मंगलवार, 23 नवंबर 2010

साहब का आदेश

 -- सत्येन्द्र झा

कार्यालय के सभी कर्मचारी-अधिकारी विलम्ब से कार्यालय आते थे। लोगों को बहुत कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था। एक दिन जब आक्रोश बहुत बढ़ गया तो लोगों ने उस कार्यालय के वरिष्ठ अधिकारी से भेंट करने का फ़ैसला किया, “श्रीमान, आपके कार्यालय में आपको छोड़ कर कोई भी कर्मचारी समय पर नहीं आता है।”

तुरत आदेश निर्गत हुआ, “समय का पालन कठोरता से किया जाय।”

अगले दिन सभी अधिकारी-कर्मचारी समय पर कार्यालय में उपस्थित थे किन्तु वरिष्ठ अधिकारी की जगह खाली थी। वे शायद अपने वरिष्ठ अधिकारी के आदेश की प्रतीक्षा कर रहे थे।

(मूल कथा मैथिली में “अहीं के कहै छी में संकलित “सीढ़ी” से हिन्दी में केशव कर्ण द्वारा अनुदित)

31 टिप्‍पणियां:

  1. क्या बात है, एक अच्छा पोस्ट.

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  2. कार्यालय जरूर सरकारी रहा होगा। वहीं सारे नियम कानून दूसरों के लिए होते हैं।

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  3. सटीक व्यंग्य है, व्यवस्था पर!!

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  4. व्यवस्था पर अच्छा व्यंग्य किया है।
    आभार।

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  5. अब खुद के लिए भी तो आदेश चाहिए ...सटीक व्यंग

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  6. हमारे दफ्तर में आज ऐसा ही हुआ... सटीक लघुकथा..

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  7. वाह.... ! सतसैय्या के दोहरे और नाविक के तीर ! देखन में छोटन लगे, घाव करे गंभीर !! डपोरशंखी व्यवस्था की पोल खोलती सटीक रचना !! धन्यवाद !!!

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  8. अधिकतर ऐसा ही होता है! सीख देने वालों की कमी नहीं है मगर उस पर खुद अमल करने वाले बहुत ही कम लोग हैं!
    अच्छी पोस्ट है !
    -ज्ञानचंद मर्मज्ञ

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  9. अरे तो...आदेश तो लेना ही पड़ेगा न :) सटीक व्यंग.

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  10. सही बात है जब तक आदेश न मिले काम कैसे हो :)
    बढ़िया !

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  11. अच्छा व्यंग किया है
    कम शब्दों में एक बड़ी बात
    dabirnews.blogspot.com

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  12. यहीं तो हिन्दुस्तान मार खा गया ना भैया

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  13. वाह !!!!

    थोड़े में कितना कुछ कह दिया इस कथा ने...

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  14. आगे क्या हुआ? कर्मचारियों ने अफसर की चुटकी ली कि नहीं?

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  15. सटीक व्यंग्य.
    सादर
    डोरोथी.

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