राष्ट्रीय
आन्दोलन
324. नमक सत्याग्रह, दांडी मार्च-6
1930
प्रभाव और उपसंहार
नमक सत्याग्रह का नाम सुन गांधीजी का बहुत से आलोचकों ने मज़ाक़ उड़ाया था। कई ने
तो यहां तक कह डाला, “सविनय
अवज्ञा का अत्यंत सीमित और प्रभावहीन रूप देखने को मिला, जिससे जनसाधारण को बहुत
ही मामूली आर्थिक लाभ मिला”। देशव्यापी स्वतंत्रता संग्राम की
योजना में नमक आन्दोलन का महत्व लोगों की समझ में नहीं आ रहा था। अधिकांश लोग इस
बात का उपहास करने लगे कि नमक भी कोई सत्याग्रह की चीज़ है! आने वाली घटनाओं ने
दिखा दिया कि नमक और स्वराज्य के बीच पारस्परिक सम्बन्ध है। इस सत्याग्रह से भारतीय
जनता को सामूहिक आन्दोलन के लिए संगठित करने की गांधीजी की कुशलता उभर कर सामने आई।
गांधीजी ने नमक के द्वारा जहां एक तरफ़ ग्रामीण लोगों को स्वराज्य के मुद्दे से
जोड़ा वहीं दूसरी तरफ़ शहरी लोगों का भी इसके प्रति समर्थन प्राप्त किया। नमक के
मुद्दे ने स्वराज्य के आदर्श को गांवों के ग़रीबों की शिकायत से जोड़ दिया। इसने किसानों को एक अवसर दिया कि वे अपनी सहायता ख़ुद करते
हुए कुछ अतिरिक्त आय कर सकें। गांधीजी के नगरीय समर्थकों को इसका मौक़ा मिला कि वे
प्रतीक के रूप में जनता के व्यापक कष्टों से स्वयं को एकाकार कर सकें।
नमक सत्याग्रह की सफलता को देखकर जिन
लोगों ने गांधीजी
पर संदेह किया था और उनका उपहास किया था, लज्जित थे। नेहरू जी लिखते हैं, “हमें इस बात पर लज्जा आई कि जब गांधीजी ने पहले-पहल नमक बनाकर
नमक-क़ानून को भंग करने का प्रस्ताव रखा था तो हमने उनकी कार्य-क्षमता पर शंका प्रकट
की थी। आज हम उनके जनता को प्रभावित करने और उससे संगठित रूप से काम कराने के आश्चर्यजनक
कौशल को देखकर स्तंभित रह गए।”
नमक यात्रा को दुनिया भर में प्रचार
मिला।
प्रेस की सुर्ख़ियों में जगह मिली और उसकी तस्वीरें प्रकाशित की गईं। नमक यात्रा के कारण महात्मा गाँधी दुनिया की नजर में आए। इस यात्रा को यूरोप
और अमेरिकी प्रेस ने व्यापक कवरेज दी। ‘न्यूफ़्रीमैन’ का अमरीकी संवाददाता वैब
मिलर ने नृशंस लाठीचार्ज का आंखों देखा वर्णन इस तरह किया था, “अठारह वर्ष़ों से मैं दुनिया के
बाइस देशों में संवाददाता का काम कर चुका हूं, लेकिन जैसा
हृदय-विदारक दृश्य मैंने धरसाना में देखा, वैसा और कहर देखने
को नहीं मिला। घायलों
की चिकित्सा का कोई प्रबंध नहीं था। कई लोगों की मौत हो गई। कभी-कभी तो दृश्य इतना लोमहर्षक और
दर्दनाक हो जाता कि मैं देख भी नहीं पाता और मुझे कुछ क्षणों के लिए आंखें बन्द कर
लेनी पड़ती थी। स्वयंसेवकों का अनुशासन कमाल का था। गांधीजी की अहिंसा को उन्होंने
रोम-रोम में बसा लिया था”। मिलर की रिपोर्ट युनाइटेड प्रेस के तहत जब विश्वभर के 1350 से अधिक समाचार पत्रों में
प्रकाशित हुई, तो सनसनी फैल गई।
ब्रिटिश सरकार के लिए यह
एक बड़ा राजनीतिक संघर्ष था। लेकिन
एक बात तो तय है कि इस आंदोलन ने जनसाधारण के मन में क़ानून और व्यवस्था के प्रति
भयंकर उपेक्षा का भाव पैदा किया। लोगों के दोल में साम्राज्यविरोधी भावना मज़बूत
