अंधानुकरण करने में माहिर तो हैं ही। यूँ कि देखने वाली बात ये होगी कि जिस ‘प्यार’ को पढ़ाया जायेगा वह देसी होगा या विदेशी, यह उत्सुकता का विषय है। देसी प्यार तो आर्ट फ़िल्म की तरह धीरे-धीरे परवान चढ़ता है। विदेशी प्यार में जो जलवे हैं, उसे हमारे यहां बड़े चाव से देखा-सुना जाता रहा है। सो प्यार का विदेशी संस्करण ‘लव’, चाहे वह पढ़ाई के रूप में ही क्यों न हो, हमें ख़ूब भाएगा, उम्मीद तो यही की जा रही है।

घोषित (?) यह पाठ्यक्रम सभी वर्ग के स्टूडेंट्स को आकर्षित कर रहा है। कहा जा रहा है कि इस पाठ्यक्रम के ज़रिए छात्रों को प्रेम के प्रति संवेदनशील बनाया जाएगा। पाठ्यक्रम के विषय – द ट्रान्सफॉर्मेशन ऑफ इन्टिमेसी, सेक्सुअलिटी, लव एंड एरोटीसिज़्म, लिक्विड लव, द आर्ट ऑफ लविंग आदि पर तनिक ग़ौर करें तो समझ में आएगा कि इस पाठ्यक्रम से संवेदना बेचारी तो दहाड़ मारकर फूट ही पड़ेगी।

प्रेम का इतिहास और ऐतिहासिक प्रेमी और उसकी प्रासंगिकता के विषयों में पढ़ना कितना रोचक रहेगा!

लोगों का कहना है कि अब तक शिक्षा के क्षेत्र में भावनाओं को कोई जगह नही दी गई थी। इस पाठ्यक्रम के आ जाने से एक अच्छी शुरूआत हुई है, यह तो माना जा ही सकता है। कल को ईर्ष्या, नफ़रत, घृणा, धोखा, अफेयर्स-ब्रेक‍अप, आदि विषयों के लिए रास्ते खुलेंगे और इन्हें सीरियसली लिया जाएगा। अब तो जैसे हर सेशन के बाद दर्जनों ‘लव गुरु’ विश्विद्यालयों से निकलेंगे, वैसे ही कल को ‘ब्रेक‍अप गुरु’, ‘नफ़रत गुरु’ और ‘धोखा गुरु’ की भी तैयारी कराने वाले पाठ्यक्रम आ जाने से ऐसे गुरुओं की कमी नहीं रहेगी।

इस पाठ्यक्रम में दाखिला लेने की होड़ अभी से शुरू हो गई है। पहले प्यार की तरह पहला फॉर्म भरने का चार्म हर किसी को आकर्षित कर रहा है। हो भी क्यों नहीं, इस विषय के अकादमिक-इतिहास में उनका नाम पहले विद्यार्थी के रूप में सदा के लिए दर्ज़ जो हो जाएगा। दूसरी बात जो उभर कर सामने आ रही है वह यह सम्भावना कि लोग इस कोर्स में दाखिला लेने के बाद पास ही नहीं करना चाहेंगे।

मक़तबे    इश्क़    में    इक    ढंग    निराला     देखा

उसको छुट्टी न मिली जिसको सबक़ याद हुआ।

क्लासेज़ इतनी रोचक होगी कि शायद ही कोई अनुपस्थित होना चाहेगा। यानी शत-प्रतिशत अटेंडेंस की गारंटी ही समझिए।

जेहि के हियँ पेम रंग जामा। का तेहि भूख नींद बिसरामा।

कितने रोचक स्पेशल-पेपर होंगे .. देसी मजनूं/लैला, या फिर विदेशी रोमियो/जुलियट ..। जब किसी कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में इस विषय  के विद्वानों को बुलाया जाएगा तो उद्घोषक कहेगा कि हमारे बीच प्रेम के प्रकांड पंडित मौज़ूद हैं और श्रोताओं की तालियों से सारा हॉल गूंज उठेगा। इन ढ़ाई आखर वालों का सीना गर्व से चौड़ा हो जाएगा। सुनने में आया है कि यह विषय ‘LOVE’ के नाम से जाना जाएगा। अच्छा ही है। प्रेम या प्यार में तो ढाई आखर ही होते हैं। इसे पढ़ने वाले एक और क्रेडिट ले जाएंगे कि वे चार आखर के ज्ञाता हैं। वैसे भी LOVE में जो खुलापन है, आज़ादी है, मस्ती है, ... वह प्यार में कहां!

