संत रविदास के उपदेश हमें कर्म, सच्चाई और सेवा के लिए प्रेरित करते हैं
संत रविदास जयंती पर …
मध्ययुगीन साधकों में संतकवि रैदास या रविदास का विशिष्ट स्थान है। निम्नवर्ग में समुत्पन्न होकर भी उत्तम जीवन शैली, उत्कृष्ट साधना-पद्धति और उल्लेखनीय आचरण के कारण वे आज भी भारतीय धर्म-साधना के इतिहास में आदर के साथ याद किए जाते हैं।
संत रैदास के जीवनकाल की तिथि के विषय में कुछ निश्चित रूप से जानकारी नहीं है। इसके समकालीन धन्ना और मीरा ने अपनी रचनाओं में बहुत श्रद्धा से इनका उल्लेख किया है। ऐसा माना जाता है कि ये संत कबीरदास के समकालीन थे। ‘रैदास की परिचई’ में उनके जन्मकाल का उल्लेख नहीं है। डॉ. भगवत मिश्र ने अपने अध्ययन के अनुसार यह निष्कर्ष निकाला है कि उनका जन्म पंद्रहवीं शताब्दी में संत कबीर की जन्मभूमि लहरतारा से दक्षिण मडूर या मडुआडीह गांव, बनारस में विक्रम संवत 1456 (सन 1398) की माघ पूर्णिमा को हुआ था। इनके पिता का नाम संतोखदास (रग्घु) और माता का नाम कर्मा (घुरविनिया) है। वे विवाहित थे और उनकी पत्नी का नाम लोना था। उन्होंने सीद्धियां प्राप्त कर धर्मोपदेशक के रूप में यश कमाया। अपना परिचय देते हुए वे लिखते हैं :
काशी ढिंग माडुर स्थाना,
शूद्र वरण करत गुमराना,
माडुर नगर लीन अवतारा
रविदास शुभ नाम हमारा।
संत रविदास जी ने किसी स्कूल से शिक्षा नहीं पाई थी। संतों की संगति में रहकर उन्होंने ज्ञानार्जन किया था। बाल्यकाल में उनका अधिकांश समय साधुओं की सेवा में बीतता था। उनके पास जो भी धन होता उसे वे साधुओं की सेवा में ख़र्च कर देते। उनका यह व्यवहार उनके पिता को ठीक नहीं लगता। वे अपने पुत्र से क्रुद्ध रहते। पिता पुत्र में इस विषय लेकर विवाद भी हो जाता। एक बार पिता ने पुत्र को घर से निकाल दिया और उनके हाथ एक कौड़ी भी नहीं दी। संत रैदास एक झोपड़ी में रहने लगे। किसी तरह अपनी जीविका चलाते। भगवान के धुन में मस्त गाते रहते –
प्रभु जी तुम चंदन हम पानी, जाकी अंग अंग बास समानी।
प्रभु जी तुम धन बन हम मोरा, जैसे चितवत चन्द चकोरा।
प्रभु जी तुम दीपक हम बाती, जाकी जोति बरै दिन राती।
प्रभु जी तुम मोती हम धागा, जैसे सोनहिं मिलत सुहागा।
प्रभु जी तुम स्वामी हम दासा, ऐसी भगति करै रैदासा।
उन्होंने कई तीर्थयात्राएं भी की। हरिद्वार, मथुरा, वृंदावन, प्रयाग, भरतपुर, जयपुर, पुष्कर, चित्तौड़ आदि स्थानों का भ्रमण किया। सिकंदर लोदी के निमंत्रण पर वे दिल्ली भी गए थे। संत कबीर उनके गुरुभाई थे। रैदास को स्वामी रामानंद ने दीक्षा दी थी। संत रविदास रामानन्द के बारह शिष्यों सें से एक थे। बचपन से ही वे बड़े दयालू और परोपकारी थे। वे कर्म को ही पूजा मानते थे। उनका मानना था कि जो व्यक्ति अपने कर्म पूरे मन से करता है, वही सच्चा धार्मिक व्यक्ति है।
संत रैदास ने सामाजिक विषमता के प्रति अपना विरोध दर्ज़ किया। उन्होंने वर्णवादी व्यवस्था की असमानता के प्रति आक्रोश अपनी रचनाओं के माध्यम से प्रकट किया। वे कविताओं में बार-बार अपने को चमार कह कर संबोधित करते हैं। ‘ऐसी मेरी जाति विख्यात चमारं’, ‘चरन सरन रैदास चमैइया’, ‘कह रैदास खलास चमारा’ आदि। यह एक प्रकार से कवि का प्रतिरोध ही है। इस जाति का शोषण और अपमान अनंत काल से होता रहा है। इस भेदभाव की तीव्रता का अनुभव करते हुए कभी-कभी उनके धैर्य का बांध टूट जाता था –
