शनिवार, 6 दिसंबर 2025

390. सरकार के गठन पर कांग्रेस में विवाद

राष्ट्रीय आन्दोलन

390. सरकार के गठन पर कांग्रेस में विवाद

1937

चुनावों में कांग्रेस की सफलता ने उसकी स्थिति मज़बूत कर दी थी। चुनावी सफलता ने कांग्रेस पर मंत्रालय बनाने का दबाव बढ़ा दिया और जल्द ही यह दबाव इतना बढ़ गया कि इसे रोकना मुश्किल हो गया। कांग्रेस वर्किंग कमेटी 27 फरवरी से 1 मार्च, 1937 तक वर्धा में मिली ताकि चुनाव नतीजों की समीक्षा की जा सके और आगे की कार्रवाई पर विचार किया जा सके। कांग्रेस की अपील पर देश की प्रतिक्रया पर बधाई देते हुए प्रस्ताव में कहा गया: "कमिटी उस बड़ी ज़िम्मेदारी को समझती है जो देश ने उसे सौंपी है, और यह कांग्रेस संगठन और, खासकर, विधायिका के नए चुने गए कांग्रेस सदस्यों से अपील करती है कि वे हमेशा इस भरोसे और ज़िम्मेदारी को याद रखें, कांग्रेस के आदर्शों और सिद्धांतों को बनाए रखें, लोगों के विश्वास पर खरे उतरें और मातृभूमि की आज़ादी और उसके दुखी और शोषित लाखों लोगों की मुक्ति के लिए स्वराज के सैनिकों की तरह लगातार काम करें।" वर्किंग कमेटी ने पद स्वीकार करने या न करने का सवाल A.I.C.C. पर छोड़ दिया।

15 से 22 मार्च तक दिल्ली में A.I.C.C. की मीटिंग प्रस्तावित थी। गांधीजी बैठक में शामिल होने के लिए दिल्ली गए। निर्वाचन के बाद सरकार के गठन पर कांग्रेस में विवाद था। कांग्रेस के घोषणा पत्र में इस बात का कहीं स्पष्ट उल्लेख नहीं था कि यदि कांग्रेस ने काउंसिल में बहुमत प्राप्त कर लिया तो उसे क्या करना चाहिए? मंत्रिमंडल बनाने के सवाल पर गहरा मतभेद था। राजाजी, वल्लभभाई पटेल और राजेन्द्र बाबू जैसे दक्षिणपंथी चाहते थे कि बहुमत वाले प्रांतों में कांग्रेस की सरकार बने। लेकिन नेहरूजी और नेताजी सुभाष चन्द्र बोस आदि वामपंथी उसका विरोध कर रहे थे। इसलिए उन राज्यों में भी जहां कांग्रेस का बहुमत था, तत्काल सरकार नहीं बन सकी।  मंत्रिमंडल के विरोधी पक्ष का कहना था कि नए विधान में कुछ मिलना-जाना तो है नहीं। गवर्नर को वीटो का अधिकार है, इसलिए लोगों को कुछ राहत भी नहीं दी जा सकती। ख़ाली बदनामी सिर पड़ेगी। ऐसे पदग्रहण से क्या लाभ, यदि हमारे सेवा-कार्य में गवर्नर अपने वीटो अधिकार द्वारा कदम-कदम पर रोक लगाता रहे? हम तब तक पदग्रहण नहीं करेंगे, जब तक कि सरकार गवर्नर के इस विशेषाधिकार को हटा नहीं लेती। जबकि सरकार बनाने के समर्थकों का कहना था कि विधान में कमज़ोरियां ज़रूर हैं, लेकिन काउंसिल का नेतृत्व सरकार और उसके पिट्ठुओं को सौंप देने से तो बेहतर यही रहेगा कि जनता की हम जितनी भी सेवा कर सकते हों, करें। हमारा विश्वास है कि सीमा के बावजूद भी नए विधान का उपयोग जनहित में किया जा सकता है।