कॉस्मेटिक्स की बिक्री बढ़ेगी। पुरुष और महिलाएं दोनों वैनिटी बैग लेकर निकला करेंगे। सज-संवर कर घर से निकलने वाले विद्यार्थियों को भी उस तरह के अभिभावकों से मुफ़्त की डांट नहीं सुननी पड़ेगी, जो कल तक कहते रहे हैं, कि “कॉलेज में तुम यही सब (लव-शव) पढ़ने जाते हो?” बल्कि अब छात्र सिर ऊँचा कर कहेगा कि “मैं तो इसके (लव-शव) फाइनल ईयर का छात्र हूँ।”

कई विषयों को लेकर यूं ही प्रतिस्पर्द्धा रहती है कि वह प्राकृतिक विज्ञान की श्रेणी में है या सामाजिक विज्ञान की श्रेणी में। इस विषय के जुड़ जाने से यह प्रतियोगिता और भी गहरा जाएगी। छात्रों को भी उत्सुकता है कि उन्हें कला संकाय में जाना होगा या विज्ञान  संकाय में। एक गुप्त सर्वेक्षण के अनुसार यह पता चला है कि छात्र भी यह चाहते हैं कि इसे विज्ञान संकाय में जगह मिले। कला तो भावना, संभावना और कल्पना पर आधारित होती है। विज्ञान तो प्रैक्टिकल के आधार पर सत्य का साक्षात्कार कराता है। इसलिये ‘लव’ में दाखिला लेने के बाद जब प्रैक्टिकल भी करने को मिल जाए तो फिर तो सोने पर सुहागा है।

इस डिग्री को पाकर यदि विद्यार्थियों को नैकरी मिल गई तो चांदी ही चांदी, वरना यह शे’र तो गुनगुना ही सकते हैं,

इश्क़ ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया।

वरना हम भी आदमी थे काम के॥

अब उन चचा को कौन समझाए जो कह रहे हैं कि ‘सौहार्द्र, नैतिक शिक्षा की बात होती तो देश का माहौल सुधरता। प्रेम की पाठशाला खुल रही है, ... संस्कारों की अवहेलना पता नहीं हमें कहां तक ले जाएगी?’

अरे चाचा,

अकथ कहानी प्रेम की, कछू कही न जाइ।

गूंगे    केरी   सरकरा   खावै   अरु    मुसकाइ॥

इसीलिए ---

दादू   पाती   प्रेम   की,   बिरला    बाँचै     कोई।

वेद पुरान पुस्तक पढ़ै, प्रेम बिना क्या होई॥

और हमारे जैसे कई ब्रिलियेण्ट लोग, यह सोचकर, मन मसोस कर, रह गये होंगे कि काश यह कोर्स कुछ साल पहले शामिल हो गया होता, तो आज हम भी समाज की सम्वेदनशीलता में इजाफ़ा कर रहे होते। लेकिन अब पछताने से क्या लाभ जब समय की चिड़िया ने सिर की सारी खेती चुग डाली है।

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गुरुवार, 29 अगस्त 2013

हुआ यूं कि ---

आज फिर से बहुत दिनों के बाद आपके सम्मुख हूं। अब तो यहां आने में भी, हिचक, झिझक ही नहीं शर्म भी महसूस हो रही है। इतने दिनों तक गायब जो रहा। आज भी खुद थोड़े आ रहा था। रश्मि प्रभा जी ने लगभग खींच कर ला दिया है मुझे। … और आज जब उनसे वर्तालाप हो रही थी, तो लगा कि अपने घर-परिवार से दूर इतने दिनों तक क्यूं और कैसे रहा? आज बहुत अच्छा लग रहा है।

हुआ यूं कि ---

फ़ेसबुक ऑन करके बैठा था। तभी चैट में रश्मि प्रभा जी ने एक लिंक पकड़ा दिया। इन दिनों अमूमन दिए गए लिंक्स को इग्नोर ही करता रहा था। पर न जाने क्या सूझी कि मैंने क्लिक कर दिया और अहुंच गये, भूले-बिसरे दिनों के उस रोचक संसार में जहां से जाने की कभी सोची भी न थी, लेकिन पिछले एक साल से अनियमित होकर लगभग उस दुनिया को भूल ही चुका था। यह लिंक मेरे ही एक आलेख का था, जो पिछले साल अपने ब्लॉग के तीन साल पूरे करने पर लिखा था। (लिंक यहां है)। इसमें एक कविता थी और उस कविता में मैंने विषय से हट कर उस ब्लॉग के चौथ की बात कर दी थी। उन दिनों परिस्थितियां कुछ ऐसी हो गई थीं, कि हमें लगने लगा था कि अब और ब्लॉगिंग शायद न हो पाए। और जो मन में आया उसे कविता की पृष्ठभूमि में लिख गया।

