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मंगलवार, 27 मई 2025

330. पहला गोलमेज सम्मेलन

राष्ट्रीय आन्दोलन

330. पहला गोलमेज सम्मेलन



1930

प्रवेश :

दांडी यात्रा के साथ सविनय अवज्ञा आन्दोलन के रूप में भारतीय राष्ट्रीय स्वतन्त्रता का ऐसा संघर्ष शुरू हुआ जिसने स्वतंत्रता आंदोलन की ज्वाला को पूरे देश में व्यापक रूप से फैलाने में निर्णायक भूमिका अदा की। नमक यात्रा के कारण ही अंग्रेजों को यह अहसास हुआ था कि अब उनका राज बहुत दिन नहीं टिक सकेगा और उन्हें भारतीयों को भी सत्ता में हिस्सा देना पड़ेगा। जिस समय सविनय अवज्ञा आन्दोलन  और सरकार का दमन चक्र अपने चरम पर था, उसी समय भारत के वायसराय लॉर्ड इर्विन ने सरकार को यह प्रस्ताव दिया कि भारतीय नेताओं तथा विभिन्न वर्गों के प्रतिनिधियों से सलाह-मशविरा कर भारत की संवैधानिक समस्याओं का निर्णय किया जाए। ब्रिटेन के प्रधान मंत्री रामसे मैकडोनाल्ड इरविन से सहमत थे कि गोलमेज सम्मेलन आयोजित किया जाना चाहिए, क्योंकि साइमन कमीशन की रिपोर्ट की सिफारिशें अपर्याप्त थीं। इस लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए ब्रिटिश सरकार ने लंदन में तीन गोल मेज सम्मेलनों का आयोजन किया।

सम्मेलन का आयोजन :

संवैधानिक प्रश्नों पर विचार-विमर्श के लिए पहला गोल मेज सम्मेलन 12 नवम्बर 1930 को आरंभ हुआ जो 19 जनवरी, 1931 तक चला। उस समय देश में सविनय अवज्ञा आंदोलन अपने चरम पर था। हज़ारों भारतवासी जेल जा रहे थे। भारत के स्वतंत्रता सेनानी लाठी या गोली खा रहे थे। लोग अपनी संपत्ति से वंचित हो रहे थे। ऐसे में बहु दलीय ब्रिटिश शिष्टमंडल के साथ संवैधानिक वार्ताएं करने के लिए उस सम्मेलन का गांधीजी और कांग्रेस ने बहिष्कार किया। अन्य राजनीतिक दलों और वर्गों के कुल 86 प्रतिनिधियों ने भाग लिया जिसमें इंग्लैण्ड के विभिन्न राजनीतिक दलों के तीन, 16 भारतीय देशी रियासतों के प्रतिनिधि और शेष 57 अन्य प्रतिनिधि थे होमी मोदी को छोड़कर व्यापारियों के किसी नेता ने भी भाग नहीं लिया। मुहम्मद अली, मुहम्मद शफ़ी, आग़ाख़ान, फ़ज़लुल-हक़, जिन्ना, फ़ज़्ले हुसैन आदि मुसलमान नेता बड़ी संख्या में उपस्थित थे। हिन्दू महासभा के नेता मुंजे और जयकर शामिल हुए। नरमदलीय नेता सर तेज बहादुर सप्रू, श्री निवास शास्त्री, और सी. वाई. चिंतामणि ने भी इस सम्मेलन में भाग लियाडा. भीमराव  अम्बेडकर भी इसमें भाग ले रहे थे राधाबाई सुब्बानारायण ने महिलाओं का प्रतिनिधित्व किया। रजवाड़ों का एक बड़ा जत्था भी मौजूद था। सिख, पारसी, जस्टिस पार्टी, मजदूर, भारतीय ईसाई, यूरोपीय, जमींदार, विश्वविद्यालय और भारत सरकार के प्रतिनिधि भी इस सम्मेलन में शामिल हुए जॉर्ज पंचम ने सम्मेलन का उद्घाटन किया और इसकी अध्यक्षता ब्रिटेन के प्रधानमंत्री रैम्से मैकडोनाल्ड ने की

ब्रिटिश प्रधानमंत्री का प्रस्ताव :

