शुक्रवार, 30 जुलाई 2010

अंक-2 -- स्वरोदय विज्ञान -- आचार्य परशुराम राय

अंक-2

स्वरोदय विज्ञान

मेरा फोटोआचार्य परशुराम राय

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जीवनी शक्ति श्वास में अपने को अभिव्यक्त करती है। श्वास के द्वारा ही प्राणशक्ति (जीवनीशक्ति) को प्रभावित किया जा सकता है। इसलिए प्राण शब्द प्राय: श्वास के लिए प्रयुक्त होता है और इसे कभी प्राण वायु भी कहा जाता हैं। हमारे शरीर में 49 वायु की स्थितियाँ बतायी जाती है। इनमें से दस हमारी मानसिक और शारीरिक गतिविधियों को संचालित करती हैं। यौगिक दृष्टि से इनमें पाँच सबसे अधिक महत्वपूर्ण हैं:- प्राण, अपान, समान, व्यान ओर उदान।

प्राण वायु का कार्यक्षेत्र कण्ठ से हृदय-मूल तक माना गया है और इसका निवास हृदय में। इसकी ऊर्जा की गति ऊपर की ओर है। श्वास अन्दर लेना, निगलना, यहाँ तक कि मुँह का खुलना प्राण वायु की शक्ति से ही होता है। इसके अतिरिक्त, ऑंख, कान, नाक और जिह्वा ज्ञानेन्द्रियों द्वारा तन्मात्राओं को ग्रहण करने की प्रक्रिया में भी इसी वायु का हाथ होता हैं। साथ ही यह हमारे शरीर के तापमान को नियंत्रित करती है तथा मानसिक क्रिया जैसे सूचना लेना, उसे आत्मसात करना और उसमें तारतम्य स्थापित करने का कार्य भी सम्पादित करती है।

अपान वायु का प्रवाह नाभि से नीचे की ओर होता है और वस्ति इसका निवास स्थल है। शरीर की उत्सर्जन क्रियाएँ इसी शक्ति से संचालित होती हैं। इस प्रकार यह वृक्क, ऑंतें, वस्ति (गुदा), मूत्राशय एवं जननेन्द्रियों की क्रियाओं को संचालित करती है। अपान वायु में व्यतिक्रम होने से मनुष्य में प्रेरणा का अभाव होता है और वह आलस्य, सुस्ती, भारीपन एवं किंकर्तव्यविमूढ़ता से ग्रस्त हो जाता है।

समान वायु हृदय और नाभि के मध्य सक्रिय रहती है और चयापचय गतिविधियों (Metabolic Activities) का नियमन करती है। कहा जाता है कि मुक्ति का कारक भी यही प्राण है। इसका निवास स्थान नाभि और ऑंतें हैं। यह अग्न्याशय, यकृत और अमाशय के कार्य को प्रभावित करती है। इसके अतिरिक्त यह हमारे भोजन का पाचन करती है और पोषक तत्वों को अपशिष्ट पदार्थों से विलग भी करती है। इसकी अनियमितता से अच्छी भूख लगने और पर्याप्त खाना खाने के बाद भी खाए हुए भोजन का परिपाक समुचित रूप से नहीं होता है और चयापचय गतिविधियों के कारण उत्पन्न विष शरीर में ही घर करने लगता है, जिससे व्यक्ति अम्ल दोष का शिकार हो जाता है। जब यह प्राण संतुलित होता है तो हमारी विवेक बुध्दि सक्रिय रहती है और इसके असंतुलन से मानसिक भ्रांति और संशय उत्पन्न होते हैं।

उदान वायु प्राण वायु को फेफड़ों से बाहर निकालने का कार्य करती है। इसका निवास स्थान कंठ है और यह कंठ से ऊपर वाले भाग में गतिशील रहती है। यह नियमित होने पर हमारी वाक्क्षमता को सशक्त बनाती है और इसकी अनियमितता स्वर-तंत्र और श्वसन तंत्र की बीमारियों को जन्म देती है। साथ ही इसमें दोष उत्पन्न होने से मिचली भी आती है। सामान्य अवस्था में उदान वायु प्राण वायु को समान वायु से पृथक कर व्यान वायु से संगम कराने का कार्य करती है।

व्यान वायु का जन्म प्राण, अपान, समान और उदान के संयोग से होता है। किन्तु व्यान के अभाव में अन्य चार वायु का अस्तित्व असंभव है, अर्थात् सभी प्राण एक दूसरे पर आश्रित हैं। व्यान वायु हमारे शरीर का संयोजक है। प्राण वायु को पूरे शरीर में व्याप्त करना, पोषक तत्वों का आवश्यकतानुसार वितरण, जीवन ऊर्जा का नियमन, शरीर के विभिन्न अंगों को स्वस्थ रखना, उनके विघटन पर अंकुश लगाना आदि इसके कार्य हैं। यह पूरे शरीर में समान रूप से सक्रिय रहती है। पूरे शरीर में इसका निवास है। ज्ञानेन्द्रियों की ग्राहक क्षमता का नियामक व्यान वायु ही है। सभी ऐच्छिक एवं अनैच्छिक शारीरिक कार्यों का संचालन व्यान वायु ही करती हैं। हमारे शरीर का पर्यावरण के साथ संवाद या पर्यावरण के प्रति हमारी शारीरिक प्रतिक्रियाएं इसी वायु (प्राण) के कारण होती है।

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10 टिप्‍पणियां:

  1. आप इस विधा के बारें जानकारी देकर एक प्रसंशनिय कार्य कर रहे हैं. यह विज्ञान आजकल लुप्तप्राय हो चला है. बहुत कम इसके जानकार बचे हैं. बहुत शुभकामनाएं.

    रामराम

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  2. बहुत ही सुंदर ढंग से आप सब समझाया, बहुत सुंदर जानकारीया दी धन्यवाद

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  3. वाकई बहुत अच्छी जानकारी.

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  4. राय जी का आभार . ग्यान्वर्धक पोस्ट.

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  5. महत्वपूर्ण जानकारी पढ़ने को मिली ।
    उपयोगी जानकारी पढ़ने को मिली

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  6. बहुत अच्छी प्रस्तुति।
    राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।

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