कुछ दिनों तक तो इस ब्लॉग को आगे बढ़ाने का साहस दिखाया पर एक पुस्तक (सूफ़ीमत पर) को पूरी करने के चक्कर में ब्लॉग जगत से दूर ही हो गया। (पुस्तक प्रकाशनाधीन है।)

आह! थैन्क्स रश्मि जी। आपने आभी चंद मिनटों पहले कहा कि कुछ लिख कर शुरू कर दीजिए और नहीं कुछ तो उस दिन को याद करके ही …

आज तो आपका आभार। फ़ुरसत में मेरे लिए मेरा बेस्ट होता था। आज जब फिर से पढ़ता हूं, तो खो जाता हूं, नॉस्टॉल्जिक-सा हो जाता हूं। तो मैंने सोचा है कि कुछ BEST OF फ़ुरसत में लेकर आऊंगा और साथ ही नई रचनाएं भी इस ब्लॉग पर लाऊंगा (यदि रच पाया तो)। दुर्भाग्य से विचार ब्लॉग भी खो ही गया है, सो गांधी सीरिज भी यहीं बढ़ाऊंगा।

तो आज के लिए इतना है। लीजिए आज मेरी पसंद का ..

BEST OF फ़ुरसत में …

प्रेम-प्रदर्शन

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मनोज कुमार

एक वो ज़माना था जब वसंत के आगमन पर कवि कहते थे,

अपनेहि पेम तरुअर बाढ़ल

कारण किछु नहि भेला ।

साखा पल्लव कुसुमे बेआपल

सौरभ दह दिस गेला ॥ (विद्यापति)

आज तो न जाने कौन-कौन-सा दिन मनाते हैं और प्रेम के प्रदर्शन के लिए सड़क-बाज़ार में उतर आते हैं। इस दिखावे को प्रेम-प्रदर्शन कहते हैं। हमें तो रहीम का दोहा याद आता है,

रहिमन प्रीति न कीजिए, जस खीरा ने कीन।

ऊपर से तो दिल मिला, भीतर फांके तीन॥

खैर, खून, खांसी, खुशी, बैर, प्रीति, मद-पान।

रहिमन दाबे ना दबत जान सकल जहान॥

हम तो विद्यार्थी जीवन के बाद सीधे दाम्पत्य जीवन में बंध गए इसलिए प्रेमचंद के इस वाक्य को पूर्ण समर्थन देते हैं, “जिसे सच्चा प्रेम कह सकते हैं, केवल एक बंधन में बंध जाने के बाद ही पैदा हो सकता है। इसके पहले जो प्रेम होता है, वह तो रूप की आसक्ति मात्र है --- जिसका कोई टिकाव नहीं।”

उस दिन सुबह-सुबह नींद खुली, बिस्तर से उठने  ही जा रहा था कि श्रीमती जी का मनुहार वाला स्वर सुनाई दिया, “कुछ देर और लेटे रहो ना।”

जब नींद खुल ही गई थी और मैं बिस्तर से उठने का मन बना ही चुका था, तो मैंने अपने इरादे को तर्क देते हुए कहा, “नहीं-नहीं, सुबह-सुबह उठना ही चाहिए।”

“क्यों? ऐसा कौन-सा तीर मार लोगे तुम?”

मैंने अपने तर्क को वजन दिया, “इससे शरीर दुरुस्त और दिमाग़ चुस्त रहता है।”

अब उनका स्वर अपनी मधुरता खो रहा था, “अगर सुबह-सुबह उठने से दिमाग़ चुस्त-दुरुस्त रहता है, तो सबसे ज़्यादा दिमाग का मालिक दूधवाले और पेपर वाले को होना चाहिए।”

“तुम्हारी इन दलीलों का मेरे पास जवाब नहीं है।” कहता हुआ मैं गुसलखाने में घुस गया। बाहर आया तो देखा श्रीमती जी चाय लेकर हाज़िर हैं। मैंने कप लिया और चुस्की लगाते ही बोला, “अरे इसमें मिठास कम है ..!”

श्रीमती जी मचलीं, “तो अपनी उंगली डुबा देती हूं .. हो जाएगी मीठी।”

मैंने कहा, “ये आज तुम्हें हो क्या गया है?”