इन दोनों परस्पर विरोधी विचारधाराओं के समन्वय के लिए मार्च 1937 में कार्यसमिति और प्रांतीय काउंसिलों के कांग्रेसी सदस्यों का एक संयुक्त सम्मेलन किया गया। उस सम्मेलन में यह तय पाया गया कि यदि प्रांतीय काउंसिलों में कांग्रेस पाटी के नेताओं को इस बात से संतोष हो और वह यह सार्वजनिक घोषणा कर सकें कि गवर्नर हस्तक्षेप के अपने विशेषाधिकारों का प्रयोग नहीं करेंगे और वैधानिक कार्रवाइयों के संबंध में" मंत्रियों की सलाह की अवहेलना नहीं की जाएगी तो कांग्रेस प्रांतों में मंत्रिमंडल बना सकती है।

कान्ग्रेस को मिली भारी जीत के बाद भी यह स्पष्ट नहीं था कि वह सरकार में जाएगी या नहीं, तो जिन्ना ने बी.जी. खेर के द्वारा गांधीजी को सन्देश भिजवाया कि हिन्दू-मुस्लिम एकता के मामले में गांधीजी अगुआई करें। जिन्ना चाहता था की प्रान्तों में कांग्रेस और लीग के बीच सत्ता में भागीदारी हो। गांधीजी ने जिन्ना को लिखित जवाब दिया, खेर ने मुझे आपका सन्देश दिया। काश मैं इस मामले में कुछ कर सकता। मैं एकदम असहाय हूँ। एकता में मेरी आस्था सदा की तरह है, हाँ मुझे अभी कोई उम्मीद की किरण नहीं दिख रही।

गांधीजी से जब सलाह मांगी गई तो उन्होंने अहिंसक प्रयोग के विकास के अगले कदम के रूप में कांग्रेस को पद-ग्रहण करने की सलाह दी। गांधीजी ने कहा था, लोगों को यह बात समझनी चाहिए कि काउंसिलों का बहिष्कार सत्य-अहिंसा की तरह कोई शाश्वत सिद्धांत नहीं है। यह प्रश्न कार्य-नीति संबंधी है और मैं तो केवल यही कह सकता हूं कि किसी खास अवसर पर क्या करना सबसे ज़्यादा ज़रूरी है, यह देखा जाना चाहिए। लक्ष्य केवल विदेशी सरकार को हटा कर उसका स्थान लेना ही नहीं है, परन्तु शासन के विदेशी तरीक़े को मिटा देना भी होगा। कांग्रेस पुलिस तथा उसके पीछे रही सेना के बल पर शासन नहीं चलाएगी, बल्कि जनता की अधिक से अधिक सद्भावना के आधार पर निर्भर अपनी नैतिक सत्ता द्वारा शासन चलाएगी। गांधीजी ने ऑफिस स्वीकार करने के पक्ष में अपना पूरा ज़ोर लगाया और असल में इस सवाल से जुड़ा क्लॉज़ भी उन्होंने ही ड्राफ़्ट किया था। दो दिन की चर्चा के बाद, A.I.C.C. ने गांधीजी के समझौतावादी फॉर्मूले को 127 के मुकाबले 70 वोटों से पास कर दिया। इस प्रस्ताव में उन प्रांतों में ऑफिस लेने की इजाज़त दी गई जहां कांग्रेस के पास विधायिका में बहुमत था। उस समय गांधीजी के लिए रचनात्मक कार्य सबसे ज़्यादा ज़रूरी था। उनका ख्याल था कि कांग्रेसी मंत्रिमंडल अपने-अपने प्रांतों में रचनात्मक कार्यों को बढ़ावा दे सकता था। काउंसिल में प्रवेश और पद-ग्रहण का उद्देश्य जनता को राहत पहुंचाना होना चाहिए।  

