सोमवार, 1 अक्टूबर 2012

चर्खी हुई चाकरी

चर्खी हुई चाकरी

श्यामनारायण मिश्र

छूटे खेत खाद

सावन के मेह

चर्खी हुई चाकरी निचुड़ी गन्ने जैसी देह।

 

लापरवाही वाले लमहे

ओसारे की खाट

पर्वों के मेले

कस्बे की हफ़्तेवारी हाट

दूर छोड़ आई है गाड़ी अपने ग्यौंड़े गेह।

 

अपने मस्तक और हाथ हैं

नाम दफ़्तरों के

हम तो बकरी भेड़

चढ़े हैं नाम अफ़सरों के

उबर नहीं पाता अपने ही बच्चों को स्नेह।

11 टिप्‍पणियां:

  1. आभार सर जी

    आदरणीय मिश्र जी की उत्कृष्ट कृति पर

    एक तुच्छ प्रस्तुति

    नारकीय यह नौकरी, खाय जान अध्यक्ष ।

    नए नए हर दिन पड़े, यक्ष-प्रश्न मम कक्ष ।

    यक्ष-प्रश्न मम कक्ष, सुबह से शाम हो रही ।

    होता दही दिमाग, युधिष्ठिर कथा अनकही ।

    करे पलायन नित्य, छोड़कर जान चार की ।

    नित चिक चिक फटकार, वहां भी सुनूँ नार की ।

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  2. हमेशा की तरह मिश्रजी की यह कविता भी माटी के गंध से भरपूर..

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  3. कहाँ है वो अब
    ओसारे की खाट
    और लापरवाही
    वाले लम्हे
    है तो बस यहाँ
    सुबह से शाम
    चिक चिक चिक चिक
    कई बार लगता है
    यूँ चल देने में
    क्या है तुक ?
    सुंदर रचना .....

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  4. छूटे खेत खाद

    सावन के मेह

    चर्खी हुई चाकरी निचुड़ी गन्ने जैसी देह।

    बहुत ही सुन्दर

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  5. कुछ तो मजबूरियां रहीं होंगी...वर्ना हम भी आदमी काम के थे...

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  6. मिश्र जी की खूबसूरत रचना पढ़वाने के लिए आभार

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  7. मिश्र जी की कविता सदैव प्रभावित करती है.

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