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शनिवार, 11 फ़रवरी 2012

फ़ुरसत में ... स्मृति से साक्षात्कार

फ़ुरसत में ... 91 

स्मृति से साक्षात्कार

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मनोज कुमार

ऑन लाइन पुस्तक की बुकिंग की थी। सप्ताह भी नहीं बीता, आ गई है। फ़ुरसत में हूं ही, पढ़ने लगता हूं, … पढ़ ही डालता हूं। पुस्तक अगर रोचक हो तो एक सांस में खतम हो जाती है। संस्मरण एक विशिष्ट विधा है। इस विधा को साधना एक कठिन कार्य है। जिस पुस्तक को मैं पढ़ रहा था, वह अलग और मौलिक इस रूप में है कि इसमें रचनाकार के सधे हुए शिल्प की निजी विशेषताएं समाहित हैं।

संस्मरण को हम सम्पूर्ण स्मृति कह सकते हैं। इस तरह की स्मृति जो हमारे आज को अधिक सार्थक, समृद्ध और संवेदनशील बना दे। हमारी स्मृति का एक सिरा हमारे वर्तमान से बंधा होता है, तो दूसरा अतीत से। संस्मरण अतीत और वर्तमान के समय-सरिता के बीच एक पुल है, जो दोनों किनारों के बीच संवाद का माध्यम बनता है।

मेरा फोटोपोस्टग्रेजुएशन करने के लिए वहां बिताए 1990-1996 के उन अनमोल पलों को स्मृतियों में रूस” पुस्तक के ज़रिए शिखा वार्ष्णेय अपने पांच वर्षीय रूस के प्रवास को याद करती हैं। बीते कल के कुछ पात्र, कुछ स्थान, कुछ दृश्य, कुछ घटनाओं के साथ हमारी एक आत्मीयता हो जाती है। एक संबंध बन जाता है। हम उन स्मृतियों को संजोए रहते हैं। रूस में बिताए शुरु के दिनों में चाय पीने की मुहिम में परिचारक को समझाने के लिए जिस नाटकीयता से सारे दृश्य को इस पुस्तक में उन्होंने साकार किया है उसे पढ़कर तब बरबस हंसी आ जाती है जब यह रहस्योद्घाटन होता है कि रूसी में भी चाय को चाय ही कहते हैं।

शिखा की इस किताब में भावुकता के साथ-साथ हास्य-विनोद भी है। जब रूस जाने का प्रस्ताव स्वीकृत हो जाता है तब घर का माहौल आम मध्यमवर्गीय परिवार की तरह संशय और उत्सुकता वाला था। मम्मी को जहां संशय है, “एक बार लड़की को विदेश भेजा, फिर तो वहीं की होकर रह जाएगी” वहीं पापा कहते हैं, “क्या हुआ, समझदार है, हम भी तो उसकी ख़ुशी चाहते हैं न!” और बहन के मनोभाव का वर्णन करते हुए लेखिका कहती हैं, “बहन ख़ुश थी, अब ये कमरा उसका और सिर्फ़ उसका होगा। बिस्तर और तकिए उसे नहीं बांटना होगा।”

IMG_3588संस्मरण में महज सूचना नहीं होता, बल्कि एक जीवंत अस्तित्व होता है जो हमारी बीती ज़िन्दगी के अनेक आवर्तों में लिपटा होता है। जो संस्मरण लिख रहा होता है, वह उन आवर्तों की पहचान करता है। “टॉल्सटॉय, गोर्की और यह नन्हा दिमाग” शीर्षक अध्याय पढ़ते वक़्त ऐसा लगता है कि जब वहां के संस्मरण की रचना की जा रही होगी, तो संस्मरणकार के समक्ष स्मृति के साथ-साथ एक आत्मीय संबंध भाव भी रहा होगा। इसमें न सिर्फ़ उनका अपना आत्मानुभव है बल्कि स्वयं को खोजने-पहचानने की ईमानदार कोशिश भी नज़र आती है। लिखती हैं, “वहां जाने के बाद गोर्की के उपन्यास मुझे कुछ-कुछ पसंद आने लगे थे। अब चाय का क़र्ज़ भी तो निभाना होता है ना।”