मार्च के आखिरी हफ़्ते में, गवर्नरों ने कांग्रेस बहुमत के नेताओं को प्रीमियर के तौर पर नियुक्ति स्वीकार करने और अपनी कैबिनेट बनाने के लिए बुलाया। गवर्नर से कहा गया कि वह अपने होने वाले प्रीमियर को गांधीजी द्वारा तैयार किया गया एक आश्वासन दें, जिसे प्रीमियर इन शब्दों में सार्वजनिक कर सकता है, "कि उनके मंत्रियों की संवैधानिक गतिविधियों के संबंध में महामहिम हस्तक्षेप की अपनी विशेष शक्तियों का इस्तेमाल नहीं करेंगे या कैबिनेट की सलाह को नज़रअंदाज़ नहीं करेंगे।" यह आश्वासन नहीं दिया गया। इस पर, नेताओं ने मंत्रालय बनाने में अपनी असमर्थता जताई। गतिरोध बना रहा।

अगले तीन महीनों के दौरान कांग्रेस और सरकार की ओर से बयान और जवाबी बयान जारी किए गए। सरकार अपनी बात पर अड़ी रही। वर्किंग कमेटी ने अप्रैल में इलाहाबाद में अपनी बात दोहराई: "ब्रिटिश सरकार का पिछला रिकॉर्ड और उसका मौजूदा रवैया यह दिखाता है कि कांग्रेस द्वारा मांगी गई खास गारंटी के बिना, लोकप्रिय मंत्री ठीक से काम नहीं कर पाएंगे और बिना किसी परेशान करने वाले दखल के काम नहीं कर पाएंगे।विधायिका को छह महीनों के अंदर बुलाना था और बजट पास करवाना था। इस बढ़ते संकट के कारण सरकार की ओर से सबसे बड़ी पहल हुई। 21 जून को वायसराय, लॉर्ड लिनलिथगो ने "आम आदमी और आम वोटर के फायदे के लिए" एक बयान जारी किया। वायसराय लिनलिथगो के आश्वासन के बाद कि गवर्नर मंत्रिमंडलों के कार्यों में अनावश्यक हस्तक्षेप नहीं करेंगे, जुलाई में कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने 1935 के एक्ट के तहत ऑफिस संभालने का फैसला किया।

कांग्रेस वर्किंग कमेटी 5 से 8 जुलाई तक चार दिनों के लिए वर्धा में मिली और हालात पर विचार किया। 7 जुलाई को, उसने गांधीजी द्वारा तैयार किया गया एक प्रस्ताव पास किया, जिसका असर इस तरह था: ...पिछली 28 अप्रैल को वर्किंग कमेटी की मीटिंग के बाद से, लॉर्ड ज़ेटलैंड, लॉर्ड स्टेनली और वायसराय ने ब्रिटिश सरकार की ओर से इस मुद्दे पर घोषणाएँ की हैं। वर्किंग कमेटी ने इन घोषणाओं पर ध्यान से विचार किया है और उसकी राय है कि हालाँकि वे कांग्रेस की मांग के करीब आने की इच्छा दिखाते हैं, लेकिन वे मांगी गई गारंटी से कम हैं। ... कमेटी को लगता है कि, जो हालात और घटनाएँ तब से हुई हैं, उनके कारण बनी स्थिति से यह विश्वास होता है कि गवर्नरों के लिए अपनी खास शक्तियों का इस्तेमाल करना आसान नहीं होगा। कमेटी ने इसके अलावा विधानमंडलों के कांग्रेस सदस्यों और आम तौर पर कांग्रेसियों के विचारों पर भी विचार किया है। इसलिए कमेटी इस नतीजे पर पहुँची है और तय करती है कि कांग्रेसियों को उन जगहों पर पद स्वीकार करने की इजाज़त दी जाए जहाँ उन्हें इसके लिए बुलाया जाए।

इस प्रस्ताव से आखिरकार गतिरोध खत्म हो गया। छह प्रांतों में कांग्रेस मंत्रालयों के कार्यभार संभालने का रास्ता साफ हो गया।

