सोमवार, 22 दिसंबर 2025

405. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी

राष्ट्रीय आन्दोलन

          405. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी

प्रवेश

ऐसा माना जाता है कि भारतीय साम्यवाद की जड़ें राष्ट्रीय आंदोलन के बीच से ही फूटी थीं। कुछ ऐसे क्रांतिकारी थे जिनका राष्ट्रीय आंदोलन से मोह भंग हो चुका था। उनका मानना था कि महज़ राजनीतिक आज़ादी से आम जनता का जीवन स्तर सुधरने वाला नहीं है। परिवर्तन का संघर्ष औपनिवेशिक सत्ता के चंगुल से मुक्त होने के लिए ही नहीं है, वरन उन तमाम शोषणकारी शक्तियों को उखाड़ फेंकने के लिए होना चाहिए, जिनके चलते देश की अधिकांश जनता ग़ुलाम और ग़रीब है। इसके अलावा कुछ असहयोग और ख़िलाफ़त आंदोलनकारी, तथा किसान और श्रमिक आंदोलन के सदस्य भारत के सामाजिक और राजनीतिक उद्धार के लिए नए रास्ते की खोज में थे। असहयोग आन्दोलन के अचानक वापस ले लिए जाने के कारण ज़्यादातर युवा गांधीजी से नाराज़ हो गए थे। यह ऐसा अवसर था जब वे साम्यवादी विचारधारा के प्रभाव में आ रहे थे।

साम्यवादियों (कम्युनिस्टों) के अस्तित्व में आने का कारण

1920 के दशक में असहयोग आन्दोलन की सफलताओं के कारण जहाँ एक ओर हम राष्ट्रीय आंदोलन में बड़ी संख्या में भारतीय जनता के प्रवेश को देखते हैं, वहीँ दूसरी ओर राष्ट्रीय परिदृश्य पर मुख्य राजनीतिक धाराओं के रूप में साम्यवाद और समाजवाद को सामने पाते हैं। इन विविध राजनीतिक धाराओं की उत्पत्ति सत्य, अहिंसा और सत्याग्रह के गांधीवादी दर्शन के राष्ट्रीय राजनीतिक दृश्य पर आने के कारण हुई। इस दशक के दौरान भारतीय राजनीतिक विचारकों पर अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव भी पहले की तुलना में अधिक स्पष्ट रूप से सामने आया। मार्क्स और समाजवादी विचारकों के विचारों ने कई समूहों को साम्यवादियों (कम्युनिस्टों) के रूप में अस्तित्व में आने के लिए प्रेरित किया। ऐसा माना जाता है कि भारतीय साम्यवाद की जड़ें राष्ट्रीय आंदोलन के बीच से ही फूटी थीं। कुछ ऐसे क्रांतिकारी थे जिनका राष्ट्रीय आंदोलन से मोह भंग हो चुका था। उनका मानना था कि केवल राजनीतिक आज़ादी से आम जनता का जीवन स्तर सुधरने वाला नहीं है। उनके अनुसार परिवर्तन का संघर्ष सिर्फ साम्राज्यवादी सत्ता से स्वतंत्रता पाने के लिए ही नहीं है। यह तो उन तमाम शोषणकारी शक्तियों से मुक्त होने के लिए होना चाहिए, जिनके चलते देश की अधिकांश जनता पराधीन और निर्धन है। इसके अलावा कुछ असहयोग, ख़िलाफ़त, किसान और श्रमिक आंदोलन के सदस्य भारत के सामाजिक और राजनीतिक उद्धार के लिए किसी नई विचारधारा की तलाश में थे। असहयोग आन्दोलन के अचानक वापस ले लिए जाने के कारण ज़्यादातर युवा गांधीजी से नाराज़ हो गए थे। वे साम्यवादी विचारधारा के प्रभाव में आ रहे थे। वे एक समता मूलक वर्ग विहीन समाज की स्थापना करना चाहते थे। सोवियत क्रांति से प्रेरित और गांधीवादी विचारों और राजनीतिक कार्यक्रम से असंतुष्ट इन युवा राष्ट्रवादियों ने साम्यवादी विचारधारा को अपनाया और देश की आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक बुराइयों के लिए आमूल परिवर्तन की वकालत शुरू कर दी।

कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया की स्थापना

साम्यवादी विचारधारा के प्रभाव में आ रहे युवकों को उस समय के विख्यात क्रांतिकारी नेता नरेन भट्टाचार्य उर्फ़ मानवेन्द्र नाथ राय ने नई राह दिखाई। तब सोवियत संघ में बोल्शेविक क्रांति की सफलता की धूम मची हुई थी। इससे प्रेरित हो दुनिया भर के देशों के बीच आपसी राजनीतिक और आर्थिक संबंध बनाने दौर चल रहा था। रूस में समाजवादी क्रांति के कारण समूचे एशिया महाद्वीप में समाजवादी विचारधारा ज़ोर पकड़ने लगी थी। अगस्त 1919 में एम.एन. राय मेक्सिको में बोल्शेविक मिखाइल बोरोदीन के संपर्क में आए थे। वहाँ उन्होंने, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना करने से पहले, मैक्सिको की कम्युनिस्ट पार्टी (सोशलिस्ट वर्कर्स पार्टी) की स्थापना की थी। रूस में समाजवादी क्रांति के कारण समूचे एशिया महाद्वीप में समाजवादी विचारधारा ज़ोर पकड़ने लगी थी। 1920 में क्म्युनिस्ट इंटरनेशनल के दूसरे अधिवेशन में शामिल होने के लिए राय मास्को गए। वहीं पर उनका लेनिन से विवाद हुआ। लेनिन का औपनिवेशिक देशों में कम्युनिस्टों की रणनीति को लेकर मत था कि उपनिवेशों और अर्ध-उपनिवेशों में बुर्जुवा नेतृत्व वाले आंदोलनों को समर्थन दिया जाए। लेकिन राय इसके विपरीत मत रखते थे। राय का कहना था कि भारत में जनसामान्य का पहले ही गांधीजी जैसे बुर्जुवा राष्ट्रवादियों से मोहभंग हो चुका है और वह बुर्जुवा-राष्ट्रीय आंदोलन से स्वतंत्र रहकर क्रांति की ओर आगे बढ़ रहे हैं।

अक्तूबर 1920 में एम.एन. राय ने अवनी मुखर्जी, मुहम्मद अली और मुहम्मद शफ़ीक़ के साथ मिलकर ताशकंद (तब सोवियत संघ का हिस्सा था, अब उज्बेकिस्तान का हिस्सा है) में ‘कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया’ की स्थापना की। 1922 में राय अपना मुख्यालय बर्लिन ले गए। वहां से उन्होंने ‘वैन्गार्ड ऑफ इंडिपेन्डेंस’ नाम से एक पाक्षिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया। इसके अलावा अवनी मुखर्जी के सहयोग से उन्होंने ‘इंडिया इन ट्रांज़िशन’ भी प्रकाशित करना आरंभ किया था। इन पत्रिकाओं के द्वारा भारतीय अर्थव्यवस्था और समाज का साम्यवादी विश्लेषण किया जाता था।

कम्युनिस्ट समूह के प्रमुख नेता

पार्टी को मज़बूती प्रदान करने की कोशिश में नलिनी गुप्ता और शौकत उस्मानी के माध्यम से एम.एन. राय ने देश के दूसरे हिस्सों में सक्रिय कम्युनिस्ट समूहों से गुप-चुप तरीक़े से संपर्क किया। बंबई में एस.ए. डांगे, कलकत्ता में मुज़फ़्फ़र अहमद, मद्रास में सिंगारवेलु, पंजाब में भाई संतोख़ सिंह और लाहौर में ग़ुलाम हुसैन और अब्दुल मजीद, कम्युनिस्ट समूह के प्रमुख नेता थे। 1922 में एम.एस. डांगे ने बंबई से ‘सोशलिस्ट’ नाम का साप्ताहिक निकालना शुरू किया। यह भारत में प्रकाशित होने वाली पहली कम्युनिस्ट पत्रिका थी। वे 1921 में ‘गांधी बनाम लेनिन’ किताब लिख चुके थे।  इस पुस्तक में डांगे का तर्क था - गांधीजी एक प्रतिक्रियावादी विचारक थे, जो धर्म और व्यक्तिगत विवेक के पक्ष में थे। दूसरी ओरउन्होंने आर्थिक उत्पीड़न की संरचनात्मक जड़ों की पहचान की और सामूहिक कार्रवाई करते हुए उत्पीड़न समाप्त करने की मांग की। कलकत्ता में मुज़फ़्फ़र अहमद ‘लांगल’ और ‘गणवाणी’ पत्रिका निकाल रहे थे। लाहौर से अब्दुल मजीद ‘मेहनतकश’ पत्रिका निकाल रहे थे। पंजाब में भाई संतोख़ सिंह ‘कीर्ति’ निकाल रहे थे।