शिखा जी के संस्मरण पढते वक़्त लगता है कि जीवन के लौकिक अनुभवों को संबंधों के प्रकाश में सहेजने की इनकी आकांक्षा ने इस रचना को जन्म दिया है। विदेश की धरती पर बिताए क्षणों के बीच इस संस्मरण में अपनी माटी से जुड़े होने का जहां एक ओर अहसास कराती हैं, वहीं दूसरी ओर इसकी जीवंतता और सरसता आकर्षित करती है। “छुट्टी पर भारत से आने वाले के हाथ मूली-गोभी के पराठे ज़रूर मंगाए जाते … और यह कहने की ज़रूरत नहीं कि उन पर लाने वाले का कोई हक़ नहीं होता था।”

कहानी और संस्मरण का ढांचा मिलता-जुलता है। कई बार अच्छे ढंग से लिखे गए संस्मरण और कहानी में अंतर नहीं दिखता। वो कौन थी” शीर्षक अध्याय शिखा जी

का संस्मरण होते हुए कहानी का-सा प्रभाव पैदा करता है। जब वो रुसी भाषा सीखने के लिए “वेरोनिश” की यात्रा पर होती हैं, तो उन्हें ज़िन्दगी का पहला और सबसे खतरनाक वाकये का समना करना पड़ता है और उस परिस्थिति से वह किस प्रकार निकल पाती हैं वह एक सस्पेंस थ्रिलर की गति से लिखा रोचक प्रकरण है। हां भारत की सहमी, सकुचाई सी लड़की इस घटना के बाद “बोल्ड गर्ल” के ख़िताब से नवाज़ी गई।

संस्मरण में रचनाकार शुरु से लेकर अंत तक एक आलंबन (सहारा) के साथ गहरी आत्मीयता से जुड़ा होता है। यह आत्मीयता शिखा की स्मृतियों में इस कदर प्रगाढ़ है कि वो कहती हैं, “मास्को अपनी ही मातृभूमि जैसा लगने लगा।” संस्मरण रचना का मूल लक्ष्य मूल्यवान स्मृति को सुरक्षित रखना होता है। और शिखा जी ने रूस में बिताये अपनी अमूल्य स्मृतियों को इस पुस्तक के माध्यम से न सिर्फ़ सुरक्षित रखा है बल्कि हमसे बांटा भी है। “मास्को हर दिल के क़रीब” शीर्षक अध्याय में उस शहर के हर दर्शनीय स्थलों का विवरण बड़े ही रोचक अंदाज़ में किया गया है। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि संस्मरण न तो हम सूचना के आधार पर लिख सकते हैं और न ही साक्षी भाव से। स्मृति तो अतीत की वर्तमानता की बोधक होती है।

संस्मरण में रचनाकार स्वयं का अनुभूत सत्य लिख रहा होता है। जहां कहानियों में सत्य आभासित होता है, वहीं संस्मरण में सृजित होता है। कल्पना का प्रयोग यहां भी होता है, लेकिन इसकी भूमिका संयोजन, अन्वय (सम्बंध स्थापित करना) एवं रचनात्मक प्रभाव पैदा करने की होती है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है उनके द्वारा रूस के प्राचीनतम नगर कीवस्काया का वर्णन। कहती हैं, “एक सप्ताह में हमने देखा एक प्राचीन कलात्मक, खूबसूरत शहर जो अपार प्रकृति संपदा लिए हुए था। इन सबसे भी बढ़कर पाया वहां के सहृदय लोगों का प्यार और आदर। … कीव शहर को जब हम छोड़ रहे थे तो लगा कि कीव हाथ हिला कर कह रहा हो फिर आइएगा।”