जाके कुटुंब सब ढोर ढोवत
फिरहिं अजहूँ बानारसी आसपासा।
आचार सहित बिप्र करहिं डंडौति
तिन तनै रविदास दासानुदासा॥
हजारों वर्षों से दबाई हुई शोषित जाति का कंठ इसी आवेग से फूटता है। रैदास की आचारनिष्ठ विप्रों का दंडवत करना भक्ति-आन्दोलन की उस धारा की ओर संकेत करता है जिसके प्रखर प्रवाह में जाति-पांति के बांध एक सीमा तक टूट-फूट गये थे। जाति-प्रथा और कर्मकांड को उन्होंने तोड़ने का उपदेश दिया। उन्होंने बाह्य विधान का विरोध किया और आंतरिक साधना पर बल दिया। उन्होंने लोगों को निश्छल भाव से भक्ति की ओर उन्मुख करने का प्रयत्न किया। अपने भावों और विचारों की अभिव्यक्ति के लिए उन्होंने सरल व्यावहारिक ब्रजभाषा को अपनाया, जिसमें अवधी, राजस्थानी, खड़ीबोली और उर्दू-फ़ारसी के शब्दों का मिश्रण है।
इनकी रचनाओं का कोई व्यवस्थित संकलन नहीं है, वह मात्र फुटकल के रूप में ही उपलब्ध होता है। उनके 40 पद “आदिग्रंथ” गुरुग्रंथ साहिब में संगृहीत हैं। अनन्यता, भगवत् प्रेम, दैन्य, आत्मनिवेदन और सरल हृदयता इनकी रचनाओं की विशेषता है। सामाजिक एकता, सौहार्द्र और समरसता के लिए उन्होंने महत्वपूर्ण योगदान दिया। सारा जीवन वे लोककल्याण हेतु कार्य करते रहे। मीरा स्मृति ग्रंथ के अनुसार विक्रम संवत 1584 (सन 1527) में वे ब्राह्मलीन हुए। उनका मोक्ष स्थान काशी का गंगा घाट था। भक्तमाल के अनुसार चित्तौड़ की रानी उनकी शिष्या बन गई थीं। चित्तौड़ में उनके सम्मान में मंदिर और तालाब बनवाए गए थे। वहां आज भी रैदास जी की छतरी बनी है।
उन दिनों भारत के समाज में जातिवाद और छुआछूत जैसी कुप्रथाएं विद्यमान थी और समाज इन बुराईओं को इन कुरीतियों को दूर करने के लिए संघर्षरत था। समाज में विघटन था, विद्वेष था, असमानता थी। ऐसे हिंदू समाज के बीच संत रैदास ने बहुत ही सीधी-सादी ज़बान में समाज को एक्जुट रखने का प्रचार किया। सामाजिक बुराईयों का खुलकर विरोध किया। अंधविश्वास, कुरीतियों और कुप्रथाओं के ख़िलाफ़ प्रचार किया। जो अपने लिए कोई भी इच्छा न रखे और परोपकार में अपना जीवन बिताए ऐसे लोगों को संत कहते हैं। रविदास सच्चे मायनों में सही संत थे। उनके उपदेश हमें हमेशा कर्म, सच्चाई और सेवा के लिए प्रेरित करते हैं।
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रविदास जी सच्चे मायनों में सही संत थे। उनके उपदेश हमें हमेशा कर्म, सच्चाई और सेवा के लिए प्रेरित करते हैं।
जवाब देंहटाएंRECENT POST -: पिता
प्रेरक आलेख..
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जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन अब मृत परिजनों से भी हो सकेगी वीडियो चैट - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
बढ़िया आलेख..
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर आलेख
जवाब देंहटाएंसंत रविदास जयंती पर बहुत सुन्दर प्रस्तुति ..
जवाब देंहटाएंआभार!
प्रेरक आलेख ...
जवाब देंहटाएंसंत रविदास जी जन्म से ही निर्लिप्त और परोपकारी रहे उन्होने स्त्रियों को भी निर्गुण-भक्ति मार्ग में दीक्षित किया था.भाव की तन्मयता उनकी रचनाओं में झलकती है !
जवाब देंहटाएंयाद दिलाने हेतु आभार !