भारतीय कम्युनिस्टों का सम्मेलन

दिसंबर 1925 में कानपुर में भारतीय कम्युनिस्टों का एक खुला सम्मेलन हुआ। इसके संयोजक सत्यभक्त थे। स्वागत समिति के अध्यक्ष हसरत मोहानी थे। और इसकी अध्यक्षता सिंगारवेलु ने की थी। इसमें ‘भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी’ के औपचारिक गठन की घोषणा कर दी गई। इसने देश में बिखरे कम्युनिस्ट ग्रुपों को एकजुट किया। सिंगारावेलु चेट्टियार को पार्टी का अध्यक्ष और सच्चिदानंद विष्णु घाटे को सचिव चुना गया। कम्युनिस्ट अब कामगार वर्ग के साथ संबंध स्थापित करने लगे और कुछ ही वर्षों में कामगारों के बीच उनका प्रभाव काफ़ी बढ़ा। 1926-27 के दौरान भारत के विभिन्न राजनीतिक केन्द्रों – कलकत्ता, बंबई, पंजाब, मद्रास, और लाहौर में मजदूर किसान पार्टियों के उदय से कम्युनिस्ट मजदूर नेताओं को मजदूरों को संगठित करने में काफी मदद मिली। इंग्लैंड की पार्लियामेंट में कम्युनिस्ट सदस्य के रूप में शापुरजी सकलतवाला को प्रवेश मिला। वे जब भारत दौरे पर आए तो अपने विचारों से लोगों में साम्यवाद के प्रति रुचि जागृत की।

राष्ट्रवादी धारा के भीतर रहकर ही काम

1920 के दशक में भारतीय कम्युनिस्ट समूह मुख्य राष्ट्रवादी धारा के भीतर रहकर ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की नीतियों के साथ काम करते रहे। कम्युनिस्टों ने उस वक्त कांग्रेस में दिलचस्पी लेने वाले लोगों को साथ लेने का काम किया। भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने सभी सदस्यों से कांग्रेस का सदस्य बनने के लिए कहा। यह भी कहा कि कांग्रेस के सभी मंचों पर वे एक सशक्त वामपंथ बनाएं और सभी क्रान्तिकारी राष्ट्रवादियों से कांग्रेस के मंचों पर सहयोग करें ताकि कांग्रेस अधिक क्रांतिकारी और जनाधार वाले संगठन का रूप ग्रहण करे। कम्युनिस्टों ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशनों में श्रम-सम्बन्धी सवाल उठाकर कांग्रेसी राजनीति में भी हस्तक्षेप करने की कोशिश की। राय कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशनों के प्रतिनिधियों में कम्युनिस्ट कार्यक्रम संबंधित वक्तव्य तैयार करके बाँटते थे। शुरू में वे और उनके समूह के लोग गांधीजी की और उनकी पद्धति की आलोचना तो करते थे लेकिन बहुत तीखी नहीं। 1928 के बाद में तो ये लोग उन्हें ‘बुर्जुवा वर्ग का ताबीज़ मात्र’ तक कहा था। वे मानते थे कि देशवासियों द्वारा गांधीजी से गहरा प्रेम देश के कष्ट में पड़े रहने के लिए उत्तरदायी है। 1923 से 27 के बीच देश के विभिन्न भागों में कम्युनिस्ट विचारधारा वाली पार्टियों के गठन के कारण कम्युनिस्टों का कामगार वर्ग के साथ संबंध स्थापित होने लगा

कम्युनिस्टों का प्रभाव

कम्युनिस्टों ने राष्ट्रवाद और साम्राज्यवाद विरोध को सामाजिक न्याय के साथ मिलाने की आवश्यकता पर बल दिया। इसके साथ ही पूंजीपतियों और जमींदारों द्वारा आंतरिक वर्ग उत्पीड़न का सवाल भी उठाया। 1925 में पार्टी के औपचारिक गठन की घोषणा के बाद पार्टी के संचालन के लिए विभिन्न जगहों पर कम्युनिस्टों ने श्रमिकों और किसानों को जोड़ना शुरू किया। 1925 से वर्ग संघर्ष और तीव्र हो गया। जैसे-जैसे मजदूरों की ताकत बढ़ती गई, मजदूरों के संघर्ष अधिकाधिक व्यापक, संगठित तथा योजनाबद्ध भी होते गये। 1925 में उत्तर-पश्चिम रेलवे के मजदूर हड़ताल पर चले गये। 1926 के बाद बंबई के कपड़ा मीलों के श्रमिकों के बीच भी कम्युनिस्टों का व्यापक प्रभाव था। बोनस हड़ताल नाम से विख्यात बंबई के टेक्सटाइल मजदूरों का ढाई महीने लम्बा आन्दोलन चला जिसमें 56 हजार मजदूर शामिल हुए थे। 1927 में खड़गपुर रेलवे वर्कशौप में हुई। हड़ताल में कम्युनिस्टों का बहुत बड़ा प्रभाव था। 1928 में मजदूर आन्दोलन में एक नया उभार आया। फरवरी में जिस दिन साइमन कमीशन बंबई पहुँचा वहाँ एक जोरदार प्रदर्शन हुआ। साइमन कमीशन का विरोध करने 20 हजार मजदूर सड़कों पर उतर आए। 