“तुम तो कुछ समझते ही नहीं … कितने नीरस हो गए हो?” उनके मंतव्य को न समझते हुए मैं अखबार में डूब गया।

मैं आज जिधर जाता श्रीमती जी उधर हाज़िर .. मेरे नहाने का पानी गर्म, स्नान के बाद सारे कपड़े यथा स्थान, यहां तक कि जूते भी लेकर हाजिर। मेरे ऑफिस जाने के वक़्त तो मेरा सब काम यंत्रवत होता है। सो फटाफट तैयार होता गया और श्रीमती जी अपना प्रेम हर चीज़ में उड़ेलती गईं।

मुझे कुछ अटपटा-सा लग रहा था। अत्यधिक प्रेम अनिष्ट की आशंका व्यक्त करता है।

जब दफ़्तर जाने लगा, तो श्रीमती जी ने शिकायत की, “अभी तक आपने विश नहीं किया।”

मैंने पूछा, “किस बात की?”

बोलीं, “अरे वाह! आपको यह भी याद नहीं कि आज वेलेंटाइन डे है!”

ओह! मुझे तो ध्यान भी नहीं था कि आज यह दिन है। मैं टाल कर निकल जाने के इरादे से आगे बढ़ा, तो वो सामने आ गईं। मानों रास्ता ही छेक लिया हो। मैंने कहा, “यह क्या बचपना है?”

उन्होंने तो मानों ठान ही लिया था, “आज का दिन ही है, छेड़-छाड़ का ...”

मैंने कहा, “अरे तुमने सुना नहीं टामस हार्डी का यह कथन – Love is lame at fifty years! यह तो बच्चों के लिए है, हम तो अब बड़े-बूढ़े हुए। इस डे को सेलिब्रेट करने से अधिक कई ज़रूरी काम हैं, कई ज़रूरी समस्याओं को सुलझाना है। ये सब करने की हमारी उमर अब गई।”

“यह तो एक हक़ीक़त है। ज़िन्दगी की उलझनें शरारतों को कम कर देती हैं। ... और लोग समझते हैं ... कि हम बड़े-बूढ़े हो गए हैं।

“बहुत कुछ सीख गई हो तुम तो..।”

वो अपनी ही धुन में कहती चली गईं,

“न हम कुछ हंस के सीखे हैं,

न हम कुछ रो के सीखे है।

जो कुछ थोड़ा सा सीखे हैं,

तुम्हारे हो के सीखे हैं।”

images (1)मैंने अपनी झेंप मिटाने के लिए विषय बदला, “पर तुम्हारी शरारतें तो अभी-भी उतनी ही (अधिक) हैं जितनी पहले हुआ करती थीं ...”

उनका जवाब तैयार था, “हमने अपने को उलझनों से दूर रखा है।”

उनकी वाचालता देख मैं श्रीमती जी के चेहरे की तरफ़ बस देखता रह गया। मेरी आंखों में छा रही नमी को वो पकड़ न लें, ... मैंने चेहरे को और भी सीरियस कर लिया। चेहरे को घुमाया और कहा, “तुम ये अपना बचपना, अपनी शरारतें बचाए रखना, ... बेशक़ीमती हैं!”

अपनी तमाम सकुचाहट को दूर करते हुए बोला, “लव यू!”

और झट से लपका लिफ़्ट की तरफ़।

शाम को जब दफ़्तर से वापस आया, तो वे अपनी खोज-बीन करती निगाहों से मेरा निरीक्षण सर से पांव तक करते हुए बोली, “लो, तुम तो खाली हाथ चले आए …”

“क्यों, कुछ लाना था क्या?”

बोलीं, “हम तो समझे कोई गिफ़्ट लेकर आओगे।”

मन ने ‘उफ़्फ़’ ... किया, मुंह से निकला, “गिफ़्ट की क्या ज़रूरत है? हम हैं, हमारा प्रेम है। जब जीवन में हर परिस्थिति का सामना करना ही है (एक साथ) तो प्रेम से क्यों न करें?

लेकिन वो तो अटल थीं, गिफ़्ट पर। “अरे आज के दिन तो बिना गिफ़्ट के नहीं आना चाहिए था तुम्हें, इससे प्यार बढ़ता है।”

मैंने कहा, “गिफ़्ट में कौन-सा प्रेम रखा है? ...” अपनी जेब का ख्याल मन में था और ज़ुबान पर, जो प्रेम किसी को क्षति पहुंचाए वह प्रेम है ही नहीं। मैंने अपनी बात को और मज़बूती प्रदान करने के लिए जोड़ा, “टामस ए केम्पिस ने कहा है – A wise lover values not so much the gift of the lover as the love of the giver. और मैं समझता हूं कि तुम बुद्धिमान तो हो ही।”

