शनिवार, 27 नवंबर 2010

फ़ुरसत में .... मुज़फ़्फ़रपुर फिर एक बार!

फ़ुरसत में ....

मुज़फ़्फ़रपुर फिर एक बार!

मनोज कुमार

एक ब्लॉगर मित्र ने बात-चीत (अंतरजाल पर) के दौरान कलात्मक ढंग से उजागर किया कि उनका भी मुज़फ़्फ़रपुर से संबंध है। बताया तो उन्होंने यही था कि कभी समस्तीपुर से उनका संबंध था। उन्होंने मुझसे जानना चाहा था कि क्या अब भी मैं समस्तीपुर जाता-आता रहता हूं? वह मेरी जन्मभूमि है इसलिए जाना-आना तो लगा ही रहता है। मैंने उन्हें बताया तो उन्होंने मेरी उत्सुकता कम करते हुए कहा कि उनके पिताजी कभी इस शहर में पोस्टेड थे और इसी नाते उनका भी इस शहर से लगाव है।

बात-चीत के क्रम में उनका मुज़फ़्फ़रपुर से जुड़ा होना मेरे लिए एक रहस्योद्घाटन से कम नहीं था। जब से ब्लॉग से जुड़ा हूं, उनकी पोस्ट पर जाता रहा हूं। उनकी लेखनी ने सदैव ही मुझे प्रेरित किया है। यह सब तो उन्हें मालूम रहा ही होगा और मेरा मुज़फ़्फ़रपुर से भावनात्मक लगाव है शायद उन्हें यह भी मालूम रहा होगा। पहले की अगर छोड़ भी दें तो हाल ही में मेरी संस्मरणात्मक पोस्ट ‘बूटपॉलिश’ की उन्होंने न सिर्फ़ प्रशंसा की थी बल्कि अलग से मुझे बधाई भी दी थी। पर, उन्होंने तब भी यह ज़ाहिर न होने दिया कि यह आलेख कहीं-न-कहीं उनके मुज़फ़्फ़रपुर से जुड़े होने के कारण अधिक भाया था। बल्कि उनका इस शहर से जुड़े होने का रहस्य जब उनके कथाकार व्यक्तित्व की तरह परत-दर-परत खुलता गया तब मैं जान पाया कि उनका संबंध कितना घनिष्ठ है इस शहर से!

पहले तो उन्होंने बताया कि मेरे स्कूल के पास ही उनका स्कूल था। फिर यह कि मेरे संस्मरण में जिस कॉलेज का ज़िक्र आया है वह उनका भी कॉलेज था। यहां तक तो यह वार्तालाप मेरे लिए प्रसन्नता का विषय बना हुआ था, पर अगला रहस्योद्घाटन मेरे लिए चौंकने का कारण भी बना कि उनका ब्याह भी मुज़फ़्फ़रपुर निवासी से हुआ है। एक बार में सब कुछ न बताना शायद मुज़फ़्फ़रपुर वासियों की आदत का हिस्सा हो।

इतना लगाव जिस शहर से किसी का हो उसका किस्तों में रहस्य खोलना मुझे रोचक लगा। .... और उस दिन जब मैं अपने गांव के एक छोटे से कमरे में अकेला बैठा था तो दूर से आ रही छठ गीतों की आवाज़ के बीच उस वार्तालाप की याद आने पर कभी मुस्कान, कभी हंसी तो कभी प्रसन्नता मेरे चेहरे पर तिरने लगी थी। आख़िर एक ‘स्टोरी टेलर’ इतनी आसानी से ‘क्लाइमेक्स’ थोड़े ही आने देता है!

हद तो तब हुई जब मैंने उनसे कहा कि इस वर्ष छठ पर्व के अवसर पर घर जाऊंगा तो आपके शहर, जिसे मैं अपना भी मानता हूं, जाऊंगा और उसके ताज़ा हालात से आपको अपडेट करवाऊंगा। इसपर उनका जवाब था ... शहर के गड्ढे अब भी वहीं हैं, वैसे ही! कुछ नहीं बदला है!!