संस्मरण में यात्रा हर स्थल, मानव संपर्क, रास्ते, देश-काल, भिन्नता और विविधता में गहरे प्रवेश करने वाली दृष्टि के साथ होनी चाहिए। शिखा ने जगह-जगह इस पुस्तक में यह अहसास दिलाया है कि अपने समस्त अनुभव-ज्ञान से रचना को संपुष्ट करने की क्षमता भी उनके भीतर के रचनाकार में है। “टर्निंग पॉइंट” शीर्षक अध्याय में एक अद्योगिक नगरी का वर्णन इस सहजता के साथ करती हैं कि लगता है उनके साथ हम भी शहर में हैं। वहां की विशिष्टता का वर्णन करते हुए कहती हैं, “पहली बार अहसास हुआ कि सिविक सेन्स किसे कहते हैं। वहां लोग न ख़ुद नियम तोड़ते थे न किसी को तोड़ने देते हैं।”

इस तरह की रचना में जब तक पाठक को पूरी तरह शामिल करने की क्षमता न हो, तो वह गूंगे का गुड़ ही बनी रहेगी। 1990-91 के “प्रेरोस्त्राइका” के काल का वर्णन जिस ईमानदारी के साथ उन्होंने किया है वह पढ़कर मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं हो रही है कि यह पुस्तक एक बहुत ही उत्कृष्ट कोटि का संस्मरण हैं।

संस्मरण अनुभव, सौन्दर्य बोध और प्रतिक्रिया की अभिव्यक्ति है। शिखा जी ने “टूटते देश में बनता भविष्य” शीर्षक अध्याय में उस देश की आर्थिक तंगी के अपने संस्मरण को इस शैली में लिखा है कि इसे पढ़ते वक़्त कई बार दिल भर आता है। वहां की घटनाओं की पृष्ठ्भूमि में लिखे गए इनके संस्मरण में साधारण के प्रति आकर्षण एवं स्वस्थ एवं नैतिक जीवन पर बल दिया गया है।

शिखा जी का संस्मरण स्मृति से साक्षात्कार है। वह समय में लौटना नहीं है, बल्कि गुज़रे समय को जीवन की वर्तमानता से जोड़ने का माध्यम है। इस रूप में वह इकहरे वर्तमान की रिक्तता को भरने वाला सशक्त रचना माध्यम है। जब लेखिका यह कहती हैं, “आदमी जो सोचता है, वैसा हो जाए तो फिर भगवान को कौन पूछेगा?” तो वह यही साबित कर रही होती हैं कि ज़िन्दगी में तूफान का आना-जाना लगा रहता है, ज़रूरत है इन संकट के समय में अपने हौसले, आदर्श और संवेदना को सही ढंग से इस्तेमाल करने का। रूस की बदलती अर्थव्यवस्था के कारण बहुत से आकस्मिक संकटो का पहाड़ टूट पड़ता है, यहां तक कि मुफ़्त शिक्षण बंद कर दिया जाता है। खाने-पीने और ज़रूरत की हर चीज़ों के दाम आसमान छूने लगते हैं। स्थिति यह हो जाती है कि “स्टेशन की बेंच” पर डेरा डंडा जमाना पड़ता है। किंतु वह विकट परिस्थितियों का डटकर मुक़ाबला कर संकट से पार होती हैं, उनका सपना पूरा होता। कहती हैं, “इंसान को सपने ज़रूर देखने चाहिए, तभी उसके पूरे होने की उम्मीद की जा सकती है।”

IMG_3586संस्मरण में रचनाकार ख़ुद को भी प्रकाशित करता चलता है। इसे कल्पना करके नहीं लिखा जा सकता। क्योंकि आत्मीयता, अनुभव की प्रत्यक्षता और घटना एवं परिवेश की सत्यता इसका आधार तैयार करते हैं। इसमें व्यक्ति का संबंध होता है। ऐसा संबंध, किसी भी स्तर पर रचनाकार की ज़िन्दगी को अर्थ देता है, उसमें भराव या खालीपन पैदा करता है, जिस कारण वह संस्मरणीय हो जाता है। अपनी डिग्री लेकर भारत लौटकर आने वाली शिखा अब बदली हुई इंसान हैं और लिखती हैं, “नहीं खतम हुई वो सुनहरी यादें, वो मस्ती के दिनों की कसक, वो थोड़े में ही ख़ुश रहने का जज़्बा और अपनों से दूर ग़ैरों को अपनाने की ख़्वाहिश।” संस्मरण रचना वर्तमान को एक दिशा, पहचान और संस्कार देती है। हमारा वर्तमान तात्कालिकता वाला होता है, एक आयामी होता है, इसमें सूचनाओं की प्रधानता होती है! हम यदि अतीत की प्रतिमा पर पड़ी धूल को झाड़कर उन्हें बार-बार पहचानने योग्य बना दें – तो “स्मृतियों में रूस” जैसा एक सार्थक संस्मरण तैयार हो सकता है।

