सोमवार, 8 दिसंबर 2025

392. गाँधी बनाम जिन्ना

राष्ट्रीय आन्दोलन

392. गाँधी बनाम जिन्ना



1937

1931 की गोलमेज परिषद के भारतीय प्रतिनिधि जब समस्या का कोई सर्वसम्मत हल न निकाल पाए तो ब्रिटिश सरकार ने 1937 में सांप्रदायिक निर्णय का अपना हल उनपर थोप दिया। इसके द्वारा मुस्लिम नेताओं की सभी मुख्य माँगे स्वीकार कर ली गईं। इसमें सांप्रदायिक मताधिकार (पृथक निर्वाचन) का समावेश था। अगले वर्षों की घटनाओं ने सिद्ध कर दिया कि इससे सांप्रदायिक विवाद अधिकाधिक उग्र और विषम ही होता चला गया। हिन्दू-मुस्लिम समस्या और पाकिस्तान के उद्भव को समझने के लिए जिन्ना के व्यक्तित्व और उसकी नीतियों के ठीक से समझना होगा। हिन्दू-मुस्लिम विरोध का इस तरह उभरना शायद स्वाभाविक और अवश्यंभावी ही था। यह 'उत्तराधिकार की लडाई' थी। सांप्रदायिक समस्या ने भारतीय राजनीति को जैसा गलत मोड दिया और उसके जो अनिष्टकारी परिणाम हुए, उसका मुख्य कारण कायदे आजम जिन्ना ही था।

मुहम्मद अली जिन्ना गांधीजी से उम्र में छः साल छोटा था। गांधीजी की तरह उसने भी विलायत में कानून का अध्ययन किया था। उसकी रुचि मुख्यतः राजनीति में ही थी। वह दादाभाई नौरोजी के व्यक्तित्व से प्रभावित और प्रेरित होकर राजनीति में आया था। बंबई में वकालत और राजनैतिक कार्य करने लगा था। 1916 की लखनऊ कांग्रेस में लीग और कांग्रेस के बीच समझौता उसी के प्रयत्नों का सुफल था। उन दिनों जिन्ना सारे देश में 'हिन्दू- मुस्लिम-एकता के मसीहा' के नाम से पुकारे जाता था।

असेंबली के सदस्य की हैसियत से और उसके बाहर भी जिन्ना सदैव राष्ट्रीयता का समर्थन करता था। वह होमरूल आंदोलन में भी शरीक हुआ था। 1919 में उसने रॉलेट बिल का विरोध किया था। पर वह गांधीजी के खिलाफत आंदोलन में शरीक नहीं हुआ। असल में कांग्रेस में जैसे ही गांधीजी का वर्चस्व और प्रभाव बढा वह उससे अलग हो गया। जन-आंदोलन से वह अपने को हमेशा दूर रखता था। जब गांधीजी ने जन-आंदोलन शुरू किया और उसमें शहर और गाँवों के लाखों अनपढ़ लोग हिस्सा लेने लगे तो जिन्ना ने कहा था, “मैं तो इसके नतीजे की बात सोचकर ही काँप उठता हूँ—तबाही में अब कसर ही क्या रह गई है?”

जिन्ना को गांधीजी की राजनीति से ही नहीं, उनकी धार्मिकता, आत्म-निरीक्षण, विनम्रता, अपनी मर्जी से अपनाई हुई गरीबी, सत्य और अहिंसा से भी बडी चिढ थी। वह इस सबको गांधीजी की राजनैतिक चाल और पाखंड कहकर दुर-दुराया करता था। उसे गांधीजी से यह शिकायत भी थी कि उन्होंने राजनीति में प्रवेश कर उसे (जिन्ना को) अनुचित उपायों से प्रमुख स्थान से परे ढकेल दिया। 1916 में जो जिन्ना मुल्क की बडी हस्तियों में से एक था; 1920 तक, उसका प्रभाव एकदम खत्म हो गया। इसका प्रमुख कारण यह था कि गांधीजी के व्यक्तित्व और नीतियों के कारण जन-सामान्य का प्रबल प्रवाह राजनीति में उमड पडा था और उसमें केवल जनता के सच्चे नेता ही टिक सकते थे।

1920 के बाद के वर्षों में जिन्ना सेंट्रल असेंबली में एक स्वतंत्र दल के नेता की हैसियत से सरकार और कांग्रेस के बीच संतुलनकारी शक्ति बन गया था। हिन्दू-मुस्लिम एकता की बातें वह ज़रूर करता था, लेकिन सरकार हो या कांग्रेस, जो भी उससे सहयोग माँगता, उससे कडी कीमत वसूला करता था। नेहरू-रिपोर्ट में सांप्रदायिक समस्या का जो हल सुझाया गया था, उसका उसने ज़बरदस्त विरोध किया। 1933-34 के गांधीजी के सविनय अवज्ञा आंदोलन की उसने मुखालफत की। गोलमेज परिषद् में वह भी एक सदस्य था, परंतु वहाँ भी वह अपनी ढपली अलग ही बजाते रहता था। गोलमेज परिषद् के बाद उसने भारतीय राजनीति को नमस्कार किया और इंग्लैंड में ही बस गया। लेकिन जैसे ही नए विधान के अंतर्गत आम चुनाव का समय आया, वह भारत लौट आया और चुनाव में उसने मुस्लिम लीग का मार्ग-दर्शन किया। लीग को उस चुनाव में मुसलमानों के पाँच प्रतिशत से ज्यादा मत नहीं मिले, लेकिन इस करारी हार के बावजूद जिन्ना ने अगले चार वर्षों में अपनी स्थिति को ऐसा मजबूत कर लिया कि भारत की संवैधानिक प्रगति की कोई बात उनकी रज़ामंदी के बगैर की ही नहीं जा सकती थी।