तब मुझे ज्ञात हुआ कि मैं दो दशक से भी अधिक समय के बाद जिस शहर में दुबारा जाने का कार्यक्रम बना रहा था, वहां उनका तो आना जाना लगा ही रहता है। तभी तो उन्होंने मेरे शहर को ‘गड्ढों का शहर’ बताया। अब तो मेरी उत्सुकता और बढ गई। देखूं तो उस शहर को .... एक बार फिर ... !

जाने के लिए गांव से भाड़े पर क्वालिस ठीक की गयी। अपनी श्रीमती जी और दोनों बच्चों के साथ करण, जिसे आप ‘करण समस्तीपुरी’ के नाम से ज़्यादा जानते हैं, भी थे। गांव की सड़कें गांव की दशा-दुर्दशा का बयान करती हैं, अतः वहाँ चलने के लिए क्वालिस ही माकूल सवारी है। सुबह दस बजे शुरु हुई यात्रा हमें NH-28 से एक-डेढ घंटे में मुज़फ़्फ़रपुर के मुहाने तक ले आयी, जिसे भगवानपुर कहते हैं। और यहीं से शुरु हुआ भगवान भरोसे चल रहा शहर का यातायात। नाहक जाम के कारण हम 200 मीटर की दूरी क़रीब एक - सवा घंटे में तय कर पाए। उस समय मुझे यह लगने लगा था कि उस ब्लॉगर मित्र की बात सच है ... कुछ नहीं बदला है!

आगे बढते ही बदलाव के लक्षण भी दिखने लगे। कुछ फ्लाई ओवर, अधिक भीड़-भाड़, व्यापारिक प्रतिष्ठान, दुकानें, मकान। लीचियों के बगानों का कट जाना, उन पर कंक्रीट के जंगल उग आना और रास्तों का वन-वे हो जाना। हम अधिक विकसित जो हो गए हैं! और आधुनिक भी!!

047कंक्रीट के बढते जंगल के कारण अपने शहर में ही भटक गए हम। रास्ता ऐसा भूले कि अपने शहर के हृदय स्थल में प्रवेश करने के चक्कर में हम सीधे उस मुहल्ले के निकट पहुंच गए जहां अपने जीवन के क़रीब 30 बरस गुज़ारे थे। ‘ब्रह्मपुरा’ – जहां मिडिल स्कूल की पढाई की और रेलवे कॉलोनी - जहां नौकरी में आने से पहले तक का जीवन जिया था। मिडिल स्कूल तो ढूंढे नहीं मिला, क्योंकि जिसे मैं खोज रहा था, उसका तो कायाकल्प हो चुका था। किसी पक्की इमारत को देख हमने सोचा कि जिन झोंपड़ियों वाली कक्षा में हम पढे थे, उसकी क़िस्मत अब बदल चुकी है! लेकिन उसे हम पहचान नहीं पाए और संजय टॉकिज तक आगे बढ गए जहां ‘गोलमाल-3’ चल रही थी। इधर हमारे साथ भी गोलमाल ही हो रहा था।

039हम अपने पुराने मकान तक पहुंचे। ब्रह्मपुरा रेलवे कॉलोनी के टाइप-टू का क्वार्टर संख्या 168-ए! उसमें गुज़ारे सारे दुख-सुख घनीभूत हो एक-एक कर याद आते गए। उस क्वार्टर के वर्तमान निवासी काफ़ी सहृदय निकले। गृहस्वामी तो कार्यवश दफ़्तर में थे – गृहस्वामिनी का जबरन मेहमान बन हमने तकरीबन डेढ घंटे उनके ड्रॉइंग रूम में बिताए। इस दरम्यान चाय-बिस्कुट और लौंग-इलायची का रसास्वादन भी हुआ। घर का वह ड्रॉइंग रूम, जिसे घेरा हुआ बारामदा कहना अधिक उचित होगा, हमारे जीवन के अधिकांश समय का साक्षी रहा है। गृह स्वामिनी को यह बताते हुए हमें गर्व हो रहा था कि उस बारामदे को, जो पहले बिल्कुल खुला हुआ था हमने ही घिरवाया था और वही मेरा शयन कक्ष, अध्ययन कक्ष और घर में आने वाले मेहमानों के लिए विश्राम कक्ष भी था। मेरे जीवन की साधना भी यहीं सुफल हुई थी इसलिए यह मेरे लिए किसी मंदिर से कम नहीं था।