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गुरुवार, 15 सितंबर 2011

आंच पर गदर की चिनगारियाँ

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गदर की चिनगारियाँ

मनोज कुमार

My Photoइधर जब से एलेक्ट्रॉनिक मीडिया की क्रांति आई है पुस्तक लेखन और पठन का चलन कम हो गया है। साहित्य की एक-दो विधा को छोड़कर सारी विधाएं उपेक्षित पड़ी हुई हैं। इन उपेक्षित विधाओं में नाटक-एकांकी जैसी जीवन्त विधा को भी देखा जा सकता है। भारतेन्दु काल से आधुनिक नाटक विधा का आरंभ माना जा सकता है लेकिन 21वीं सदी तक आते-आते नाटक लेखन विधा-सरिता सूख-सी गई है। ऐसी अकाल बेला में डॉ. सुश्री शरद सिंह द्वारा रचित कृति “गदर की चिनगारियाँ” पहला पानी की तरह हमारे तप्त मनोभूमि पर शीतलता प्रदान करती है और यह आश्वास्त भी करता है कि नाटक लेखन फिर से नेपथ्य से उठकर मंच पर आ रहा है। हजारी प्रसाद द्विवेदी के बाद इतिहास और साहित्य का सुंदर अंतरावलंबन देखने को नहीं मिलता है। डॉ. सुश्री शरद सिंह “गदर की चिनगारियाँ” नाटक लेकर उपस्थित हुई हैं जिसमें दबी-कुचली नारी का स्वर नहीं, वरन्‌ वीरांगनाएं, जिन्हें भुला दिया गया था, उन्हें वे अपनी रचना के माध्यम से सच्ची श्रद्धांजलि देती नज़र आती हैं।

scan0067हम लोग कभी पढ़ते थे, ‘इति’ माने ‘बीती’, ‘हास’ माने ‘कहानी’। यानी इतिहास बीती कहानियों का नाम होता है। किन्तु ऐसा कहना उचित प्रतीत नहीं होता। इतिहास सिर्फ़ घटनाओं को गिनती तारीख़ों का नाम नहीं होता। यह तो ज़िन्दगी की छानबीन और ज़िन्दगी को समझने का ज़रिया भी होता है। डॉ. सुश्री शरद सिंह ने बहुत ही मेहनत से 1857 की क्रांति के इतिहास को खंगालते हुए उस क्रांति में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली तेरह वीरांगनाओं के संघर्षों को एकांकी रूप में “गदर की चिनगारियाँ” नाम से प्रस्तुत किया है। मुझे पूरा विश्वास है कि इनमें से कई ऐसी वीरांगनाएं हैं जिनका नाम आप पहली बार सुन रहे होंगे। इन एकांकियों में इतिहास के अप्रतिम रूपायन डॉ. शरद की परिपक्व दृष्टि और कौशल की परिणति है। इस शोधपरक रचनात्मक लेखन में इतिहास की सटीक संदर्भों के साथ नाटकीय अभिव्यक्ति के लिए शरद जी को साधुवाद। जिस तरह से तथ्यों के आधार पर इन्होंने कथानक को गढ़ा है वह इनकी शोधपरक रचनात्मक लेखन का नायाब नमूना है।

