आंच-121
माँ और भादो
मनोज कुमार
अरुण चन्द्र रॉय की ताज़ी कविता “मां और भादो” को पढ़ते ही लगा कि इसे आंच पर लिया जाए। मां को केन्द्रीत इस कविता में कवि ने जहां यह दर्शाने की कोशिश की है कि भादो के मास में जहां एक ओर वर्षा नहीं वहीं दूसरी ओर सरकार ने कई ऐसे निर्णय ले डाले हैं, जिससे आम जन को कोई खास राहत नहीं मिलने वाली है। एक ओर एफ़.डी.आई. आदि जैसे निर्णय हैं, जो बहुराष्ट्रीय विदेशी कंपनियों को प्रतयक्ष रूप से लाभ पहुंचाएगा वहीं ग्रामीण कृषक और निर्धन वर्ग अभाव और संत्रास को झेल रहा है। इन सब के बीच मां है जो जिस देवता को पूजती है, इस बार उसे ही कोस रही है, कि तेरी चमक ने हर ओर आग लगा दी है और लोग त्राहि-त्राहि कर रहे हैं। इस कविता में कवि ने मां के रूप में ऐसा बिम्ब लिया है जिसे जितने रूपों में सोचा जाए साकार हो जाता है। इस कविता को पढ़ते हुए जो भाव अनायास मन में उपजे उन्हें टिप्पणी के रूप में मैं कुछ इस प्रकार लिख गया :
ये एक ऐसा भादो है
जिसमें सिर्फ़ कादो-ही-कादो है
सत्ता की बेरुख़ी है
मां दुखी है
जग, समाज, निज-का संताप लिए
जल रहा सूरज
चमक और ताप लिए
अब हमें बाज़ार जाना नहीं है
घुस आया है बाज़ार हमारे घर में
और
मुस्कुरा रहा सूरज
नीले अम्बर में!
आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया 1991 में शुरू हुई थी। उस समय सुधार-समर्थकों ने कहा था कि इसका एक मानवीय चेहरा भी होगा। जिन लोगों ने इसकी आलोचना तब की थी, आज भी कर रहे हैं। उन्होंने तब कहा था कि इनके मार्फ़त सांस्कृतिक हमले भी किए जाएंगे। आज दो दशक के बाद कम-से-कम यह तो पक्का हो ही गया है कि इनमें मानवीय चेहरे लापता हैं। ... और जो सांस्कृतिक हमले हो रहे हैं उसका तो कहना ही क्या!
ऊंचे पदों पर हो रहे भ्रष्टाचार में कहीं न कहीं इन तथाकथित आर्थिक सुधारों का बहुत बड़ा हाथ है। हर बड़े घोटाले के तथाकथित लाभ पाने वाले पर अगर नज़र डालें तो पाएंगे कि इन सुधारों का सबसे ज़्यादा फ़ायदा इन्हें ही पहुंचता रहा है। क्या आज ग़रीब आत्मसम्मान से सिर ऊंचा रख पा रहा है? सुधारों के द्वारा सौंपी जा रही जीवनशैली ने कितना भला किया है – हमारे आपसी संबंधों का? क्या बाज़ार की डोर हमारे आपसी संबंधों की पतंग को नहीं काटे दे रही है? दरसल मुनाफ़ा कमाने का सिलसिला हमारे घरों के भीतर ही नहीं हमारे मन के दरवाज़े से दिल के भीतर भी घुस आया है और बाहर से ताला जड़ दिया गया है। आम आदमी मैंगो पिपल बना दिया गया है जो अपने रोटी, कपड़ा और मकान की फ़िकर में ही दिन-रात घुला जा रहे हैं।
अर्थ-व्यवस्था को पटरी पर लाने के नाम पर पिछले दिनों खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की मंज़ूरी दी गई। और फिर कंपनी बिल और पेंशन बिल को भी आगामी संसद सत्र में पेश करने का ऐलान कर दिया गया है। आर्थिक सुधारों के नाम पर इन फैसलों के तहत किन क्षेत्रों पर निगाहें हैं, वह कवि (अरुण चन्द्र रॉय) की नज़रों से छिपा नहीं है। कंपनी बिल के नाम पर लिया जाने वाला फैसला कंपनियों, निवेशकों और अन्य साझीदारों के हितों को बेहतर तरीक़े से रक्षा करने के उद्देश्य से लिया गया है। गांव का गवर्नेन्स भले रसातल में जा रहा हो, कॉर्पोरेट जगत के गवर्नेन्स में कोई कमी नहीं आनी चाहिए!
