रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के जन्मदिवस पर ....
मनोज कुमार
जन्म :
रामधारी सिंह दिनकर का जन्म बिहार के मुंगेर (अब बेगूसराय) ज़िले के सिमरिया
गांव में बाबू रवि सिंह के घर 23 सितम्बर 1908 को हुआ था।
शिक्षा और कार्यक्षेत्र : ढाई वर्ष की उम्र में पिता जी का देहांत हो गया। गांव से
लोअर प्राइमरी कर मोकामा से मैट्रिक किया। 1932
में पटना विश्वविद्यालय के पटना कॉलेज से इतिहास में बी.ए.
(प्रतिष्ठा) की परीक्षा पास करने के बाद वे कुछ दिनों के लिए बरबीघा उच्च माध्यमिक
विद्यालय में प्रधानाध्यापक का काम किए। उसके बाद सरकारी नौकरी में चले आए और निबन्धन
विभाग के अवर-निबंधक के रूप में 1934 से 1942 तक रहे। 1943 से 1945 तक सांग
पब्लिसिटी ऑफीसर, फिर जनसम्पर्क विभाग के उपनिदेशक पद पर 1947 से 1950 तक रहे। उसके बाद उन्होंने 1950 से 1952 तक
लंगट सिंह महाविद्यालय, मुज़फ़्फ़रपुर के हिन्दी प्रध्यापक के अध्यक्ष पद को संभाला।
स्वंत्रता मिली और पहली संसद गठित होने लगी तो
वे कांग्रेस की ओर से भारतीय संसद के
सदस्य निर्वाचित हुए और राज्यसभा के सदस्य के रूप में 1952 से 1963 तक रहे। 1963
से 1965 तक भागलपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति
भी रहे। अंततः 1965 से 1972 तक भारत
सरकार के गृह-विभाग में हिन्दी सलाहकार के रूप में हिन्दी के संवर्धन और
प्रचार-प्रसार के लिए काफ़ी काम किया।
पुरस्कार व सम्मान :
1. ‘कुरूक्षेत्र’ के लिए काशी नागरी प्रचारिणी सभा, उत्तरप्रदेश सरकार और भारत सरकार सम्मान मिला
2. ‘संस्कृति के चार अध्याय’
के लिए उन्हें 1959 में साहित्य अकादमी से सम्मानित किया गया।
3. 1959 में भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ
राजेंद्र प्रसाद ने उन्हें पद्म विभूषण से किया विभूषित किया।
4. भागलपुर विश्वविद्यालय के तात्कालीन कुलाधिपति और बिहार के राज्यपाल
जाकिर हुसैन, जो बाद में भारत के राष्ट्रपति बने, ने इन्हें डी. लिट. की मानद उपाधि प्रदान की।
5. 1972 में
‘उर्वशी’ के लिए भारतीय ज्ञानपीठ के सर्वोच्च पुरस्कार से सम्मानित
किया गया।
मृत्यु : 24 अप्रैल 1974 को हृदय गति रुक जाने से
उनका देहांत हो गया।
:: प्रमुख
रचनाएं ::
:: काव्य रचनाएँ :: चक्रवाल, रेणुका , हुंकार, द्वन्द्वगीत, रसवंती, सामधेनी, कुरुक्षेत्र, बापू, धूप
और धुआं, रश्मिरथी, नील कुसुम, नये सुभाषित, उर्वशी, परशुराम की प्रतीक्षा,
हाहाकार,आत्मा की आंख, हारे को हरिनाम, संचयिता तथा रश्मि लोक।
::
गद्य रचनाएं :: मिट्टी की ओर, अर्द्धनारीश्वर, भारतीय
संस्कृति के चार अध्याय, शुद्ध कविता की
खोज, रेती के फूल, उजली आग, काव्य की भूमिका, प्रसाद, पंत और
मैथिली शरण गुप्त, लोकदेव नेहरू, हे राम, देश-विदेश,
साहित्यमुखी।
:: साहित्यिक योगदान ::
‘दिनकर’ जी के मानस पर तुलसीदास जी के
‘रामचरितमानस’ और मैथिलीशरण गुप्त और माखनलाल चतुर्वेदी की रचनाओं का काफ़ी प्रभाव