कम्युनिस्टों ने आरंभ से ही ज़मींदारी प्रथा की समाप्ति और भूमि के पुनर्वितरण की मांग को अपने कार्यक्रमों में शामिल कर लिया था। कम्युनिस्ट समूहों के उदय से ब्रिटिश सरकार में खलबली मच गयी। 1917 की बोल्शेविक क्रान्ति ने सारे संसार के शासक वर्गों में भय की लहर व्याप्त कर दी थी। अँग्रेज़ उससे अछूते नहीं थे। अंग्रेजों की होम पोलिटिकल फाइलों में बोल्शेविक खतरे का आतंक स्पष्ट रूप से वर्णित होता था। ब्रिटिश सरकार एम.एन. रॉय और हर भारतीय कम्युनिस्ट के बीच होने वाले पत्राचार पर नजर रख रही थी। सदा की तरह उन्होंने दमन की नीति अपना ली। कम्युनिस्टों के पूरे शीर्ष नेतृत्व को कानपुर षड्यंत्र मामले में फँसाया गया। भाकपा के औपचारिक रूप से गठन होने से पहले ही पेशावर षड्यंत्र के नाम पर 1924 में मुज़फ्फर अहमद, एस.ए. डांगे, शौकत उस्मानी और नलिनी गुप्ता को ‘कानपुर बोल्शेविक कांस्पीरेसी केस के तहत गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। कम्युनिस्टों पर राजद्रोह के आरोप लगाये गये। इस घटना ने मजदूरों को संगठित करने की कम्युनिस्टों की शुरुआती पहलकदमी को बुरी तरह झकझोर दिया। इसके अलावा कम्युनिस्टों ने ऐसा क़दम उठाया जिसे ‘वामपंथी भटकाव कहा जाता है। कम्युनिस्टों ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से नाता तोड़ लिया। कांग्रेस को उन्होंने पूंजीपति वर्ग की पार्टी कहा। कम्युनिस्टों ने नेहरू और बोस जैसे कांग्रेस के वामपंथी नेताओं को ‘राष्ट्रीय आन्दोलन के भीतर पूंजीपतियों का एजेंटतक कहा। इसका नतीजा यह हुआ की कम्युनिस्ट राष्ट्रीय आन्दोलन से अलग-थलग पड़ गए। ब्रितानी सरकार ने इस स्थिति का फ़ायदा उठाया और 1934 में कम्युनिस्ट पार्टी को ग़ैर-क़ानूनी घोषित कर दिया।

कम्युनिस्ट आन्दोलन महा विनाश से बच गया। बहुत से कम्युनिस्टों ने सविनय अवज्ञा आन्दोलन से अपने को अलग रखना नामंजूर कर दिया। वहीँ दूसरी ओर कम्युनिस्ट और समाजवादी विचारों का प्रसार ज़ारी रहा। बहुत से नौजवान जो सविनय अवज्ञा आन्दोलन में भाग ले रहे थे वे उस समय की कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हुए। 1935 में परिस्थिति में बदलाव आया। पी.सी. जोशी के नेतृत्व में कम्युनिस्ट पार्टी का पुनर्गठन हुआ। राष्ट्रीय कांग्रेस के नेतृत्व में चलने वाले राष्ट्रीय आन्दोलन की मुख्य धारा में कम्युनिस्ट कार्यकर्ता शामिल हुए। कम्युनिस्टों ने माना कि जन मोर्चा के काम को कामयाब बनाने में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस बड़ी और अग्रणी भूमिका अदा कर सकती है। कांग्रेस से कम्युनिस्टों ने अपने संबंध सुदृढ़ किए। अपने सदस्यों को इसने कांग्रेस में शामिल होने के लिए कहा। पी.सी. जोशी ने अपने मुख्य पात्र ‘नेशनल फ्रंट’ में लिखा, आज हमारा सबसे बड़ा वर्ग-संघर्ष राष्ट्रीय संग्राम है और कांग्रेस इसका मुख्य अंग है।