अरुण चन्द्र रॉय की आलोच्य कविता “माँ” पर केन्द्रीत है। माँ – मातृभूमि भी हो सकती है, देश भी, वह गांव भी है, गांव की धरती भी, ज़मीन और खेत भी। माँ – जिसने हमें अस्तित्व में लाया, उसी के अस्तित्व को हम समाप्त करने पर तुले हैं। दूसरे शब्दों में कहे तो अपने मूल को ही नष्ट कर रहे हैं हम। ज़मीन है, तो हम हैं। उस ज़मीन से कटे और उखड़े लोगों की पीड़ा को, उन्हें विस्थापित करने की प्रक्रिया को इस कविता में स्वर दिया गया है। मां की चिंताओं के बहाने एक दिन में आर्थिक सुधार के नाम पर लिए गए फैसले की ओर इशारा करते हुए कवि कहता है –
न जाने माँ की
कैसी कैसी चिंताएं हैं
जो इस शोर में
दब कर रह जाती हैं
और इस बीच सरकार
एक दिन में ले लेती है
कई जरुरी निर्णय
जिसमे भादो के नहीं बरसने का
जिक्र नहीं होता
भूमि अधिग्रहण एवं पुनर्वास विधेयक, वस्तु एवं सेवा कर विधेयक, खाद्य सुरक्षा विधेयक, खान और खनिज (विकास और विनियमन) विधेयक, प्रतिस्पर्धा (संशोधन) विधेयक, और बीमा क़ानून विधेयक – ही वे विधेयक हैं, जिन पर एक दिन में निर्णय लिया गया। खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश को अनुमति देने के बाद कैबिनेट ने बीमा क्षेत्र में भी विदेशी निवेश की मंज़ूरी दे दी है। चिंता जताने वाले यह चिंता जता रहे हैं कि विदेशी कंपनियां लोगों के निवेश पर रिटर्न की गारंटी नहीं देंगी। उनकी नीतियाँ भारत की तमाम बचत को अपनी तरफ़ खींच लेंगी। इससे भारत के बैंकों और वित्तीय संस्थानों के लिए पूंजी की कमी हो जाएगी और आम निवेशक के लिए असुरक्षा बढ़ जाएगी। संभवतः कवि की मां की यही चिंता का कारण है।
फ़िल्म एक काल्पनिक दुनिया है और कवि की कविता में मां वास्तविक संसार में रहती है। उसके इस संसार में भादो ही भादो है, लेकिन इस भादो को भी सूखा का ग्रहण लग गया है, सावन तो फ़िल्मी परदों पर ही बरस रहा है, या यूं कहें कि कुछ खास लोगों की दुनियां में उसकी रिमझिम फुहार की नज़रे इनायत है।
बिजली क्षेत्र सरकार की भ्रामक नीतियों के कारण घुप अंधेरे में फंसा हुआ है और सुधार के नाम पर हर बार बिजली दरों में इजाफ़ा किया जाता रहा है। ‘सुरुज देव’ की आराधना करती मां भादों के बरसने का इंतज़ार ही करती रह गई है, उन किसानों की तरह जो सरकार की तरफ़ से किसी राहत पैकेज का इंतज़ार करते-करते गले में फांसी का फंदा लगाने को विवश हो गए हैं। हो भी क्यों नहीं यह पैकेज कुछ घंटे के लिए उजाले का दीदार करने वाले लोगों को अंधेरे में डुबोने का इंतजाम करता है। गांव का खेतिहर ऋण के बोझ तले दबा है, ग़रीबी के दुष्चक्र में इस कदर फंसा है, कि आत्महत्या तक की नौबत आ जाती है। बिजली नहीं, तो पानी नहीं, पानी नहीं तो धान नहीं, धान नहीं तो भुखमरी और आत्महत्या, यानी जीवन नहीं। ऐसे में मां का ‘सुरुज देव’ से नाराज़ होना जायज़ ही है। रोशनी का वितरण ऐसा कि जो रोशन हैं, रोशनी वहीं है, और जो अंधेरे में हैं वे घुप अंधेरे में घिरते जा रहे हैं, और आर्थिक सुधार के नाम पर उनके लिए सिर्फ उजाले का सपना लगातार बेचा जा रहा है। यह मुक्त अर्थव्यवस्था, मुक्त बाजार के कारण है क्योंकि उनकी योजना के केंद्र में है सिर्फ मुनाफा। अपनी विशाल प्रतिद्वन्द्विता और मुनाफे की होड़ में इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों के यहां इन भूखे बेबस लोगों के लिए कोई जगह नहीं बन पाती।
मां का ‘सुरुज देव’ को कोसने में मुझे भूमिहीन मज़दूरों और आदिवासियों के सड़क पर उतर आने के सत्याग्रह आंदोलन की झलक दीखती है। यह इस बात का परिचायक है कि केन्द्रीय सत्ता ने उनकी समस्याओं का समाधान की ओर कोई पहल नहीं की है। इस आंदोलन ने लोगों के सामने यह सत्य उजागर किया है कि शोषित-वंचित तबके के हितों के ऊपर सरकार का कोई खास ध्यान नहीं है और वे जीवनयापन की बुनियादी सुविधाओं से भी वंचित हैं।
अरूण जी की कविताएं अकसर हाशिए पर पड़े लोगों की न सिर्फ़ सुधि लेती है बल्कि उनके सरोकारों को हमारे सामने लाती हैं। इनकी कविताओं में काव्यात्मकता के साथ-साथ संप्रेषणीयता भी रहती है। वे जीवन के जटिल से जटिल यथार्थ को बहुत सहजता के साथ प्रस्तुत कर देते हैं। प्रस्तुत कविता भी इसी की एक कड़ी है और इस कविता के ज़रिए अरुण जी ने एक बार फिर अपने समय के ज्वलंत प्रश्नों को समेट बाज़ारवादी आहटों और मनुष्य विरोधी ताकतों के विरुद्ध एक आवाज़ उठाई है। आसन्न संकटों की भयावहता से हमें परिचित कराती यह कविता बताती है कि इंडिया और भारत की खाई इन आर्थिक सुधारों के नाम पर, जहां यह उम्मीद की गई थी कि समय के साथ समृद्ध वर्ग और शोषित-वंचितों के बीच की खाई कम होगी, वहीं दो दशकों का हमारा अनुभव यही कहता है कि इन प्रयोगों और नीतियों के द्वारा कितनी चौड़ी और गहरी कर दी गई है। समय के बदलते इस दौर में आज एक अलग तरह की भूख पैदा हो गई है। समृद्ध वर्ग के लोग निम्नवर्ग के लोगों का शोषण कर अपनी क्षुधा तृप्त करते हैं। इसलिए इनकी स्थिति सुधरती नहीं। विकास के जयघोष के पीछे इन्हें आश्वासन के सिवा कुछ भी नहीं मिलता। इनकी किस्मत की फटी चादर का आज कोई रफुगर नहीं। किसानों के इस देश में किसानों की दुर्दशा किसी भी छिपी नहीं है।