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042इस घर के लोगों से मिलकर मेरी यह धारणा एक बार फिर से पुख्ता हुई कि सज्जनों की कमी नहीं है इस शहर में। ... मुज़फ़्फ़रपुर के आतिथ्य सत्कार की मिसाल का लाभ उठाकर हमने उनसे विदा ली। हमारा अगला पड़ाव था अपने कॉलेज और विश्वविद्यालय का कैम्पस। पर वही गोलमाल यहां भी जारी रहा। मुज़फ़्फ़रपुर की सारी सड़कों की कायाकल्प-योजना प्रगति पर थी अतः आने-जाने के लिए आधी सड़क का इस्तेमाल किया जा रहा था। उस आधी सड़क पर जमा भीड़-भाड़ हमारी गति में बाधा बन रही थी। उसपर तुर्रा यह कि वन-वे ट्राफ़िक ने फिर हमें किसी अनजाने रास्ते पर मोड़ दिया। कुछ दिशा भ्रम, कुछ शहर का विकास और उससे अधिक अपनी याददाश्त का कमज़ोर हो जाना हमें कई बार ऐसी जगहों पर ले जाता रहा जहां से हमें पीछे जाना पड़ा। माड़ीपुर-छाता चौक की तरफ़ जाने की जगह हम जूरन छपरा, इमली चट्टी होते हुए पहुंच गए उस महान देशभक्त की समाधि की मूर्ति के पास जिसने स्वतंत्रता संग्राम मे अपना नाम स्वर्णाक्षरों से अंकित कराया है। शहीद खुदीराम बोस ने अंग्रेज़ सांडर्स पर बम यहीं फेका था। उनकी मूर्ति को देखते-देखते हम बड़े हुए थे। उन दिनों स्वाधीनता संग्राम के वीर हमारे हीरो हुआ करते थे और हम लोग उनसे प्रेरणा पाकर देश के लिए कुछ करने का ज़ज़्बा पाला करते थे। आज इतने सालों बाद क़िस्मत का ऐसा संयोग कि मैं जिस दफ़्तर में काम करता हूँ वह भी कोलकाता में शहीद खुदीराम बोस रोड पर ही है और दफ़्तर के बगल में शहीद की मूर्ति हमें उनकी और अपने इस शहर की याद रोज़ ही दिलाती है।

खैर, हम फिर रास्ता भूले और हमने पीछे का रुख किया। इस क्रम में हमें न सिर्फ़ ड्राइवर की झिड़की सुननी पड़ी, बल्कि अपने ही शहर में जगह-जगह अपने ही कॉलेज का रास्ता पूछने की शर्मिन्दगी भी उठानी पड़ी। बीवी और बच्चे अलग खिल्ली उड़ा रहे थे कि यही है आपकी ‘मेमोरी’, और ‘इसी के भरोसे लाए थे हमें यह सब दिखाने!’

शहर के कुछ-एक नए बनते फ्लाई ओवरों ने यातायात ज़रूर बाधित कर रखा था, पर कुछ दिनों बाद उस शहर की सुंदर, समतल सड़कें और उनपर तेज़ी से आते-जाते यातायात के दृश्य नज़रों के सामने साकार-से होने लगे। यह मेरे लिए ख़ुशी की बात थी और उस ब्लॉगर मित्र को मैं मन-ही-मन बताना चाह रहा था कि देखिए आपके शहर में मेरा सपना साकार होने जा रहा है!

जन्तु विज्ञान विभाग, एल एस कॉलेजखैर, किसी तरह पूछते-पाछते हम अपने एल.एस. कॉलेज पहुंचे। कॉलेज में घुसते ही सड़क के दोनों तरफ़ बढे जंगल, मुझे सशंकित कर रहे थे कि यहां कक्षाएं होती भी हैं या नहीं। ड्यूक हॉस्टल की खिड़कियां टूटी पड़ी थीं। प्रशासन भवन जर्ज़र अवस्था में दिख रहा था। सामने का लॉन जंगल में तबदील हो चुका था। ... और हमारे ज़ूऑलॉजी डिपार्टमेंट की दीवारों पर वृक्ष उग आए थे। पता नहीं इस माहौल में कक्षा चलती भी हैं या नहीं? यह बताने वाला कोई नहीं था। .......छुट्टियां चल रहीं थी।