1937 में कई प्रांतों में बहुमत से जीतने के बाद जब गांधीजी ने कांग्रेस को पद-ग्रहण का आशीर्वाद दे दिया तो कांग्रेसजनों ने फैसला किया कि वह कहीं भी संयुक्त मंत्रिमंडल नहीं बनाएंगे। कांग्रेस ने मुस्लिम कौंसिलरों को भी अपने मंत्रिमंडल में लिया, लेकिन तभी जब उन्होंने कांग्रेस के प्रतिज्ञापत्र पर दस्तखत कर दिए। इसने मुस्लिम लीग और खासतौर पर जिन्ना को बहुत नाराज़ कर दिया। जिस पृथक निर्वाचन पर उसने इतनी आशाएं लगा रखी थीं, वह एक तरह से बेकार ही हुआ। न तो मुसलमान कांग्रेस में शरीक हो सके और न उन्हें शासन में मनचाहा हिस्सा ही मिला। जिन्ना की झुंझलाहट का कोई पार न रहा। वह क्रोधावेश में एक के बाद एक ऐसे काम करता गया कि हिन्दू -मुस्लिम संकट अपने चरम बिंदु को पहुँच गया। कांग्रेस के खिलाफ मुसलमानों की झूठी-सच्ची शिकायतों का उसने ढेर लगाना शुरू कर दिया। गांधीजी को जिन्ना अपना दुश्मन मानने लगा। गांधीजी डिक्टेटर हैं। कांग्रेस की नकेल गांधीजी के हाथ में है। सेगांव में अभी उजाला ही नहीं हुआ।गांधी हिन्दू राज्य में मुसलमानों को गुलाम ही नहीं बना रहा, उनका खात्मा भी कर रहा है। आदि-आदि वाक-बाण वह गाँधीजी पर चलाने लगा।

धीरे-धीरे कांग्रेस के मुकाबले लीग का रुख और भी सख्त होता गया। लखनऊ में हुई मुस्लिम लीग कॉन्फ्रेंस में जिन्ना ने 15 अक्टूबर, 1937 को घोषणा की: कांग्रेस की मौजूदा लीडरशिप... भारत के मुसलमानों को ऐसी पॉलिसी अपनाकर और ज़्यादा दूर करने के लिए ज़िम्मेदार रही है जो पूरी तरह से हिंदू है, और चूंकि उन्होंने छह प्रांतों में सरकारें बनाई हैं जहाँ वे बहुमत में हैं, उन्होंने अपने शब्दों, कामों और प्रोग्रामों से यह दिखा दिया है कि मुसलमान उनके हाथों से किसी भी न्याय या निष्पक्षता की उम्मीद नहीं कर सकते। जहाँ भी वे बहुमत में थे और जहाँ भी उन्हें सूट किया, उन्होंने मुस्लिम लीग पार्टियों के साथ सहयोग करने से इनकार कर दिया और बिना शर्त आत्मसमर्पण और उनके वादों पर साइन करने की मांग की। ... हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा होगी और वंदे मातरम राष्ट्रगान होगा और इसे सभी पर थोपा जाएगा। ... थोड़ी सी भी शक्ति और ज़िम्मेदारी मिलते ही, बहुसंख्यक समुदाय ने साफ दिखा दिया है कि हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं के लिए है।

लखनऊ के समारोह के ठीक बाद गांधीजी ने जिन्ना को पत्र लिखा, मैंने सावधानीपूर्वक आपका भाषण पढ़ा ... जैसा कि मैंने इसे पढ़ा, यह जंग के ऐलान की तरह लगा। मुझे उम्मीद थी कि आप हम दोनों के बीच मुझे एक पुल की तरह इस्तेमाल करेंगे। मुझे लगता है कि आपको किसी पुल की ज़रूरत नहीं है। मुझे अफ़सोस है।

जिन्ना ने जवाब दिया कि हालांकि उन्हें पता था कि गांधीजी कांग्रेस के चार-आना सदस्य भी नहीं थे, लेकिन "इन सभी महीनों" की उनकी पूरी चुप्पी ने उन्हें कांग्रेस नेतृत्व के साथ जोड़ दिया था। जिन्ना ने जवाब देते हुए लिखा, मुझे अफसोस है कि आप मेरी लखनऊ की तकरीर को जंग का ऐलान मानते हैं। यह तो सिर्फ आत्मरक्षा है।

