मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

फ़ुरसत में ... 115 एक अलग तस्वीर - 2014 में ...?

फ़ुरसत में ... 115

एक अलग तस्वीर - 2014 में ...?

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मनोज कुमार

आजकल इलेक्ट्रॉनिक और अन्य मीडिया में बहस छिड़ी हुई है कि दिल्ली से, केन्द्र नहीं राज्य  सरकार द्वारा, जो संकेत दिए जा रहे हैं, वे कहीं ‘रामलीला नाटक’ की तरह तो नहीं हैं? हर दल उसे आशंका की नज़र से देखते हुए ‘नाटक’ और सिर्फ नाटक करार देने पर आमादा है। अपने-अपने दलों से लोग इतिहास और वर्तमान को खंगालकर ऐसे कई प्रतीक-पुरुष/महिला को सामने ला रहे हैं जिन्होंने ‘कॉमन मैन’ की ज़िन्दगी जीने की राह अपनाई। अहंकार, पदलोलुपता और शान-ओ-शौकत का पर्याय बन चुकी राजनीति में ऐसे सांकेतिक बदलाव और कुछ दे रहे हों या नहीं, एक सुखद अहसास तो दे ही रहे हैं। आशंका की चादर कितनी भी मोटी क्यों न हो, एक विश्वास की किरण तो उसे चीरती हुई आगे बढ़ ही रही है कि चलो यह एक शुरूआत ही सही, अच्छी बात, शुभ संकेत है।

मुझे सत्तर के दशक का एक वाकया शेयर करने का मन हो रहा है। एक आंदोलन के बाद नया जनादेश आया था और एक नई पार्टी के नेतृत्व में सरकार बनी थी। जेल में बंद किए गए एक नेता हमारे शहर से लोकसभा के प्रत्याशी थे। भारी बहुमत से जनता ने उन्हें विजयी बनाया। वे देश के सूचना-प्रसारण मंत्री और उद्योग मंत्री बने। उस शहर को उन्होंने दूरदर्शन केन्द्र, थर्मल पावर और आईडीपीएल जैसी संस्थान दिए।

उस दिग्गज एवं कद्दावर नेता की एक आम सभा हो रही थी। सभा में उन्होंने अपने क्षेत्र के हर ‘कॉमन मैन’ को यह आश्वासन दिया कि जब भी किसी का दिल्ली आना हो वे उनके आवास पर सादर आमंत्रित हैं! उन्होंने यह भी कहा, “हम आपका ख़्याल रखेंगे।“ उन दिनों मैं कॉलेज का विद्यार्थी हुआ करता था और एक प्रतियोगिता परीक्षा के सिलसिले में एक-दो सप्ताह बाद ही मुझे दिल्ली जाना था। मैं उनकी बात से अत्यंत प्रभावित हुआ, लेकिन उनका अता-पता तो मुझे मालूम था नहीं। सोचा उनसे ही क्यों नहीं पूछ लिया जाए। उनका भाषण समाप्त हो चुका था। धन्यवाद ज्ञापन की औपचारिकता चल रही थी। मैं सीधे मंच पर चढ़ गया। ऐसी कोई सुरक्षा व्यवस्था नहीं थी कि एक ‘कॉमन मैन’ मंच तक न पहुंच पाए। इक्का-दुक्का लाल टोपी वाले हाथ में डंडा लिए यहां-वहां खड़े थे। किंतु बिना किसी बाधा के मैं उन तक पहुंच गया और अपनी मंशा उन्हें बताई। अपनी क़लम और क़ागज़ का टुकड़ा उन्हें दिया और कहा – ‘अपना पता दीजिए, मैं आऊंगा।’ उन्होंने अपना नाम और ’21 – विलिंगडन क्रिसेंट, नई दिल्ली’ लिखकर दे दिया।

दो सप्ताह बाद मैं उनके उस सरकारी आवास के सामने खड़ा था। द्वार पर न कोई ताम-झाम, न कोई अंतरी-संतरी की फ़ौज! जो भी सुरक्षा-कर्मी रहा होगा उसने एक-आध औपचारिक प्रश्न किए और जब अपने शहर का नाम मैंने उसे बताया, तो आगे का मेरा प्रवेश बाधा रहित हो गया। उनके दर्शन हुए। वे प्रसन्न दिखे। मेरे रहने की व्यवस्था कर दी गई। पूरा आदर-सम्मान मिला।

न जाने क्यों आज के परिप्रेक्ष्य में यह घटना मुझे याद आ गई। जब इसे देखता हूं और आज के बारे में सोचता हूँ तो मन में एक कसक सी उठती है। यह ठीक है कि जिसे नौटंकी कहा जा रहा है वह राजनीति की दिशा बदलेगा या नहीं – यह प्रश्न भविष्य के गर्त में है, लेकिन बेहतरी की दिशा में एक कदम तो है ही। लालबत्ती और सुरक्षा का घेरा इतना महत्वपूर्ण क्यों मान लिया गया? या कब यह सुरक्षा व्यवस्था की सीमा लाँघकर स्टेटस सिम्बल बन गया। और अब इन लावलश्कर को त्यागने का साहस ‘कॉमन मैन’ के नुमाइंदे, करने से क्यों कतराते हैं?