हुई। यह एक
अनोखा अहिंसक संघर्ष था, जिसमें पुलिस और
कांग्रेस के स्वयंसेवकों के बीच एक प्रतिद्वन्दिता चल रही थी कि वह कितनी चोट
पहुंचा सकती है और वे कितना सहन कर सकते हैं। इस अहिंसक आंदोलन के बाद देश में अंग्रेज़ी
शासन के ख़िलाफ़ सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरु हुआ था। इस सत्याग्रह ने ब्रिटिश वर्चस्व तोड़ने के
लिए भावनात्मक और नैतिक बल दिया था। यह कांग्रेस की रणनीति की भारी जीत साबित हुई। ब्रिटिश सरकार नमक सत्याग्रह की रणनीति का महत्त्व आंकने में बुरी तरह विफल रही। नमक राष्ट्रीयता का प्रतीक बन गया।
लोग नमक बनाने के लिए संघर्ष नहीं कर रहे थे बल्कि उसके
जरिए वे यह साबित कर रहे थे कि सरकारी दमन बहुत दिनों तक नहीं चल सकता। भारत पर ब्रिटेन की लंबे समय तक चली हुक़ूमत
कई मायने में चाय, कपड़ा और यहां तक कि नमक जैसी वस्तुओं पर एकाधिकार क़ायम करने से
हुई थी। नमक अपने आप में कोई बहुत बड़ी चीज़ नहीं थी, लेकिन
वह राष्ट्रीयता का प्रतीक बन गया। लोग नमक के ज़रिए यह साबित कर रहे थे कि सरकारी
दमन बहुत दिनों तक नहीं चल सकता। सरकार का दमन ज़ारी रहा। कांग्रेसी नेता लगातार
गिरफ़्तार किए जाते रहे। जेल से छूटने पर सरदार पटेल ने बारडोली में सत्याग्रह शुरू
किया। सरकार की दमनात्मक कार्यवाही असहनीय हो गई। नमक
यात्रा के कारण ही अंग्रेजों को यह अहसास हुआ था कि अब उनका राज बहुत दिन नहीं टिक
सकेगा और उन्हें भारतीयों को भी सत्ता में हिस्सा देना पड़ेगा। लार्ड इरविन ने दमन की व्यर्थता महसूस की। उसने दिसम्बर में
कलकत्ता में कहा, “हालाकि
मैं सविनय अवज्ञा की ज़ोरदार ढंग से निन्दा करता हूं, फिरभी यह हमारी भयंकर भूल
होगी कि राष्ट्रवाद के शक्तिशाली आशय को कम करके आंके। सरकार के कठोर कदमों से न
तो कोई पूर्ण व स्थायी हल निकाला जा सका है और न शायद कभी निकाला जा सकेगा।”
यह एक ऐसा सफल
आंदोलन था जिसने न सिर्फ ब्रिटेन को बल्कि सारे विश्व को स्तब्ध कर दिया था। पनामा के भारतीय व्यापारियों ने 24
घंटे के लिए अपना काम ठप्प कर दिया। सुमात्रा में भी ऐसा ही हुआ। नैरोबी में
भारतीयों ने दुकानें बन्द कर दी। अमेरिका से 102 पादरियों ने ब्रिटिश प्रधानमंत्री को एक तार भेजा कि
गांधीजी और भारतीयों के साथ मैत्रीपूर्ण फैसला कर लेना चाहिए।
संगठनात्मक अनुशासन ने इसे अधिक प्रभावी बनाया। इस आंदोलन
ने यह साबित कर दिया कि सत्य, अहिंसा और सविनय अवज्ञा में एक छिपी हुई ताक़त है, जो
हिंसात्मक कार्रवाई को भी झुका सकती है। इस आंदोलन ने यह भी दिखा दिया कि क़ुर्बानी
के लिए देश की जनता तैयार है और आज़ादी के लिए कुछ भी कर गुज़रना हर देशवासी का धर्म
है। सबसे बड़ी बात थी, नमक आन्दोलन का अनुशासित ढंग से संपन्न होना, जो
सम्पूर्ण सत्याग्रह की एक महान सफलता थी। अंग्रेज़ी शासन के ख़िलाफ़ सविनय अवज्ञा
सत्याग्रह ने ब्रिटिश वर्चस्व तोड़ने के लिए भावनात्मक और नैतिक बल दिया था।
जैसे-जैसे सत्याग्रहियों का दल आगे बढ़ता गया, वैसे-वैसे देश में उत्तेजना फैलती