गांधीजी ने जवाब दिया, ऐसा लगता है कि आप इस बात का खंडन कर रहे है कि आपका भाषण जंग का ऐलान नहीं था, लेकिन आपकी राष्ट्रवाद की घोषणाएँ भी इस पहली धारणा की पुष्टि करते हैं। आपके भाषण में मुझे वह पुराना राष्ट्रवादी रूप नहीं दिखता ... क्या अभी भी वही मिस्टर जिन्ना हैं? जिन्ना ने अपनी भड़ास निकलते हुए जवाब दिया, साफ लग रहा है, आपको पता नहीं है कि कांग्रेसी अखबार क्या कर रहे हैं ... रोज़ मेरे ख़िलाफ़ जितना दुष्प्रचार, मेरा चरित्र हनन, मुझे ग़लत ढंग से उद्धृत किया जा रहा है उससे आप वाकिफ़ नहीं हैं ... अन्यथा मैं निश्चित रूप से मनाता हूँ कि आप मुझे दोष नहीं देते। आप कहते हैं कि मेरे भाषण में आपको मेरा पुराना राष्ट्रवादी रूप नहीं दिखता. ... मैं वह सब कहना पसंद नहीं करूँगा कि लोग 1915 में आपके बारे में क्या कहते थे और आज भी वे क्या सोचते और कहते हैं।

इस पत्र-व्यवहार के बाद गांधीजी ने जिन्ना से व्यक्तिगत तौर पर मिलने की इच्छा ज़ाहिर करते हुए कहा, क्या आप वर्धा आ सकते है? जिन्ना ने जवाब दिया मेरा वहां जाना सूट नहीं करेगा। गांधीजी ने कहा, ठीक है मैं आज़ाद के साथ मुंबई में आपसे मिलता हूँ।  जिन्ना ने कहा मैं आपसे अकेले में मिलना पसंद करूँगा। लेकिन गांधीजी कांग्रेस के किसी पदाधिकारी के साथ जिन्ना से मिलाना चाहते थे। नेहरू की जगह अध्यक्ष बने सुभाष चन्द्र बोस के नाम पर जिन्ना सहमत हुआ। कांग्रेस लीग के साथ गठबंधन करना चाहती थी, लेकिन बातचीत असफल रही। जिन्ना ने गांधीजी को पत्र लिख कर कहा, हम इस स्थिति में पहुँच गए हैं जिसमें आपको यह मानने में संदेह नहीं होना चाहिए कि मुस्लिम लीग हिन्दुस्तानी मुसलमानों की प्रतिनिधि है, जबकि आप खुद कांग्रेस और देश के दूसरे हिन्दुओं के प्रतिनिधि हैं। हम सिर्फ इसी आधार पर आगे की ओर बढ़ सकते हैं ... । जिन्ना की यह मांग अनुचित थी। लीग उस समय सारे मुसलमानों का प्रतिनिधित्व नहीं करती थी। कांग्रेस को काफी मुसलमानों का समर्थन हासिल था।

भारतीयों के पदभार ग्रहण करने के नकारात्मक एवं परस्पर विरोधी पक्षों के प्रकट होने में भी देर नहीं लगी। कांग्रेस के विरोधाभास स्पष्ट थे। 1935 के संविधान की कभी उसने कड़ी आलोचना की थी, लेकिन आज उसी के अंतर्गत कार्य कर रही थी। जिसकी शक्तियां सरकारी आरक्षणों एवं रक्षक उपायों के साथ ही सीमित संसाधनों के कारण सीमित थीं, और जिसे ऐसी सिविल सेवा और पुलिस के माध्यम से अपने निर्णय लागू करने पड़ते थे जिनके साथ उसके संबंध लंबे समय तक अत्यंत वैमनस्यपूर्ण रहे थे। इसके अलावा अचानक सत्ता और संरक्षण हाथ में आ जाने से जुड़ी आम बुराइयां जैसे अवसरवादिता एवं गुटबंदी-जन्य झगड़े, उत्पन्न होने लगे थे। सबसे गंभीर समस्या थी विभिन्न समुदायों और वर्गों के हितों के बीच संतुलन स्थापित करने की। कांग्रेस के लिए यह असंभव था कि वह हिंदुओं और मुसलमानों, जमींदारों और काश्तकारों और उद्योगपतियों और मज़दूरों को एक साथ ख़ुश रख सके।

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मनोज कुमार

पिछली कड़ियां-  राष्ट्रीय आन्दोलन

संदर्भ : यहाँ पर

 

