सोमवार, 28 जनवरी 2013

खड़ा शीश पर नौटंकी का कालू


खड़ा शीश पर नौटंकी का कालू
श्यामनारायण मिश्र
कोई दिन
हो गया कलेऊ
कोई दिन ब्यालू
बूढ़ी चाची
कहती बेटे
सबके राम दयालू
 
सोच-सोचकर
हुआ अजीरन
मन है खट्टा-खट्टा
अभी रसोई में
बाक़ी है
चूल्हा और सिलबट्टा
कल के लिये सुरक्षित
सींके पर
रक्खे दो आलू
 
धनिया के
आलिंगन का सुख
दुख ने बढ़ा दिया है
यौवन जैसा
ज्वार देह में
ज्वर ने चढ़ा दिया है
उसने भी
कर दिया विदा
अपना स्वभाव झगड़ालू
 
रात बिताई
अंधकार में
इच्छायें खेते
थिगड़े कंबल
में अपनी ही
गर्मी सेते-सेते
खड़ा शीश पर
हरिश्चन्द की
नौटंकी का कालू
***

25 टिप्‍पणियां:

  1. बात बात में बात-
    जबरदस्त प्रस्तुति |
    आदरणीय नमन ||

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  2. लाजबाब,प्रस्तुति,श्यामनारायण मिश्र जी रचना साझा करने के लिए आभार,,,,,

    recent post: कैसा,यह गणतंत्र हमारा,

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  3. आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार 29/1/13 को चर्चा मंच पर राजेश कुमारी द्वारा की जायेगी आपका वहां हार्दिक स्वागत है

    जवाब देंहटाएं
  4. रात बिताई
    अंधकार में
    इच्छायें खेते
    थिगड़े कंबल
    में अपनी ही
    गर्मी सेते-सेते
    खड़ा शीश पर
    हरिश्चन्द की
    नौटंकी का कालू

    अद्भुत मनोभाव निःशब्द करती

    जवाब देंहटाएं
  5. सहज शब्द-सुमनों से
    सुरभित नवगीत।
    भावों की कोमलता,
    जैसे नवनीत।

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  6. वहा बहुत खूब बेहतरीन

    आज की मेरी नई रचना आपके विचारो के इंतजार में

    तुम मुझ पर ऐतबार करो ।

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  7. रात बिताई
    अंधकार में
    इच्छायें खेते

    थिगड़े कंबल
    में अपनी हीगर्मी सेते-सेते


    सुन्दर ....

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  8. कल के लिये रख्खे सींके पर दो आलू . आह ।

    बहुत दर्दीली नुकीली प्रस्तुति ।

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