052विश्वविद्यालय का कैम्पस जीवंत तो नहीं, ज़िन्दा ज़रूर था और जन्तु विज्ञान विभाग लाचार सा कोने में पड़ा था। सारा उत्साह ठंडा हो गया हमारा। गाड़ी में बैठे-बैठे ही हमने उसे निहारा। मंद-मंद कुटिल मुस्कान बच्चों के चेहरे पर छा चुकी थी। करण ने तर्क दिया – ‘यह सब छुट्टियों के कारण है। खुलते ही सब ठीक हो जाएगा।’

हां, उस सारे दिन में एक ही अच्छी और खुशी देने वाली बात हुई। ज़िला स्कूल का विशाल कैम्पस देखकर सब के चेहरे पर खुशी साफ़ दिखी। मैं हर्षित था। इसी हर्ष को समेटे हम निराला निकेतन पहुंचे। वहां एकान्तवास में लीन आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री के दर्शन और आशीर्वचन प्राप्त करने के बाद शाम तक वापसी की यात्रा हुई।

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वापसी में मन में कोई द्वन्द्व नहीं था। शहर में एक तरफ़ विकास की छाया थी तो दूसरी तरफ़ उसका बांकपन भी अभी बाकी था। एक तरफ़ विकास का विस्तार था तो दूसरी तरफ़ मूलभूत सांचा और ढांचा भी बरकरार था। बिल्कुल एक काव्य की भांति यह पूरा शहर सम-विषम छंदों में से रचित हमारे सामने अनेक संकल्प और विकल्प छोड़ता प्रतीत हो रहा था।

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78 टिप्‍पणियां:

  1. आपके इस वृत्तांत ने जाने अनजाने में सुबह सुबह, मुजफ्फरपुर की सैर करा दी. गोबरसही से भगवानपुर चौक तक के जाम में आपकी क्या हालत हुई होगी मैं समझ सकता हूँ. गोबरसही से ही दायें मुड़ जाते तो सीधे रेलवे ओवरब्रिज के पास निकलते और बाएं मुड़कर ब्रह्मपुरा की ओर निकल लेते. :). खैर, कम्पनीबाग के इलाके को देखकर अच्छा लगा होगा और मोतीझील में बन रहे फ़्लाइओवर देखकर ख़ुशी भी हुई होगी. मगर बता दूं, वो फ़्लाइओवर पिछले 3 -4 सालों से वैसे ही पड़ा है, मोतीझील बरसात के समय में सच में झील बन जाता है, पानी का नहीं, कीचड का. एल.एस.कॉलेज की हालत तो आपने खुद बयान कर दी है, कुछ कहने को रह नहीं गया. खैर, सुबह सुबह अपने ननिहाल की यात्रा करने के लिए धन्यवाद, हालांकि ननिहाल समस्तीपुर में ही पड़ता है मगर मामाजी मुजफ्फरपुर में रहते हैं, इसलिए एक रिश्ता यहाँ से भी है!

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  2. काफ़ी कुछ जानने को मिला इस पोस्ट के माध्यम से.अच्छा लगा.
    बहुत बहुत शुभकामनायें.

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  3. बड़े आत्मीय संस्मरण हैं। सुन्दर।

    पिछले दिनों कलकत्ता थे। आपकी घंटी ही नहीं जा रही थी, शायद यहीं आये होंगे। देखिये कलकत्ता की तस्वीरें।

    http://www.facebook.com/album.php?aid=85630&id=1037033614&l=3692c2e1d6

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  4. एक अच्छा पोस्ट . आपके संसमरण अच्छे लगे.
    तस्वीरों ने जान दाल दी है इसमें.

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  5. पूरा मुजफ्फरपुर घूम आये...
    अच्छी पोस्ट !