अर्थव्यवस्था की चुनौतियों और आर्थिक सुधारों के नाम पर उठाए जा रहे कदमों के बीच विसंगति को उजागर करती अरुण जी की कविता हमें यह बताती है कि सरकार के सुधार एजेंडे की ताजा कोशिशें आर्थिक चुनौतियों से कोई तालमेल नहीं बिठा पा रही हैं और नेतृत्व की नाकामी की ओर इशारा करती है। तभी तो आर्थिक विषमता भारत में समृद्धि की नई पहचान है। इस कविता की आख़िरी पंक्तियों में आर्थिक सम्पन्नता और विपन्नता से उत्पन्न वर्गों के आंतरिक संसार के द्वंद्व रेखांकित होते हैं। इन वर्गों के अस्तित्व रक्षा की बेचैनी और असहाय चिंता के विवरण मां के चेहरे की झुर्रियों की तरह स्पष्ट हैं और कवि के ही शब्दों में ‘कोई मेकप नहीं बना / जिसे छुपाने के लिए’।
अरुण जी आप एक ज़रूरी कवि हैं – अपने समय व परिवेश का नया पाठ बनाने, समकालीन मनुष्य के संकटों को पहचानने तथा संवेदना की बची हुई धरती को तलाशने के कारण। आपकी यह कविता मौजूदा यथार्थ का सामना करने की कोशिश का नतीजा है। इस कविता में आप अपना ही पुराना प्रतिमान (कील पर टँगी बाबूजी की कमीज़) तोड़ते नजर आते हैं। आज की इस कवितागिरी के दौर में, जहां कविता-लेखन मात्र एक नारा या फैशन बनकर रह गया है, अरुण जी की कविता में कथ्य और शिल्प की सादगी मन को छू लेने वाली है और आज की ‘आंच’ का अंत अमृता जी की टिप्पणी के द्वारा अरुण जी को कहना चाहूंगा, कि अरुण जी “कितनी सहजता से आप गंभीर बात को कह देते हैं जो कि भीतर तक हाहाकार मचा देती है।” गद्य में विचारों को विस्तार देने की स्वतंत्रता होती है, इसलिए वह तनावों को कम करने में अधिक सक्षम होता है। लेकिन अरुण जी ने इस कविता में एक नहीं देश की कई ज्वलंत समस्याओं को घनीभूत कर दिया है। आठ-दस पन्ने में रंगा गद्य पहले मस्तिष्क को झकझोरता है फिर यदि सक्षम हुआ तो हृदय को। अरुण जी की यह कविता पहले हमारे हृदय में प्रवेश करती है, और फिर हृदय से मस्तिष्क की ओर जाती है। इस कविता में विडम्बनाओं का मारक और मर्मस्पर्शी प्रयोग है, इसलिए कविता काफ़ी बेधक हो गई है। यह पाठक को गुदगुदाती नहीं, झकझोरती है, तिलमिलाती है, आक्रोश भर देती है।
बधाई अरुण जी!!
सहजता से कही गई जीवन की सच्चाई का सूक्ष्म विवेचन .
जवाब देंहटाएंएक ओर एफ़.डी.आई. आदि जैसे निर्णय हैं, जो बहुराष्ट्रीय विदेशी कंपनियों को प्रतयक्ष।।।।।(प्रत्यक्ष )...... रूप से लाभ पहुंचाएगा वहीं ग्रामीण कृषक और निर्धन वर्ग अभाव और संत्रास को झेल रहा है।
जवाब देंहटाएंये एक ऐसा भादो है
जिसमें सिर्फ़ कादो-ही-कादो है
सत्ता की बेरुख़ी है
मां दुखी है
जग, समाज, निज-का संताप लिए
जल रहा सूरज
चमक और ताप लिए
अब हमें बाज़ार जाना नहीं है
घुस आया है बाज़ार हमारे घर में
और
मुस्कुरा रहा सूरज
नीले अम्बर में!
बेहतरीन .
आम आदमी मैंगो पिपल बन गया है और अपने रोटी, कपड़ा और मकान की फ़िकर में ही दिन-रात घुला जा रहे हैं।
जवाब देंहटाएंमैंगो पीपल से आप क्या कहना चाहतें हैं -जो आम की तरह चूसा निचौड़ा जा रहा है ?बनाना रिपब्लिक और पीपल्स रिपब्लिक तो सुना है .तंज़ नहीं कर रहा हूँ जानना चाहता हूँ .
दूसरे शब्दों में कहे ...(कहें )....तो अपने मूल को ही नष्ट कर रहे हैं हम।
भूमि अधिग्रहण एवं पुनर्वास विधेयक, वस्तु एवं सेवा कर विधेयक, खाद्य सुरक्षा विधेयक, खान और खनिज (विकास और विनियमन) विधेयक, प्रतिस्पर्धा (संशोधन) विधेयक, और बीमा क़ानून विधेयक – ही वे विधेयक हैं, जिन पर एक दिन में निर्णय लिया गया। खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश को अनुमति देने के बाद कैबिनेट ने बीमा क्षेत्र में भी विदेशी निवेश की मंज़ूरी दे दी है। चिंता जताने वाले यह चिंता जता रहे हैं कि विदेशी कंपनियां लोगों के निवेश पर रिटर्न की गारंटी नहीं देंगी। उनकी नीतियाँ भारत की तमाम बचत को अपनी तरफ़ खींच लेंगी। इससे भारत के बैंकों और वित्तीय संस्थानों के लिए पूंजी की कमी हो जाएगी और आम निवेशक के लिए असुरक्षा बढ़ जाएगी। संभवतः कवि की मां की यही चिंता का कारण है।
बेहतरीन अंश है यह समीक्षा का .