scan0068परंपरागत ढंग से ब्रितानी शासन का विरोध करने की परिणति 1857 के विद्रोह में हुई। इसमें किसानों, कारीगरों, सैनिकों, स्त्रियों-पुरुषों आदि सभी ने लाखों की संख्या में भाग लिया। यह विद्रोह ब्रितानी शासक की जड़ें हिलाने के लिए काफ़ी था। मेरठ से शुरु हुआ गदर बाद में उत्तर में पंजाब, दक्षिण में नर्मदा, पश्चिम में राजपुताना और पूर्व में बिहार तक बढ़ता गया। आज के उत्तर प्रदेश और बिहार में किसानों, कारीगरों और आम आदमी ने उस आंदोलन में व्यापक पैमाने पर हिस्सा लिया और विद्रोह को वास्तविक शक्ति प्रदान की। एक अनुमान के मुताबिक अंग्रेज़ों से लड़ते हुए अवध में डेढ़ लाख और बिहार में एक लाख नागरिक शहीद हुए थे। इस पुस्तक को ‘उन सभी ज्ञात-अज्ञात स्त्रियों को जिन्होंने सन्‌ 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अपनी सशक्त भूमिका निभाई’ समर्पित करते हुए शरद जी कहती हैं,

नारी को न समझो अबला, है वो शक्ति का दूजा रूप

उसने सदा दिया है हंसकर, अपना सूरज, अपनी धूप।

बुंदेलखंड की राबिया बेगम, अवध की बेगम हज़रत महल, दिल्ली की बेगम ज़ीनत महल, रामगढ़ राज्य की रानी अवंतीबाई लोधी, गढ़ा मंगला की रानी फूलकुंवर, ग्राम भोजला की झलकारी बाई, झांसी की लक्ष्मीबाई, लखनऊ की ऊदा देवी पासी, कानपुर की अजीजनबाई, झांसी नैमिषारण्य की महारानी तपस्विनी, सिसौली, मुज़फ़्फ़रनगर की मामकौर बीवी, धार मालवा की रानी द्रौपदीबाई और कानपुर की मैनाबाई वे नाम हैं जो इस आन्दोलन में शरीक हुए। इनमें से कई न किसी रियासत से जुड़ी थीं, और न ही रानी थीं। पर उनके मन में अंग्रेज़ी हुक़ूमत के ख़िलाफ़ आक्रोश था। बस ज़रूरत थी एक चिनगारी की। मिली और वह भड़क उठी। ऐसे लोगों द्वारा अंग्रेज़ों की क्रूरता का साहसपूर्वक विरोध बेमिसाल है और स्वर्णाक्षरों में दर्ज़ किया जाना चाहिए। उन्होंने ऐसे उदाहरण प्रस्तुत किए कि आज भी उनके योगदान के बारे में पढ़कर मन आंदोलित हो उठता है। इस नाटक संग्रह में इनके आत्मबलिदान को बहुत ही गंभीरता से रेखांकित किया गया है। कहीं-कहीं उन्होंने किवदंतियों का सहारा लिया है, वह भी तब जब प्रमाणिक जानकारी कम उपलब्ध थीं, अन्यथा काफ़ी शोध के उपरान्त लिखे गए इस नाटक संग्रह में इतिहास और साहित्यिक रचनात्मकता का ऐसा सुंदर और सजीव चित्रण शरद जी ने किया है कि ये हमारे मानस-पटल पर दीर्घावधि के लिए अंकित हो जाते हैं।

आज के साहित्य में इतिहास लेखन वैसे ही हाशिए पर है। उस पर से नाटक लेखन तो बहुत ही कम हो रहा है। यह बहुत ही प्रसन्नता की बात है कि शरद जी ने उस महान क्रांति में अपनी आहुति देनेवाली वीरांगनाओं के बलिदान को इतिहास के अंधेरे से परिश्रम से निकाल कर उसे प्रकाश में लाया है।

