सोमवार, 15 नवंबर 2010

बाल दिवस

 

--ज्ञानचंद मर्मज्ञ                     

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शहर की पीली बत्तियों वाली वीरान रात,
और सड़कों पर फैले सन्नाटों के बिस्तर पर लेटे,
कई मासूम अनसुलझे उदास सवालात !
याद आया,
उस दिन मंदिर के पास टूटी पड़ी थीं कुछ मूर्तियाँ,
शायद
ये वही टुकड़े हैं भागवान के !
पहचान लीजिये,
ये रतीले बचपन के मालिक,
ठोस सबूत हैं हमारी सभ्यता के,
प्रतिरूप हैं सभ्य इंसान के !
धूप जला दे या बर्फ गला दे
उनकी मर्जी !
करें भी क्या ,
मजबूरी की गहरी खाई से छतों वाला घर बहुत दूर है !
इनकी बेबसी से ज्यादा हमें अपने इंसान होने पर गुरुर है !
इनकी कहानी में
न कोई राजा है न रानी ,

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आँखों में सपनों की जगह भरा है समंदर का खारा पानी !
यहाँ पिता की कोई भूमिका नहीं ,
वह इन्हें कन्धों पर कभी नहीं घुमाता !
उसे क्या पड़ी है
टकटकी लगाए नन्ही आँखों के धूल भरे रेगिस्तान में आने की ,
वह कभी नहीं आता !
और माँ ,
वह तो बस सपने में आती है ,
और  सुबह होने से पहले ही
आँसू बनकर इन्हीं सड़कों पर बिखर जाती है !
फिर चल पड़ता है
उन्हीं अनजान राहों पर ये काफिला ,
और
शुरू हो जाता है भटकने का वही लम्बा सिलसिला !
मखमली उम्र में,
क्या आपने किसी अपने को इस तरह जलते हुए देखा है ?
व्यवस्था के खौलते पानी में
बचपन को जिंदा उबलते हुए देखा है ?

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अगर नहीं
तो बंद कीजिये यह तमाशा
और घर जाइए !
कृपा करके `बाल दिवस` मत मनाइए !
या फिर हिम्मत है तो-
डाल दीजिये इनकी झोली में
अपनी सुबह का एक टुकड़ा
जो इनकी आँखों से बहकर
बिखरती माँ की तस्वीर में फिर से रंग भर सके,
और
इनकी रातों  को
यूँ सड़क पर भटकनें को कभी विवस न कर सके !

27 टिप्‍पणियां:

  1. 'बाल-दिवस' पर की जाने वाली बड़ी-बड़ी तैयारियों की की पोल खोलती यह कविता ,और इसकी चुभती हुई पंक्तियाँ -
    'मखमली उम्र में,
    क्या आपने किसी अपने को इस तरह जलते हुए देखा है ?
    व्यवस्था के खौलते पानी में
    बचपन को जिंदा उबलते हुए देखा है ?
    अगर नहीं
    तो बंद कीजिये यह तमाशा
    और घर जाइए !
    कृपा करके `बाल दिवस` मत मनाइए !'
    हमारी पूरी व्यवस्था पर एक बड़ा-सा प्रश्न-चिह्न खड़ा कर देती है . बधाई स्वीकारें !

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  2. प्रतिभाजी की बातों से सहमत। पूरी व्यवस्था पर प्रश्म-चिन्ह खड़ी करती एक सशक्त रचना जो हमें काफ़ी सोचने पर मज़बूर करती है।

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  3. ab jaha dekhe prashn chinh hee nazar aate hai CWG ho Spectrum ho ya avaidh construction kab tak ye chalta rahega pata nahee .......
    aapke vicharo se pooree tour se sahmat.......baboojee kahte the ki daye hath se daan do to baye hath ko nahee pata chalna chahiye mai bhee isee baat me vishvas rakhatee hoo.Us bhour ka intzar hai jab sara jag inke bhavishy ko le chintit hoga.......
    sarahneey lekhan ke liye aabhar manoj jee.

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  4. न राजा की, न रानी की,
    पर रहने लायक तो हो यह जीवनी।
    सुन्दर कविता।

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  5. बाल दिवस के अवसर पर एक विचारोत्तेजक कविता प्रस्तुत की है आपने जो बाल मन की दशा और व्यवस्था की दिशा को बयान करती है। कविता में कुछ बहुत सुन्दर बिम्ब प्रयोग हुए हैं।

    "हिम्मत है तो-
    डाल दीजिये इनकी झोली में
    अपनी सुबह का एक टुकड़ा
    जो इनकी आँखों से बहकर
    बिखरती माँ की तस्वीर में फिर से रंग भर सके।"

    बधाई।

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  6. कविता वास्तव में एक प्रश्न के रूप में प्रस्तुत है। कुछ बिम्ब नए से लगते हैं।

    साधुवाद।

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  7. व्यवस्था पर प्रश्न करती और सामाजिक चेतना को जागृत करती रचना ...