फ़िल्म एक काल्पनिक दुनिया है और कवि की कविता में मां वास्तविक संसार में रहती है। उसके इस संसार में भादो ही भादो है, लेकिन इस भादो को भी सूखा का ग्रहण लग गया है, सावन तो फ़िल्मी परदों पर ही बरस रहा है, या यूं कहें कि कुछ खास लोगों की दुनियां में उसकी रिमजिम।।।।।।।।(रिमझिम ).......... फुहार की नज़रे इनायत है।
ये शब्द है क्या भादों या भादौं या भादो ?कृपया बतलाएं .
‘सुरुज देव’ की आराधना करती मां भादों के बरसने का इंतज़ार ही करती रह गई है, उन किसानों की तरह जो सरकार
सूरज देव या सुरुज देव ?कोई स्थानीय प्रयोग ?
अरूण जी की कविताएं अकसर हाशिए पर पड़े लोगों की न सिर्फ़ सुधि लेती है बल्कि उनके सरोकारों को हमारे सामने लाती हैं। इनकी कविताओं में काव्यात्मकता के साथ-साथ संप्रेषणीयता भी रहती है। वे जीवन के जटिल से जटिल यथार्थ को बहुत सहजता के साथ प्रस्तुत कर देते हैं। प्रस्तुत कविता भी इसी की एक कड़ी है और इस कविता के ज़रिए अरुण जी ने एक बार फिर अपने समय के ज्वलंत प्रश्नों को समेट बाज़ारवादी आहटों और मनुष्य विरोधी ताकतों के विरुद्ध एक आवाज़ उठाई है। आसन्न संकटों की भयावहता से हमें परिचित कराती यह कविता बताती है कि इंडिया और भारत की खाई इन आर्थिक सुधारों के नाम पर, जहां यह उम्मीद की गई थी कि समय के साथ समृद्ध वर्ग और शोषित-वंचितों के बीच की खाई कम होगी, वहीं दो दशकों का हमारा अनुभव यही कहता है कि इन प्रयोगों और नीतियों के द्वारा कितनी चौड़ी और गहरी कर दी गई है। समय के बदलते इस दौर में आज एक अलग तरह की भूख पैदा हो गई है। समृद्ध वर्ग के लोग निम्नवर्ग के लोगों का शोषण कर अपनी क्षुधा तृप्त करते हैं। इसलिए इनकी स्थिति सुधरती नहीं। विकास के जयघोष के पीछे इन्हें आश्वासन के सिवा कुछ भी नहीं मिलता। इनकी किस्मत की फटी चादर का आज कोई रफुगर नहीं। किसानों के इस देश में किसानों की दुर्दशा किसी भी छिपी नहीं है।
बेहतरीन दो टूक खरी खरी कही है .बढ़िया समीक्षा भाई साहब .
अरूण जी की कविताएं अकसर हाशिए पर पड़े लोगों की न सिर्फ़ सुधि लेती है बल्कि उनके सरोकारों को हमारे सामने लाती हैं...
हटाएंवीरू भाई के कमेन्ट अक्सर मुझे लुभाते रहे हैं, मगर अरुण के बारे में उनके कमेन्ट पढ़ने के बाद कहने के लिए कुछ शेष ना रहा ! मुझे लगता है अरुण के कार्य पर हिंदी जगत का ध्यान ही नहीं गया है, ब्लॉग जगत में तो भाइयों के पास पढ़ने का समय ही नहीं है !
आंच पर अरुण की रचनाये चढती रहेंगी यही उम्मीद है !
आभार आपका !
@ मैंगो पीपल से आप क्या कहना चाहतें हैं -जो आम की तरह चूसा निचौड़ा जा रहा है ?बनाना रिपब्लिक और पीपल्स रिपब्लिक तो सुना है .तंज़ नहीं कर रहा हूँ जानना चाहता हूँ .
हटाएं** बिल्कुल सही कहा आपने।
ये शब्द मेरे नहीं हैं, एक महान दामाद के हैं। जो आम जन को मैंगो पिपल कहते हैं और देश की शासन व्यवस्था को बनाना रिपब्लिक (समाचारों में सुना पढ़ा था)
@ ये शब्द है क्या भादों या भादौं या भादो ?कृपया बतलाएं .
हटाएं** भादो एक भारतीय पांचांग का महीना है। सावन के बाद का।
बड़ा अच्छा गीत है एक
मेरे नैना सावन भादो,
फिर भी मेरा मन प्यासा
@ सूरज देव या सुरुज देव ?कोई स्थानीय प्रयोग ?
हटाएं** हां यह एक आंचलिक प्रयोग है।
अर्थव्यवस्था की चुनौतियों और आर्थिक सुधारों के नाम पर उठाए जा रहे कदमों के बीच विसंगति को उजागर करती अरुण जी की कविता हमें यह बताती है कि सरकार के सुधार एजेंडे की ताजा कोशिशें आर्थिक चुनौतियों से कोई तालमेल नहीं बिठा पा रही हैं और नेतृत्व की नाकामी की ओर इशारा करती है।।।।(हैं ).....