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  6. आज सुबह ही मुजफ्फरपुर ..घुमा दिया आपने बहुत जानकारी पूर्ण प्रस्तुति ....शुक्रिया

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  7. @ अनूप शुक्ल जी
    बहुत दिनों बाद आपके दर्शन हुए। अच्छा लगा। छठ के बाद घर से लौटते वक़्त मेरा मोबाइल चोरी हो गया था। और उसी नम्बर को एक्टीवेट कराने में एक सप्ताह लग गया। इस दौरान सब लोगों से बिल्कुल कट-सा गया था। मोबाइल के साथ सभी अपनों का नम्बर भी चला गया। आप अपना नम्बर भेज दीजिएगा।
    दूसरे को २२-२४ आपके कानपुर में ही था। आपने बताया नहीं कि आप कब आए थे।
    आपने तो तस्वीरों में कोल्काता के जीवन को ही समेट लिया है। बहुत खोजी और पारखी निगाह है आपकी।

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  8. @ आशु जी
    आप तो क़रीब के निकले। और जो वृतांत आपने दिया है उससे तो लगता है हाल-फिलहाल में होकर आए हैं।
    हां कंपनीबाग चकाचक था। सड़कें चौड़ी और यातायात सुसंचालित। विश्वास नहीं हो रहा था। पहले तो सिर्फ़ टावर चौक पर देखता था ट्राफ़िक पुलिस को ... इस बार तो जगह जगह मिले।
    बरसात के दिनों में मोतीझील से घुटनों भर पाने हेल (! बिहारी शब्द) कर जाते थे ज़िला स्कूल।
    हां ओवरब्रिज का निर्माण कार्य प्रगति पर था।

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  9. ज़मीर जी,शमीम जी, वाणी जी, केवल जी
    प्रोत्साहन के लिए आभार।

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  10. मनोज जी ,
    आपका जीवंत संस्मरण पढ़कर मेरे भी मन में अपने गांव जाकर पुरानी यादों पर जमी मखमली परतों को हटाने की इच्छा जागृत हो गई है !
    -ज्ञानचंद मर्मज्ञ

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  11. @ ज्ञानचंद जी,
    ज़रूर हो आइए। इन अवसरों को जीने का आनंद ही कुछ और है।

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  12. मुज्ज़फरपुर के बारे में विस्तृत जानकारी मिली ...आपके इस संस्मरण को पढ़ कर सोच रही हूँ कि अपने स्कूल और कॉलेज को इतने वर्ष बाद देख कर कैसा लगता होगा ? मुझे भी अगले महीने मेरठ जाना है और मैं कोशिश करुँगी कि एक नज़र अपने कॉलेज को देख सकूँ ...मैंने तो १९७४ में वहाँ से एम० ए० किया था ...वहीं के हॉस्टल में ४ साल अपनी ज़िंदगी के बेहतरीन पल बिताये थे ...बेहतरीन इस लिए कि वही ४ साल थे जिसने मेरे अंदर आत्मविश्वास की नीव रखी थी ..

    आपकी यह पोस्ट पढ़ कितनी ही बातें याद आ गयीं ....अच्छी पोस्ट के लिए आभार

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  13. बहुत ही सुन्दर और मानवीय संवेदना से भरी प्रस्तुती.....

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  14. मनोज जी,
    बेहद आत्मीय संस्मरण । घर की याद दिला दी आपने। ऐसे लेख पढ़कर भारत में गुजारा सुन्दर वक़्त बुरी कदर याद आने लगता है । बहुत सुन्दर आलेख।
    आभार।

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  15. संस्मरण की रोचकता आद्यंत बनी रहती है....
    आभार!

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  16. कभी कभी अपनी जड़ों को टटोलना कितना अच्छा लगता है ।

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  17. मनोज जी जितना पैसा देश ने राष्ट्रमंडल खेल में लगाया, उस पैसे से आधे देश की सड़कें बन सकती थी, दुरुश्त हो सकती थी.. लेकिन लोकतंत्र में मुद्दों को जीवित रखने के लिए लोक को हाशिये पर रखना ही पड़ता है.. इसी के उदाहरण हैं मुजफ्फरपुर, मोतिहारी, धनबाद, झरिया, जमेशदपुर, या देश का कोई अन्य छोटा शहर... मुजफ्फरपुर के बहाने मैं तो देश को देख रहा हूँ.. जानकीबल्लभ शःस्त्री जी पर पूरा एक अंक लिखियेगा.. बहुत से लोग उनसे परिचित नहीं होंगे... अपनी एक कविता आपके मुज्ज़फरपुर के बहाने मेरी कविता ""अपना शहर"" का एक अंश :

    ...."इस शहर में
    रात जल्दी होती है
    सवेरा होता है समय से
    चैन से सोता है
    अब भी अपना शहर

    पहचानती हैं
    गलिया इसकी
    मेरी आहट
    दिल का रिश्ता
    जोड़ता है
    अब भी अपना शहर ..."