प्रधानमंत्री मैकडोनाल्ड ने जिन प्रस्तावों की चर्चा की उसमें से प्रमुख थे केन्द्रीय व्यवस्थापिका सभा का निर्माण संघ शासन के आधार पर होगा और ब्रिटिश भारतीय प्रांत तथा देशी राज्य संघ शासन की इकाई का रूप धारण करेंगे और केंद्र में उत्तरदायी शासन की स्थापना होगी, किन्तु सुरक्षा और विदेश विभाग भारत के गवर्नर जनरल के अधीन होंगेब्रिटिश प्रधानमंत्री के प्रस्तावों के प्रति प्रतिनिधियों की भिन्न-भिन्न प्रतिक्रियाएं हुईं संघ शासन के सिद्धांत को सभी प्रतिनिधियों ने स्वीकार कर लिया देशी नरेशों के प्रतिनिधियों ने सहमति दी कि देशी रियासतों को शामिल करके एक भारतीय संघ बनाना चाहिए जिसमें संसदीय प्रणाली की सरकार हो प्रांतीय स्वतंत्रता के संबंध में भी विचारों में मतभेद नहीं था भारतीय प्रतिनिधियों ने इसका समर्थन किया। औपनिवेशिक हैसियत का सामूहिक दायित्व पर आधारित कार्यपालिका का एक मंत्री मंडलीय स्वरुप सम्मेलन को स्वीकार्य था। केवल सरंक्षण और उत्तरदायी मंत्रियों पर नियंत्रण के सबंध में पारस्परिक मतभेद पाया गया कुछ लोगों ने केन्द्र में आंशिक उत्तरदायित्व की जगह पूर्ण उत्तरदायित्व की माँग की जयकर और सप्रू ने भारत के लिए आपैनिवेशिक स्वराज की माँग की। डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने अलग निर्वाचक मंडल बनाए जाने की मांग प्रस्तुत की। जो भी लोग इस सम्मेलन में भाग लेने के लिए आए थे उनके सामने ब्रिटिशों द्वारा केन्द्र में किसी प्रकार के परिवर्तन का वादा करना आवश्यक हो गया था। ऐसी स्थिति में रजवाड़ों द्वारा एक संघीय विधायिका का प्रस्ताव आया जिसके बहुत से सदस्य राजाओं द्वारा मनोनीत हों और वह कार्यपालिका के प्रति उत्तरदायी हो। प्रधानमंत्री रैमजे मैकडोनल्ड ने इसे मानने की घोषणा कर दी। ऐसे समय में जब जन-आंदोलन के दबाव के कारण डोमिनियन स्टेटस मिलने का खतरा दिखाई दे रहा था, भारतीय राजा तो चाहते थे कि केन्द्र में कमज़ोर सरकार रहे, जिसमें उनकी उपस्थिति उसे लोकतांत्रिक बनाए रखने में सहायक होगी।

सम्मेलन असफल रहा

प्रथम गोलमेज सममेलन में साप्रंदायिकता की समस्या सर्वाधिक विवादपूर्ण रही मुसलमान भी केन्द्र में कमज़ोर सरकार चाहते थे। मुसलमान पृथक् तथा सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व के पक्ष में थे जिन्ना ने अपने 14 सूत्र को सामने रखा  ब्रिटिशों के लिए भी यह लाभप्रद प्रस्ताव था ताकि उत्तरदायी सरकार के मुखौटे के पीछे वास्तव में ब्रिटिश नियंत्रण बनाए रखा जा सकता। अंग्रेज़ों के पक्ष में एक और बात यह हुई कि सम्मेलन की अल्पसंख्यक समिति किसी समझौते पर पहुंचने में असफल रही। जिन्ना, शफ़ी और आग़ाख़ान उदारवादियों के सप्रू गुट के साथ समझौते की स्थिति तक लगभग पहुंच ही गए थे। इसका आधार संयुक्त निर्वाचक मंडल होते और मुसलमानों के लिए आरक्षित सीटें होतीं। लेकिन हिंदू महासभा ने पंजाब और बंगाल में मुसलमानों के आरक्षण का विरोध किया। उसपर से सिखों ने पंजाब में सिखों के लिए 30% प्रतिनिधित्व की मांग रख दी। इस तरह एकता का अवसर हाथ से जाता रहा। सम्मेलन असफल रहा। निराश जिन्ना ने कहा था कांग्रेस ने खुद को पूरी तरह गांधी के हाथों में सौंप दिया है। उसने भारत नहीं लौटने और लन्दन में ही वकालत करने की सोची।