जवाब देंहटाएंतभी तो आर्थिक विषमता भारत में समृद्धि की नई पहचान है। इस कविता की आख़िरी पंक्तियों में आर्थिक सम्पन्नता और विपन्नता से उत्पन्न वर्गों के आंतरिक संसार के द्वंद्व रेखांकित होते हैं। इन वर्गों के अस्तित्व रक्षा की बेचैनी और असहाय चिंता के विवरण मां के चेहरे की झुर्रियों की तरह स्पष्ट हैं और कवि के ही शब्दों में ‘कोई मेकप नहीं बना / जिसे छुपाने के लिए’।
अरुण जी आप एक ज़रूरी कवि हैं – अपने समय व परिवेश का नया पाठ बनाने, समकालीन मनुष्य के संकटों को पहचानने तथा संवेदना की बची हुई धरती को तलाशने के कारण। आपकी यह कविता मौजूदा यथार्थ का सामना करने की कोशिश का नतीजा है। इस कविता में आप अपना ही पुराना प्रतिमान (कील पर टँगी बाबूजी की कमीज़) तोड़ते नजर आते हैं। आज की इस कवितागिरी के दौर में, जहां कविता-लेखन मात्र एक नारा या फैशन बनकर रह गया है, अरुण जी की कविता में कथ्य और शिल्प की सादगी मन को छू लेने वाली है और आज की ‘आंच’ का अंत अमृता जी की टिप्पणी के द्वारा अरुण जी को कहना चाहूंगा, कि अरुण जी “कितनी सहजता से आप गंभीर बात को कह देते हैं जो कि भीतर तक हाहाकार मचा देती है।”
सौ फीसद सहमत आपके सहानुभूति पूर्ण निर्मम विवेचन से .
आम आदमी मैंगो पिपल बन गया है और अपने रोटी, कपड़ा और मकान की फ़िकर में ही दिन-रात घुला जा रहे हैं।
जवाब देंहटाएंमैंगो पीपल से आप क्या कहना चाहतें हैं -जो आम की तरह चूसा निचौड़ा जा रहा है ?बनाना रिपब्लिक और पीपल्स रिपब्लिक तो सुना है .तंज़ नहीं कर रहा हूँ जानना चाहता हूँ .
दूसरे शब्दों में कहे ...(कहें )....तो अपने मूल को ही नष्ट कर रहे हैं हम।
भूमि अधिग्रहण एवं पुनर्वास विधेयक, वस्तु एवं सेवा कर विधेयक, खाद्य सुरक्षा विधेयक, खान और खनिज (विकास और विनियमन) विधेयक, प्रतिस्पर्धा (संशोधन) विधेयक, और बीमा क़ानून विधेयक – ही वे विधेयक हैं, जिन पर एक दिन में निर्णय लिया गया। खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश को अनुमति देने के बाद कैबिनेट ने बीमा क्षेत्र में भी विदेशी निवेश की मंज़ूरी दे दी है। चिंता जताने वाले यह चिंता जता रहे हैं कि विदेशी कंपनियां लोगों के निवेश पर रिटर्न की गारंटी नहीं देंगी। उनकी नीतियाँ भारत की तमाम बचत को अपनी तरफ़ खींच लेंगी। इससे भारत के बैंकों और वित्तीय संस्थानों के लिए पूंजी की कमी हो जाएगी और आम निवेशक के लिए असुरक्षा बढ़ जाएगी। संभवतः कवि की मां की यही चिंता का कारण है।
बेहतरीन अंश है यह समीक्षा का .
फ़िल्म एक काल्पनिक दुनिया है और कवि की कविता में मां वास्तविक संसार में रहती है। उसके इस संसार में भादो ही भादो है, लेकिन इस भादो को भी सूखा का ग्रहण लग गया है, सावन तो फ़िल्मी परदों पर ही बरस रहा है, या यूं कहें कि कुछ खास लोगों की दुनियां में उसकी रिमजिम।।।।।।।।(रिमझिम ).......... फुहार की नज़रे इनायत है।
ये शब्द है क्या भादों या भादौं या भादो ?कृपया बतलाएं .
‘सुरुज देव’ की आराधना करती मां भादों के बरसने का इंतज़ार ही करती रह गई है, उन किसानों की तरह जो सरकार
सूरज देव या सुरुज देव ?कोई स्थानीय प्रयोग ?
अरूण जी की कविताएं अकसर हाशिए पर पड़े लोगों की न सिर्फ़ सुधि लेती है बल्कि उनके सरोकारों को हमारे सामने लाती हैं। इनकी कविताओं में काव्यात्मकता के साथ-साथ संप्रेषणीयता भी रहती है। वे जीवन के जटिल से जटिल यथार्थ को बहुत सहजता के साथ प्रस्तुत कर देते हैं। प्रस्तुत कविता भी इसी की एक कड़ी है और इस कविता के ज़रिए अरुण जी ने एक बार फिर अपने समय के ज्वलंत प्रश्नों को समेट बाज़ारवादी आहटों और मनुष्य विरोधी ताकतों के विरुद्ध एक आवाज़ उठाई है। आसन्न संकटों की भयावहता से हमें परिचित कराती यह कविता बताती है कि इंडिया और भारत की खाई इन आर्थिक सुधारों के नाम पर, जहां यह उम्मीद की गई थी कि समय के साथ समृद्ध वर्ग और शोषित-वंचितों के बीच की खाई कम होगी, वहीं दो दशकों का हमारा अनुभव यही कहता है कि इन प्रयोगों और नीतियों के द्वारा कितनी चौड़ी और गहरी कर दी गई है। समय के बदलते इस दौर में आज एक अलग तरह की भूख पैदा हो गई है। समृद्ध वर्ग के लोग निम्नवर्ग के लोगों का शोषण कर अपनी क्षुधा तृप्त करते हैं। इसलिए इनकी स्थिति सुधरती नहीं। विकास के जयघोष के पीछे इन्हें आश्वासन के सिवा कुछ भी नहीं मिलता। इनकी किस्मत की फटी चादर का आज कोई रफुगर नहीं। किसानों के इस देश में किसानों की दुर्दशा किसी भी छिपी नहीं है।
बेहतरीन दो टूक खरी खरी कही है .बढ़िया समीक्षा भाई साहब .
