भारतीय
काव्यशास्त्र – 127
आचार्य
परशुराम राय
पिछले
अंक में अनुप्रास अलंकार पर चर्चा समाप्त की गई थी। इस अंक में शब्दालंकार के
अन्तर्गत यमक अलंकार पर चर्चा अभीष्ट है।
काव्यप्रकाश
में यमक अलंकार कि निम्नलिखित परिभाषा की गई है -
अर्थे
सत्यर्थभिन्नानां वर्णानां सा पुनः श्रुतिः यमकम्
अर्थात्
अर्थयुक्त होने पर भिन्नार्थक वर्णों की उसी क्रम में आवृत्ति को यमक अलंकार कहते
हैं।
साहित्यदर्पणकार
कुछ इसी प्रकार यमक का लक्षण बताते हैं -
सत्यर्थे
पृथगर्थायाः स्वरव्यञ्जनसंहतेः।
क्रमेण तेनैवावृत्तिर्यमकं
विनिगद्यते।।
अर्थात्
अर्थयुक्त होने पर भिन्न अर्थवाले स्वर और व्यंजन के समुदाय की उसी क्रम में
आवृत्ति हो, तो यमक अलंकार होता है।
आचार्य
मम्मट ने यमक के ग्यारह भेद बताए हैं-
1. प्रथम चरण की
द्वितीय चरण में आवृत्ति को मुख यमक,
2. प्रथम चरण की तृतीय चरण में आवृत्ति को सन्दंश यमक,
3. प्रथम चरण की
चतुर्थ चरण में आवृत्ति को आवृत्ति यमक,
4. द्वितीय चरण की
तृतीय चरण में आवृत्ति होने पर गर्भ यमक,
5. द्वितीय चरण की
चतुर्थ चरण में आवृत्ति होने पर सन्दष्ट यमक,
6. तृतीय चरण की
चतुर्थ चरण में आवृत्ति होने पर पुच्छ यमक,
7. प्रथम चरण की
आवृत्ति द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ चरणों में होने पर
पंक्ति यमक,
8.
प्रथम चरण की द्वितीय चरण में और तृतीय चरण की चतुर्थ चरण में
आवृत्ति होने पर युग्मक यमक,
9.
प्रथम चरण की चतुर्थ चरण में और द्वितीय चरण की तृतीय चरण में
आवृत्ति होने पर परिवृत्ति यमक,
10. श्लोक के
पूर्वार्ध की उत्तरार्ध में आवृत्ति को पादभागावृत्ति और
11.
श्लोक की आवृत्ति को श्लोकावृत्ति यमक नाम दिया गया है।
हालाँकि
श्लोक की आवृत्ति को पादभागावृत्ति (चरणभागावृत्ति) में नहीं माना गया है। अतएव
यमक के ग्यारह के स्थान पर दस भेद ही शेष बचते हैं। इसके अतिरिक्त श्लोक के चरणों के
अंश की आवृत्ति के स्थान को आधार मानकर काव्यप्रकाश में अनेक भेद किए गए हैं। चालीस की संख्या तो
आचार्य मम्मट ने गिनाई है और कहा है कि इस प्रकार यमक के अनेक भेद किए जा सकते
हैं। वैसे, आचार्य मम्मट ने दिखाने के लिए उदाहरण स्वरूप आठ यमक अलंकारों के उद्धरण
दिए हैं। साहित्यदर्पणकार ने भी यमक अलंकार के पादावृत्ति, पदावृत्ति,
अर्धावृत्ति, श्लोकावृत्ति आदि भेदों के अनेक भेदों की चर्चा की है। अतएव यहाँ यमक
अलंकार के इस विस्तार को छोड़कर उदाहरण के रूप में साहित्यदर्पण में उद्धृत महाकवि
माघकृत शिशुपालवध का यह श्लोक दिया जा रहा है, जो यमक अलंकार की परिभाषा को सार्थक
करता है। इसमें रैवतक पर्वत पर वसन्त के स्वरूप का भगवान कृष्ण की दृष्टि से वर्णन
किया गया है -
नवपलाशपलाशवनं
पुरः
स्फुटपरागपरागतपङ्कजम्।
मृदलतान्तलतान्तमलोकयत्स
सुरभिं सुरभिं सुमनोभरैः।।
अर्थात्
जिसमें पलाशों का वन नवीन पलाश के पत्तों से युक्त हो गया है और कमल परागकणों की
अधिकता से सम्पन्न हैं, लताओं की छोरें कोमल और विस्तृत होकर पुष्पों की बहुलता से
झुक गई हैं और पुष्पों की सुगन्ध से युक्त वसन्त ऋतु को इस रूप में भगवान कृष्ण ने
रैवतक पर्वत पर देखा।
यहाँ
पदावृत्ति यमक है। इसमें पलाश पलाश और सुरभिं सुरभिं दोनों पद सार्थक हैं, जबकि
लतान्त लतान्त में पहला पद निरर्थक है। पहले पद का ल मृदुल शब्द का है। पराग
पराग में दूसरा पद गत का अंश है।
हिन्दी
में यमक पर इतनी विस्तृत चर्चा नहीं हुई है। लेकिन इस तरीके से सोचा जाय तो
सम्भवतः हिन्दी साहित्य में भी यमक का यह रूप देखा जा सकता है। वैसे, हिन्दी में
यमक की परिभाषा की गई है कि जहाँ एक ही शब्द की आवृत्ति हो और जितनी बार
आवृत्ति होती है, उसके उतने ही अर्थ होते हैं, तो वहाँ यमक अलंकार होता है। इसके
लिए काफी प्रचलित दोहा यहाँ उदाहरण के लिए लिया जा रहा है-
कनक
कनक ते सौगुनी, मादकता अधिकाय।
वा खाए
बौरात नर, वा पाए
बौराय।।
अगले
अंक में पुनरुक्तवदाभास आदि अलंकारों पर चर्चा करेंगे।
सुन्दर प्रस्तुति |
जवाब देंहटाएंआभार गुरुवर ।।
बहुत सुन्दर जानकारी, आभार
जवाब देंहटाएं---
अपने ब्लॉग को ई-पुस्तक में बदलिए
यमक का प्रयोग मैंने अपने लेखन में कई बार किया है, आचार्य जी! बहुत कुछ सीखता रहता हूँ यहाँ आकर!!
जवाब देंहटाएंवाह!
जवाब देंहटाएंआपकी इस ख़ूबसूरत प्रविष्टि को कल दिनांक 22-10-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-1040 पर लिंक किया जा रहा है। सादर सूचनार्थ
यमक अलंकार का सुन्दर उदहारण सहित वर्णन
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर जानकारी बहुत २ शुक्रिया |
जवाब देंहटाएंअर्थात, कनक=धतूरा, कनक=सोना मे मादकता (परस्पर)
जवाब देंहटाएंसौ गुनी है, एक को पाने से पागल हो जाते है, दुसरे को खाने से.....