रविवार, 7 दिसंबर 2025

391. जुलाई में कांग्रेस का पद ग्रहण

राष्ट्रीय आन्दोलन

391. जुलाई में कांग्रेस का पद ग्रहण

1937

1937 की जुलाई में बंबई, संयुक्त प्रांत, बिहार, मध्य प्रांत, उडीसा और मद्रास—इन छः प्रांतों में कांग्रेसी मंत्रिमंडलों का बनना देश के लिए एक महत्त्वपूर्ण घटना थी। जो राजनैतिक दल ब्रिटिश साम्राज्य को समाप्त करने के लिए प्रतिबद्ध था, वह छः सूबों में शासन करने को राज़ी हो गया था। सरकार की कृपा से बंगाल में फजलुल हक़ के नेतृत्व में और पंजाब में सिकन्दर हयात ख़ान के नेतृत्व में तथा अन्य जगहों में भी सरकार की मदद से अस्थाई सरकारें बनीं। जुलाई 1937 में उत्तरप्रदेश, बिहार, उड़ीसा, मध्य प्रांत, बंबई और मद्रास में तथा बाद में आठ गैर-कांग्रेसी सदस्यों के एक ग्रुप के कांग्रेस के साथ सहयोग करने से कांग्रेस को वहाँ पूरी बहुमत मिल गया, जिससे पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत में कांग्रेस सरकार बनी। इस तरह ग्यारह में से सात प्रांतों में कांग्रेस सरकारें बनीं। सितंबर 1938 में असम में भी कांग्रेस की सरकार बनी। बंगाल में कांग्रेस विधायिका में सबसे बड़ी सिंगल पार्टी थी, लेकिन क्योंकि वह बहुमत में नहीं थी, इसलिए वह सरकार में शामिल नहीं हुई। कांग्रेस ने लीग का सहयोग नहीं लिया। इन दोनों दलों में कटुता बढ़ती गई। विधानसभाओं का कार्यारंभ ‘वंदे मातरम्‌’ गान के साथ हुआ। जिस राष्ट्रीय झंडे के लिए लाखों लोगों ने लाठी-गोलियां खाई थीं, वह अब सार्वजनिक भवनों पर गर्व से लहरा रहा था।

विभिन्न प्रान्तों की सरकार की गतिविधियों को निर्देशित और समन्वय करने और यह पक्का करने के लिए कि कांग्रेस के प्रांतीयकरण की ब्रिटिश उम्मीदें पूरी न हों, एक सेंट्रल कंट्रोल बोर्ड बनाया गया जिसे पार्लियामेंट्री सब-कमेटी के नाम से जाना जाता था, जिसके सदस्य सरदार पटेल, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद और राजेंद्र प्रसाद थे। इस तरह एक नया प्रयोग शुरू हुआ - एक ऐसी पार्टी जो ब्रिटिश शासन को खत्म करने के लिए संकल्पित थी, उसने एक ऐसे संविधान के तहत प्रशासन की बागडोर संभाली जो अंग्रेजों ने बनाया था और जिसने भारतीयों को केवल आंशिक राज्य शक्ति दी थी; यह शक्ति भी जब चाहे तब साम्राज्यवादी शक्ति भारतीयों से छीन सकती थी।

कांग्रेस को अब प्रांतों में सरकार के तौर पर और सेंट्रल गवर्नमेंट के सामने विपक्ष के तौर पर काम करना था। उसे प्रांतों में विधायिका और प्रशासन के ज़रिए सामाजिक सुधार लाने थे और साथ ही आज़ादी के लिए संघर्ष जारी रखना था और लोगों को जन संघर्ष के अगले चरण के लिए तैयार करना था। इस तरह कांग्रेस को इस अनोखी स्थिति में अपनी संघर्ष-समझौता-संघर्ष (S-T-S) की रणनीति को लागू करना था। जैसा कि गांधीजी ने 7 अगस्त 1937 को हरिजन में ऑफिस स्वीकार करने के बारे में लिखा था: 'ये ऑफिस हल्के ढंग से संभालने हैं, कसकर नहीं। ये कांटों के ताज हैं या होने चाहिए, कभी भी नाम और शोहरत के नहीं। ऑफिस इसलिए लिए गए हैं ताकि यह देखा जा सके कि क्या वे हमें अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने की गति को तेज़ करने में मदद करते हैं।'

कांग्रेस द्वारा मंत्रालयों के गठन से देश का पूरा मनोवैज्ञानिक माहौल बदल गया। लोगों को ऐसा लगा जैसे वे जीत और जनता की शक्ति की हवा में सांस ले रहे हों, क्योंकि यह कोई छोटी उपलब्धि नहीं थी कि खादी पहने हुए पुरुष और महिलाएं जो कुछ ही दिन पहले तक जेल में थे, अब सचिवालय में शासन कर रहे थे और जो अधिकारी कांग्रेसियों को जेल में डालने के आदी थे, वे अब उनसे आदेश ले रहे थे? कांग्रेस की प्रतिष्ठा में बहुत ज़्यादा बढ़ोतरी हुई, क्योंकि वह एक वैकल्पिक शक्ति के रूप में लोगों, खासकर किसानों के हितों की देखभाल करती थी। साथ ही, कांग्रेस को यह दिखाने का मौका मिला कि वह न केवल लोगों को बड़े पैमाने पर संघर्षों में नेतृत्व दे सकती है, बल्कि राज्य शक्ति का इस्तेमाल उनके फायदे के लिए भी कर सकती है। कांग्रेस मंत्रियों ने सादा जीवन जीने की मिसाल पेश की। उन्होंने अपनी तनख्वाह 2000 रुपये से घटाकर 500 रुपये प्रति महीना कर दी। वे आम लोगों के लिए आसानी से उपलब्ध थे। और बहुत कम समय में, उन्होंने बहुत सारे सुधार वाले कानून पास किए, और कांग्रेस के चुनाव घोषणापत्र में किए गए कई वादों को पूरा करने की कोशिश की।