उनके चेहरे के भाव बता रहे थे कि आज ... यानी प्रेम दिवस पर उनके प्रेम कभी भी बरस पड़ेंगे। मेरा बार बार का एक ही राग अलापना शायद उनको पसंद नहीं आया। सच ही है, जीवन कोई म्यूज़िक प्लेयर थोड़े है कि आप अपना पसंदीदा गीत का कैसेट बजा लें और सुनें। दूसरों को सुनाएं। यह तो रेडियो की तरह है --- आपको प्रत्येक फ्रीक्वेंसी के अनुरूप स्वयं को एडजस्ट करना पड़ता है। तभी आप इसके मधुर बोलों को एन्ज्वाय कर पाएंगे।

मैंने सोचा मना लेने में हर्ज़ क्या है? अपने साहस को संचित करता हुआ रुष्टा की तरफ़ बढ़ा।

“हे प्रिये!”

“क्या है ..(नाथ) ..?”

“(हे रुष्टा!) क्रोध छोड़ दे।”

“गुस्सा कर के मैं कर ही क्या लूंगी?”

“मुझे अपसेट (खिन्न) तो किया ही ना ...”

“हां-हां सारा दोष तो मुझमें ही है।”

“चेहरे से से लग तो रहा है कि अब बस बरसने ही वाली हो।”

“तुम पर बरसने वाली मैं होती ही कौन हूं?”

“मेरी प्रिया हो, मेरी .. (वेलेंटाइन) ...”

“वही तो नहीं हूं, इसी लिए ,,, (अपनी क़िस्मत को कोस रही हूं) ...”

"खबरदार! ऐसा कभी न कहना!!"

"क्यों कहूंगी भला! मुझे मेरा गिफ्ट मिल जो गया. सब कुछ खुदा से मांग लिया तुमको मांगकर!"

"........................"

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मंगलवार, 30 जुलाई 2013

बच्चों की शिक्षा और हरिलाल गांधी

गांधी और गांधीवाद-152

1909

बच्चों की शिक्षा और हरिलाल गांधी

 

जब गांधी जी 1897 में दक्षिण अफ़्रीका आए थे, तो उनके साथ 9 साल के हरिलाल और 5 साल के मणिलाल थे। उन्हें कहां पढ़ाना है, उनके सामने यह एक विकट समस्या थी। गोरों के लिए चलने वाले विद्यालयों में लड़कों के नाते बतौर मेहरबानी या अपवाद के उन्हें भरती किया जा सकता था, लेकिन दूसरे सब भारतीय बच्चे जहां न पढ़ सकें, वहां अपने बच्चों को भेजना गांधी जी को पसंद नहीं था। इसाई मिशन के स्कूल में बच्चों को भेजने के लिए वे तैयार नहीं थे। इसपर से, गुजराती माध्यम से शिक्षा दिलाने का आग्रह था, और इसका कोई इंतजाम स्कूलों में नहीं था। गांधी जी का मानना था कि बच्चों को मां बाप से अलग नहीं रहना चाहिए। वे सोचते थे कि जो शिक्षा अच्छे, व्यवस्थित घर में बालक सहज पा जाते हैं, वह छात्रालयों में नहीं मिल सकती। लेकिन घर पर पढ़ाने वाला कोई अच्छा गुजराती शिक्षक मिल नहीं सका। गांधी जी खुद पढ़ाने की कोशिश करते। लेकिन काम की अधिकता से अनियमितता हो जाती।

फिनिक्स आश्रम की पाठशाला में गांधी जी का प्रयास होता की बच्चों को सच्ची शिक्षा मिले। परीक्षा में गुणांक देने की गाधी जी की अनोखी पद्धति थी। एक ही श्रेणी के सभी विद्यार्थियों से एक ही प्रश्न सबको पूछा जाता। जिनके उत्तर अच्छे हों उनको कम और जिनके सामान्य या कम दर्ज़े के उत्तर हों उनको अधिक अंक मिलता। इसके कारण बच्चों में रोष उत्पन्न होता। गांधी जी उनको समझाते, “एक विद्यार्थी दूसरे विद्यार्थी से अधिक बुद्धिमान है, ऐसा अंक मैं रखना नहीं चाहता। मुझे तो यह देखना है कि जो व्यक्ति जैसा आज है, इससे कितना आगे बढ़ा? होनहार विद्यार्थी बुद्धू विद्यार्थी के साथ अपनी तुलना करता रहे तो उसकी बुद्धि कुंठित हो जायेगी। वह कम मेहनत करेगा और आख़िर पीछे ही रह जाएगा।”