राजनीति सेवा का माध्यम है या शासन करने का? यदि सेवा है, तो सुविधाभोगी होकर किया जाना चाहिए या ‘कॉमन मैन’ के बीच उसके जैसा रहकर उनकी तरह जीवन-यापन करते हुए? ‘जनसेवक’ शब्द सुनने में सुनने में अच्छा लगता है, उस तरह का व्यवहार भी देखने को मिले तो और अच्छा लगेगा। जो बदलाव की शुरूआत हुई है वह और आगे बढ़े – ऐसी कामना करने में हर्ज़ क्या है? देश का ‘कॉमन मैन’ बदलाव चाहता है, यह तो अब तक ‘खास लोगों’ को समझ में आ ही गया होगा।

नए साल की शुरूआत कल से होने वाली है। फिर शुरू होगी एक राजनीतिक घमासान भी, तो क्या 2014 में हमें एक बिल्कुल अलग तस्वीर देखने को मिलेगी? 9149_a

सोमवार, 30 दिसंबर 2013

रघुवीर सहाय- नयी कविता के महत्त्वपूर्ण कवि

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30 दिसंबर पुण्य तिथि पर

नयी कविता के महत्त्वपूर्ण कवियों में से एक श्री रघुवीर सहाय का जन्म 9 दिसम्बर, 1929 को लखनऊ के मॉडल हाउस मुहल्ले में एक शिक्षित मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ था। इनके पिता श्री हरदेव सहाय लखनऊ के बॉय एंग्लो बंगाली स्कूल में साहित्य के अध्यापक थे। दो वर्ष की उम्र में मां श्रीमती तारा सहाय की ममता से वंचित हो चुके रघुवीर की शिक्षा-दीक्षा लखनऊ में ही हुई थी। 1951 में इन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी साहित्य में एम.ए. की उपाधि प्राप्त की। 16-17 साल की उम्र से ही ये कविताएं लिखने लगे, जो ‘आजकल’, ‘प्रतीक’ आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही। 1949 में इन्होंने ‘दूसरा सप्तक’ में प्रकाशन के लिए अपनी कविताएं अज्ञेय को दे दी थीं जो 1951 में प्रकाशित हुईं। एम.ए. करने के बाद 1951 में ये अज्ञेय द्वारा संपादित ‘प्रतीक’ में सहायक संपादक के रूप में कार्य करने दिल्ली आ गए। प्रतीक के बंद हो जाने के बाद इन्होने आकाशवाणी दिल्ली के समाचार विभाग में उप-संपादक का कार्य-भार संभाला। 1957 में आकाशवाणी से त्याग-पत्र देकर इन्होंने मुक्त लेखन शुरू कर दिया। इसी वर्ष इनकी ‘हमारी हिंदी’ शीर्षक कविता जो ‘युग-चेतना’ में छपी थी को लेकर काफ़ी बवाल मचा। 1959 में फिर से आकाशवाणी से तीन साल के लिए जुड़े। वहां से मुक्त होने के बाद वे ‘नवभारत टाइम्स’ के विशेष संवाददाता बने। वहां से ये ‘दिनमान’ के समाचार संपादक बने। अज्ञेय के त्याग-पत्र देने के बाद वे 1970 में ‘दिनमान’ के संपादक बने। व्यवस्था विरोधी लेखों के कारण 1982 में वे ‘दिनमान’ से ‘नवभारत टाइम्स’ में स्थानांतरित कर दिए गए। किंतु इस स्थानांतरण से असंतुष्ट होकर उन्होंने 1983 में त्याग-पत्र दे दिया और पुनः स्वतंत्र लेखन करने लगे। 30 दिसंबर 1990 को उनका निधन हुआ था।

रचनाएं :

कविता संग्रह : सीढ़ियों पर धूप में, आत्महत्या के विरुद्ध, हंसो-हंसो जल्दी हंसो, लोग भूल गए हैं, कुछ अते और कुछ चिट्ठियां

कहानी संग्रह : रास्ता इधर से है, जो आदमी हम बना रहे हैं

निबंध संग्रह : लिखने का कारण, ऊबे हुए सुखी, वे और नहीं होंगे जो मारे जाएंगे, भंवर लहरें और तरंग, शब्द शक्ति, यथार्थ यथास्थिति नहीं।