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मनोज कुमार

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संदर्भ : यहाँ पर

 

शुक्रवार, 5 दिसंबर 2025

389. 1937 का चुनाव और कांग्रेस का विजयी होना

राष्ट्रीय आन्दोलन

389. 1937 का चुनाव और कांग्रेस का विजयी होना


1937

प्रवेश

कांग्रेस ने 1936 की शुरुआत में लखनऊ में और 1936 के आखिर में फैजपुर में चुनाव लड़ने का फैसला किया और ऑफिस संभालने का फैसला चुनाव के बाद के समय के लिए टाल दिया। 1937 के चुनाव 1935 के क़ानून के अनुसार हुए इस क़ानून के अनुसार प्रांतीय एसेम्बली को पर्याप्त अधिकार मिले थे मुसलमानों, ईसाइयों और सिखों के लिए अलग और आरक्षित चुनाव क्षेत्रों की व्यवस्था थी ब्रिटिश शासन ने साझा निर्वाचन क्षेत्र की कांग्रेस की मांग को ठुकरा दिया था मुसलमानों के नेतृत्व का बड़ा भाग अधिकांशतः सविनय अवज्ञा आंदोलन के प्रति उदासीन ही रहा। फिर भी 1935 के अधिनियम की प्रांतीय व्यवस्था के तहत कांग्रेस और मुसलिम लीग दोनों ने ही अधिनियम का विरोध करने के बावज़ूद सीमित मताधिकार के अधिकार पर हुए चुनावों में भाग लिया।

चुनाव घोषणा-पत्र

अपने चुनाव घोषणा-पत्र में कांग्रेस ने इस नए विधान को रद्द करने और राजनैतिक स्वतंत्रता पर आधारित एवं विधान परिषद द्वारा निर्मित जनवादी विधान की मांग की। इसने नागरिक स्वतंत्रता बहाल करने, राजनीतिक कैदियों को रिहा करने, लिंग और छुआछूत के आधार पर भेदभाव खत्म करने, कृषि व्यवस्था में बड़े बदलाव, किराए और राजस्व में काफी कमी, ग्रामीण कर्ज़ कम करने, सस्ता लोन देने, ट्रेड यूनियन बनाने का अधिकार और हड़ताल करने के अधिकार का वादा किया। कांग्रेस और लीग ने एक जैसे घोषणा पत्र जारी किए उन्होंने अँग्रेज़-परस्त क्षेत्रीय दलों को अपना प्रतिद्वन्द्वी माना, एक दूसरे को नहीं

चुनाव लड़ने का मुख्य कारण

विरोध के बावजूद कांग्रेस का चुनाव लड़ने का मुख्य कारण यह था कि काउंसिल का मोर्चा पूरी तरह से राष्ट्र विरोधी तत्त्वों को हाथों छोड़ना उचित नहीं था। इसके अलावे कांग्रेस के अन्दर एक ऐसा शक्तिशाली पक्ष भी था, जो नए विधान की सीमाओं में भी प्रांतों में रचनात्मक काम करने की संभावनाएं देख रहा था। अभी तक गांधीजी धारा सभाओं में भाग लेने के ख़िलाफ़ थे। लेकिन नए सुधारों के अनुसार मताधिकार व्यापक हो गया था। अतः गांधीजी ने चुनावों में भाग लेकर धारा सभाओं में जाने की इजाज़त दे दी।

कांग्रेस और लीग

अनेक निर्वाचन क्षेत्र में कांग्रेस ने लीग उम्मीदवार के खिलाफ अपने उम्मीदवार नहीं खड़े किए कांग्रेस ने सोचा कि चुनाव के बाद लीग से उसके मेल-मिलाप में यह क़दम काम आएंगे लेकिन जिन्ना तो जिन्ना ही था जब चुनावों में नेहरू ने यह कहा कि, भारत को कांग्रेस और अंग्रेजी राज में से एक को चुनना होगा, तो जिन्ना ने कहा था, मैं यह मानने से इंकार करता हूँ एक तीसरा पक्ष भी है - मुसलमानों का हम किसी आदमी के इशारों पर नहीं नाचने वाले हैं