उपसंहार

पहले गोल मेज सम्मेलन में आम तौर पर यह सहमति थी कि भारत को एक संघ के रूप में विकसित होना था, रक्षा और वित्त के संबंध में सुरक्षा उपाय होने थे, जबकि अन्य विभागों को स्थानांतरित किया जाना था। हालाकि उदारवादी प्रतिनिधियों ने गोलमेज सम्मेलन को भारत के लिए एक उपलब्धि बताया लेकिन सम्मेलन के सदस्यों में वर्गीय हितों को लेकर इतना अधिक मतभेद था कि सम्मेलन किसी सर्वमान्य नतीजे पर नहीं पहुँच सका फलतः इस सम्मेलन का कोई आशाजनक परिणाम नहीं निकल कर सामने आया उल्टे इससे भारत के विभिन्न वर्गों और संप्रदायों में मतभेद ही बढ़ा और सांप्रदायिकता के विकास में वृद्धि हुई। दिसंबर 1930 में मुस्लिम लीग ने इलाहाबाद के सम्मेलन में नागरिक अवज्ञा आन्दोलन का खुलकर विरोध किया। इस घटना ने लॉर्ड इरविन को यह कहने का मौक़ा दिया, क्योंकि गांधीजी उस वर्ग के हितों की बात नहीं करते, अतः कांग्रेस भारत के सभी वर्गों की प्रतिनिधि नहीं है। एक तरह से देखें तो यह सम्मेलन एकदम बेमानी था। मुहम्मद अली जिन्ना को छोड़कर कोई भी महत्त्वपूर्ण नेता ने इसमें भाग नहीं लिया था। हथियार डालते हुए 19 जनवरी, 1931 को सम्मेलन के समापन सत्र में ब्रिटिश प्रधान मंत्री रैमजे मैक्डोनल्ड ने अपने विदाई भाषण में यह आशा व्यक्त की कि कांग्रेस अपने प्रतिनिधि द्वितीय गोलमेज सम्मेलन के लिए ज़रूर भेजेगी। कम-से-कम यह तो एक उपलब्धि तो थी ही कि ब्रिटिश सरकार ने महसूस किया कि भारत में संवैधानिक सरकार के भविष्य पर किसी भी चर्चा में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की भागीदारी आवश्यक थी। इस प्रकार असफल प्रथम गोलमेज सम्मेलन 19 जनवरी, 1931 को अनिश्चित काल के लिए स्थगित हो गया सुभाष चन्द्र बोस ने इस गोलमेज सम्मलेन पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा था, इसने भारत को दो तीखी गोलियां दीं – अभिरक्षण और संघराज्य। गोलियों को खाने योग्य बनाने के लिए उन पर उत्तरदायित्व का मीठा मुलम्मा चढ़ा दिया गया। सप्रू जैसे उदारवादी नेताओं को केंद्र में उत्तरदायी सरकार होने की बात पसंद आई। शायद वे भांप नहीं पाए कि इसके माध्यम से ब्रिटिश उत्तरदायी सरकार के मुखौटे के पीछे वास्तव में ब्रिटिश नियंत्रण बनाए रखना चाहते थे। सम्मेलन के बाद गांधीजी सहित सभी भारतीय नेताओं को रिहा कर दिया गयाभारत लौटने पर तेजबहादुर सप्रू गांधीजी से मिले और उन्हें लॉर्ड इरविन से मिलने और बातचीत करने के लिए राज़ी कर लिया। गांधीजी ने वायसराय को पात्र लिखकर पूछा कि क्या बातचीत से मसले को नहीं सुलझाया जा सकता? वायसराय का जवाब सकारात्मक था। गाँधी-इरविन वार्ता हुई और उसके परिणामस्वरूप एक समझौता हुआ, जिसे गाँधी-इरविन समझौता कहा जाता है।

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मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां-  राष्ट्रीय आन्दोलन