अनुवाद : मेकबेथ और ट्रेवेल्थ नाइट, आदि।

रघुवीर सहाय की विचारधारात्मक दृष्टि

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जो नयी काव्य-धारा उभरकर सामने आई उसमें रचनाकारों का एक समुदाय लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति उदासीन था और वह राजनीति-विरोधी होता गया। उस प्रयोगवाद और नयी कविता की संधि के लगभग एकमात्र अत्यंत महत्त्वपूर्ण कवि रघुवीर सहाय ही थे, जिन्होंने अपनी जनतांत्रिक संवेदनशीलता को क़ायम रखा। नयी कविता के बाद की युवा विद्रोही कविता का मुहावरा बनानेवालों में भी वे अग्रणी कवि हैं। ‘आत्महत्या के विरुद्ध’ काव्य संग्रह के द्वारा उन्होंने प्रतिपक्षधर्मी समकालीन कविता को राजनीतिक अर्थमयता और मानवीय तात्कालिकता प्रदान की। वे ‘शिल्प क्रीड़ा कौतुक’ का उपयोग कर रोमांटिक गंभीरता को छिन्न-भिन्न करके नये अर्थ संगठन को जन्म देते हैं, जो जीवन की विडम्बनापूर्ण त्रासदी को प्रत्यक्ष करता है।

देखो वृक्ष को देखो कुछ कर रहा है

किताबी होगा वह कवि जो कहेगा

हाय पत्ता झर रहा है।

पतझर में नयी रचना का संकेत उत्पीड़ित-शोषित जीवन में नए बदलाव को भी संकेतित करता है। उनकी कविता में विचार-वस्तु अपनी विविधता में और वैचारिक स्पष्टता में सत्य बनकर उभरती है। उनका मानना था कि विचारवस्तु का कविता में ख़ून की तरह दौड़ते रहना कविता को जीवन और शक्ति देता है, और यह तभी संभव है जब हमारी कविता की जड़ें यथार्थ में हों। उन्होंने कविता की विचारवस्तु को अपने समय और समाज के यथार्थ से तो जोड़ा ही, वे अपने समय के आर-पार देखपाने में समर्थ हुए। वे मानते हैं कि वर्तमान को सर्जना का विषय बनाने के लिए ज़रूरी है कि रचनाकार वर्तमान से मुक्त हो। वर्तमान की सही व्याख्या कर भविष्य का एक स्वप्न दिखा जिसे साकार किया जा सकता हो। सभी लुजलुजे हैं में कहते हैं -

खोंखियाते हैं, किंकियाते हैं, घुन्‍नाते हैं

चुल्‍लु में उल्‍लू हो जाते हैं

मिनमिनाते हैं, कुड़कुड़ाते हैं

सो जाते हैं, बैठ जाते हैं, बुत्ता दे जाते हैं

झांय झांय करते है, रिरियाते हैं,

टांय टांय करते हैं, हिनहिनाते हैं

गरजते हैं, घिघियाते हैं

ठीक वक़्त पर चीं बोल जाते हैं

सभी लुजलुजे हैं, थुलथुल है, लिब लिब हैं,

पिलपिल हैं,

सबमें पोल है, सब में झोल है, सभी लुजलुजे हैं।

शोषक वर्ग की चालबाज़ियों को उन्होंने बख़ूबी नंगा किया और दया, सहानुभूति और करुणा जैसे भावों में नाबराबरी और अभिजात्यवादी अहं की गंध महसूस की। मनुष्य और मनुष्य के बीच समानता और सामाजिक न्याय उनके रचनाकर्म का लक्ष्य रहा। नारी के प्रति भी उनका दृष्टिकोण समता का रहा। उनका मानना था कि लोगों के जागते रहने की एक तरकीब यह है कि लोग वास्तविक जनजीवन के विकासोन्मुख तत्वों से अपने को सक्रिय संबंद्ध रखें। उन्होंने मध्यवर्गीय समाज को यह अहसास दिलाया कि अधिनायकवादी ताक़तों का मुक़ाबला संगठित होकर ही किया जा सकता है।

नयी कविता के अन्य कवियों की भांति, रघुवीर सहाय ने प्रतीकों, बिम्बों और मिथकों का सहारा बहुत कम लिया है। इन्होंने बोलचाल की भाषा के साधारण शब्दों का प्रयोग अधिक किया है, जिसे डॉ. नामवर सिंह ‘असाधारण साधारणता’ कहते हैं। भाषा में सहज प्रवाह उनकी कविता की प्रमुख विशेषता है। सहाय जी की भाषा, आधुनिक हिन्दी के काव्य की दृष्टि से सफल और एक अलग स्वाद रखती है। न्याय और बराबरी के आदर्श को बहुत ही सूक्ष्म स्तर पर कवि सहाय ने अपनी चेतना में आत्मसात किया। हमने देखा शीर्षक कविता में कहते हैं,