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  18. आपकी संस्मणात्मक पोस्ट बहुत सुन्दर बन पड़ी है। बिलकुल जीवंत जैसे हम स्वयं मुजफ्फरपुर की गलियों में घूम रहे हों। चित्रावलि से जुड़ाव अधिक महसूस हुआ। हालाकि मैं तो कभी वहाँ गया नहीं लेकिन आलेख का नितांत स्वाभाविक चित्रण मुझे मुजफ्फरपुर घुमा लाया। आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री पर विस्तृत आलेख की प्रतीक्षा है।

    आभार,

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  19. मुजफ्फरपुर की यात्रा यह संस्मरणात्मक आलेख आद्योपांत सरस और रोचक होने के साथ साथ भावनात्मक संबंध बनाता चलता है। आपका यह संस्मरण श्रेष्ठ यात्रा वृत्तांत की श्रेणी में रखा जा सकता है।

    बधाई।

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  20. बहुत अच्छा लगा मुजफ्फरपुर के बारे में पढ़कर, जानकर। इस नगर से थोड़ी आत्मीयता जगी। मुजफ्फरपुर घुमाने के लिए आपका आभार।

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  21. मुजफ्फरपुर घुमाने के लिए आपका आभार।

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  22. Vartaman mein rah kar atit mein jina bahut hi achha laga.Kahavat hai-jo atit mein nahi jita vah vartman mein har roj marate rahata hai.Shabdon ka chayan prasansniya hai.Dhanyavad.

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  23. सर, बहुत अच्छा लगा मुजफ्फरपुर के बारे में जानकर। मैं एक बार वहाँ जरूर जाऊँगा।
    जानकरी देने के लिए शुक्रिया।

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  24. मुझे तो नई नई जगह घूमना ही पसंद है। अब मुजफ्फरपुर जाना अच्छा लगेगा।

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  25. बहुत रोचक संस्मरण लेकिन मै उस दोस्त का पूरा परिचय ही ढूँडःाती रही आपने भी उसी की तरह कुछ रहस्य रख ही लिया। बहुत अच्छा संस्मरण। बधाई।

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  26. darbhnga se patna aane-jane men aksar muzaffarpur men rukkar chay ityadi lete the.shahar se wakif hone ke karan padhne me bahut achcha laga.

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  27. पोस्ट रोचक भी लग रही है और बड़ी भी ..फुर्सत से आना होगा बाचने.

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  28. रोचक संस्मरण अपने सहज प्रवाह में बरबस मन को बहाए लिए जाता है. चित्रात्मक अभिव्यक्ति इसे सजीव और जीवंत बनाए दे रही है. मुज़फ़्फ़रपुर की इतनी सुदर यात्रा कराने के लिए आभार.
    सादर,
    डोरोथी

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  29. भाई जी नॉस्टैल्जिक कर दिए आप. मुज़फ्फरपुर से कोई सम्बंध नहीं, चार साल की उम्र में सिर्फ एक बार जाना और फिर शायद 1994 में कुछ घण्टों के लिए... लेकिन यादें तो शहर से नहीं जानी जातीं, कुछ भी नाम हो शहर का … पटना, दरभंगा या मुज़फ्फरपुर या समस्तीपुर.
    उन ब्लॉगर के बारे में कहा नहीं आपने और उनका आगमन भी नहीं हुआ, अनुपस्थित हैं कुछ दिनों से!
    रेलवे कॉलोनी अपनी सी लगी (जैसे मुज़फ्फरपुर पटना सा) और आचार्य जानकी वल्लभ की कृश काया देखकर सन 1971 का उनका स्मरण हो आया जब उनका सस्वर कविता पाठ उनके श्रीमुख से सुनने का अवसर प्राप्त हुआ था.
    आज लगता है बहुत दिनों के बाद बहुत फुर्सत में बैठे हैं आप!!