संदर्भ : यहाँ पर

शनिवार, 26 अप्रैल 2025

325. पहला गोल मेज सम्मेलन

राष्ट्रीय आन्दोलन

325. पहला गोल मेज सम्मेलन



1930

अहमदाबाद में कांग्रेस महासमिति की बैठक

 15 मई को अहमदाबाद में कांग्रेस महासमिति की एक बैठक की गई। इसमें नमक सत्याग्रह ज़ारी रखने, विदेशी कपड़ों का पूर्ण बहिष्कार करने और शराब की दुकानों पर धरना देने का प्रस्ताव पारित किया गया। यह भी सुझाव दिया कि राजस्व का भुगतान नहीं किया जाएगा।

दांडी यात्रा एक ऐसी चिंगारी थी जिसने स्वतंत्रता आंदोलन की लौ को प्रज्ज्वलित किया व सविनय अवज्ञा आंदोलन की जड़ों को पूरे देश में व्यापक रूप से फैलाने में निर्णायक भूमिका अदा की।  नमक यात्रा के कारण ही अंग्रेजों को यह अहसास हुआ था कि अब उनका राज बहुत दिन नहीं टिक सकेगा और उन्हें भारतीयों को भी सत्ता में हिस्सा देना पड़ेगा। इस लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए ब्रिटिश सरकार ने लंदन में गोल मेज सम्मेलनों का आयोजन शुरू किया।

1929 में, रैमसे मैकडोनाल्ड के नेतृत्व में लेबर सरकार ने ब्रिटेन में सत्ता संभाली और वायसराय लॉर्ड इरविन को परामर्श के लिए लंदन बुलाया गया। 1930 के दौरान सरकार का रवैया दुविधापूर्ण रहा। इस बीच, साइमन कमीशन की रिपोर्ट का प्रकाशन, जिसमें डोमिनियन स्टेटस का कोई उल्लेख नहीं था और जो अन्य तरीकों से एक प्रतिगामी दस्तावेज भी था, दमनकारी नीति के साथ मिलकर उदारवादी राजनीतिक राय को और भी परेशान कर दिया। घटनाक्रम तेजी से आगे बढ़ रहा था। ब्रिटिश सरकार ने एक कदम आगे बढ़ाया और वायसराय लॉर्ड इरविन ने अक्टूबर में इंग्लैंड से लौटने के तुरंत बाद एक गोलमेज सम्मेलन की घोषणा की, जिसमें ब्रिटिश और भारतीय राजनेता शामिल थे, जिसका उद्देश्य संसद में प्रस्तुत किए जाने वाले अंतिम प्रस्तावों पर सहमति प्राप्त करना था। 31 अक्टूबर को लॉर्ड इरविन द्वारा दिए गए बयान में उन्होंने कहा: "ब्रिटेन और भारत दोनों में 1919 के क़ानून को लागू करने में ब्रिटिश सरकार के इरादों पर की जाने वाली व्याख्या के बारे में व्यक्त की गई शंकाओं को देखते हुए, मैं महामहिम की सरकार की ओर से स्पष्ट रूप से यह कहने के लिए अधिकृत हूं कि उनके निर्णय में, 1917 की घोषणा में यह निहित है कि भारत की संवैधानिक प्रगति का स्वाभाविक मुद्दा, जैसा कि वहां परिकल्पित है, डोमिनियन स्थिति की प्राप्ति है।" लॉर्ड इरविन ने पहली बार एक बाध्यकारी आधिकारिक कथन में जादुई शब्द "डोमिनियन" का इस्तेमाल किया। यह वादा अनिर्धारित और अपरिभाषित था, लेकिन फिर भी इसने भारतीय नेताओं पर अपनी छाप छोड़ी, क्योंकि इसके साथ ही दो समान राष्ट्रों के नेताओं के बीच एक गोलमेज सम्मेलन की पेशकश भी हुई, जिसकी भारतीयों ने लंबे समय से व्यर्थ मांग की थी।