कांग्रेस का प्रचार अभियान

कांग्रेस ने फरवरी 1937 में हुए प्रांतीय विधानसभाओं के चुनाव जीतने के लिए पूरी जान लगा दी। चुनाव प्रचार को कांग्रेस अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू और केन्द्रीय संसदीय समिति के अध्यक्ष वल्लभभाई पटेल नेतृत्व कर रहे थे। उन्होंने पूरे देश में तेज़ी से दौरा किया, कार्यकर्ताओं में जोश भरा और शहरों और गांवों में वोटरों तक कांग्रेस का संदेश पहुंचाया। कांग्रेस के चुनाव अभियान को ज़बरदस्त समर्थन मिला और इसने एक बार फिर लोगों में राजनीतिक चेतना और जोश जगाया। नेहरू का देश भर का चुनावी दौरा एक मिसाल बन गया। उन्होंने पांच महीने से भी कम समय में लगभग 80,000 किलोमीटर का सफर किया और एक करोड़ से ज़्यादा लोगों को संबोधित किया, उन्हें उस समय के बुनियादी राजनीतिक मुद्दों से परिचित कराया। उन्होंने कहा, "हर वोटर, चाहे वह आदमी हो या औरत, देश के प्रति अपना फर्ज़ निभाए और कांग्रेस को वोट दे। इस तरह हम लाखों हाथों से आज़ाद होने का अपना पक्का इरादा लिखेंगे।" उनका औसत काम का दिन बारह से अठारह घंटे का होता था, और एक बार तो उन्होंने बिना आराम किए तेईस घंटे तक लगातार काम किया।

चुनाव अभियान में कांग्रेस को न सिर्फ़ अंदरूनी लड़ाई से निपटना पड़ा, जिसने लगभग सभी राज्यों में संगठन के काम को कम या ज़्यादा हद तक खराब कर दिया था, बल्कि उसे सरकारी दुश्मनी और दबाव का भी सामना करना पड़ा था। सरकार किसी एक चीज़ पर अड़ी हुई थी, तो वह यह था कि चुनावों के नतीजे में विधानसभाओं में कांग्रेस की मेजॉरिटी वापस न आ जाए। इस दौरान सभी दबाने वाले कानून लागू रहे, पूरे देश में बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियां, तलाशी और ज़ब्ती हुई और A.I.C.C. ने समय-समय पर अलग-अलग राज्यों में पुलिस की ज़्यादती का शिकार हुए कांग्रेस कार्यकर्ताओं की लंबी लिस्ट जारी की। लेकिन ब्रिटिश हुकूमत की सारी कोशिशें कांग्रेस के लिए लोगों के समर्थन को रोकने में नाकाम रहीं। चुनाव के नतीजों ने दिखा दिया कि कांग्रेस भारत के लोगों का सबसे बड़ा प्रतिनिधि राजनीतिक संगठन था।

गांधीजी प्रचार अभियान से दूर रहे

गांधीजी ने एक भी चुनावी सभा को संबोधित नहीं किया, हालांकि वे मतदाताओं के मन में बहुत ज़्यादा मौजूद थे। गांधी के रचनात्मक कार्यक्रम के ज़रिए कांग्रेस ने अपना संगठन कितना फैलाया था, यह उसके चुनावी प्रचार अभियान से पता चला। लगभग हर बड़े गाँव में कांग्रेस का ऑफिस और झंडा था। कैंपेन, मीटिंग्स और जुलूस, बोलने वाले और नारे, इन सबने गाँव-देहात में ऐसा जोश भर दिया जैसा पहले कभी नहीं हुआ था। कई वोटर अनपढ़ थे और बैलेट पेपर के बजाय वोटिंग के लिए रंगीन बक्सों का इस्तेमाल किया गया था। उनके लिए कांग्रेस का नारा था 'गांधी और पीले बक्से को वोट दो'