कांग्रेस मंत्रालयों ने शुरू में साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन के सभी वर्गों को बड़ा प्रोत्साहन दिया। कांग्रेस की सदस्यता 1936 में पांच लाख से बढ़कर 1937 में 3.1 मिलियन और 1938 में 4.5 मिलियन हो गई। वामपंथी झुकाव वाले छात्र, मजदूर और किसान आंदोलन और संगठन आगे बढ़े, और लोकप्रिय मंत्रालयों की स्थापना ने जल्द ही बड़ी संख्या में रियासतों में एक बड़े निरंकुशता विरोधी और सामंतवाद विरोधी विद्रोह को बढ़ावा दिया। सत्ता और संरक्षण तक अचानक पहुंच ने कांग्रेस के भीतर अवसरवादी पद-लोलुपता और गुटीय झगड़ों की सामान्य बुराइयों को जन्म दिया। सबसे गंभीर समस्या समुदायों और वर्गों के विभिन्न हितों को संतुलित करना था। अपने राष्ट्रीय और बहु-वर्गीय आदर्शों के बावजूद, कांग्रेस को एक सत्तारूढ़ पार्टी के तौर पर हिंदुओं और मुसलमानों, ज़मींदारों और किसानों, या व्यापारियों और मज़दूरों को एक ही समय में खुश रखना लगभग नामुमकिन लगा।

कांग्रेस के प्रतिनिधि सत्ता में आए जो ब्रिटिश गवर्नर की देखरेख में काम करते थे। वृहद बंबई प्रांत (गुजरात और महाराष्ट्र) के मुख्यमंत्री बने बालासाहब खेरवृहद मद्रास (तमिलनाडू और अधिकांश आन्ध्र प्रदेश) के मुख्यमंत्री हुए चक्रवर्ती राजगोपालाचारीसंयुक्त विशाल बंगाल (बंगलादेश और पश्चिम बंगाल) का नेतृत्व प्रफुल्ल चंद्र बोस ने संभाला। उत्कल (उड़ीसा) के मुख्यमंत्री बने हरेकृष्ण मेहताबबिहार के मुख्यंत्री का दायित्व श्रीकृष्ण सिन्हा ने संभाला। संयुक्त प्रांत (उत्तर प्रदेश) के मुख्यमंत्री बने गोविंद वल्लभ पंतसीमा प्रांत के मुख्यमंत्री बने डॉ. ख़ान साहब (सरहद गांधी के बड़े भाई)। इन मुख्यमंत्रियों ने बड़ी ईमानदारी राजकाज चलाया। मज़दूरों और किसानों की सुरक्षा के लिए क़ानून बनाए गए। क़र्ज़ माफ़ किया गया। लगान की दर कम की गई। दलितों की स्थिति सुधारने के प्रयास किए गए। नशाखोरी बंद करने की दिशा में काम हुआ। हज़ारों राजनीतिक बंदियों को जेल से रिहा किया गया। प्रतिबंधित राजनीतिक संस्थाओं पर पाबंदी हटा ली गई। समाचारपत्रों पर से भी पाबंदी हटा ली गई। कांग्रेस प्रांतों और बंगाल और पंजाब के गैर-कांग्रेसी प्रांतों के बीच सबसे बड़ा अंतर इसी क्षेत्र में साफ दिखाई देता था। बाद वाले प्रांतों में, खासकर बंगाल में, नागरिक स्वतंत्रता पर लगातार रोक लगाई जाती रही और क्रांतिकारी कैदियों और बंदियों को, जिन्हें सालों तक बिना ट्रायल के जेल में रखा गया था, कैदियों की बार-बार भूख हड़तालों और उनकी रिहाई की मांग करने वाले लोकप्रिय आंदोलनों के बावजूद रिहा नहीं किया गया।

जवाहरलाल नेहरू ने कहा, "पद स्वीकार करने का मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि हम गुलाम संविधान को स्वीकार कर रहे हैं। इसका मतलब है कि हम अपनी पूरी ताकत से, विधानसभाओं के अंदर और बाहर, फेडरेशन के आने का विरोध करेंगे। हमने एक नया कदम उठाया है जिसमें नई जिम्मेदारियां और कुछ जोखिम शामिल हैं। लेकिन अगर हम अपने मकसद के प्रति सच्चे हैं और हमेशा सतर्क रहते हैं, तो हम इन जोखिमों से पार पा लेंगे और इस कदम से भी ताकत और शक्ति हासिल करेंगे। हमेशा सतर्क रहना ही आज़ादी की कीमत है।"

एक संकट फरवरी 1938 में आया, जब यू.पी. में गोविंदबल्लभ पंत और बिहार में श्रीकृष्ण सिन्हा की मिनिस्ट्री ने कुछ समय के लिए इस्तीफा दे दिया क्योंकि गवर्नरों ने सभी पॉलिटिकल कैदियों को तुरंत रिहा करने की इजाज़त देने से मना कर दिया था। कुछ दिनों बाद इस्तीफे वापस ले लिए गए, जिसमें गवर्नरों ने तुरंत और पूरी रिहाई के बजाय व्यक्तिगत रिहाई के सिद्धांत को बनाए रखा।