वायसराय द्वारा यह घोषणा अभी की ही गई थी कि दिल्ली में अध्यक्ष पटेल के निवास पर नेताओं का सम्मेलन बुलाया गया। सम्मेलन तीन घंटे से अधिक समय तक चला और इसमें गांधीजी के मसौदे पर कुछ संशोधनों के साथ विचार किया गया, जिसमें सप्रू द्वारा दिए गए कुछ सुझाव भी शामिल थे। सहमति वाला बयान इस प्रकार था: "हम घोषणाओं में निहित ईमानदारी की सराहना करते हैं, साथ ही ब्रिटिश सरकार की भारतीय जनमत को खुश करने की इच्छा की भी। हमें उम्मीद है कि हम भारत की जरूरतों के लिए उपयुक्त डोमिनियन स्टेटस संविधान की योजना विकसित करने के उनके प्रयास में महामहिम की सरकार को अपना सहयोग देने में सक्षम होंगे, लेकिन हम यह आवश्यक समझते हैं कि कुछ कार्य किए जाने चाहिए और कुछ बिंदुओं को स्पष्ट किया जाना चाहिए, ताकि विश्वास को प्रेरित किया जा सके और देश में प्रमुख राजनीतिक संगठनों का सहयोग सुनिश्चित किया जा सके।" शर्तें थीं: प्रस्तावित सम्मेलन में सभी चर्चाएं भारत के लिए पूर्ण डोमिनियन स्टेटस के आधार पर होनी चाहिए; सम्मेलन में कांग्रेसियों का प्रमुख प्रतिनिधित्व होना चाहिए; सभी राजनीतिक कैदियों को आम माफी दी जानी चाहिए; भारत सरकार अब से, जहां तक ​​संभव हो, मौजूदा परिस्थितियों में, एक डोमिनियन सरकार की तर्ज पर चलेगी।

घोषणापत्र पर गांधी, मालवीय, मोतीलाल नेहरू, सप्रू, श्रीमती बेसेंट और डॉ. अंसारी सहित अन्य लोगों ने हस्ताक्षर किए थे। जवाहरलाल नेहरू पहले असहमत दिखे, लेकिन बाद में उन्होंने इस पर हस्ताक्षर करने पर सहमति जताई। सुभाष बोस, डॉ. किचलू और अब्दुल बारी ने घोषणापत्र का समर्थन करने से इनकार कर दिया।

वायसराय के बयान ने इंग्लैंड में तूफान खड़ा कर दिया। प्रधानमंत्री मैकडोनाल्ड को यह स्पष्ट करना पड़ा कि इसका मतलब नीति में कोई बदलाव या डोमिनियन स्टेटस में कोई तेज़ी नहीं है।

पहला गोल मेज सम्मेलन 12 नवम्बर 1930 में आयोजित किया गया। जब हजारों भारतीय जेल जा रहे थे या लाठियों और गोलियों का सामना कर रहे थे, और संपत्ति का नुकसान हो रहा था, तब एक गैर-प्रतिनिधित्व वाला मुट्ठी भर व्यक्ति बहुदलीय ब्रिटिश प्रतिनिधिमंडल के साथ संवैधानिक वार्ता के लिए लंदन गया था। इसमें 112 प्रतिनिधियों ने भाग लिया था। कांग्रेस ने खुद को दूर रखा था।