पड़ा। देश का स्वतंत्रता संग्राम, विश्व-स्तर पर स्वातन्त्र्य-कामियों के संघर्ष,
गांधी जी के कार्य और विचार, लेनिन के नायकत्व में निष्पादित क्रान्ति, भगत सिंह
की और गणेश शंकर विद्यार्थी की शहादतें, स्वामी सहजानन्द सरस्वती का किसान
आन्दोलन, स्वामी विवेकानन्द, राजा राममोहन राय, स्वामी दयानन्द सरस्वती, द्वितीय
विश्वयुद्ध, आदि ने उनके मन पर गहरी छाप छोप छोड़ा।
‘दिनकर’ जी का मुख्य आधार है कविता। बारदोली
सत्याग्रह के दौरान उनकी सर्वप्रथम प्रकाशित रचना ‘बारदोली विजय’
रीवां (मध्य प्रदेश) की ‘छात्र-सहोदर’ नामक पत्रिका में छपी थी, जिसमें राष्ट्रीयता
के गीत थे।
1929 में पुस्तक रूप में ‘प्रणभंग’
नामक पहला खण्ड-काव्य प्रकाशित हुआ,
जिसमें उन्होंने लिखा था,
तोड़ी प्रतिज्ञा कृष्ण ने,
विजयी बनाने पार्थ को
अघ ने क्या, नय छोड़ना लखकर स्वजन के स्वार्थ को।
‘रे रोक युधिष्ठिर को न यहां, जाने दे उनको
स्वर्ग धीर,
पर, फिरा हमें गाण्डीव-गदा, लौटा दे अर्जुन-भीम
वीर।’
पंक्तियों के रचयिता राष्ट्रकवि के रूप में
प्रसिद्ध दिनकर जी को राष्ट्रीयता का उद्घोषक और क्रान्ति का उद्गाता माना जाता
है। उन्होंने आज़ादी के आंदोलन के दौतान लिखना शुरु किया था। ‘रेणुका’,
‘हुंकार’, ‘सामधेनी’ आदि की कविताएं स्वतंत्रता सेनानियों के लिए बड़ी प्रेरक
साबित हुईं।
श्वानों को मिलता दूध-वस्त्र, भूखे बालक
अकुलाते हैं,
मां की हड्डी से चिपक, ठिठुर जाड़ों की रात
बिताते हैं।
युवती के लज्जा-वसन बेच जब व्याज चुकाये जाते
हैं,
मालिक जब तेल-फुलेलों पर पानी-सा द्रव्य बहाते
हैं,
पापी महलों का अहंकार तब देता मुझको आमंत्रण,
झन-झन-झन-झन-झन-झनन-झनन।
1935 में प्रकाशित ‘रेणुका’ में
‘दिनकर’ जी के राष्ट्रीय चेतना के प्रखर स्वर के साथ ही रोमांटिकता और कोमल
भावनाओं की क्षीण धारा भी प्रकट हुई है।
फूलों की क्या बात? बांस की हरियाली पर मरता
हूं।
अरी दूब, तेरे चलते, जगती का आदर करता हूं।
वह कोमल भावना ‘रसवन्ती’ में सुविकसित होती
है। यह इनकी वैयक्तिक भावनाओं से युक्त श्रृंगार परक काव्य-संग्रह है।
पड़ जाता चस्का जब मोहक, प्रेम-सुधा पीने का,
सारा स्वाद बदल जाता है, दुनिया में जीने का।
मंगलमय हो पंथ सुहागिनी, यह मेरा वरदान,
हरसिंगार की टहनी-से, फूलें तेरे अरमान।
वही कोमल भावना ‘उर्वशी’ के रूप में मनमोहिनी
सिद्ध हुई। ‘उर्वशी’ हिन्दी साहित्य का गौरव-ग्रन्थ है। यह कामाध्यात्म संबंधी महाकाव्य
है, जिसमें प्रेम या काम भाव को आध्यात्मिक भूमि पर प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया
गया है।
जब से हम-तुम मिले, न जानें कितने अभिसारों में
रजनी कर श्रृंगार सितासित नभ में घूम चुकी है,
जानें, कितनी बार चन्द्रमा को, बारी-बारी से,
अमा चुरा ले गयी और फिर ज्योत्सना ले आयी है।
राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रीय स्वाभिमान का सबसे ज्वलन्त