जिस पृथक निर्वाचन पर जिन्ना ने इतनी आशाएं लगा रखी थीं, वह एक तरह से बेकार ही साबित हुआ। न तो मुसलमान कांग्रेस में शरीक हो सके, और न उन्हें शासन में मनचाहा हिस्सा मिला जिन्ना की झुंझलाहट का कोई पार न रहा। मुंबई और संयुक्त प्रान्त में साझीदारी के सवाल पर उसने कांग्रेस से बात-चीत भी की। कांग्रेस की तरफ से यह प्रस्ताव आया था कि लीग के विधायक मंत्री बनने से पहले कांग्रेस में आ जाएँ। चुनावों के दौरान यू.पी. में कांग्रेस-लीग संबंध काफी दोस्ताना थे, क्योंकि दोनों नेशनल एग्रीकल्चरिस्ट पार्टी से लड़ रहे थे। यू.पी. विधान सभा में मुस्लिम सीटों पर मुख्य रूप से मुस्लिम लीग, नेशनल एग्रीकल्चरिस्ट पार्टी और निर्दलीय उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा था। कांग्रेस ने सिर्फ़ नाममात्र की मौजूदगी दर्ज कराई थी और कोई सीट नहीं जीती थी। इसके बजाय, उसने मुस्लिम लीग के उम्मीदवारों का समर्थन किया था, और दोनों पार्टियों ने मुस्लिम निर्वाचन क्षेत्रों में मिलकर प्रचार किया था। चुनाव प्रचार के दौरान जिन्ना का लहजा भी सुलह वाला था। बाद में, एक उपचुनाव में, कांग्रेस के रफी ​​अहमद किदवई मुस्लिम लीग के समर्थन से विधान सभा में चुने गए थे। अखिल भारतीय स्तर पर भी, लीग के चुनाव घोषणापत्र ने 1935 के अधिनियम के प्रति कांग्रेस के समान ही आलोचनात्मक रुख अपनाया था, और लखनऊ समझौते (1916) के सिद्धांतों के आधार पर सहयोग की कल्पना की थी।

चुनावों के बाद, जब लीग को असेंबली में 66 मुस्लिम सीटों में से 29 सीटें मिलीं, तो राजनीतिक हलकों में उम्मीदें बढ़ गईं कि दोनों पार्टियां सरकार में भी सहयोग करेंगी। इसी मकसद से खलीकुज्जमां 12 मई को इलाहाबाद में जवाहरलाल नेहरू से मिले। नेहरू ने प्रस्ताव दिया कि मुस्लिम लीग के विधायक कांग्रेस पार्टी में शामिल हो जाएं, क्योंकि विधानमंडल में एक अलग मुस्लिम लीग पार्टी होना ठीक नहीं होगा। खलीकुज्जमां को यह प्रस्ताव पसंद नहीं आया।

जिन्ना सिर्फ साझेदारी के लिए दो पार्टियों के बीच गठबंधन चाहता था। ‘गठबंधन बनाम विलय का मामला संयुक्त प्रान्त में भी उठा। लेकिन बात नहीं बनी और लीग की मदद के बिना सरकारों का गठन हो गया। कांग्रेस ने इसे जहां स्वशासन और स्वराज्य की तरफ प्रगति कहा, वहीँ कुछ ऐसे भी लोग थे जिन्होंने इसे हिन्दू शासन कहा। एक वर्ग ऐसा भी था जो यह मानता था कि कांग्रेस ने लीग के साथ सत्ता में साझेदारी न करके मुसलमान जनता को पाकिस्तान की दिशा में मोड़ दिया था। प्यारेलाल, गांधीजी के सचिव और जीवनी लेखक यह मानते हैं कि यह एक पहले दर्जे की राजनैतिक भूल थी। उन्होंने कहा, लीग से रिश्ता न रखने का फैसला कांग्रेस हाई कमान ने गांधीजी के सर्वश्रेष्ठ फैसले के विपरीत लिया। कई विदेशी लेखक जैसे फ्रैंक मोरेस, पैंडरेल मून अदि मानते हैं कि लीग के साथ सूझबूझ से नहीं निबटना ही पाकिस्तान बनने का मुख्य कारण बना। लेकिन उस समय की परिस्थितियों पर अगर नज़र डालें तो हम पाते हैं कि नेहरू, पटेल और आजाद का मानना था कि जिन्ना के साथ निभाना मुश्किल होगा। हर फैसले पर उसकी सहमती लेनी होती, जो उन्हें मान्य नहीं था। नतीजतन, नेहरू और नरेंद्र देव या के.एम. अशरफ जैसे कांग्रेस वामपंथियों को डर था कि लीग द्वारा पूरी तरह से आत्मसमर्पण से कम किसी भी शर्त पर गठबंधन किसी भी कट्टरपंथी सामाजिक-आर्थिक सुधारों को असंभव बना देगा, और उन्होंने मुसलमानों को 'मास कॉन्टैक्ट' अभियान के माध्यम से जीतने की कोशिश करना पसंद किया, जिसकी ज़िम्मेदारी अशरफ को दी गई थी।