जो हैं, वे भी हो जाया करते हैं कम

हैं ख़ास ढ़ंग दुख से ऊपर उठने का

है ख़ास तरह की उनकी अपनी तिकड़म

हम सहते हैं इसलिए कि हम सच्चे हैं

हम जो करते हैं वह ले जाते हैं वे

वे झूठे हैं लेकिन सब से अच्छे हैं

रघुवीर सहाय उस काव्यतत्व का अन्वेषण करने पर अधिक ज़ोर देते थे जो कला की सौंदर्य परम्परा को आगे बढाता है। उनकी शुरु की कविताओं में भाषा के साथ एक खिलंदड़ापन मिलता है जो संवेदना के साथ बाद में काव्यगत विडंबना के लिए काम आता है। उनकी एक मशहूर कविता दुनिया की भाषा में यही क्रीड़ाभाव देखा जा सकता है,

लोग या तो कृपा करते हैं या ख़ुशामद करते हैं

लोग या तो ईर्ष्या करते हैं या चुग़ली खाते हैं

लोग या तो शिष्टाचार करते हैं या खिसियाते हैं

लोग या तो पश्चात्ताप करते हैं या घिघियाते हैं

न कोई तारीफ़ करता है न कोई बुराई करता है

न कोई हंसता है न कोई रोता है

न कोई प्यार करता है न कोई नफ़रत

लोग या तो दया करते हैं या घमण्ड

दुनिया एक फंफुदियायी हुई सी चीज़ हो गयी है।

इसी तरह के भाषिक खिलंदड़ेपन की एक और कविता है जो मध्यमवर्गीय लोगों के बारे में है, सभी लुजलुजे हैं जिसमें ऐसे चुने हुए शब्दों का इस्तेमाल किया गया है जो कविता में शायद ही कभी प्रयुक्त हुए हों,

खोंखियाते हैं, किंकियाते हैं, घुन्नाते हैं

चुल्लु में उल्लू हो जाते हैं

मिनमिनाते हैं, कुड़कुड़ाते हैं

सो जाते हैं, बैठ रहते हैं, बुत्ता दे जाते हैं।

भाषा का यह खेल उनकी काव्य यात्रा में गंभीर होते हुए अपने जीवन की बात करते-करते एक और जीवन की बात करने लगता है, कवितामेरा एक जीवन है में,

मेरा एक जीवन है

उसमें मेरे प्रिय हैं, मेरे हितैषी हैं, मेरे गुरुजन हैं

उसमें मेरा कोई अन्यतम भी है:

पर मेरा एक और जीवन है

जिसमें मैं अकेला हूं

जिस नगर के गलियारों फुटपाथों मैदानों में घूमा हूं

हंसा-खेला हूं

.....

पर इस हाहाहूती नगरी में अकेला हूं

सहाय जी हाहाहूती नगरी जैसे भाषिक प्रयोग से पूरी पूंजीवादी सभ्यता की चीखपुकार व्यक्त कर देते हैं, इसकी गलाकाट स्पर्धा का पर्दाफ़ाश कर देते हैं। कविता के अंत में वो कहते हैं,

पर मैं फिर भी जिऊंगा

इसी नगरी में रहूंगा

रूखी रोटी खाऊंगा और ठंडा पानी पियूंगा

क्योंकि मेरा एक और जीवन है और उसमें मैं अकेला हूं।

सहाय जी की भाषा संबंधी अन्वेषण के बारे में महेश आलोक के शब्दों में कहें तो, सहाय निरन्तर शब्दों की रचनात्मक गरमाहट, खरोंच और उसकी आंच को उत्सवधर्मी होने से बचाते हैं और लगभग कविता के लिए अनुपयुक्त हो गये शब्दों की अर्थ सघनता को बहुत हल्के से खोलते हुए एक खास किस्म के गद्यात्मक तेवर को रिटौरिकल मुहावरे में तब्दील कर देते हैं।

उनकी कविताओं में लय का एक खास स्थान हमेशा रहा। उनके लय के संबंध में दृष्टि उनके इस कथन से मिलती है, आधुनिक कविता में संसार के नये संगीत का विशेष स्थान है और वह आधुनिक संवेदना का आवश्यक अंग है।