उपसंहार

कुछ विद्वानों ने आरोप लगाया है कि कम्युनिस्ट आन्दोलन मास्को से संचालित विदेशी षड्यंत्र था। लेकिन अगर सही विवेचना करें तो हम कह सकते हैं कि भारत में कम्युनिस्टों का उदय राष्ट्रीय आन्दोलन से ही हुआ था। देश के विभिन्न भागों में संघर्षशील निम्न जातियों के आन्दोलनों ने वामपंथी प्रवृत्तियों के उदय में योगदान किया। सहजानंद कांग्रेस समाजवादियों में सम्मिलित हुए और बाद में कम्युनिस्टों के साथ हो गए। सतारा के सत्यशोधक आन्दोलन में भाग लेने वाले नाना पाटिल कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रभावित हुए और महाराष्ट्र में विख्यात किसान नेता हुए। सिंगारवेलु पेरियार के नेतृत्व में तमिलनाडु में असहयोग आन्दोलन किया गया, बाद में उन्होंने तमिल कम्युनिस्ट की स्थापना की। प्रसिद्ध कम्युनिस्ट नेता सुंदरैया और नंबूदरीपाद की जीवनशैली और कामकाजी शैली से जाहिर होता है कि उन पर गांधीजी का असर था। कम्युनिस्टों के साथ कांग्रेस के रिश्तों को समझने के लिए यह उदाहरण काफी है कि ऑल इंडिया स्टुडेंट्स फेडरेशन (एआईएसएफ) का गठन 1936 में पंडित जवाहर लाल नेहरू ने किया था। कम्युनिस्ट विचारधारा ने 1920 के दशक में उभरती हुई नई पीढी में विभिन्न विद्यार्थी और युवा संगठनों को जन्म दिया। वे ‘पूर्ण स्वराज्य के नारे के साथ साम्राज्य विरोधी आन्दोलन चलाया करते थे। वे राष्ट्रवाद को सामाजिक न्याय से जोड़े जाने की वकालत करते थे। वे आंचलिक भावनाओं को प्राथमिकता देते थे। बढ़ते सांप्रदायिक दंगों के अनुभव ने उन्हें यह मानने पर विवश कर दिया था की भारत में धर्म पर अंकुश लगाया जाना चाहिए। भारतीय मजदूरों की बढ़ती साम्राज्यवाद-विरोधी चेतना और राष्ट्रीय राजनीति में उनकी लगातार बढ़ती भागीदारी इस बात को चिह्नित करती है की कम्युनिस्टों ने राष्ट्रीय आन्दोलन को व्यापकता प्रदान की। निष्कर्षत: हम कह सकते हैं कि भारतीय स्वाधीनता संग्राम में साम्यवादियों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका प्रदान की। 

***  ***  ***

मनोज कुमार

पिछली कड़ियां-  राष्ट्रीय आन्दोलन

संदर्भ : यहाँ पर

 

रविवार, 21 दिसंबर 2025

404. कांग्रेस समाजवादी पार्टी

राष्ट्रीय आन्दोलन

404. कांग्रेस समाजवादी पार्टी

प्रवेश

1933 के शुरू होने के साथ-साथ सविनय अवज्ञा आंदोलन समाप्ति की ओर बढ़ रहा था। सविनय अवज्ञा आन्दोलन ने देश के लोगों में एक ऐसी आकांक्षा को जगा दिया था जिसे वह पूरा नहीं कर सका राष्ट्रीय राजनीति में यह अनिश्चय और निराशा का दौर था। कई युवकों को गांधीवादी नेतृत्व और रणनीति से मोह भंग हुआ था। वे समाजवादी विचारधारा से आकर्षित थे। विश्व युद्ध III के बीच भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में समाजवादी विचारधाराओं के विभिन्न स्वरूपों की संवृद्धि हुई जेल में रहते हुए कांग्रेस के भीतर के ही कुछ उत्साही नेता समाजवादी समूह की स्थापना का विचार प्रस्तुत करने लगे जो समूह कांग्रेस के भीतर रहकर ही संगठन को वामपंथ की ओर प्रेरित करता। इसकी परिणति कांग्रेस समाजवादी पार्टी की स्थापना के रूप में हुई। कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का मन्तव्य कांग्रेस से अलग होना नहीं था, अपितु 'इसका उद्देश्य कांग्रेस और राष्ट्रीय आंदोलन को समाजवादी दिशा प्रदान करना था' समाजवादी व्यवस्था में धन-सम्पत्ति का स्वामित्व और वितरण समाज के नियन्त्रण के अधीन रहते हैं। आर्थिक, सामाजिक और वैचारिक स्तर पर समाजवाद निजी सम्पत्ति पर आधारित अधिकारों का विरोध करता है। उसकी एक बुनियादी प्रतिज्ञा यह भी है कि संपत्ति का उत्पादन और वितरण समाज या राज्य के हाथों में होना चाहिए।