आम चुनाव के नतीजे

आम चुनाव के नतीजे फरवरी, 1937 में आए। सिविल नाफ़रमानी आंदोलन के कारण कांग्रेस को चुनाव में जबर्दस्त सफ़लता मिली और वह देश की प्रमुख राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरी। उसे कुल 1585 असेंबली सीटों में 715 पर विजय प्राप्त हुई। कांग्रेस की कुल 715 सीटों का महत्व इसलिए और भी ज़्यादा था क्योंकि कुल 1,585 सीटों में से सिर्फ़ 657 सीटें ही आम मुकाबले के लिए खुली थीं और किसी खास सेक्शन के लिए आरक्षित नहीं थीं। 11 में से 5 प्रांतों मद्रास (159/215), संयुक्त प्रांत (134/228), बिहार (98/152), मध्य प्रांत (70/112) और उड़ीसा (36/60) में कांग्रेस को पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ। सबसे चौंकाने वाला नतीजा मद्रास में आया, जहाँ जस्टिस या एंटी-ब्राह्मण पार्टी, जो 1922 से लगातार विधायिका पर कंट्रोल कर रही थी, निचले सदन में कांग्रेस की 159 सीटों के मुकाबले सिर्फ़ 21 सीटें ही जीत पाई। बंबई में भी उसे बहुमत के आसपास (175 में 86) स्थान प्राप्त हुए, उसने लगभग आधे स्थानों पर क़ब्ज़ा कर लिया था। मैत्री भाव रखने वाले दलों के साथ मिलकर अपनी सरकार बना सकती थी। पश्चिमोत्तर प्रांत (19/50) में उसकी स्थिति अच्छी थी। वह सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी। आसाम (33/108) में भी वह सबसे बड़ी पार्टी थी। पंजाब (18/175) और सिंध (7/60) में कांग्रेस की स्थिति अच्छी नहीं थी। परंतु बंगाल (54/250), असम (33/108) में कांग्रेस अच्छी खासी सीटें हासिल की जबकि मुस्लिम लीग की स्थिति अच्छी नहीं रही।

मुसलमानों के प्रतिनिधित्व के मामले में कांग्रेस का प्रदर्शन खराब रहा। ग्यारह प्रान्तों में मुसलमानों के लिए आरक्षित कुल 482 सीटों में से, कांग्रेस ने 58 से ज़्यादा सीटों पर चुनाव नहीं लड़ा, जिनमें से उसने 24 सीटें जीतीं — उनमें से 15 अकेले N.W.F.P. में। इस ज़्यादातर मुस्लिम आबादी वाले फ्रंटियर प्रोविंस में, कांग्रेस के उम्मीदवार मुसलमानों के लिए आरक्षित 36 सीटों में से 15 पर चुने गए, जबकि मुस्लिम लीग एक भी सीट नहीं जीत पाई। मद्रास और बिहार ही दो और प्रांत थे जिनसे कांग्रेस के मुसलमान जीते – मद्रास से 4 और बिहार से 5। U.P. में, जहाँ 66 मुस्लिम सीटें थीं, कांग्रेस ने 7 पर चुनाव लड़ा और सभी हार गई। बंगाल में 177 मुस्लिम सीटों में से उसने एक भी सीट नहीं लड़ी। C.P. में 14 मुस्लिम सीटों में से उसने दो पर चुनाव लड़ा और दोनों हार गई। असम में उसने सभी 33 मुस्लिम सीटों पर बिना चुनाव लड़े ही चुनाव छोड़ दिया। लिबरल पार्टी पूरी तरह खत्म हो गई, डेमोक्रेटिक स्वराज पार्टी ने बिना किसी सफलता के कांग्रेस का विरोध किया। हिंदू महासभा पूरी तरह फेल हो गई। मुस्लिम लीग ने बेहतर प्रदर्शन किया लेकिन कुल मिलाकर उसका प्रदर्शन खराब रहा, खासकर उन प्रांतों में जहाँ ज़्यादातर मुस्लिम आबादी थी, - जिन्ना और उनकी लीग को सिर्फ़ चार परसेंट वोट मिले। पंजाब और सिंध में, मुस्लिम लीग पूरी तरह फेल हो गई; बंगाल में उसे सिर्फ़ थोड़ी बहुत सफलता मिली।

मुसलमानों का प्रतिनिधित्व कौन ?