भक्ति है यह कविता उदाहरण के तौर पर लेते हैं,

भक्ति है यह

ईश-गुण-गायन नहीं है

यह व्यथा है

यह नहीं दुख की कथा है

यह हमारा कर्म है, कृति है

यही निष्कृति नहीं है

यह हमारा गर्व है

यह साधना है साध्य विनती है।

रघुवीर सहाय की काव्य भाषा बोलचाल की भाषा है। पर इसी सहजपन में यह जीवन के यथार्थ को, उसके कटु एवं तिक्त अनुभव को पूरी शक्ति के साथ अभिव्यक्त करने में समर्थ है। साथ ही यह देख कर आश्चर्य होता है कि अनेक कविताएं पारंपरिक छंदों के नये उपयोग से निर्मित हैं। साठोत्तरी दशक के हिंदी कवियों में रघुवीर सहाय ऐसे कवि हैं, जिन्होंने बड़ी सजगता और ईमानदारी से अपने काव्य में भाषा का प्रयोग किया है। वे जनता और उसकी समस्याओं से सम्बद्ध कवि हैं। उनका उद्देश्य अपने समय की विद्रूपता और विसंगतियों को उद्घाटित करना रहा है। वे विद्रूपता और विसंगतियों का चित्रण इस प्रकार करते हैं कि लोक-चेतना जागृत हो। वे अपनी रचनाओं के माध्यम से न सिर्फ़ आज की सामंती-बुर्जुआ-पूंजीवादी व्यवस्था को, जो लोकतंत्र के नाम पर सत्ता हड़पने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाती है, बल्कि जिसके उत्पीड़न-शोषण, अन्याय-अत्याचार के कारण संपूर्ण समाज में दहशत और आतंक छा गया है, को नंगा करते हैं।

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शनिवार, 28 दिसंबर 2013

फुरसत में… 114 नालंदा के खंडहरों की सैर

फुरसत में… 114

नालंदा के खंडहरों की सैर19102011(002)

मनोज कुमार

साल जाते-जाते बड़े  भाई ने दो आदेश किया।  एक कि इस ब्लॉग पर गतिविधि पुनः ज़ारी किया जाए। सो हाज़िर हूं … दूसरे ..

मेरे लिए नालंदा की यात्रा वैसे तो हमेशा विशेष ही होती है, इस बार तो और भी खास हो गई, जब इस बाबत Facebook पर Status Update लगाया तो बड़े भाई (सलिल वर्मा) का आदेश हुआ,

सलिल वर्मा Please take a full snap of ruins of Nalanda University and send me as New Year Greetings!!”

कई बार यात्रा कर चुके नालंदा को इस आदेश के तहत देखने की कोशिश, इस बार हमारी मजबूरी बन गई, नालंदा, जहां प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग  7वीं शताब्दि में आया था। उसके अनुसार उस जमाने में यहां के लोग एक तालाब में “नालंदा” नामक नाग का निवास होना बताते थे। यही कारण है कि इस नगर का नाम नालंदा पड़ा।

19102011(022)भगवान बुद्ध के पुत्र सारिपुत्र का जन्म नालंदा के पास “नालक” गांव में हुआ था। अपने जीवन के अंतिम क्षणों में उन्होंने इसी गांव में आकर अपनी मां को धर्मोपदेश दिया और निर्वाण प्राप्त किया। फलस्वरूप वह बौद्ध श्रद्धालुओं और उपासकों के लिए प्रमुख तीर्थ-स्थल हो गया। भगवान बुद्ध के बाद सबसे अधिक पूजा सारिपुत्र की ही होती है। इस महापुरुष का जन्म और निर्वाण एक ही स्थान पर होना श्रद्धा का विषय बना रहा। उनकी याद में इस जगह पर एक चैत्य का निर्माण हुआ। इस चैत्य के नज़दीक जो भिक्षु विहार बने वे बाद में अध्ययन के केन्द्र हो गए। देश के दूर-दराज के भागों से विद्यार्थी यहां आकर शिक्षा ग्रहण करते थे। पाल राजाओं ने नालंदा के निर्माण में महत्वपूर्ण निभाई।

पालि ग्रंथों में नालंदा शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए कहा गया है, “न अलं ददाती ति नालंदा” अर्थात्‌ वह जो प्रचुर दे सके। विडम्बना यह कि तुर्क आक्रमणकारी बख़्तियार ख़लजी ने अपने लूटपाट के अभियान के तहत सन 1199 में प्रचुर देने वाले नालंदा के इस विश्वविद्यालय में आग लगा दी। शिक्षा का यह महान केन्द्र जलकर खाक हो गया। आज तो सिर्फ़ वहां खंडहर बचे हैं और इन्हीं खंडहरों की तस्वीर अपने कैमरे में क़ैद कर लाने का मुझे आदेश मिला।