गांधी जी का मानना था कि अन्य की तुलना में खुद आगे या पीछे देखने में नहीं, लेकिन खुद जहां हैं, वहां से सचमुच कितने आगे बढ़ते हैं, वह देखने में सच्ची शिक्षा है।

हरिलाल गांधीआश्रम के बच्चों को कोई पूछता कि तुम किस श्रेणी में पढ़ते हो, तो मणिलाल का जवाब होता, ‘बापू की श्रेणी’। हरिलाल तो बी.ए., एम.ए. करना चाहते थे, और बापू के तर्कों से उनकी सहमति नहीं होती। इस बीच 10 अप्रील, 1908 को गुलाब बहन ने पुत्री को जन्म दिया। वह रामनवमी का दिन था। रामभक्त गांधी जी ने उनका नाम रामी रखा। 1908 की ट्रांसवाल की लड़ाई में बीस साल से भी कम की उम्र में हरिलाल सत्याग्रही बनकर जेल गए। गांधी जी इस विषय को भी उनकी शिक्षा का अंग समझते थे। दक्षिण अफ़्रीका के शुरू के दिनों की लड़ाई में हरिलाल गांधी जी के श्रेष्ठ साथी जैसे थे। हंसते-हंसते सारी यातनाएं सह लेते। दक्षिण अफ़्रीका में जेल की दो सप्ताह के सख्त क़ैद की सज़ा, भारत की तीन माह की सज़ा के बराबर थी। हरिलाल अपनी प्रतिभा, निष्ठा और कर्मठता के कारण लोगों के बीच काफ़ी प्रसिद्ध हो गए। लोग उन्हें ‘नाना गांधी’ – ‘छोटे गांधी’ कहकर बुलाते। गांधी जी प्यार से अपने पुत्र को ‘हरिहर’ कहकर पुकारते। अपनी सुरक्षा और सुख-सुविधाओं का ख्याल किए बिना वे बार-बार सत्याग्रह करते और जेल जाते। हरिलाल के स्वाभाव में अन्याय सहन करने का नहीं था।

हरिलाल की पत्नीउन दिनों हरिलाल जेल से छूटकर टॉल्सटॉय फार्म पर परिवार के पास आ गए थे। वे भीतर ही भीतर बेचैन रहते थे। अक्सर वे पिता से झगड़ने लगते। एक कारण तो यह भी हो सकता है कि गांधी जी ने उनकी पत्नी चंचल (गुलाब बहन) और पुत्री को उनके माता-पिता के पास भारत भेज दिया था। हरिलाल और गुलाब बहन (चंचल) की शादी 2.5.1906 को हुई थी। 18 वर्ष में हो रही उनकी शादी के के प्रति गांधी जी ने उदासीनता दिखाई थी। जून 1910 के महीने में जोहन्सबर्ग से बाइस मील दूर टॉल्सटॉय फार्म में सत्याग्रहियों का बसना शुरू हुआ था। हरिलाल पूरा मई और जून महीने की बीस तारीख तक फिनिक्स आश्रम में ही थे। गुलाब बहन की दूसरी प्रसूति होने वाली थी। यह तय हुआ कि उनको और रामी को भारत भेज दिया जाए। हरिलाल भी अपने परिवार के साथ भारत जाना चाहते थे। लेकिन गांधी जी ने अनुमति देने से इंकार कर दिया। उन्होंने हरिलाल को समझाया कि हरिलाल का पहला कर्त्तव्य सत्याग्रह के प्रति था। इसके अलावा वे उतने अमीर नहीं थे कि कई बार हरिलाल के भारत आने-जाने खर्च वहन कर सकें। हरिलाल को इस बात की शिकायत रहती थी कि दूसरों के लिए पिता के पास पैसे की कोई कमी नहीं थी, खासकर चचेरे भाइयों का हर ख़र्च वहन किया जाता था। बस अपने बच्चों और पत्नी के लिए उनके पास पैसे नहीं थे।

1909 के मध्य में गांधी जी लंदन में थे। उनके मित्र प्राण जीवन मेहता ने गांधी जी के सामने एक बेटे को वजीफ़ा देने का प्रस्ताव किया। वजीफ़ा पाने वाले को ‘ग़रीबी का व्रत लेना था’ और शिक्षा पूरी कर लेने के बाद ‘फीनिक्स में सेवा करनी थी।’ बात हरिलाल या मणिलाल की हो रही थी। गांधी जी ने इस सम्मान के लिए अपने भतीजे छगनलाल गांधी को चुना। छगनलाल यह सूचना पाकर पहले भारत गए और फिर 1.6.1910 के दिन इंग्लैण्ड के लिए रवाना हुए। लेकिन वे बीमार पड़ गए और शिक्षा पूरी किए बिना ही 1911 में लौट आए। इस वजीफे के लिए दूसरी बार सोराबजी शापुरजी अडाजानिया का नाम दिया गया। हरिलाल की शिक्षा की लालसा थी। उनका नाम नहीं दिया गया। पिता से कटुता का यह एक कारण बना। छगनलाल की जगह इंगलैण्ड में जाकर क़ानून की पढ़ाई के लिए एक खुली प्रतियोगिता आयोजित की गई। गांधी जी को परीक्षक बनाया गया था। उत्तर कापियों की उचित जांच के बाद उन्होंने सोराबजी शापुरजी आडजानिया का नाम प्रस्तावित किया था। वे एक पढ़े-लिखे पारसी थे।