नेहरू और दूसरे कांग्रेस नेताओं के पास मुस्लिम लीग के इरादों पर शक करने की वजहें थीं। चुनावों के दौरान यू.पी. और दूसरी जगहों पर कुछ हद तक सहयोग के बावजूद, सच यह था कि लीग के नेताओं, और खासकर जिन्ना ने कांग्रेस के खिलाफ़ ज़ोरदार प्रचार शुरू कर दिया था, उसे हिंदुओं का संगठन बताया था, जो मुसलमानों के दावों के साथ कभी न्याय नहीं कर सकता। गांधीजी भी जिन्ना को उतना महत्त्व नहीं देना चाहते थे जो नेहरू, पटेल और आजाद के प्रभाव को कम करता। उन्हें यह भी भरोसा नहीं था कि जिन्ना के साथ कांग्रेसी मुख्यमंत्री आसानी से काम कर पाएंगे। जिन्ना के साथ कांग्रेस और गांधीजी के वैचारिक मतभेद थे। जिन्ना का नजरिया यह था कि लीग मुसलमानों के हितों के लिए है और कांग्रेस हिन्दुओं के हितों के लिए। फिर भी अगर ठीक से सूझबूझ दिखाई गई होती तो हो सकता है कि समझौता हो गया होता। पंजाब में भी प्रधानमंत्री सिकंदर हयात ने स्पष्ट बहुमत होने के बावजूद हिन्दू महासभा को एक मंत्री पद देने का प्रस्ताव दिया था। अगर इसी तरह की कोई पेशकश कांग्रेस की तरफ से जिन्ना को मिलता तो जिन्ना के द्वारा मुस्लिम जनता को यह बताना मुश्किल हो जाता कि कांग्रेस मुसलमानों की दुश्मन है।

जिन्ना ने कांग्रेस की इन चालबाजियों से फायदा उठाया। अब वह अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए सक्रिय हो गया। प्रांतों में कांग्रेस के सत्ताईस महीने के शासन के दौरान, लीग ने ज़ोरदार प्रोपेगेंडा अभियान चलाया। कुछ ही महीनों में U.P. में 100,000 नए सदस्य बनाए। उसने पंजाब के मुख्यमंत्री सिकन्दर हयात ख़ान के साथ समझौता किया और लीग सरकार में शामिल हो गई। बंगाल में भी लीग ने प्रजा पार्टी के नेता फजलुल हक के साथ गठबंधन कर सरकार में शामिल हो गई। चुनावों में लीग को बुरी तरह पराजित करने वाले हयात और हक़ ने जिन्ना से मेल कर लिया और इस बात पर एकमत हो गए कि अखिल भारतीय मामलों में वे लीग के फैसलों का समर्थन करेंगे।

जिन्ना ने कांग्रेस कि विरुद्ध प्रचार अभियान तेज़ कर दिया। कांग्रेस को उसने हिन्दुओं की संस्था कहना शुरू कर दिया। उसने कहा, देहाती इलाकों में दस हज़ार कांग्रेसी कमेटियों में से अनेक तथा कुछ हिन्दू अधिकारियों ने इस तरह व्यवहार करना शुरू कर दिया है, मानों हिन्दू राज आ गया हो। मुस्लिम कौम को एक होना होगा। जो मुसलमान कान्ग्रेस सरकार में शामिल हो गए हैं, वे कांग्रेसी पिट्ठू हैं। उसने यहाँ तक कहा कि कांग्रेस कुछ महत्वाकांक्षी और सिद्धान्तविहीन मुसलमानों को भ्रष्ट कर रही है। उसने कांग्रेस सरकारों के अत्याचारों के मनगढ़न्त किस्से लोगों के बीच फैलाना शुरू कर दिया। क्रोधावेश में एक के बाद एक वह ऐसा काम करता गया कि हिन्दू-मुस्लिम संकट अपने चरम बिन्दु को पहुंच गया।

लीग के लिए अब कांग्रेस सिर्फ सांप्रदायिक ही नहीं एक दुश्मन के रूप में सामने थी। 1916 में लखनऊ के समारोह में लीग-कांग्रेस संधि का आधार तैयार करने वाला और हिन्दू-मुस्लिम एकता की वकालत करने वाला जिन्ना अब मुसलिम अलगाववाद की वकालत कर रहा था। जो जिन्ना अब तक हिन्दू-मुस्लिम समुदायों के बीच पुल बनाने का प्रयास करता आया था, अब इस खाई को और चौड़ा करने में जुट गया। यह मिस्टर जिन्ना से जनाब जिन्ना में परिवर्तन की निशानी थी। लखनऊ में लीग का समारोह आयोजित किया जाने वाला था। विलायती सूट-बुट पहनने वाले जिन्ना ने इस समारोह में भाग लेने के लिए शेरवानी और पायजामे सिलवाए। उसकी नज़रों में कायदे आज़म की कुर्सी दिख रही थी। लखनऊ में जिन्ना ने कहा था, कांग्रेस पूर्णतः हिन्दू नीति से चल रही है, बहुसंख्यक समुदाय ने बहुत साफ तौर पर ज़ाहिर कर दिया है कि वे हिन्दुओं के लिए हिंदुस्तान के पक्ष में हैं। जिन्ना ने कहा था, हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा होगी और वंदे मातरम राष्ट्रगीत होगा और इसे सभी पर थोपा जाएगा। ... जो थोड़ी सी शक्ति और ज़िम्मेदारी दी गई है, उसके ठीक शुरुआत में ही बहुसंख्यक समुदाय ने साफ़ दिखा दिया है कि हिंदुस्तान सिर्फ़ हिंदुओं के लिए है।