गई।
गांधी जी का नमक आंदोलन और दांडी पदयात्रा आधुनिक काल के
शांतिपूर्ण संघर्ष का सबसे अनूठा उदाहरण है। सुभाषचंद्र बोस ने गांधीजी की इस
यात्रा की तुलना नेपोलियन के पेरिस मार्च और मुसोलिनी के रोम मार्च से की थी। अमेरिका
की प्रतिष्ठित टाइम पत्रिका ने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान 1930
में महात्मा गांधी की अगुआई में दांडी यात्रा के दौरान किए गए ‘नमक सत्याग्रह’ को
दुनिया में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने वाले सर्वाधिक प्रभावशाली दस आंदोलनों में
की सूची में अमेरिकी स्वतंत्रता आंदोलन में निर्णायक भूमिका निभाने वाली ‘बोस्टन
चाय पार्टी’ के बाद दूसरे स्थान पर रखा है।
नमक यात्रा की प्रगति को एक और बात से भी समझा जा सकता
है। अमेरिकी समाचार पत्रिका टाइम को गाँधीजी की कदकाठी पर हँसी आती थी। पत्रिका ने
उनके तकुए जैसे शरीर और मकड़ी जैसे पैरो का खूब मजाक उड़ाया था। इस यात्रा के बारे
में अपनी पहली रिपोर्ट में ही टाइम ने नमक यात्रा के मंजिल तक पहुँचने पर अपनी
गहरी शंका व्यक्त कर दी थी। लेकिन एक रात में ही पत्रिका की सोच बदल गई। टाइम ने
लिखा कि इस यात्रा को जो भारी जन समर्थन मिल रहा है उसने अंग्रेज शासकों को
बेचैन कर दिया है। अब वे भी गाँधी जी को ऐसा साधु और जन
नेता कह कर सलामी देने लगे हैं जो ईसाई धर्मावलंबियों के खिलाफ़ ईसाई तरीकों का ही
हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहा है। उसी टाइम पत्रिका ने गांधी जो को 1930 का सर्वश्रेष्ठ मानव घोषित किया।
नमक सत्याग्रह के कारण सारे देश में, बड़े शहरों के निम्न
मध्यमवर्ग के लोगों में, उत्साह की एक तीव्र लहर दौड़ गई। गिरफ़्तारियों के दौर के
बाद नाम वाले नेताओं के नेतृत्व के रंगमंच से हट जाने के बाद नीचे से होने वाले
जुझारू आंदोलनों को भी उभरने का मौक़ा मिला। व्यापारी वर्ग और किसानों का भारी
समर्थन इस आन्दोलन को मिला। पुलिस के जासूसों ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि
गाँधीजी की सभाओं में तमाम जातियों के औरत-मर्द शामिल हो रहे हैं। हजारों वॉलंटियर
राष्ट्रवादी उद्देश्य के लिए सामने आ रहे थे। उनमें से बहुत सारे ऐसे सरकारी अफ़सर
थे जिन्होंने औपनिवेशिक शासन में अपने पदों से इस्तीफ़ा दे दिए थे। गांधीजी जिस-जिस
राह से गुजरते, वहां के ग्राम अधिकारी अपने पदों से त्यागपत्र देने लगे थे। असहयोग
आन्दोलन की तरह अधिकृत रूप से स्वीकृत राष्ट्रीय अभियान के अलावा भी विरोध की
असंख्य धाराएँ थीं। देश के विशाल भाग में किसानों ने दमनकारी औपनिवेशिक वन कानूनों
का उल्लंघन किया जिसके कारण वे और उनके मवेशी उन्हीं जंगलों में नहीं जा सकते थे
जहाँ एक जमाने में वे बेरोकटोक घूमते थे। कुछ कस्बों में फैक्ट्री कामगार हड़ताल पर
चले गए, वकीलों ने ब्रिटिश अदालतों का बहिष्कार कर दिया और
विद्यार्थियों ने सरकारी शिक्षा संस्थानों में पढ़ने से इनकार कर दिया।
इस सत्याग्रह ने ब्रिटिश वर्चस्व तोड़ने के लिए भावनात्मक
और नैतिक बल दिया था। गांधीजी