दरअसल हरिलाल शादीशुदा थे। पिता भी बन चुके थे। उन्हें अपने परिवार के भविष्य की भी चिंता रहती थी। बिना किसी अच्छी शिक्षा या व्यावसायिक प्रशिक्षण के उन्हें अपना भविष्य अंधकारमय लगता था। उन्हें चिंता रहती थी कि वे अपनी व बच्चों की परवरिश किस प्रकार करेंगे। क्या जीवन भर उन्हें खुद को और अपने परिवार को पिता के आदर्शों पर क़ुर्बान करना पड़ेगा? छोटी उम्र से ही हरिलाल गांधी को इस बात का बड़ा दुख था कि उनकी पढ़ाई का कोई पक्का इंतजाम नहीं हो सका। बड़े होने पर भी उनके मन में इसके लिए बापू के प्रति रोष बना रहा। उनका कहना था, “बापू ने अच्छी शिक्षा पाई है, तो वे अच्छी शिक्षा हमको क्यों नहीं दिलाते? बापू सेवाभाव की, सादगी और चारित्र्य के निर्माण की बातें करते हैं, लेकिन जो शिक्षा उन्हें मिली है, वह न मिली होती, तो देश-सेवा के जो काम वे आज कर सकते हैं, उन्हें कर सकते क्या?”

पोलाक और कालेनबेक भी कुछ हद तक इसी तरह का ख्याल रखते थे। पोलाक कहते, “गांधी जी, आप अपने बच्चों की शिक्षा के बारे में लापरवाह रहते हैं। आप अपने बच्चों को अच्छी अंग्रेज़ी तालीम न देकर उनका भविष्य बिगाड़ रहे हैं।”

कालेनबेक ने कहा था, “टॉल्सटॉय आश्रम और फिनिक्स आश्रम में दूसरे शरारती, गन्दे और आवारा लड़कों के साथ आप जो अपने लड़कों को शामिल होने देते हैं, उसका एक ही नतीजा होगा कि उन्हें आवारा लड़कों की छूत लग जाएगी और वे बिगड़े बिना न रहेंगे।”

कस्तूरबा को भी इस बात का मलाल रहता कि गांधी जी लड़कों की शिक्षा की कोई चिंता नहीं करते। इन सब के जवाब में गांधी जी शिक्षा के सिद्धान्तों के और जीवन के ध्येय के अपने दर्शन पेश करते। पोलाक और कालेनबेक सिर हिलाते और कस्तूरबा मन मार कर शांत हो जातीं।