12022011(007)कैमरे की आंख से देखिए, इन भग्नावशेषों की दीवालों की 6 से 12 फीट की मोटाई यह साबित करती है कि विहारों की ऊंचाई काफ़ी रही होगी। साथ ही भवन भी विशाल रहे होंगे। ऊंचे भवनों तक पहुंचने के लिए चौड़ी और पक्की सीढियों के अवशेष आज भी विद्यमान है। ह्वेनसांग और बाद के दिनों में आए चीनी यात्री इत्सिंग के अनुसार यहाँ 8 भव्य विहार थे। इन महाविहारों से लगे हुए चैत्य और स्तूपों का निर्माण हुआ था। हीनयान और महायान के लिए 108 मंदिरों का निर्माण हुआ। पूरा विद्यालय एक ऊंचे प्राचीर से घिरा था।

ह्वेनसांग ने ज़िक्र किया है कि इसमें प्रवेश करने के लिए एक विशाल दरवाज़ा था। उसके बाहर खड़े द्वारपाल भी काफ़ी विद्वान होते थे। जो विद्यार्थी यहां प्रवेश पाना चाहते थे, उनकी परीक्षा ये द्वारपाल लिया करते थे, और योग्य उम्मीदवारों को ही चुना जाता था। 10 में से सिर्फ़ एक या दो विद्यार्थी ही विश्वविद्यालय के प्रवेश द्वार के भीतर जा पाते थे!

19102011(012)विश्वविद्यालय में शिक्षा ग्रहण करने के लिए कोई शुल्क नहीं लिया जाता था। आस-पास के क़रीब 100 गांवों द्वारा इसके खर्च की व्यवस्था की जाती थी। इत्सिंग ने तो 200 गांवों की बात कही है। इस विश्वविद्यालय में उन दिनों 10,000 विद्यार्थी 1500 आचार्यगण से शिक्षा ग्रहण करते थे। अर्थात प्रत्येक सात विद्यार्थी पर औसतन एक शिक्षक!

बौद्ध धर्म, दर्शन, कला, इतिहास, आदि के साथ आयुर्वेद, विज्ञान, कला, वेद, हेतु विद्या (Logic) शब्द विद्या (Philology) चिकित्सा विद्या, ज्योतिष, अथर्ववेद तथा सांख्य, दण्डनीति, पाणीनीय संस्कृत व्याकरण की शिक्षा की व्यवस्था थी।

12022011(003)नालंदा जाएं और राजगीर की चर्चा न हो ऐसा कैसे हो सकता है? प्राचीन समय से बौद्ध, जैन, हिन्दू और मुस्लिम तीर्थ-स्थल राजगीर पांच पहाड़ियों, वैराभगिरी, विपुलाचल, रत्नगिरी, उदयगिरी और स्वर्णगिरी से घिरी एक हरी भरी घाटी में स्थित है। इस नगरी में पत्थरों को काटकर बनाई गई अनेक गुफ़ाएं हैं जो प्राचीन काल के जड़वादी चार्वाक दार्शनिकों से लेकर अनेक दार्शनिकों की आवास स्थली रही हैं। प्राचीन काल में यह मगध साम्राज्य की राजधानी रही है। ऐसा माना जाता है कि पौराणिक राजा वसु, जो ब्रह्मा के पुत्र कहलाये जाते हैं, ही इस नगर के प्रतिष्ठाता थे।

18102011(013)राजगीर के प्रमुख दर्शनीय स्थलों में से एक है जरासंध का अखाड़ा है। इसे जरासंध की रणभूमि भी कहा जाता है। यह महाभारत काल में बनाई गई जगह है। यहां पर भीमसेन और जरासंघ के बीच कई दिनों तक मल्ल्युद्ध हुआ था। कभी इस रणभूमि की मिट्टी महीन और सफ़ेद रंग की थी। कुश्ती के शौकीन लोग यहां से भारी मात्रा में मिट्टी ले जाने लगे। अब यहां उस तरह की मिट्टी नहीं दिखती। पत्थरों पर दो समानान्तर रेखाओं के निशान स्पष्ट दिखाई देते हैं। इसके बारे में लोगों का कहना है कि वे भगवान श्री कृष्ण के रथ के पहियों के निशान हैं।

राजगीर सिर्फ़ बुद्ध एवं उनके जीवन से संबंधित अनेक घटनाओं के लिए ही प्रसिद्ध नहीं है, यह स्थल जैन धर्मावलम्बियों के लिए भी समान रूप से प्रसिद्ध है। अन्तिम जीन महावीर ने अपने 32 वर्ष के सन्यासी जीवन का 14 वर्ष राजगीर और उसके आसपास ही बिताया था। जैनों ने भी बिम्बिसार और अजातशत्रु को अपने धर्म के समर्थक के रूप में दावा किया है। राजगीर में ही 20 वें तीर्थंकर मुनि सुव्रत नाथ का जन्म हुआ था। महावीर के 11 प्रमुख शिष्य/गण्धर की मृत्यु राजगीर के एक पहाड़ के शिखर पर हुई।