जिन्ना अब कांग्रेस के साथ सहमति बनाने के लिए अपना सर झुकाने वाला नहीं था। उसने निश्चय कर लिया था कि अब वह गांधीजी या कांग्रेस के किसी आदमी से बातचीत नहीं करेगा। कांग्रेसी ही उसके पास आएंगे। अब वह शर्त मानेगा नहीं, शर्तें थोपेगा। कौम को उसके तरीक़े पसंद आ रहे थे। अब लीग कांग्रेस के साथ पूरी तरह टकराव के रास्ते पर पक्की तरह से आगे बढ़ चुकी थी। जैसे-जैसे दिन और महीने बीतते गए और अलग-अलग प्रांतों में कांग्रेस मंत्रालयों ने जनता की हालत सुधारने से जुड़े पार्टी के कार्यक्रम को लागू करने की कोशिश की, दोनों पार्टियों के बीच दुश्मनी और ज़्यादा साफ़ हो गई।

साल भर के अन्दर ही लीग की सदस्य संख्या हज़ारों से बढाकर लाखों में पहुँच गई थी। जिन्ना ने अपने भाषणों में कहना शुरू कर दिया था, अगर हिंदुस्तान के मुसलमानों के सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक स्तर को उठाने के लिए मुझे फिरकापरस्त कहा जाता है तो साहबान, मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि ऐसा फिरकापरस्त होने पर मुझे फ़क्र है। उसके बयानों में अक्सर शामिल होता कि कांग्रेसी सरकारें सांप्रदायिक दंगों को रोकने में विफल रही है, मुसलमानों को रोज़गार नहीं देतीं, बकरीद पर गायों की कुर्बानी पर स्थानीय प्रतिबंध लगा दिया जाता है, सार्वजनिक मौकों पर 'मूर्ति पूजा' वाले अंशों के साथ वंदे मातरम गाना गाने के लिए कहा जाता है, मुसलमानों पर संस्कृतनिष्ठ हिंदी थोप रहीं हैं, मुसलमान स्कूली बच्चों को गाँधी की तस्वीर की पूजा करने को बाध्य करती हैं, स्कूलों में ऐसे गीत गए जा रहे हैं जो इस्लामी मान्यताओं के विरुद्ध हैं। जिन्ना ने मई 1938 में बोस के साथ अपनी बातचीत में लीग को मुसलमानों के एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में मान्यता देने पर ज़ोर दिया। कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने अक्टूबर 1937 में वंदे मातरम के आखिरी छंदों को हटाने का फैसला किया, और 'गाने के कुछ हिस्सों पर मुस्लिम दोस्तों द्वारा उठाई गई आपत्ति की वैधता' को स्वीकार किया। अगर लीग ने वर्धा बेसिक शिक्षा योजना को बहुत ज़्यादा हिंदूवादी बताकर हमला किया, तो हिंदू महासभा ने पाठ्यक्रम में उर्दू को शामिल करने के लिए इसकी निंदा की, और जाने-माने मुस्लिम बुद्धिजीवी ज़ाकिर हुसैन वर्धा योजना के साथ-साथ बॉम्बे स्कूलों के लिए उर्दू पाठ्यपुस्तकें तैयार करने में भी प्रमुख थे, जिसे लीग ने इस्लाम विरोधी बताकर निंदा की थी।

नेहरू ने 18 अक्टूबर 1939 को राजेंद्र प्रसाद से यह स्वीकार किया कि इसमें कोई शक नहीं कि हम मुस्लिम जनता के बीच सांप्रदायिकता और कांग्रेस विरोधी भावना के विकास को रोकने में असमर्थ रहे हैं। सुमित सरकार कहते हैं, यदि 1930 के दशक के अंत में शीर्ष कांग्रेस नेताओं ने पहले से कहीं अधिक धर्मनिरपेक्षता की आवश्यकता पर जोर दिया, तो उनके विचारों को पार्टी पदानुक्रम में निचले स्तर पर या सभी कांग्रेस मंत्रियों द्वारा भी सार्वभौमिक रूप से साझा नहीं किया गया, या ईमानदारी से लागू नहीं किया गया। जो चीज़ विनाशकारी साबित हुई, वह गठबंधन को अस्वीकार करना नहीं था, बल्कि U.P. के साथ-साथ दूसरी जगहों पर भी, असली सामाजिक रूप से क्रांतिकारी उपायों को विकसित करने और लागू करने में विफलता थी। मुस्लिम जन संपर्क काफी हद तक कागजों पर ही रहा, और धर्मनिरपेक्ष और क्रांतिकारी बयानबाजी ने अंत में मुस्लिम जनता को जीते बिना मुस्लिम निहित स्वार्थों को ही डरा दिया।

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मनोज कुमार

पिछली कड़ियां-  राष्ट्रीय आन्दोलन

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