कांग्रेस समाजवादी पार्टी की स्थापना

गांधीजी के द्वारा राष्ट्रीय नेतृत्व को अपने हाथ में लेने के साथ ही अधिकांश युवा राष्ट्रीय आन्दोलन में सक्रिय हुए। असहयोग आन्दोलन को वापस लिए जाने से गांधीवादी नेतृत्व और रणनीति से इनका मोहभंग हुआ और समाजवादी विचारधारा की ओर ये आकर्षित हुए। 1920 के दशक के अंतिम दौर में इनमें से अधिकांश लोग युवा आन्दोलन में सक्रिय थे। दूसरे दशक के अंतिम वर्षों और तीसरे दशक के दौरान भारत में शक्तिशाली वामपक्ष का उदय हुआ था। इसमें शामिल युवाओं ने राष्ट्रीय आन्दोलन में मूलगामी परिवर्तन लाया। समाजवाद इन युवकों का मान्य विश्वास था। जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चन्द्र बोस इस विश्वास की प्रेरणा के प्रतीक थे। इन युवाओं ने मार्क्सवादी और समाजवादी विचारों का गहन अध्ययन किया था। ये वैसे तो मार्क्सवाद, कम्युनिज्म और सोवियत संघ के प्रति आकर्षित थे, लेकिन भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की वर्तमान धारा से सहमत नहीं थे। उनमें से अधिकांश किसी विकल्प की तलाश में थे। 1933 में जब सविनय अवज्ञा आन्दोलन को स्थगित किया गया तो जवाहरलाल नेहरू जेल में थे। जेल से अपनी पुत्री को लिखे गए पत्रों के द्वारा नेहरू समाजवादी विचारों के द्वारा अपना बौद्धिक जुझारूपन प्रदर्शित कर रहे थे। इन लेखों और पुस्तकों में, खासकर ‘व्हिदर इंडिया में उन्होंने गांधीजी से अपने सैद्धांतिक मतभेदों को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत किया। उन्होंने राष्ट्रीय लक्ष्यों को जुझारू सामाजिक और आर्थिक कार्यक्रमों के साथ जोड़ने की आवश्यकता पर बल दिया। जेल से छूटने का बाद नेहरू ने कांग्रेस के संविधानवादी रणनीति की आलोचना शुरू कर दी। उनके इस कार्य से समाजवादी विचारधारा को बल मिला। नेहरू ने गांधीजी को लिखा, मुझे ऐसा लगता है कि यदि हम आम जनता की आर्थिक आज़ादी चाहते हैं, तो देश के निहित स्वार्थी तत्त्वों को अपने विशेष पद और विशेषाधिकार छोड़ने होंगे। गांधीजी ने जवाब दिया, मैं आपसे पूरी तरह सहमत हूं। भारत किधर (ह्विदर इंडिया) शीर्षक लेखमाला द्वारा नेहरू ने बताया कि किन ऐतिहासिक कारणों से भारत आज ग़ुलामी और ग़रीबी की बेड़ियों में जकड़ा हुआ है। उनके अनुसार इससे मुक्ति का रास्ता समाजवाद ही है। नेहरू ने कांग्रेस के भीतर समाजवाद की वैचारिक आधार शिला रखी और फिर धीरे-धीरे समाजवादियों ने कांग्रेस के अन्दर ही अपने को पर्याप्त रूप से संगठित कर लिया था। हालाकि गांधीजी ने कहा था, नेहरू के कम्युनिस्ट विचारों से किसी को डरने ज़रुरत नहीं है, फिरभी अँग्रेज़ अधिकारियों ने नेहरू को ‘कम्युनिज्म का पुरोधा मानकर फिर से जेल भेज दियाभारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की वर्तमान धारा से असहमत और किसी विकल्प की तलाश कर रहे नासिक जेल में बंद कांग्रेस के कुछ नेता 1933 की दूसरी छमाही के दौरान आपस में मिले। ये थे जयप्रकाश नारायण, एम.आर. मसानी, अच्यूत पटवर्धन. एन.जी. गोरे, अशोक मेहता, चार्ल्स मैकर्नहास, यूसुफ़ मेहर अली, आदि इन्होंने एक स्पष्ट उत्साही समाजवादी समूह की स्थापना का विचार रखा। इस तरह कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के गठन का मसविदा तैयार किया गया। इसका मक़सद था कांग्रेस के भीतर ही रहकर संगठन को वामपंथ की ओर प्रेरित करना था। संपूर्णानंद ने अप्रैल 1934 में भारत के लिए एक कामचलाऊ कार्यक्रम की रूप रेखा तैयार की थी। 17 मई 1934 को नरेन्द्रदेव के सभापतित्व में पटना के अंजुमन-ए-इसलामिया हॉल की एक सभा में ‘कांग्रेस समाजवादी पार्टी’ (सी.एस.पी.) की स्थापना हो गई। इसकी स्थापना में जयप्रकाश नारायण, अच्युत पटवर्धन, अशोक मेहता, एस.एम. जोशी, यूसुफ़ मेहर अली, मीनू मसानी आदि ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई जवहरलाल नेहरू से इसका स्वागत किया लेकिन वे कभी औपचारिक रूप से सी.एस.पी. में शामिल नहीं हुए। समाजवादियों का कांग्रेस पर इतना ज़्यादा प्रभाव बढ़ा कि जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेन्द्र देव और अच्युत पटवर्धन को कांग्रेस कार्य-कारिणी का सदस्य मनोनीत किया गया। यह पार्टी कांग्रेस के भीतर ही रहना चाहती थे, लेकिन उसके नेतृत्व की कड़ी आलोचक थी। यह पार्टी गैर-कांग्रेसी वामपंथी समूहों के साथ सहयोग के लिए तैयार थी। सी.एस.पी. ने शुरू से ही अपने को कांग्रेस को रूपांतरित करने और साथ ही इसको मज़बूत करने के काम में लगाया