रज्जूपथ से राजगीर के विश्वशांति स्तूप की यात्रा भी काफ़ी रोमांचकारी होता है। थोड़ा भय, थोड़ा कुतूहल मिश्रित आनंद देते हैं।

ध्यान में लगे लोगों को तो नालंदा के खंडहरों के प्रांगण में भी देखा था, लेकिन विश्वशांति स्तूप में कुछ अलग ही अनुभूति हुई और हम भी ध्यान में जाने की सोची। … और देखा एक वृक्ष जिसे देख कर लगा कि निर्वण किसे कहते हैं? लेकिन इनको देख कर लगा कि ये किस ओर ध्यानस्थ हैं?12022011(002)

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बुधवार, 25 दिसंबर 2013

तुम न जाने किस जहाँ में खो गये

तुम न जाने किस जहाँ में खो गये

- सलिल वर्मा

दिल ढ़ूँढ़ता है फिर वही फ़ुर्सत के रात-दिन,

बैठे रहें तसव्वुर-ए-जानाँ किए हुए!

चचा ग़ालिब और फिर उनके बाद चचा गुलज़ार, दोनों इसी शे’र के मार्फ़त समझा गये हैं कि ज़िन्दगी में चाहे सब-कुछ मिल जाए फ़ुर्सत मिलना मुश्किल है. और ऐसे में बस फ़ुर्सत के पुराने दिनों को याद करने और मन मसोस कर रह जाने के अलावा हाथ आता भी क्या है. इन फ़ैक्ट, कभी-कभी तो मुझे भी शक़ होता था कि जितनी आसानी से अनुज मनोज कुमार जी धड़ाधड़ फुर्सत में लिख लिया करते थे, उतनी फ़ुर्सत क्या वास्तव में मिल पाती होगी? और मिलती भी हो तो “तसव्वुरे जानाँ” या “दीदारे यार” से निजात पाकर पोस्ट लिख लेते होंगे? और आज पहली बार ब्लॉग देवता/देवी को हाज़िर नाज़िर जानकर कहता हूँ कि मनोज जी से जलन भी होती थी कि यार कहाँ से इन्होंने फ़ुर्सत की खदान का अलॉटमेण्ट हासिल किया है, एकाध टोकरी हमारे पास भी भिजवा देते तो कौन सा अकाल पड़ जाता.

अब पता नहीं देश में कौन सी ईमानदारी की बयार चली कि कोयला खदान पर छापे पड़ने लगे और हमारी बुरी नज़र लग गई कि जो मोहर हम यहाँ फुर्सत में लूटते थे, उनपर मनोज जी ने ताले लगवा दिये. एकाध लाइसेंसी पोस्ट दिखाई भी दी, लेकिन उसमें वो बात कहाँ. छुप-छुप के पीने का मज़ा कुछ और था. और ये मासिक वेतन जैसी पोस्टों से भला किसी की प्यास बुझी है, अरे इस ब्लॉग की असली पोस्टें तो वो हैं, जो ऊपरी आय की तरह बहती हुई नदी रही हैं. जो मुसाफ़िर आया उसकी प्यास बुझी.

और यही नहीं, इस नदिया के घाट अनेक, जहाँ से पियें, वही मिठास और वही तृप्ति. आचार्य परशुराम राय जी की ‘शिवस्वरोदय’ एक ऐसी दुर्लभ श्रृंखला थी जिसे उन्होंने हमारे लिये सरल भाषा में उपलब्ध करवाया. यही नहीं काव्य-शास्त्र की कड़ियों में जिस सिलसिलेवार ढ़ंग से उन्होंने लिखा है वो ख़ास तौर मेरे लिये किसी क्लासरूम में बैठकर सीखने से कम नहीं था. बल्कि काव्यशास्त्र की जमात में बैठकर ही मैंने अपने बारे में जाना कि अहमक़ उन जगहों पर दरवाज़ा धकेलकर दाख़िल हो जाते हैं. जहाँ फ़रिश्ते भी पेशक़दमी से डरते हैं. आचार्य जी की आँच पर की गई ब्लॉग पर प्रकाशित कविताओं की समीक्षा अपने आप में एक मानदण्ड रही हैं. कोई उनकी समीक्षा से सहमत हो या न हो, वे अपनी तालीम और समझ से हमेशा सहमत रहे हैं. अब परशुराम हैं तो कठोर तो होंगे ही, किंतु कभी रिश्तों के नाम पर समझौता नहीं किया और अपने फ़ैसले को कभी किसी के दबाव में आकर नहीं बदला.