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  30. संगीता जी,
    ज़रूर जाइए। और कॉलेज भी। लगता है कि हम उन पलों को दुबारा जी रहे हों।
    आपकी उपस्थिति के लिए धन्यवाद।

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  31. @ honesty project democracy जी
    आपके विचार हमें प्रेरित कर गए।

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  32. ज़ील जी,
    आपकी बातें भावुक कर गई। आभार।

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  33. बहुत सही कहा अजय जी, अपनी जड़े टटोलने का यह अनुभव बड़ा ही सुखद रहा।

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  34. अरुण जी, बहुत ही संवेदनशील और विचारणीय मुद्दा उठा दिया आपने। आपसे इस मुद्दे पर सहमत हूं। संस्मरण के द्वारा यही तो बताना चाह रहा था, और अंतिम पंक्तियां कुछ यही तो बताती हैं।
    आपकी कविता बड़ी आत्मीयता से भरी है। इसे पढकर अपने शहर पर लिखी गढी कविता की पंक्तियां आपसे बांटने का मन बन गया। उससे पहले यह कहता चलूं कि आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री जी पर तो एक बहुत ही अच्छा और रोचक संस्मरण/आलेख आएगा। और आप शायद जानते हों कि जानकी वल्लभ जी मुज़फ़्फ़रपुर के चतुर्भुज स्थान में रहते हैं। अब यह स्थान क्यों प्रसिद्ध है कहना न होगा। कविता की पंक्तियां देखिए, इसकी कुछ पंक्तियां पिछली पोस्ट में भी दिया था।
    सब जगह से थक हार कर रुख किय चतुर्भुज स्थान का,
    मैले मन को साफ़ करें कर स्मरण भगवान का।
    कर स्मरण भगवान का मिया जी थे मटक रहे,
    नाच रही थी बाई जी और तबले थे खटक रहे।
    छम-छम घुंघरू की थी बस जिधर नज़र दौड़ाई
    मिली न छम-छम जान भौंकती कुतिया पाई॥

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  35. हरीश जी, एक समीक्षक नज़रों से पास हो गया यह, प्रसन्नता हुई।
    जानकी जी पर विस्तृत आलेख भी आएगा।
    आभार आपका।

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  36. राय जी आपके आशिर्वचनों से अभिभूत हुआ।

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  37. गुडवन जी और अंकुर जी आपकी उपस्थिति और बहुमूल्य विचार के लिए आभार।

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  38. प्रेमसरोवर जी, बहुत सही कहा आपने। .. और हमारा उद्देश्य ही था अतीत को फिर से जीना।

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  39. नौटी ब्वाय जी और छुटकी जी, आपकी उपस्थिति हमें और ऊर्जा प्रदान करती है।

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  40. निर्मला दीदी, आपका आशीष मिला। धन्य हुआ। अब हम भी तो कभी कभार स्टोरी गढ ही लेते हैं। इतनी जल्दी हम भी क्लाइमेक्स थोड़े ही आने देंगे।
    और उस ब्लॉगर मित्र की अभी तक उपस्थिति नहीं हुई है। मैं भी इंतज़ार कर रहा हूं।

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  41. देखिए इसी बहाने, मृदला जी हम भी जान पाए कि आप बगल के ज़िले की हैं, और मेरी दी जब दरभंगा मेडिकल कॉलेज में पढती थी तो उससे मिलने अक्सर जाता था। आभार आपका।

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  42. डोरोथी जी, चित्रॊं के ज़रिये हमारे शहर की यात्रा आपको अच्छी लगी यह जान हमें काफ़ी प्रसन्नता हुई। धन्यवाद।

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  43. बड़े भाई (सलिल जी) और चैतन्य जी ठीक कहा आपने।
    दीपावली से अब तक काफ़ी इधर-उधर होता रहा। इसलिए पोस्ट ठोड़ी देरी से कर पाया।
    उन ब्लॉगर मित्र का इंतज़ार अभी ज़ारी है।
    आपका स्नेहपूरित वचन हमारा मन भिंगा गया।
    आभार।

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  44. बहुत सुंदर संस्‍मरणात्‍मक आलेख .. पढकर अच्‍छा लगा !!