तो फिर मुसलमानों का प्रतिनिधित्व कौन करता था? निश्चित रूप से मुस्लिम लीग नहीं, जो मुसलमानों का अकेला प्रतिनिधित्व संगठन होने के अपने दावे को मान्यता देने की मांग कर रही थी। लीग को उस चुनाव में मुसलमानों के पांच प्रतिशत से ज़्यादा मत नहीं मिले। 482 सुरक्षित स्थानों (मुस्लिम सीटों) में से सिर्फ़ 109 पर सफलता मिली। मुस्लिम चुनाव क्षेत्रों में कांग्रेस केवल 58 स्थानों पर लड़ी और 26 स्थानों विजयी हुई। बंगाल, पंजाब, N.W.F.P. और सिंध जैसे मुस्लिम बहुमत वाले राज्यों में उसे बहुत बुरी तरह हार मिली। पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत और सिंध में लीग को एक भी स्थान नहीं मिला, पंजाब में 86 में से केवल 2 मिले। बंगाल में 117 मुस्लिम सीटों में से उसने 40 जीतीं।

लेकिन लीग ने हिन्दू-बहुल प्रान्तों में भी अनेक मुस्लिम सीटें जीतीं, खासकर संयुक्त प्रान्त और मुंबई में। U.P. में 66 मुस्लिम सीटों में से उसने 29 जीतीं, बाकी नेशनल एग्रीकल्चरिस्ट पार्टी (9) को मिलीं, जो ज़मींदारों और तालुकदारों का एक ग्रुप था और इंडिपेंडेंट्स (27) को मिलीं। बॉम्बे में उसने 29 में से 20 सीटें और मद्रास में 28 में से 11 सीटें जीतीं। इस तरह हिंदू-बहुल प्रांतों में, मुस्लिम वोट ज़्यादातर लीग को मिला, N.W.F.P. में कांग्रेस को इसका एक बड़ा हिस्सा मिला, पंजाब में यह सर सिकंदर हयात खान की यूनियनिस्ट पार्टी को मिला और बंगाल में मुस्लिम जनता ने फजलुल हक की कृषक प्रजा पार्टी को ज़्यादा चुना। मद्रास में जस्टिस पार्टी और बॉम्बे में डेमोक्रेटिक स्वराज पार्टी पूरी तरह से हार गईं। अलग-अलग प्रांतों में महिलाओं के लिए आरक्षित सीटें, कुछ को छोड़कर, सभी कांग्रेस ने जीत लीं।

अनुसूचित जातियों की अधिकांश सीटें भी (मद्रास 26/30,, बिहार 14/15,  और U.P. 16/20) कांग्रेस ने जीत ली थीं, सिवा बंबई के जहां अंबेडकरजी की इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी ने हरिजनों के लिए आरक्षित 15 सीटों में 13 जीती थीं। बॉम्बे और C.P. में कांग्रेस का प्रदर्शन उतना अच्छा नहीं रहा, जहां उसे दोनों प्रांतों में 4/15 और 5/19 सीटें मिलीं। बंगाल में वह कुल 30 में से एक भी शेड्यूल्ड कास्ट सीट नहीं जीत पाई।