    या फिर हिम्मत है तो-
    डाल दीजिये इनकी झोली में
    अपनी सुबह का एक टुकड़ा
    जो इनकी आँखों से बहकर
    बिखरती माँ की तस्वीर में फिर से रंग भर सके,

    बहुत अच्छी लगीं यह पंक्तियाँ ...अंतिम पंक्ति में विवस को विवश कर दें ...

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  8. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  9. आदरणीय मनोज जी ,
    बाल दिवस के अवसर पर मेरी रचना को अपने ब्लॉग पर स्थान देकर आपने मेरे विचारों के स्पंदन को सुधि पाठकों तक संप्रेषित करने का सुअवसर प्रदान किया, इसके लिए मैं आपका आभारी हूँ !
    -ज्ञानचंद मर्मज्ञ

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  10. सार्थक टिप्पणियों द्वारा मेरा मनोबल बढ़ाने हेतु सभी पाठकों के प्रति मैं कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ !
    -ज्ञानचंद मर्मज्ञ

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  11. चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना 16 -11-2010 मंगलवार को ली गयी है ...
    कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..


    http://charchamanch.blogspot.com/

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  12. संगीता जी,
    कविता को चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य- मंच पर स्थान देने के लिए धन्यवाद और आभार !
    -ज्ञानचंद मर्मज्ञ

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  13. दिल को झकझोर देने वाली रचना.वाकई क्या बाल दिवस मनाने का हक है हमारे समाज को?

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  14. एक टुकड़े के लिए सुबह के प्रतीक के कारण अर्थ बहुत व्यापक हो गया है। निश्चय ही,यहां रोटी की नहीं;सपनों,हौसलों और उम्मीदों की सुबह की बात की जा रही है।

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  15. मखमली उम्र में,
    क्या आपने किसी अपने को इस तरह जलते हुए देखा है ?
    व्यवस्था के खौलते पानी में
    बचपन को जिंदा उबलते हुए देखा है ?
    .....

    एक सुलगता मासूम सवाल. झकझोर देने वाला विचार .

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  16. 'मखमली उम्र में,
    क्या आपने किसी अपने को इस तरह जलते हुए देखा है ?
    व्यवस्था के खौलते पानी में
    बचपन को जिंदा उबलते हुए देखा है ?
    अगर नहीं
    तो बंद कीजिये यह तमाशा
    और घर जाइए !
    कृपा करके `बाल दिवस` मत मनाइए !'

    शायद इसके बाद कुछ कहने को बचा ही नही…………बेहद गंभीर विषय सोचने को मजबूर करता है…………नायाब प्रस्तुति।

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  17. हर्फ़ बा हर्फ़ सत्य...

    विद्रूप शर्मनाक सत्य...

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  18. aadarniy sir
    aapki yah post dhol me pol wali kahavat ki charitarth karti hai . bilkul sahi vek kduva sach.
    waqai in majbur bachcho ko bal-diwas ya kisi bhi khas din ka kya matlab .inhe to pait ki bhukh mitane ko roti v tan dhankne purana kapda hi mil jay to yehi unake liye sabse jyaada khush milne wali baat hai.
    डाल दीजिये इनकी झोली में
    अपनी सुबह का एक टुकड़ा
    जो इनकी आँखों से बहकर
    बिखरती माँ की तस्वीर में फिर से रंग भर सके,
    और
    इनकी रातों को
    यूँ सड़क पर भटकनें को कभी विवस न कर सके !
    bahuthi sashakt avam sochne par vivash karti hai aapki post.
    poonam

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  19. बहुत ही अच्छी प्रस्तुति . काश हमारे देश के रहनुमा लोग इन बच्चो की हकीकत से रूबरू होकर इनके लिए कुछ करते...

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  20. बालदिवस मनाने के औचित्य पर गंभीर प्रश्न उठाया है इस कविता ने ...!
    सार्थक अभिव्यक्ति ...आभार !

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  21. सभी पाठकों को उनकी सारगर्भित टिप्पणियों के लिए धन्यवाद !
    -ज्ञानचंद मर्मज्ञ
    www.marmagya.blogspot.com

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