मंगलवार, 4 जनवरी 2011

लघुकथा:: वास्तव में…..!

लघुकथा:: वास्तव में…..!

सत्येन्द्र झा

नाटक चल रहा था। नायक नायिका से कहता है, "मेरा और तुम्हारा साथ तो जन्म-जन्मों का है। तुम्हारे प्यार के बिना तो अब एक पल भी जीना मुमकिन नहीं.... !"

नाटक समाप्त हुआ।

एक घर में उसी दृश्य की पुनरावृति चल रही है। युवक युवती से वैसा ही प्रणय-निवेदन कर रहा है। किन्तु नाटक में नायक सदा के लिए युवती का हाथ पकड़ता है जबकि घर वाला युवक विवाह के प्रसंग में। वह युवती से कहता है, "मुझे कुछ याद नहीं आ रहा कि मैं ने तुम से कभी ऐसा कुछ कहा था.... !"

अभिनय और वास्तविकता एक दूसरे में उलझ गए थे। वास्तव में अभिनय का चरित्र उलट गया था।

(मूल कथा मैथिली में 'अहीं कें कहै छी' में संकलित 'जाति-अजाति' से हिंदी में केशव कर्ण द्वारा अनुदित।)

24 टिप्‍पणियां:

  1. यह अनूदित लघुकथा वास्तव में बहुत बढ़िया रही!

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  2. हममें से प्रायः सब एकाधिक स्तरों पर जी रहे होते हैं। इन्हीं परतों के बीच कहीं हमारा स्व गुम हो गया लगता है।

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  3. व्यवहारिक जीवन में हम आदर्शों से समझौता तो कर लेते हैं लेकिन जब समय आता है तो यथार्थ इसका उपहास करने लगता है। शोचनीय पोस्ट।
    लगता है- आप मुझे(प्रेम सरोवर) भूलते जा रहे हैं।

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  4. यह अनूदित कथा ..वास्तविकता कुछ और होती है ...की तरफ इंगित करती है ..शक्रिया

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  5. नाटक तो खैर नाटक है ... पर कुछ लोग जिंदगी को नाटक बनाकर औरों की जिंदगी से खिलवाड़ करते हैं ...
    वास्तव को दर्शाती लघुकथा !

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  6. यही फ़र्क है ज़िन्दगी और नाटक मे।

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  7. वास्तविकता की अभिनय से जंग जारी है।

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  8. सत्य दर्शाती कथा ... कभी कभी असल और नाटक की खिचड़ी हो जाती है ..... आपको और परिवार में सभी को नव वर्ष मंगलमय हो ...

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  9. सुंदर लघु कथा| अनुवादक महोदय को भी बहुत बहुत बधाई|

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  10. इस लघु कथा के माध्यम से आपने एक वृहद् यथार्थ को दर्शा दिया।
    आभार मनोज जी।

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  11. प्यार ओर सच्चे प्यार मे फ़र्क हे जी,सच्चा प्यार करने वाला कभी अपने प्यार को नही दिखाता...कभी नही दर्शाता, बस पुजा की तरह से प्यार करता हे.

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  12. लघु कलेवर में जो गंभीर बात कह दी गयी है न...बस निःशब्द निरुत्तर कर देने वाली है..

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  13. ज़िन्दगी और नाटक मे फ़र्क है....सत्य दर्शाती कथा ....अनुवादक को भी बहुत बधाई

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  14. जिंदगी और नाटक में यही फर्क है.अभिनय हम जैसा चाहें कर सकते हैं.

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  15. लघुकथा में संदेश तो उपस्थित है लेकिन कहनीपन का अभाव सा है। कह सकते हैं कि कथा के शिल्प को तराशकर इसे और प्रभावशाली बनाया जा सकता था।

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  16. सत्येंद्र जी की लघुकथा यहाँ धारावाहिक रूप से पढने को मिलती रही है.. हर बार विषय और संदेश में नयापन देखने को मिला है..यह भी अभिनय के वास्तविक मंच की व्यथा और पीड़ा को रेखंकित करती है..

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  17. नाटक और जिंदगी में बड़ा अंतर भी तो है ...

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  18. दोस्तों
    आपनी पोस्ट सोमवार(10-1-2011) के चर्चामंच पर देखिये ..........कल वक्त नहीं मिलेगा इसलिए आज ही बता रही हूँ ...........सोमवार को चर्चामंच पर आकर अपने विचारों से अवगत कराएँगे तो हार्दिक ख़ुशी होगी और हमारा हौसला भी बढेगा.
    http://charchamanch.uchcharan.com

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