हरिलाल को अपने पिता की कमाई पर गुजर-बसर नहीं करना था। वे तो पढ़-लिखकर अपनी मेहनत से बड़ा बनना चाहते थे। जब उन्होंने देखा कि गांधी जी के ही ऑफिस में मुंशी का काम करने वाले रिच और पोलाक गांधी जी की मदद और बढ़ावे से इंगलैण्ड जाकर बैरिस्टर बन आए हैं, और दूसरे दो भारतीय जोसेफ रॉयपन और गॉडफ़्रे भी उनकी प्रेरणा से विलायत गए और बैरिस्टर बनकर अपने धंधे से लग गए हैं, इसके अलावे एक पारसी नौजवान सोराबजी अडाजाणिया को खुद गांधी जी ने बैरिस्टर बनने के लिए विलायत भेजा है, तब हरिलाल के धैर्य की सीमा टूट गई। वे उस समय 20-21 बरस के रहे होंगे। सत्याग्रह की लड़ाई में बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रहे थे। तीन दफ़ा जेल भी गए थे। कुल मिलाकर उन्होंने 14 मास के क़रीब जेल में बिताए थे। उनके मन में यह भावना घर कर गई कि दूसरे नौजवानों को बापू बैरिस्टर बनने देते हैं, लेकिन मुझे नहीं। ... और भी कई झगड़े थे। गांधी जी को साफ दिख रहा था कि उनका पुत्र उनसे बहुत दूर हो चुका है। पर उन्हें यह भी पता था कि हरिलाल सत्याग्रह के प्रति पूर्ण समर्पित थे। वे पिता के द्वारा चलाए जा रहे आंदोलन में ज़ोर-शोर से हिस्सा ले रहे थे। सत्याग्रह के आंदोलन में उन्होंने गिरफ़्तारी दी। छह महीने तक जेल में रहे। हरिलाल ने जेल में आदर्श व्यवहार किया था। वहां के जुल्मों के ख़िलाफ़ वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने उपवास किया। जेल की यातनाओं को भी उन्होंने एक महात्मा की तरह झेला। गांधी जी को भरोसा था कि हरिलाल का गुस्सा धीरे-धीरे शांत हो जाएगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। पिता और पुत्र में कटुता बनी रही। दिन-ब-दिन हालात ख़राब ही होते चले गए। पिता और पुत्र के बीच अक्सर तू-तू, मैं-मैं होने लगती। गांधी जी मानते थे कि पुत्र के जीवन में पिता की मानसिक स्थिति का प्रतिबिंब पड़ता है। हरिलाल के जन्म के समय गांधी जी का मन विषयों के पीछे दौड़ता था। इसलिए वे हरिलाल को अपना विकार पुत्र मानते थे और मणिलाल को अपने विचार का पुत्र मानते थे। हरिलाल ने बगावत करके पिता का साथ छोड़ने और देश में आकर रहने का निश्चय किया। गांधी जी अपने पुत्र को समझा न सके। ... और अंत में गांधी जी को बिना बताए हरिलाल ने भारत जाने का मन बना लिया।

10.2.1911 को गुलाब बहन ने कान्तिलाल को भारत में जन्म दिया। यह समाचार मिलते ही हरिलाल भारत जाने को उत्सुक हो उठे। लेकिन मुख्यतः तो उनको पढ़ाई की उत्कंठा थी। वे पिता की कमाई पर जीना नहीं चाहते थे। पढ़-लिख कर खुद मेहनत करके आगे बढ़ने की उनकी इच्छा थी। गांधी जी का खुद का जीवन देश सेवा के लिए समर्पित था। अतः पुत्रों से भी देश सेवा के लिए त्याग के लिए उनकी आशा रखना स्वाभाविक था। उन्होंने पुत्रों की पढ़ाई की इच्छा को मोह माना और उनको केवल नैतिक और धार्मिक उन्नति के लिए प्रयत्नशील रहने का उपदेश देते रहते। बापू के प्रभाव में आकर अपनी पढ़ाई खो दूंगा ऐसा लगने से हरिलाल ने किसी को कहे बिना घर छोड़ देने का सोचा। जोसेफ़ रॉयपन को जोहान्सबर्ग में हरिलाल ने अपने भारत जाने के बारे में बताया। 8 मई, 1911 को अपनी कुछ चीज़ें बटोरकर, जिसमें गांधी जी की एक तस्वीर भी थी, बिना किसी से कहे वे चुपके से निकल गए। हरिलाल जोहान्सबर्ग से रेलगाड़ी में बैठकर अफ़्रीका के पूर्वी किनारे के पुर्तगाल के अधीन एक बंदरगाह डेलागोआ-बे पहुंचे। उन्होंने अपना नाम बदल लिया था, जिससे उनको गांधी जी के बेटे के रूप में कोई पहचान न पाए। लेकिन वहां के ब्रिटिश काउंसिल के पास एक ग़रीब भारतीय की हैसियत से भारत भेजने की जब उन्होंने मांग की तो वे पहचान लिए गए। उन्हें वापस लौट जाने के लिए कहा गया। 15 मई को वे वापस जोहान्सबर्ग आ गए। पिता-पुत्र ने विभिन्न विषयों पर विस्तार से चर्चा की। 16 मई को नाश्ते के बाद गांधी जी ने घोषणा की कि दूसरे दिन हरिलाल भारत वापस जाएंगे। 17 मई को जोहान्सबर्ग रेलवे स्टेशन पर उनको विदा करने गांधी जी भी गए। जब गाड़ी छूटने लगी तो भरे हुए गले से गांधी जी ने कहा, “बाप ने तुम्हारा कुछ बिगाड़ा हो, ऐसा लगे तो उसे माफ़ करना।”

गाड़ी चल पड़ी। बोझिल मन से पिता और पुत्र अलग हुए।

‘देश सेवा की तपश्चर्या के अंश के रूप में गांधी जी ने पुत्र की आहुति दी।’

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