अर्थव्यवस्था की चुनौतियों और आर्थिक सुधारों के नाम पर उठाए जा रहे कदमों के बीच विसंगति को उजागर करती अरुण जी की कविता हमें यह बताती है कि सरकार के सुधार एजेंडे की ताजा कोशिशें आर्थिक चुनौतियों से कोई तालमेल नहीं बिठा पा रही हैं और नेतृत्व की नाकामी की ओर इशारा करती है।।।।(हैं ).....
तभी तो आर्थिक विषमता भारत में समृद्धि की नई पहचान है। इस कविता की आख़िरी पंक्तियों में आर्थिक सम्पन्नता और विपन्नता से उत्पन्न वर्गों के आंतरिक संसार के द्वंद्व रेखांकित होते हैं। इन वर्गों के अस्तित्व रक्षा की बेचैनी और असहाय चिंता के विवरण मां के चेहरे की झुर्रियों की तरह स्पष्ट हैं और कवि के ही शब्दों में ‘कोई मेकप नहीं बना / जिसे छुपाने के लिए’।
अरुण जी आप एक ज़रूरी कवि हैं – अपने समय व परिवेश का नया पाठ बनाने, समकालीन मनुष्य के संकटों को पहचानने तथा संवेदना की बची हुई धरती को तलाशने के कारण। आपकी यह कविता मौजूदा यथार्थ का सामना करने की कोशिश का नतीजा है। इस कविता में आप अपना ही पुराना प्रतिमान (कील पर टँगी बाबूजी की कमीज़) तोड़ते नजर आते हैं। आज की इस कवितागिरी के दौर में, जहां कविता-लेखन मात्र एक नारा या फैशन बनकर रह गया है, अरुण जी की कविता में कथ्य और शिल्प की सादगी मन को छू लेने वाली है और
आज की ‘आंच’ का अंत अमृता जी की टिप्पणी के द्वारा अरुण जी को कहना चाहूंगा, कि अरुण जी “कितनी सहजता से आप गंभीर बात को कह देते हैं जो कि भीतर तक हाहाकार मचा देती है।”
जवाब देंहटाएंसौ फीसद सहमत आपके सहानुभूति पूर्ण निर्मम विवेचन से .
मनोज जी टिपण्णी स्पैम में जा रहीं हैं .आप देख नहीं पा रहें हैं क्या इसीलिए हमारे यहाँ नही आ रहें हैं .स्पैम बोक्स चेक कीजिएगा .काफी माल निकलेगा .
मनोज जी आंच को मैं ब्लॉग की "आलोचना" मानता हूँ. अपनी प्रतिष्ठा के अनुरूप आंच पर समीक्षा के लिए रचनाओं के चयन की परंपरा आप निभाते रहे हैं. इसके लिए बहुत बहुत धन्यवाद. अभी पूरे साहित्यिक परिदृश्य में कविता के प्रति नैराश्य का भाव है. कहा जा रहा है कि कविता उस प्रभाशाली ढंग से संवेदित नहीं कर सकती जैसे की अन्य विधा.. और मैं व्यक्तिगत रूप से इसे नहीं मानता.
जवाब देंहटाएंइस कविता के बारे में अपनी भी कुछ बाते कहना चाहूँगा. हुआ यह है कि साहित्य से आम आदमी वाकई गायब है. गायब है आम चेतना भी. एक छद्म संवेदना के साथ साहित्य रचा जा रहा है. इधर कुछ बड़ी पत्रिकों के बड़े अंक देखने को मिले हैं. जैसे कथादेश का 'किसान विशेषांक" जिसमे किसान को समझा ही नहीं गया है. अभी युवा विशेषांक आया है 'नया ज्ञानोदय' का जिसमे कहानिया बेशक अच्छी हैं लेकिन आम आदमी शायद मिस्सिंग है. कुछ व्यक्ति केन्द्रित अंक भी आये हैं. भादो महिना किसान के लिए सबसे महत्वपूर्ण होता है. भारतीय किसान जहाँ आज भी ८० फिसिदी कृषि भगवन पर निर्भर है. वर्षा पर निर्भर है. हम किसान परिवार से हैं. पूरे महीने माँ बस एक बात जपती रही ... हथिया में बारिश नहीं हुई ... हथिया में बारिश नहीं हुई.... और इस नक्षत्र में वरिश नहीं होने का मतलब धान का फसल ख़राब हो जाना है... खेत में हाल नहीं होने के कारन.. इस से दलहन और गेहू के फसल पर भी असर पड़ेगा.... आम का फसल भी कम होगा.... और यही महिना राजनितिक रूप से बहुत गहमा गहमी भरा रहा... सरकार अपनी खीस निकलने के लिए एक तरफे फैसले ले लिए.. रिटेल में ऍफ़ डी आई...पेंशन में ऍफ़ डी आई... आदि आदि... लेकिन आम आदमी की चिंता कहीं नहीं दिखी... न सरकार में... न मीडिया में... न शहरी जनता में....ऐसे में जो कविता बनती थी वह यही थी....एक कवि व्यवस्था के प्रति आक्रोश और कैसे निकल सकता है....
.हम पश्चिम की अर्थव्यवस्था की नक़ल पर उतारू हैं.. लेकिन इस उदारवादी अर्थव्यवस्था ने देश के जिस तरह की खाई पैदा की है... उसकी ओर हमारी नज़र नहीं जाती.... हर जगह मानवीय संवेदना विस्थापित हो गया है... एम् ओ उ... प्रोफिट...मर्ज़र से... हमारे अर्थशास्त्री पश्चिम में मौजूद सोसल सिक्युरिटी के बारे में यदि सोचे तो स्थिति कुछ और हो...... जिस पेंशन को सरकार स्टोक मार्केट में खेलने के लिए छोड़ रही है.. उस सरकार को पहले देश के सभी ६० साल से ऊपर के लोगों की पूरी जिम्मेदारी लेनी चाहिए... लेकिन सरकार और उसके नुमाइंदे एक व्यापारी की तरह नफा नुकसान , लाभ हानि के बारे में सोचते हैं... पूंजीपति के हित की सोचते हैं... यह स्थिति बहुत भयावह होने जा रही है... ऐसे में माँ से बेहतर प्रतीक कुछ और नहीं हो सकता है संवेदना जताने के लिए...