वास्तविक घटनाओं को केन्द्र में रखकर, ठीक उन्हीं चरित्रों को पात्र बनाते हुए कथानक बुना गया है। उस पर से डेढ़ सदी से भी अधिक पुरानी, स्मृति विलुप्त घटना का वृत्तांत! यह सचमुच गहरे कौतुक का विषय बनता है। शरद जी का “गदर की चिनगारियाँ” एक विलक्षण कौतुक की बानगी है। यह एक अत्यंत सफल कृति है। विषय-निर्वाचन, कथा-वस्तु, क्रम-विकास, संवाद, ध्वनि, मितव्ययिता आदि दृष्टियों से यह एक अद्भुत कला-कृति है। तेरहों नाटक में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का स्पंदन गागर में सागर की तरह छलक उठता है। यह कृति लेखिका के अत्यंत मौलिक प्रयोग की तरह है, जिसमें स्वतंत्रता के संघर्ष का क्रांतिकारी स्वरूप, अग्रेज़ी हुक़ूमत के प्राति विद्रोह की भावना, उद्वेलित होकर साकार हो उठती है। यह एक अद्भुत साफ़-सुथरी संतुलित कला-कृति है। सुश्री डॉ. शरद सिंह इस उत्कृष्ट नाट्य-कृति के लिए हार्दिक बधाई की पात्र हैं और आशा की जा सकती है कि भविषय में भी वे इसी प्रकार अपनी विशिष्ट देन से हिन्दी-साहित्य के इस उपेक्षित अंग को शक्ति और गौरव प्रदान करती रहेंगी।

 

पुस्‍तक का नाम गदर की चिनगारियाँ

रचनाकार डॉ. शरद सिंह

सस्ता साहित्य मंडल प्रकाशन

पहला संस्‍करण : 2011

सस्ता साहित्य मंडल

एन-77, पहली मंज़िल,

कनॉट सर्कस,

नई दिल्‍ली-110 001, द्वारा प्रकाशित

मूल्‍य : 150 रु.

गुरुवार, 2 जून 2011

आंच-71 :: कविता का उजाला

आंच-71

[19012010014[4].jpg]पुस्तक समीक्षाclip_image001[4]    

                       डॉ. रमेश मोहन झा 

डॉ० रमेश मोहन झा जे.एन.यू नई दिल्ली से एम.ए, एम.फिल प्राप्त प्रसिद्द आलोचक प्रो० नामवर सिंह के निर्देशन में पीएच.डी कर संप्रति हिंदी शिक्षण योजना, राजभाषा विभाग, गृह मंत्रालय, कोलकाता से संबद्ध हैं !! वागर्थ, दस्तावेज, प्रतिविम्ब, कथादेश, कथाक्रम, साक्षात्कार प्रभृति हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में आलेख समीक्षा आदि का नियमित प्रकाशन! संपर्क संख्या 09433204657

geet1कविता स्‍वतः स्‍फूर्त अंतःप्रवाह है” कविता की इस परिभाषा की पुष्टि में कवयित्री संगीता स्‍वरूप “गीत” की सद्यः प्रकाशित उजला आसमाँ” काव्‍य-कृति रखी जा सकती है।

उक्‍त संग्रह की कविताओं को पढ़ने और गुनने के बाद मुझे लगा कि इनकी सबसे अंतरंग सखी कविता ही रही है। कविता के साथ इनका अतिशय भावनात्‍मक लगाव और रागत्‍मक संबंध इनको बचाए रखता है। श्रीकांत वर्मा के शब्‍दों को उधार लूँ तो जो रचेगा नहीं, वह बचेगा क्‍या? अर्थात् अपने अस्तित्‍व को बचाए रखने के लिए इन्‍होंने कविता का सहारा लिया है और कविता इनकी शरणस्‍थली बन जाती है। कविता-लेखन इनका ऐसा बंकर है, जो आज के विध्‍वंस (बाहर और भीतर) और आत्‍महीनता से इनको बचाता है। वे लिखती है-

मन के

अशांत सागर में

भावना की लहरें

उद्वेग में आकर

kitaab ujala aasmaan (1)ज्‍वार सा

उठा देती है

............