लेकिन रोचक बात यह थी कि निर्णायक मुस्लिम बहुमत वाले पंजाब और बंगाल में लीग, चुनाव में कांग्रेस से नहीं हारी थी, बल्कि मुस्लिम प्रधान प्रादेशिक दलों कृषक प्रजा पार्टी और यूनियनिस्ट पार्टी से हारी थी। पश्चिम पंजाब के बड़े ज़मींदार और मुसलिम नौकरशाह अर्द्ध-सांप्रदायिक और ब्रिटिश हुक़ूमत के प्रति वफ़ादार यूनियनिस्ट पार्टी के समर्थक थे। पंजाब में युनियनिष्ट पार्टी ने मंत्रिमंडल बनाने के दावा पेश किया, लेकिन प्रधानमंत्री का पद गया कृषक प्रजा पार्टी के फजलुल हक़ को इस पार्टी ने चुनावों में लीग के अनेक उम्मीदवारों को हराया था उत्तर प्रदेश और बंगाल में लीग ने अच्छा प्रदर्शन किया था।

कांग्रेस की जीत का असर

कांग्रेस की जीत का ग्रेट ब्रिटेन पर बहुत गहरा असर पड़ा। द टाइम्स को कांग्रेस को एक "मामूली अल्पसंख्यक" मानने का अपना रवैया छोड़ना पड़ा और अब उसने लिखा: "चुनावों ने दिखाया है कि कांग्रेस पार्टी ही अकेली ऐसी पार्टी है जो प्रांतीय स्तर से ज़्यादा बड़े पैमाने पर संगठित है। इसकी सफलता का रिकॉर्ड प्रभावशाली रहा है और, हालांकि यह काफी हद तक अपने बेहतरीन संगठन और ज़्यादा रूढ़िवादी तत्वों के बीच फूट और संगठन की कमी के कारण है, लेकिन सिर्फ यही कारक इसकी कई जीतों की व्याख्या नहीं करते हैं। पार्टी के प्रस्ताव अपने विरोधियों के मुकाबले ज़्यादा सकारात्मक और रचनात्मक रहे हैं। पार्टी ने उन मुद्दों पर जीत हासिल की है जिनमें लाखों भारतीय ग्रामीण मतदाताओं और करोड़ों लोगों की दिलचस्पी थी जिनके पास वोट देने का अधिकार नहीं था।"

उपसंहार

औपनिवेशिक सरकार के विकल्प के तौर पर कांग्रेस की इज़्ज़त और भी बढ़ गई। चुनाव दौरे और चुनाव नतीजों से नेहरू का हौसला बढ़ा, वे निराशा से बाहर निकले, और S-T-S की मुख्य रणनीति से सहमत हो गए। इस चुनाव ने यह साफ कर दिया था कि जनता ने उन्हीं प्रान्तों में लीग को समर्थन दिया था जहाँ मुसलमानों की संख्या हिन्दुओं से अधिक थी। लेकिन इस करारी हार के बावजूद जिन्ना ने अगले चार वर्षों में कट्टरतावादी नीति से अपनी स्थिति को ऐसा मज़बूत कर लिया कि भारत की संवैधानिक प्रगति की कोई बात उसकी रज़ामंदी के बग़ैर की ही नहीं जा सकती थी। 1937 के चुनावों से यह बात तो स्पष्ट हो गई थी कि उपनिवेशवाद के सभी प्रमुख सामाजिक और राजनीतिक आधार ध्वस्त हो चुके थे। इसलिए औपनिवेशिक ताक़तों ने अपने हाथ का बचा हुआ एक मात्र पत्ता – सांप्रदायिकता का भरपूर इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। उस समय मुसलिम लीग का नेतृत्व जिन्ना के हाथ में था। जिन्ना को अंग्रेज़ नापसंद करते थे, उसकी उग्रता और उपनिवेशवाद विरोध के कारण उससे डरते भी थे, लेकिन ब्रिटिशों ने जिन्ना की मुसलिम सांप्रदायिकता का साथ देना आरंभ कर दिया।

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मनोज कुमार

पिछली कड़ियां-  राष्ट्रीय आन्दोलन

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