रूप प्रकट हुआ है उनकी सुविख्यात लम्बी कविता ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ में। इसमें
कवि ने राष्ट्रीय गौरव की रक्षा के लिए भारतीय जनता के शौर्यभाव को जगाने के लिए अत्यंत
ओजभाव से युक्त वाणी का प्रयोग किया है।
वे देश शांति के सबसे शत्रु प्रबल हैं,
जो बहुत बड़े होने पर भी दुर्बल हैं,
हैं जिनके उदर विशाल, बांह छोटी है,
भोथरे दांत, पर जीभ बहुत मोटी है।
औरों के पाले जो अलज्ज पलते हैं,
अथवा शेरों पर लदे हुए चलते हैं।
युद्ध और शान्ति की समस्या का द्वन्द्व ‘कुरुक्षेत्र’
में व्यक्त हुआ है।
क्षमा शोभती उस भुजंग
को जिसके पास गरल हो
उसको क्या जो दंतहीन
विषहीन विनीत सरल हो
गद्य में भी वे अप्रतिम रहे हैं। उनका गहन
अध्ययन और सुगम्भीर चिन्तन गद्य में मार्मिक अभिव्यक्ति पाता है। उनके गद्यों में
विषयों की विविधता और शैली की प्रांजलता के सर्वत्र दर्शन होते हैं। उनका गद्य
साहित्य काव्य की भांति ही अत्यंत सजीव और स्फ़ूर्तिमय है तथा भाषा ओज से ओत-प्रोत।
उन्होंने अनेकों अनमोल ग्रंथ लिखकर हिन्दी साहित्य की वृद्धि की। साहित्य अकादमी
से पुरस्कृत ‘संस्कृति के चार अध्याय’ एक महान ग्रंथ है। इसमें उनकी गहन
गवेषणा, सूक्ष्म अन्वेषण, भारतीय संस्कृति से उद्दाम प्रेम प्रकट हुआ है।
मानवता के प्रति प्रतिबद्धता, दलितों की
दुर्दशा पर उत्साहपूर्ण रोष, गहन भारत-प्रेम और भारत-धर्म के परिपूर्णतम
अभिव्यक्ति उनके साहित्य के सुन्दरतम लक्षण हैं।
दलित हुए निर्बल सबलों से, मिटे राष्ट्र उजड़े दरिद्र
जन,
आह! सभ्यता आज कर रही असहायों का शोणित शोषण।
क्रान्ति-धात्रि कविते! जाग उठ, आडम्बर में आग लगा
दे;
पतन, पाप, पाखण्ड जलें, जग में ऐसी ज्वाला सुलगा
दे।
उन्होंने काव्य, संस्कृति, समाज, जीवन आदि
विषयों पर बहुत ही महत्वपूर्ण प्रश्न उठाए हैं।
ऋण-शोधन के लिए दूध-घी बेच-बेच धन जोड़ेंगे,
बूंद-बूंद बेचेंगे, अपने लिए नहीं कुछ छोड़ेंगे।
शिशु मचलेंगे, दूध देख, जननी उनको बहलाएगी,
मैं फाड़ूंगा हृदय, लाज से आंख नहीं रो पायेगी।
इतने पर भी धनपतियों की उनपर होगी मार,
तब मैं बरसूंगी बन बेबस के आंसू सुकुमार।
उनका अन्तिम कविता-संग्रह ‘हारे को हरि नाम’
1971 में प्रकाशित हुआ।
आधुनिक
हिन्दी काव्य के पुरोधा, मिट्टी की सुगंध के अमर गायक, प्राची के आलोकधन्वा और
युगधर्म की हुंकार राष्ट्रकवि स्वर्गीय रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की रचनाओं का स्वर युगधर्म की
हुंकार माना जा सकता है। छायावाद की कुहेलिका को चीरकर आधुनिक हिन्दी काव्य कमल को
जीवन की वास्तविकता एवं मिट्टी की गंध से परिपूरित करने वाले मानवतावादी ‘दिनकर’
ने दलितों, पीड़ितों के उद्धार का आदर्श भी प्रस्तुत
किया है। वस्तुतः यही वह मूल प्रयोजन है जो
आधुनिक युग जीवन को गौरव और अर्थकत्ता प्रदान करता है। साथ ही आर्थिक विषमता,
रंगभेद, नीति, जाति, कुल सम्प्रदाय एवं साम्राज्यवाद से पीड़ित विश्व-मानव से
रिश्ता जोड़ता है।