..इस कविता में माँ आम आदमी है और भादो उसकी चिंताएं.. उसकी आस्था... जो विध्वसित हो रहा है नई उदारवादी अर्थव्यवस्था में... मेरी माँ बार बार कहती है.... "हम उधार लय कय बच्चा सबके नहीं पढ़लौं...उधार लय कय घर नई लेलौ...जे हैसियत छलय ताहि में चललौं ...." और जब अपने मकान, कार, टी वी, एसी की इ एम् आई भरते अर्थव्यवस्था को देखता हूँ तो लगता है...देश का भादो वास्तव में बदल गया है...अर्थव्यवस्था के आधार को कमजोर करने की साजिस देश में ही रची जा रही है और माँ उस साजिश के विरुद्ध खड़ी है इस कविता में माध्यम से.
बढ़िया समीक्षा के लिए फिर से आभार और अभिनन्दन मनोज जी...
..आपकी इस समीक्षा से कविता के भीतर छुपी संवेदना और प्रतिको को बेहतर समझने का मार्ग प्रशस्त हुआ है. यह कविता न तो दलित विमर्श की कविता है.. न स्त्री विमर्श की... यह कविता आदमी विमर्श की कविता है....
@वीरेन्द्र जी
भादो एक महिना है. आषाढ़ में धन रोपा जाता है और भादो में इसमें दाने लगते हैं.
सुरुज देव ..सूर्य भगवन को प्रेम से कहते हैं बिहार के मिथिला इलाके में. स्थानीय/आंचलिक प्रयोग है.
@ कहा जा रहा है कि कविता उस प्रभाशाली ढंग से संवेदित नहीं कर सकती जैसे की अन्य विधा.. और मैं व्यक्तिगत रूप से इसे नहीं मानता.
हटाएं** मैं भी नहीं मानता, तभी तो मैंने लिखा है -- “आठ-दस पन्ने में रंगा गद्य पहले मस्तिष्क को झकझोरता है फिर यदि सक्षम हुआ तो हृदय को। अरुण जी की यह कविता पहले हमारे हृदय में प्रवेश करती है, और फिर हृदय से मस्तिष्क की ओर जाती है। ...''
बढ़िया विश्लेषण ।।
आभार आंच ।।
कविता ने तो झकझोरा ही था आंच ने इस कविता की गहनता को और बढ़ा दिया है .... साधुवाद
जवाब देंहटाएंअरुण जी की कविताओं की यही खूबी है कि वो सोचने को मजबूर कर देती हैं और अपने पीछे एक प्रश्न छोड जाती हैं …………आपने बहुत सुन्दर व सटीक समीक्षा की है।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन कविता की सुन्दर और सूक्ष्म विवेचना......
जवाब देंहटाएंआभार मनोज जी.
सादर
अनु
अरुण जी की यह कविता पहले हमारे हृदय में प्रवेश करती है, और फिर हृदय से मस्तिष्क की ओर जाती है...............आपकी बात से सहमत हूँ।समीक्षा भी उसी के अनुकूल और बढ़िया लगी।अरुण जी को बधाई।
जवाब देंहटाएंबढ़िया विश्लेषण किया है
जवाब देंहटाएंसादर अभिनंदन ....बधाई अरुण जी को !
अभी पहुँच रही हूँ उनके ब्लॉग पर, सम्पूर्ण रचना पढने !
श्रध्येय अरूण जी की कविता हेतु एवं आदरणीय मनोज कुमार जी की समीक्षा के लिए उन्हें शतश:साधुवाद।
जवाब देंहटाएंमेरा कमेंट?
जवाब देंहटाएंदेवेन्द्र भाई,
हटाएंस्पैम में भी कुछ नहीं है।
ओह! याद करके फिरसे लिखता हूँ...
जवाब देंहटाएंकविता, कविता पर आपकी विस्तृत व्याख्या और पुनः इस पर अरूण जी की टीप के बाद कुछ कहना शेष नहीं रह जाता। जैसा कि अरूण जी ने कहा, कविता में मूल बात माँ आम आदमी और भादों आम आदमी की चिंता है। इस विषय में एक बात कहना चाहूँगा कि आम आदमी से कविता दूर हुई है, कविता से आम आदमी दूर नहीं हुआ है। कविता से आम आदमी तभी दूर हो सकता है जब कविता स्वयम् न रहे। जब तक संवेदना रहेगी, कविता रहेगी और जब तक कविता रहेगी आम आदमी को इससे दूर नहीं किया जा सकता।
आर्थक सुधार की अंधी भाग-दौड़ में आम आदमी बुरी तरह पीसता जा रहा है। हम भाग्यशाली हैं हमारे पास नौकरी है। वे भाग्यशानी हैं उनके पास उद्योग-धंधे हैं। जितना डीज़ल का दाम बढ़ेगा उतना वस्तुओं की कीमत बढ़ जायेगी। महंगाई का सूचकांक बढ़ेगा अपनी पगार बढ़ जायेगी। लेकिन आम आदमी? वह तो लगातार क्रूरता के साथ कुचलाता ही जा रहा है! गैस सिलेंडर के बढ़े दाम के झटके हम आप सह लेंगे लेकिन आम आदमी? वह, जो मात्र 2000/- प्रतिमाह की आय से पूरे घर का खर्च चला रहा है वह कैसे सहन कर पायेगा ?