देश में आंदोलन अपने चरम पर था। हज़ारों भारतवासी जेल जा रहे थे। भारत के सपूत लाठी या गोली खा रहे थे। लोग अपनी संपत्ति से वंचित हो रहे थे। ऐसे में बहुदलीय ब्रिटिश शिष्टमंडल के साथ संवैधानिक वार्ताएं करने के लिए न तो उसमें महात्मा गांधी और न ही कांग्रेस का कोई प्रमुख नेता शामिल हुए। इसी कारण अंततः  यह बैठक निरर्थक साबित हुई। उदावादी प्रतिनिधियों ने गोलमेज सम्मेलन को भारत के लिए एक उपलब्धि बताया। सप्रू और जयकर ने इस समेलन में भाग लिया था। होमी मोदी को छोड़कर व्यापारियों के किसी नेता ने भी भाग नहीं लिया। मुहम्मद अली, मुहम्मद शफ़ी, आग़ाख़ान, फ़ज़लुल-हक़, जिन्ना, फ़ज़्ले हुसैन आदि मुसलमान नेता बड़ी संख्या में उपस्थित थे। रजवाड़ों का एक बड़ा जत्था भी मौज़ूद था। नेता भीमराव अंबेडकर इसमें सम्मिलित हुए और वहां उन्होंने अलग निर्वाचक मंडल बनाए जाने की मांग प्रस्तुत की। जो भी लोग इस सम्मेलन में भाग लेने के लिए आए थे उनके सामने ब्रिटिशों द्वारा केन्द्र में किसी प्रकार के परिवर्तन का वादा करना आवश्यक हो गया था। ऐसी स्थिति में रजवाड़ों द्वारा एक संघीय विधायिका का प्रस्ताव आया जिसके बहुत से सदस्य राजाओं द्वारा मनोनीत हों और वह कार्यपालिका के प्रति उत्तरदायी हो। प्राधानमंत्री रैमजे मैकडोनल्ड ने इसे मानने की घोषणा कर दी। भारतीय राजा तो चाहते थे कि केन्द्र में कमज़ोर सरकार रहे, जिसमें उनकी उपस्थिति उसे लोकतांत्रिक बनाए रखने में सहायक होगी। खास तौर से ऐसे समय में जन-आंदोलन के दबाव के कारण कम-से-कम डोमिनियन स्टेटस मिलने का खतरा दिखाई दे रहा था, जिसमें केन्द्र में कांग्रेसी वर्चस्ववाली सरकार तो आ ही जाती। मुसलमान भी केन्द्र में कमज़ोर सरकार चाहते थे। ब्रिटिशों के लिए भी यह लाभप्रद प्रस्ताव था ताकि उत्तरदायी सरकार के मुखौटे के पीछे वास्तव में ब्रिटिश नियंत्रण बनाए रखा जा सकता। अंग्रेज़ों के पक्ष में एक और बात यह हुई कि सम्मेलन की अल्पसंख्यक समिति किसी समझौते पर पहुंचने में असफल रही। जिन्ना, शफ़ी और आग़ाख़ान उदारवादियों के सप्रू गुट के साथ समझौते की स्थिति तक लगभग पहुंच ही गए थे। इसका आधार संयुक्त निर्वाचक मंडल होते और मुसलमानों के लिए आरक्षित सीटें होतीं। लेकिन हिंदू महासभा ने पंजाब और बंगाल में मुसलमानों के आरक्षण का विरोध किया। उसपर से सिखों ने पंजाब में सिखों के लिए 30% प्रतिनिधित्व की मांग रख दी। इस तरह एकता का अवसर हाथ से जाता रहा। सम्मलेन असफल रहा। निराश जिन्ना ने मन में यह भाव लिए कि कांग्रेस ने खुद को पूरी तरह गांधी के हाथों में सौंप दिया है, सीधे भारत न आने का फैसला किया। उसने लन्दन में ही वकालत करने की सोची।

19 जनवरी, 1931 को सम्मेलन के समापन सत्र में ब्रिटिश प्रधान मंत्री रैमजे मैक्डोनल्ड ने अपने विदाई भाषण में यह आशा व्यक्त की कि कांग्रेस अपने प्रतिनिधि द्वितीय गोलमेज सम्मेलन के लिए ज़रूर भेजेगी। प्रधान मंत्री ने घोषणा की कि, एक संघीय विधानसभा जिसमें एक बड़ा हिस्सा राजकुमारों द्वारा मनोनीत किया जाएगा, एक सुरक्षित निकाय साबित होगी। यह विचार औपचारिक रूप से राजकुमारों, विशेष रूप से हैदराबाद (अकबर हैदरी) और मैसूर (मिर्जा इस्माइल) के दीवानों से आया था, लेकिन हैदरी को शुरू में ब्रिटिश निवासी लेफ्टिनेंट कर्नल टेरेंस एच. कीज़ द्वारा राजी किया गया था, और इस सुझाव को मैल्कम हैली जैसे ब्रिटिश अधिकारियों और रीडिंग, होरे, ज़ेटलैंड जैसे ब्रिटिश राजनेताओं और बहुत उदार लेबराइट राज्य सचिव वेजवुड-बेन ने उत्सुकता से लिया था। भारतीय राजाओं की रुचि एक कमजोर केंद्र में थी, जिसे उनके प्रवेश से अलोकतांत्रिक बनाए रखने में भी मदद मिलेगी, खासकर ऐसे समय में जब जन दबाव के कारण डोमिनियन स्टेटस लाने की धमकी दी जा रही थी, कम से कम कांग्रेस के प्रभुत्व वाली केंद्रीय सरकार के साथ-और यहां हिंदू बहुमत वाले शासन की संभावना से चिंतित राजकुमारों और मुस्लिम राजनेताओं के बीच हितों की एक वस्तुगत समानता भी थी।

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मनोज कुमार

 

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