सोमवार, 14 मई 2012

दफ़्तर के अंध महासागर में


दफ़्तर के अंध महासागर में

श्यामनारायण मिश्र

पश्चिम में
     फैल गया
          संध्या का कुंकुम,
देहरी पर
     मन होगा
          खिड़की पर तुम,
गले हुए लोहे की लाल झील तैरूं
फिर चांदनी नहाऊं,
घर आऊं।

रोज़ नये सपनों की
     डोंगियां तिराता हूं
          दफ़्तर के अंध महासागर में।
प्रहर गये रात
     लौट आता हूं
          बस ख़ाली हाथ लिये
              अलसाये घर में।

बिना रास वाले काग़ज़ के घोड़ों को
              किसी तरह फेरूं
तो जी में जी पाऊं
घर आऊं
देखूं तब
     ओठों पर खिला
          हुआ जावा कुसुम।
***  ***  ***
चित्र : आभार गूगल सर्च

22 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर प्रस्तुति |
    बधाई ||

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  2. बहुत अच्छी कविता है। मिश्र जी ने शब्दों से जादू किया है।

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  3. कितनी सुन्दर कवितायें चुनते हैं आप !

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  4. मिश्र जी कविताओं का जबाब नहीं ,.....लाजबाब रचना,......

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  5. बिना रास वाले काग़ज़ के घोड़ों को
    किसी तरह फेरूं
    तो जी में जी पाऊं
    घर आऊं
    देखूं तब
    ओठों पर खिला
    हुआ जावा कुसुम।

    बहुत सुंदर भाव .... आभार इस रचना के लिए

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  6. मिश्र जी की सुन्दर कविता पढ़वाने के लिए आभार....

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  7. पहली दो पंक्तियां पढ़कर ही मन मुग्ध हो गया

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  8. पश्चिम में
    फैल गया
    संध्या का कुंकुम,
    देहरी पर
    मन होगा
    खिड़की पर तुम,
    vaah khubsurat panktiya,sundar rachna .....

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  9. ओह्ह गज़ब ..बहुत सुन्दर.

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  10. कमाल की कविता है.. लगभग यही भाव मैंने कई साल पहले अपने किसी मित्र के सामने व्यक्त किये थे.. आज मेरे भाव कविता बनकर निखर गए हैं.. मिश्र जी को नमन!!

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  11. कविता तो बस झंकार भर देती है ह्रदय में.

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  12. रोजमर्रे की जिन्दगी में रसवत् कल्पना की इमारत खड़ी करने में मिश्रजी की लेखनी काफी समर्थ है, इसका यह एक ज्वलन्त उदाहरण है।

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  13. किसी भी कविता में मौलिकता उसी समय देखने को मिलती है जब कवि का भाव अमल और धवल होता है एवं कविता के हर शब्द अपने साथ कवि के मन में रचे बसे भावों को आद्योपांत अपनी पूर्ण समग्रता में आगे की ओर ले जाते हैं। मिश्र जी की कविता की कुछ खास एसी ही विशेषता है जो उनकी रचनाधर्मिता को हर कविता में एक नया आयाम प्रदान करती है। भाव-प्रवण कविता बहुत ही अच्छी लगी । धन्यवाद ।

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  14. बिना रास वाले काग़ज़ के घोड़ों को
    किसी तरह फेरूं
    तो जी में जी पाऊं
    घर आऊं
    देखूं तब
    ओठों पर खिला
    हुआ जावा कुसुम।
    There is a undercurrent in all his poetic expression deep felt emotions and personification of nature.

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  15. कविता अच्छी है... सुन्दर प्रस्तुति...

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  16. रोज़ नये सपनों की
    डोंगियां तिराता हूं
    दफ़्तर के अंध महासागर में।

    बहुत सुंदर नवगीत....

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  17. मिश्र जी की सुन्दर कविता प्रस्तुति के लिए आभार.!

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  18. मिश्र जी की रचनाओं से सहज रूप से एक सेतु निर्मित हो जाता है..

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