समाजवाद क्यों

सी.एस.पी. का गठन इस उद्देश्य से किया गया था कि देश की आर्थिक विकास की प्रक्रिया राज्य द्वारा नियोजित एवं नियंत्रित हो और राजाओं और ज़मींदारों का उन्मूलन बगैर मुआवजे के किया जाए। इस पार्टी के गठन के बाद कांग्रेस के चरित्र में आमूल-चूल परिवर्तन की प्रक्रिया ने ज़ोर पकड़ी। यह सही मायनों में कांग्रेस को जनसंगठन बनाने की प्रक्रिया थी। समाजवादी भारत में आधारभूत संघर्ष चाहते थे, स्वतंत्रता के लिए राष्ट्रीय संघर्ष पर एक जुट थे और समाजवाद तक पहुँचने के लिए उनके अनुसार राष्ट्रवाद आवश्यक अवस्था थी। वे मानते थे कि राष्ट्रीय आन्दोलन से कट जाना आत्मघाती क़दम होगा। उनके अनुसार कांग्रेस ही राष्ट्रीय आन्दोलन का प्रतिनिधित्व करती है। लेकिन उनकी चाहत थी कि कांग्रेस और राष्ट्रीय आन्दोलन को हर हालत में समाजवादी दिशा में ले जाना होगा। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए वे मानते थे कि मज़दूरों और किसानों को संगठित करना चाहिए। उनको राष्ट्रीय संघर्ष की बुनियाद बनाना चाहिए। सोशलिस्ट गांधीजी की बातचीत और समझौता की नीति के ख़िलाफ़ थे। वे ‘सतत संघर्ष’ के समर्थक थे। उन्हें ज़रूरत पड़ने पर हिंसक संघर्ष से कोई एतराज़ नहीं था। वे समाज के वर्गीय चरित्र को बार उजागर करते थे। वे समाजवादी और लोकतांत्रिक राष्ट्र का निर्माण करना चाहते थे जहां आय का समता वादी वितरण हो। समाजवादी विचारधारा के प्रचार-प्रसार में जयप्रकाश नारायण की पुस्तक समाजवाद क्यों? (ह्वाई सोशलिज़्म?) ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। जयप्रकाश नारायण चाहते थे कि कांग्रेस समाजवादी दृष्टि अपनाए और आर्थिक मुद्दों पर कांग्रेस का रुख किसानों और मज़दूरों के पक्ष में होना चाहिए। सांगठनिक क्षेत्र में भी वे कांग्रेस के अन्दर के साम्राज्यवाद विरोधी तत्त्वों को उसके तत्कालीन पूंजीवादी नेतृत्व से अलग करना चाहते थे और उन्हें क्रांतिकारी समाजवाद वाले नेतृत्व के अंतर्गत लाना चाहते थे। जल्द ही समाजवादियों को यह समझ में आ गया कि सांगठनिक स्तर पर जो परिवर्तन वे चाहते हैं वह संभव नहीं है। उन्होंने जल्द ही इस विचार को त्याग दिया। उन्होंने संयुक्त नेतृत्व का विकल्प अपनाया। इसका उन्हें 1939 में त्रिपुरा में और 1940 में रामगढ़ में सफलता भी मिली। जयप्रकाश नारायण ने कहा भी था, हम समाजवादी लोग नहीं चाहते कि कांग्रेस में गुटबाजी हो। हमारी चिंता का विषय कांग्रेस की नीतियाँ और कार्यक्रम मात्र हैं। साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष में हम सब कंधे से कंधा मिलाकर आगे बढ़ाना चाहते हैं। समय के साथ गांधीवादी विचारों का उदारवादी लोकतांत्रिक पक्ष समाजवादी पार्टी की सोच का आधारभूत तत्त्व बन गया। उस समय की वास्तविक स्थिति यह थी कि गांधीजी का कोई विकल्प भी नहीं था। इसलिए सी.एस.पी. ने कांग्रेस के नेतृत्व से इतना अधिक मतभेद नहीं बढाया कि वह टूटने के बिंदु तक पहुँच जाए।