की जनता में प्रेरणा भरने की इस विस्मयकारी शक्ति को बहुत पहले ही श्री गोखले जी ने
भांप लिया था और कहा था, “इनमें
मिट्टी के घोंघे से बड़े-बड़े बहादुरों का निर्माण करने की शक्ति है।” अंग्रेजी
हुकूमत के खिलाफ नमक जैसे इस प्रतीकात्मक विरोध मार्च ने भारत में विदेशी हुक़ूमत
के पतन का भावनात्मक और नैतिक आधार दिया। राष्ट्रीय उद्देश्य को पाने के लिए एक कार्य-प्रणाली के रूप
में शांतिपूर्ण
सविनय
अवज्ञा आंदोलन की उपयोगिता पर अब किसी को संदेह नहीं रह गया था। यह गांधीजी के ही नेतृत्व और प्रशिक्षण का चमत्कार था कि
लोग अंग्रेजी हुकूमत की लाठियों के प्रहार को अहिंसात्मक सत्याग्रह से नाकाम बना
गए। लोगों
में यह विश्वास जड़ जमा चुका था कि वे विजय की ओर कदम बढ़ा चुके हैं। क़रीब एक लाख सत्याग्रही, जिनमें 17,000 महिलाएं थीं, जेल में थे। स्कूलों और कालेजों का
बहिष्कार कर
छात्र भी स्वतंत्रता के आन्दोलन में हिस्सा लेने लगे थे। प्रशासन करीब-क़रीब ठप्प
पड़ गया था। जिस वायसराय ने गांधीजी की चुटकी भर नमक से सरकार को परेशान कर देने की
योजना की हंसी उड़ाई थी, अब महसूस करने लगे थे कि स्थिति पर उनका नियंत्रण खो चुका
है। फरवरी 1931 में इरविन ने गांधीजी के सामने स्वीकार किया था, “आपने तो नमक के मुद्दे को लेकर
अच्छी रणनीति तैयार की है।” उधर देश के लोगों के मन में यह आशा बंध चली थी कि
अहिंसात्मक मार्ग ही हमें स्वराज्य की ओर ले जाएगा।
सारे देश में, बड़े शहरों के निम्न मध्यम वर्ग
के लोगों में, उत्साह की एक तीव्र लहर दौड़ गई। इसकी एक अभिव्यक्ति था नागरिक अवज्ञा आंदोलन में स्त्रियों
का प्रवेश। हालाकि सिविल नाफ़रमानी के इस पूरे
आंदोलन में मुसलमानों की भागीदारी कम रही लेकिन स्त्रियों
और किशोरों का शामिल होना इसकी एक बड़ी विशेषता थी। मुसलमानों की कम भागीदारी का कुछ विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाला
है कि पिछले असहयोग आन्दोअन और इस सविनय अवज्ञा आन्दोलन के बीच के एक दशक में कई
साम्प्रदायिक संगठन सक्रिय हो चुके थे। व्यापारी वर्ग और किसानों का भारी समर्थन
इस आन्दोलन को मिला। संगठनात्मक अनुशासन ने इसे अधिक प्रभावी बनाया। गिरफ़्तारियों
के दौर के बाद नाम वाले नेताओं के नेतृत्व के रंगमंच से हट जाने के बाद नीचे से
होने वाले जुझारू आंदोलनों को भी उभरने का मौक़ा मिला। ऐसे आंदोलनों पर जून की
कांग्रेस की कार्यकारी समिति की बैठक में मुहर लगा दी गई।
यह पहली राष्ट्रवादी गतिविधि थी जिसमें औरतों ने भी बढ़-चढ़
कर हिस्सा लिया। वे धरना देतीं, जुलूसों और प्रदर्शनों में शामिल होतीं, क़ानून
तोड़तीं और जेल जातीं। समाजवादी कार्यकर्ता कमलादेवी चटोपाध्याय ने गाँधी जी को
समझाया कि वे अपने आंदोलनों को पुरुषों तक ही सीमित न रखें। कमलादेवी खुद उन
असंख्य औरतों में से एक थीं जिन्होंने नमक या शराब कानूनों का उल्लंघन करते हुए
सामूहिक गिरफ़तारी दी थी। नागरिक अवज्ञा आंदोलन से और किसी उद्देश्य की
पूर्ति हुई हो या नहीं, उसने बड़े पैमाने पर भारतीय स्त्रियों को सामाजिक मुक्ति