आशा किरण

चारों और फैलकर ए

क उजला-सा

आसमॉं दें …

संकलन में छोटी-बड़ी 72 कविताएं है। इनमें कोई विभाजन रेखा नहीं खींची गई है। अर्थात्‌ इसे कविता की प्रकृति के अनुसार खंडों में नहीं बांटा गया है। सारी कविताएं एक साथ परोस दी गई हैं। खंडो में बांटकर उसके दायरे को छोटा करने का मन नहीं हुआ होगा शायद। यूँ भी कविता की व्‍याख्‍या या संकेत देना कवि का अभिष्‍ट नहीं होता। अच्‍छी कविता को पाठक अपने-अपने ढंग से हृदयंगम करते हैं।

नारी-मुक्ति के इस दौर में गांधारी के पौराणिक मिथक का सहारा लेकर नारी सशक्तिकरण की चेतना से उर्ज्‍वसित कविता “सच बताना गांधारी” को अनूठे अंदाज में प्रस्‍तुत किया है। इसकी कुछ पंक्तियां द्रष्‍टव्‍य है –

आक्रोशित मन के उद्वेलन को

तुमने चुपचाप सहा था।

आजीवन दृष्टि विहीन रहने में

मुझको तुम्‍हारा आक्रोश दिखा है।

मर्मस्‍पर्शी भावों के साथ-साथ सुचिन्तित विचारों का भी गुंजन कविता में हुआ है। हालांकि वैचारिक पक्ष थोड़ा कमजोर है, क्‍योंकि बदलते परिवेश और घटनाओं को अपने सोच के केंद्र में रखकर जो कविताएं लिखी गई है, वे वकृत्‍य बन कर कर रह गई हैं। काव्‍यत्‍मकता उसमें आ नहीं पाई है। तथापि तन्‍मय होकर कविता लिखने से कविता हमें भावुक जरूर बना देती हैं। वृद्धाश्रम, विडम्‍बना, आदि इसी श्रेणी की कविताएं है। इन कविताओं को चंद पंक्तियाँ देखें

ये मंजर उस जगह का

जहां बहुते से बूढ़े लोग

पथरायी सी नजर से

आस लगाये जीते हैं

जिसे हम जैसे लोग

बड़े सलीके से

वृद्धाश्रम कहते हैं।”

नारी की संघर्ष यात्रा के बदले स्‍वरूप पर तीखी और तल्‍ख कविता- है चेतावनी.....” पुरूष वर्चस्‍व को चुनौती देती हुई प्रतीत होती है। पुरूष की मानसिकता पुरूषत्व के वर्चस्‍व से उत्‍पन्न स्थितियाँ नारी के स्‍वप्‍न-संभावनाओं को किस प्रकार लील जाती है इन पंक्तियों में द्रष्टव्य है ..

पूजनीय कह नारी को

महिमा-मंडित करते हो

…. 

वन्‍दनीय कह कर उसके

सारे अधिकारों को छीन लिया।”

कवयित्री निरंतर आशा और विश्‍वास का दामन थामे रहती है। उसके मन में आस्‍था की लौ स्थिर है। “जीवन-फूल और नारी का” कविता में वे लिखती है-

फूलों की तरह मुकुराती है

लोगों में हर दिन

जीने का उत्‍साह जगाती है।

संगीता स्‍वरूप जी की सभी कविताएँ भावपूर्ण प्रांजल और मर्मस्‍पर्शी हैं। आश्‍वासित और आस्‍था जगाने का प्रयास करती हैं। बावजूद इसके इनमें कुछ कविताएं तो मन के पोले गुबार की तरह प्रकट हुई है। हालाकि कहीं-कहीं भावों की पुनरावृति तथा उपदेशात्‍मकता का समावेश है, और कुछेक कविताएं कच्‍ची हैं, इसे पुष्‍ट और पकने में थोड़ा और समय लगेगा फिर भी आद्यांत कविताएं हमें अपने से जोड़े रखती हैं। सादगी, सहजता, अभिव्‍यक्ति की स्‍पष्‍टता इसकी मुख्‍य विशेषता है। संवेदना से लबरेज इनकी कविताएं पढ़ी जरूर जाएंगी, भले ही याद न रखी जाएं।

पुस्‍तक का नाम – उजला आसमाँ 

रचनाकार – संगीता स्वरूप ‘गीत’  

पहला संस्‍करण : 2011

शिवना प्रकाशन

पी.सी. लैब,

सम्राट कम्प्लैक्स बेसमेंट

बस स्टैंड, सीहोर –466001 (म.प्र.)

द्वारा प्रकाशित

मूल्‍य : 125 रु.