सी.एस.पी. की प्रगति

संयुक्त प्रांत जैसे प्रान्तों में सी.एस.पी. की त्वरित प्रगति हुई। सुमित सरकार का मानना है कि ‘सी.एस.पी. के विस्तार के कारण कांग्रेसी कार्यकर्ता इस बात के लिए बाध्य हुए कि जुझारू कृषि सुधारों के मुद्दों, औद्योगिक मज़दूरों की समस्याओं, रजवाड़ों के भविष्य और जन-जागृति एवं संघर्ष के गैर-गांधीवादी तरीकों के प्रश्नों पर विचार करें।’ सी.एस.पी. के कार्यकर्ताओं ने बिहार और आंध्र के किसान सभा के आन्दोलन से घनिष्ठ संबंध बनाया। 33-34 में आंध्र के तटीय इलाकों में अनेक किसान यात्राओं का आयोजन किया गया। ज़मींदारी प्रथा के उन्मूलन की मांग की गयी। सी.एस.पी. के एन.जी. रंगा ने किसान कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण के लिए नीदुब्रोलु में एक ‘इन्डियन पेजेंट इंस्टीच्यूट की स्थापना की। वामपंथी झुकाव वाले राष्ट्रवादियों, समाजवादियों और कम्युनिस्टों के बीच एकता की नई संभावना अखिल भारतीय किसान सभा के गठन के रूप में अभिव्यक्त हुई। सहजानंद ने किसान सभा को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया और जल्द ही बिहार में बड़ी संख्या में किसानों को अपने साथ लाने में सफल रहे। सी.एस.पी. और कांग्रेस के भीतर काम करके कम्युनिस्ट वामपंथी रुझानवाले राष्ट्रवादियों के साथ अधिकाधिक संपर्क कर रहे थे1936 में जेल से छूटने के बाद एम.एन. राय भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गए। कुछ रायवादी जैसे चार्ल्स मैकर्नहॉस कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हो गए। लेकिन रायवादियों का समाजवादी पार्टी से बहुत से विषयों पर मतभेद बना रहा। बाद के दिनों में दोनों गुटों के मतभेद बढ़ता गया। 1940 में रायवादी इससे अलग होकर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल होने का फैसला किया। कांग्रेस से मतभेद होने और अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने के बाद सुभाष चंद्र बोस ने ‘फॉरवर्ड ब्लॉक’ की स्थापना की।

उपसंहार

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, कांग्रेस समाजवादी पार्टी, जवाहरलाल नेहरू, सुभाष चंद्र बोस और अन्य वामपंथी गुट एक आम राजनीतिक कार्यक्रम में भागीदार थे। विचारधारा के स्तर पर मतभेद के बावजूद इन लोगों ने साथ-साथ काम किया। इन लोगों ने भारतीय राजनीति में समाजवाद को ताक़तवर बनाया। इन्होंने साम्राज्यवाद का विरोध किया। किसान सभाओं और ट्रेड यूनियनों के रूप में मज़दूरों और किसानों को संगठित किया। चौथे दशक के मध्य तक सी.एस.पी. एक ऐसे सेतु के रूप में काम करती रही जिससे होकर जुझारू राष्ट्रवादी कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्ण मार्क्सवादी मार्ग पर जाते रहे। सी.एस.पी. ने समाजवादी समाज की स्वीकृति दिलाई। समाज को रूपांतरित करने के मक़सद से समाजवादी कार्यक्रम अपनाया। उपनिवेशवाद विरोधी और युद्ध विरोधी विदेश नीति अपनाई।

***  ***  ***

मनोज कुमार

पिछली कड़ियां-  राष्ट्रीय आन्दोलन

संदर्भ : यहाँ पर