दिलाने का महान कार्य किया। आंदोलन का यह एक सकारात्मक पहलू था। 75 वर्षों के सामाजिक सुधार के आंदोलन को भारतीय स्त्रियों को मुक्त करा
पाने में जो सफलता नहीं मिली थी, वह इस आंदोलन ने हफ़्तों में प्राप्त कर ली।
वायसराय ने इस गतिविधियों को प्रभावहीन करने के लिए कठोर
अध्यादेश ज़ारी किए। उसने दमन का खुला परवाना दे दिया था। लेकिन आंदोलन धीमा नहीं
पड़ा। उद्योगपति वर्ग ने स्पष्ट रूप से साम्राज्यवादी नीतियों के प्रति आक्रोश
प्रकट किया और सविनय अवज्ञा आन्दोलन को प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से मदद पहुंचाई। बंबई
की धारासभा से बहिर्गमन करते हुए घनश्यामदास बिड़ला ने घोषणा की थी “भविष्य में किसी भी संरक्षण की अपेक्षा करना पत्थर की
दीवार से टकराना होगा।” उन्होंने आंदोलन के लिए पांच लाख रुपयों का चंदा दिया।
ठाकुरदास ने कलकत्ता के व्यापारियों को राज़ी कर लिया कि विदेशी कपड़ों का आयात नहीं
किया जाएगा। जमनालाल बजाज ने बंबई और
अहमादाबाद के कपड़ा मिलों से कपड़ा खरीदे जाने के प्रयासों को बल दिया। डी.पी. खेतान
ने कलकत्ता में घोषणा की, “जब तक भारत स्वायत्त शासन प्राप्त नहीं कर लेता,
उसकी आर्थिक स्थिति में सुधार नहीं हो सकता।” इन सब प्रयासों से विदेशी कपड़ों के आयात में भारी कमी
आई। विदेशी वस्त्रों और ब्रिटिश सामानों का बहिष्कार किया गया। अनेकों लोग आंदोलन
से जुड़ते जा रहे थे। अधिकतर भारतीय
दुकानदारों ने भी सहयोग किया और विदेशी वस्त्रों का व्यापार पूरी तरह बंद कर दिया।
परिणामस्वरूप कपास से निर्मित कपड़ों के आयात में भारी गिरावट आई। बंबई के ब्रिटिश
स्वामित्व वाली 16 मिलों का कारोबार बंद हो गया। भारतीय स्वामित्व वाली
कंपनी के कारोबार में दुगुनी वृद्धि हुई। खद्दर के उत्पादन में 63
लाख गज से 113 लाख गज की बढोत्तरी हुई। 1929
में 384 खादी भंडारों की तुलना में 1930
में यह संख्या 600 हो गई। इस प्रकार स्वदेशी आन्दोलन ने भारतीय उद्योग की
सहायता की।
असल में जनता के सुसंगठित और व्यवस्थित आंदोलन को चलाने की गांधीजी
के सामर्थ्य का लोगों को ज्ञान ही नहीं था। इस आंदोलन ने यह साबित कर दिया कि सत्य, अहिंसा
और सविनय अवज्ञा में एक छिपी हुई ताक़त है, जो हिंसात्मक कार्रवाई को भी झुका सकती
है। इस आंदोलन ने यह भी दिखा दिया कि क़ुर्बानी के लिए देश की जनता तैयार है और
आज़ादी के लिए कुछ भी कर गुज़रना हर देशवासी का धर्म है। दांडी
यात्रा से एक चिंगारी भड़की जो सविनय अवज्ञा आंदोलन में बदल गई। इसने भारतीय
स्वतंत्रता संघर्ष और स्वयं गांधीजी को परिभाषित किया। इस यात्रा ने देश की चेतना
को झकझोर दिया इस यात्रा के दौरान बड़ी संख्या में बापू के समर्थक उनके साथ जुड़ गए।
गांधी जी की दांडी-यात्रा के साथ-साथ देशवासियों में आमतौर पर राष्ट्रीय चेतना की
एक बिजली दौड़ गई। इस आंदोलन ने जनसाधारण के मन में
क़ानून और व्यवस्था के प्रति भयंकर उपेक्षा का भाव पैदा किया। लोगों के दिल में
साम्राज्यविरोधी भावना मज़बूत हुई।