इस कविता को पढ़कर मुझे यही लगा कि कवि को आम आदमी से जुड़ना ही पड़ेगा यदि उसे कविता लिखनी है। वैसे ही सरकारों को आम आदमी की चिंता करनी ही पड़ेगी यदि उन्हें इस मुल्क में शासन करना है। वरना वह दिन दूर नहीं जब वे खुद मजदूर बन जायेंगे और शासन कोई विदेशी कंपनी कर रही होगी।
यह कविता पढते हुए मैंने भी जो बात अरुण जी के 'सरोकार' पर कही थी पहले वही यहाँ पर रखता हूँ:
जवाब देंहटाएं'माँ' को जितने रूपों में आपने प्रस्तुत किया है शायद मुनव्वर राना साहब ने भी नहीं किया होगा.. यह बात मैं तुलनात्मकता के नाते नहीं कह रहा.. लेकिन उन्होंने माँ को एक माँ के रूप में ही चित्रित किया है, जबकि आपकी कविताओं की 'माँ' कहीं गाँव की देहरी खाड़ी आसमां की ओर निहारती 'ग्राम माँ' (ग्राम देवता की प्रचलित आस्था के विरुद्ध कह रहा हूँ) हो या यह भारत माँ.. यहाँ सूखे सावन की नहीं सूखे भादों की ओर निगाहें जमाये हमारी 'कृषि माँ' की व्यथा और उसपर भारत माँ के "सच्चे सपूतों" के क्रियाकलाप का जो वर्णन आपने किया है वह साधुवाद का हकदार है!!
आपकी संवेदनाओं को सलाम!!
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मनोज जी की समीक्षा उनकी कविता की समझ और भारतीय अर्थव्यवस्था की कमियों पर सूक्ष्म दृष्टि का प्रमाण है.. कविता के अनकहे भावों को जिस प्रकार आपने विस्तार से रखा है, वह निश्चित तौर पर प्रशंसनीय है.. कभी कभी अरुण जी की कविताओं को पढते हुए मुझे स्वयं यह इच्छा होती है कि मैं उनकी कविताओं की समीक्षा लिखूं..
आँच की जोत जलाए रखने का आभार!!
अच्छा विचार-मंथन व साहित्यिक-विमर्श...यथार्थ की कड़वी सचाइयों पर केंद्रित...
जवाब देंहटाएंअरुण चन्द्र रॉय जी रचनाओं की यही विसेषता है कि अपनी बात को बड़ी सहजता से कह जाते है,और उसका अर्थ बहुत गहन होता है,,,,,,बहुत सुंदर सूक्ष्म समीक्षा के लिये मनोज जी बधाई,,,,,
जवाब देंहटाएंMY RECENT POST: माँ,,,
सुन्दर एंव सूक्ष्म विश्लेषण
जवाब देंहटाएंबेहतरीन समीक्षा ...अरुणजी की सार्थक रचनाएँ प्रभावित करती हैं....
जवाब देंहटाएंअरुण जी की कविताएं प्रासंगिक और विचारणीय मुद्दों पर होती हैं, जो कवि की समाज और देश के प्रति संवेदनशीलता दर्शाता है। सरल शब्दों में जटिल बातें कहने की प्रतिभा सब में नहीं होती। ऐसी कविता को सबके सामने प्रस्तुत करने के लिए "आंच" का आभार...
जवाब देंहटाएंबहुत ही सार्थक एवं सशक्त विश्लेषण किया है आपने ....
जवाब देंहटाएंबहुत ख़ूब वाह!
जवाब देंहटाएंआपकी नज़रे-इनायत इसपर भी हो-
रात का सूनापन अपना था
बहुत ख़ूब वाह!
जवाब देंहटाएंआपकी नज़रे-इनायत इसपर भी हो-
रात का सूनापन अपना था
मुझे भी ये कविता बहुत ही अच्छी लगी तो भागी आई हूँ आंच पर पढने..आप दोनों को हार्दिक शुभकामनाएं..
जवाब देंहटाएंकविता ने तो मन को झकझोरा ही आपने भी आंच के माध्यम से बहुत सार्थक ढंग से विश्लेषण कर और भी मुखरित कर प्रस्तुति दी इसके लिए आपका आभार!
जवाब देंहटाएंअरुण जी और आपको शुभकामनाएँ ...यूँ ही आगे भी पढ़ने को बहुत कुछ मिलता रहेगा .......आभार
जवाब देंहटाएंsunder kavita ki sunder sameekcha....
जवाब देंहटाएंगहन समीक्षा. कविता तो सुंदर है ही समीक्षा कविता के भावों को और मिखारित कर गई.
जवाब देंहटाएंऔर इस बीच सरकार
जवाब देंहटाएंएक दिन में ले लेती है
कई जरुरी निर्णय
जिसमे भादो के नहीं बरसने का
जिक्र नहीं होता
आदरणीय मनोज जी सादर अभिवादन के साथ ही अरुण कुमार राय जी की इस महतवपूर्ण प्रविष्टि हेतु आभार । आर्थिक सुधारों के सन्दर्भ में यह लेख बहुत ही सारगर्भित लगा ।
हाँ एक निवेदन है ------- आज आयुध निर्माणी कानपुर में कवि सम्मलेन में आपकी रचनाओं ने बहुत तालियाँ बटोरी हैं .......मेरी इच्छा है की यदि संभव हो तो उन रचनाओं को ब्लॉग पर प्रकाशित करने की कृपा करें ।
नवीन भाई, ये एक यादगार अवसर था मेरे लिए। आपसे भेंट होना।
हटाएंमेरी कविताएं जन्म लेते ही इस ब्लॉग पर आती हैं।
वे सारी रचनाएं इस ब्लॉग पर आ चुकी हैं।