मेरा फोटोइसी कड़ी में एक और नाम है श्री हरीश चन्द्र गुप्त का. “आँच” पर इनकी समीक्षायें पैनी, गहरी, गम्भीर और साहित्यिक हुआ करती थीं. यह अलग बात है कि “मनोज” पर इस अल्प-विराम के पूर्व भी इन्होंने एक लम्बी छुट्टी ले रखी थी. इन्हें कम पढ़ने का मौक़ा मिला, लेकिन जो भी मिला वो एक सीखने जैसा तजुर्बा रहा. अगर कोई रचना हरीश जी की कलम की कसौटी पर परख ली जाए और उसे यदि ये अच्छा कहें तो कोई सन्देह नहीं कि वह रचना चौबीस कैरेट होगी.

मेरा फोटो“मनोज” पर एक और नियमित स्तम्भ रहा है देसिल बयना. ठेठ भाषा में कहें तो देसी कहावतें. कहावतें सिर्फ शब्दों को सजाकर एक निरर्थक से लगने वाले वाक्य का निर्माण नहीं है, बल्कि इसके पीछे एक लम्बी दास्तान होती है, एक परम्परा और एक गुज़रे ज़माने की खुशबू. यह खुशबू लेकर आपके सामने लगातार आते रहे श्री करण समस्तीपुरी. इनके देसिल बयना को अगर तस्वीर के रूप में आपके सामने रखूँ तो बस यही कह सकता हूँ कि जहाँ बाकी सारे लेख, समीक्षाएँ और संस्मरण मॉडर्न पार्टी हैं, वहीं देसिल बयना ज़मीन बैठकर पत्तल में खाने का आनन्द. रेवाखण्ड की बोली में पगा, मिठास का वह पकवान, जिसे जो न खाए बस वो पछताए. व्यक्तिगत रूप से मैंने हमेशा करण जी से ईर्ष्या की है कि आंचलिक बोली में लिखने की बावजूद भी मैं उनकी मिठास तक कभी नहीं पहुँच पाया. फिर दिल को यह कहकर तसल्ली दे लेता हूँ कि राजधानी (पटना) और गाँव में फर्क तो होता ही है. गुलिस्तान के गुलाब और गुलदस्ते के गुलाब की ख़ुशबू भी जुदा होती है.

मेरा फोटोअंत में यदि मनोज कुमार जी का ज़िक्र न किया जाए तो मेरी पोस्ट ही अधूरी रह जायेगी. कोलकाता में बैठे हुए तू ना रुकेगा कभी, तू ना झुकेगा कभी वाले स्टाइल में एक मैराथन लेखन, बिना इस बात की परवाह किये कि कौन पढ़ता है कौन नहीं. हर आलेख एक सम्पूर्ण शोध के बाद और विषय पर पूरे अधिकार के साथ लिखा हुआ. कविता और कहानी, संस्मरण और साक्षात्कार, जीवनी और दर्शन किसी भी विषय को इन्होंने अनछुआ नहीं रखा. कई बार तो लगने लगता है कि साहित्य (विज्ञान भी) की विधाओं में शायद कोई भी पत्थर इन्होंने बिना पलटे नहीं छोड़ा. केवल साहित्य को ही नहीं समेटा इन्होंने, बल्कि रिश्तों को भी समेटा.. स्वयम कोलकाता में रहकर कानपुर, बेंगलुरू, दिल्ली जैसी जगहों से सम्पर्क बनाए रखा और आचार्य जी, गुप्त जी, करण जी और मुझे जोड़े रखा.

मैंने भी दुबारा ब्लॉग लिखना शुरू कर दिया है. फ़ुरसत मिले न मिले, एकाकी जीवन (बाध्यता) ने इतना समय तो फिलहाल मुझे दिया है कि हफ्ते में एक पोस्ट लिख लेता हूँ. ऐसे में जब कभी उन पुरानी गलियों से गुज़रता हूँ तो एक अजीब सा सन्नाटा दिखाई देता है. आँखें फेरकर आगे बढ़ता हूँ तो लगता है कि कोई आवाज़ देकर बुला रहा है पीछे से. लेकिन पलटकर देखता हूँ तो वही ख़ामोशी. सर्दियाँ अपने शबाब पर हैं. तो फिर आइये रिश्तों की गरमाहट महसूस करें सम्बन्धों की “आँच” तापते हुये कविता-कहानी सुने-सुनायें और याद करें अपनी जड़ों को जहाँ न जाने कितना देसिल बयना आपका बाट जोह रहा है.

आज के दिन तो एक सफ़ेद बालों वाला और लाल कपड़ों वाला बाबा कन्धे पर बड़ा सा मोज़ा लिये तोहफ़े बाँटता फिरता है. आप सब लोगों से गुज़ारिश है. मेरे लिये सैण्टा बन जाइये और मुझे मेरा तोहफा दे ही डालिये. तभी तो होगी “मेरी क्रिसमस!!”