नमक सत्याग्रह एक सफल सविनय अवज्ञा आन्दोलन था। लेकिन
इसकी सफलता में साम्राज्यवादियों की हुई आर्थिक नुकसान का आंकलन किए बिना कई
विचारकों ने तो यहां तक कह डाला, “सविनय अवज्ञा का अत्यंत सीमित और प्रभावहीन रूप देखने को
मिला, जिससे जनसाधारण को बहुत ही मामूली आर्थिक लाभ मिला”। दक्षिण अफ़्रीका से लेकर भारत तक में विदेशी शासन के
ख़िलाफ़ महात्मा गांधी के नेतृत्व में हुए सभी सत्याग्रह आंदोलनों में नमक
सत्याग्रह, राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक दमन, शोषण व अन्याय के ख़िलाफ़ अहिंसक
प्रतिरोध का सबसे दमदार व सटीक उदाहरण है। गांधीजी की अद्भुत कार्यशैली ने साबित
किया कि नमक के ख़िलाफ़ सविनय अवज्ञा अकेले ही समूचे राष्ट्र को आंदोलित व स्पंदित
कर उसे ‘पूर्ण स्वराज’ की प्राप्ति के रास्ते पर अग्रसर कर सकता है। सविनय अवज्ञा
का पहला दौर अप्रैल से अक्तूबर तक चला। शहर ही नहीं गावों तक भी यह फैला। धरना और बहिष्कार
इसके प्रमुख अंग थे। पूरी शालीनता और अहिंसा के साथ लोग अनुशासित कतारों में बैठ
जाते और सरकारी आदेशों के बावज़ूद टस से मस नहीं होते। घुड़सवार पुलिस घोड़ा दौड़ाते
हुए आती और लोग घुटनों में सिर रख कर हमले का इंतज़ार करते। भीड़ को बिखेर पाने में
पुलिस असमर्थ हो जाती। पुलिस जब भी हिंसा का प्रयोग करती, सत्याग्रहियों का जन
समर्थन और बढ़ जाता। पुलिस हमले से सैकड़ों यदि घायल होते, तो धरने में शामिल होने
के लिए हज़ारो नए लोग आ जाते। भारत पर ब्रिटेन की लंबे समय तक चली हुक़ूमत कई मायने में चाय, कपड़ा और
यहां तक कि नमक जैसी वस्तुओं पर एकाधिकार क़ायम करने से हुई। बहिष्कार के कारण कलकत्ता, भागलपुर, दिल्ली, अमृतसर और
बंबई की विदेशी कपड़ों की मंडियां लगभग ठप्प हो गई थीं। परिणामस्वरूप ब्रिटिश कपड़ों
का आयात, जो 1929 में 2 करोड़ 60 लाख पौंड का था, घट कर 1930 में 1 करोड़ 37 लाख पौंड का रह गया। विदेशी कपड़ों के बहिष्कार का प्रभाव
इंग्लैंड का कपड़ा उद्योग पर साफ दिखने लगा था। क़रीब न के बराबर कपड़ा भारत में बिक
रहा था। लंकाशायर की कई मिलें बन्द पड़ी थीं। अब जब ये मिलें बंद पडी थीं तो लोग
कहाँ का वस्त्र और सूतों का उपयोग करते थे? निश्चित रूप से स्थानीय मज़दूरों और
कृषकों के द्वारा बनाए गए वस्त्र और उगाए गए कपास का। इसका लाभ देश के मज़दूरों, किसानों और व्यापारियों को हो रहा था।
सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि यह थी
कि नमक यात्रा के कारण ही अंग्रेजों
को यह अहसास हुआ था कि अब उनका राज बहुत दिन नहीं टिक सकेगा और उन्हें
भारतीयों को भी सत्ता में हिस्सा देना पड़ेगा। इस लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए
ब्रिटिश सरकार ने लंदन में गोल मेज सम्मेलनों का आयोजन शुरू किया। पहला गोल मेज
सम्मेलन नवम्बर 1930 में आयोजित
किया गया जिसमें देश के प्रमुख नेता शामिल नहीं हुए। इसी कारण अंततः यह
बैठक निरर्थक साबित हुई।
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मनोज कुमार