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  45. संगीता पुरी जी, आपकी उपस्थिति और विचार के लिए धन्यवाद आपका।

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  46. बहुत ही रोचक संस्मरण...आभार

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  47. हा...हा मनोज जी...अब नाम भी बता ही देते उस ब्लॉगर मित्र का .."रश्मि रविजा" जी हाँ ..'रविजा' उपनाम भी स्कूल के दिनों में ही रखा था....तो लीजिये एक और रिश्ता जुड़ गया उस शहर से...:)

    और अच्छा है..मेरे पतिदेव और ससुराल वाले मेरी पोस्ट छोड़कर दूसरे ब्लॉग पर नहीं जाते..वरना अपने शहर की ये तारीफ़ सुन कर तो पता नहीं क्या सजा सुना देते. ..:( :(
    वैसे मैने इसे 'गड्ढों का शहर' तो नहीं कहा...बस उस गड्ढे का जिक्र किया था जो बीस साल से ज्यूँ का त्यूँ था...(हो सकता है अब नितीश के राज में जैसे घूरे के दिन फिरते हैं...अल्लाह करे...उस गड्ढे के भी फिरे हों....वैसे अन्यथा ना लें ..और विशुद्ध निर्मल हास्य समझें तो एक बात और बता दूँ.."मेरा बेटा ५,६ साल का था तो उसने वहाँ की सड़क पार करते हुए कहा..."मुंबई में तो सड़क के किनारे कूड़े का ढेर होता है...यहाँ सड़क के बीचोबीच" :) प्लीज़ बुरा मत मानियेगा...वो मेरा भी उतना ही अपना शहर है...उन समस्त असुविधाओं पर लोगों के छलकते निश्छल प्रेम के साथ .

    और धीरे धीरे राज खोलने का मेरा कोई इरादा नहीं था...मैं शायद पहली बार ही आपकी उस पोस्ट पर आई थी...और आप भी कभी नियमित नहीं रहें मेरे ब्लॉग पर.... आते भी थे तो "अच्छी प्रस्तुति' कह कर निकल जाते थे :)...इसलिए वो आत्मीयता नहीं पनपी थी कि मैं बेलौस कमेन्ट कर सकूँ...और आज भी आपके उस पोस्ट से आपके स्कूल कॉलेज के नाम से ज्यादा मुझे आपका अपनी भाभी का अफगान स्नो और हिमालय पाउडर लगाना ही याद है...:)
    और वो जातिगत मामला भी जिसमे किसी छात्र की उंगलियाँ कुचल दी गयीं .

    समस्तीपुर के विषय में ज्यादा जिज्ञासा इसलिए थी कि वहाँ की मेरी एक बहुत ही प्यारी सहेली है जिस से बस पिछले दो,तीन साल से संपर्क टूट गया है...और उसने हर बार मुझे खोज निकाला है तो इस बार मेरी जिम्मेवारी है..
    पोस्ट बहुत बढ़िया है, मय तस्वीरों के ....बिलकुल रिफ्रेश हो गए होंगे आप तो ..

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  48. धन्यवाद और आभार रश्मि जी और शर्मा जी।

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  49. Manoj saheb,
    Ekbar to apni tippani de diya hun lekin bachapan ka ek chhota sa sansamaran achanak hi mujhe andolit kar gaya hai. Main apne gaon saparivar gaya tha.Main us samay class 10th mein padhta tha.Lagan ke dinon mein gaon jana bahut hi achha lagata tha.Ek din pata chala ki pas ke gaon mein BUXAR DISTT.KA MASHHUR NACH CO.mein sabki chaheti CHANDA AUR BIJALI KA NACH AYA HAI.Doston ne ek idea nikala-Ek ne kaha tum kalkatiya ho -is liye kuchh nahi janate ho- hum log har lagan mein har naCh dekhate hain aur ghar mein kisi ko bhanak tak nahi lagati hai.Rat mein bhukh ka bahana banakar jaldi kha lena.Sabhi budhau log vistar dhar lenge aur hum log dhire se khisak lenge.Hum log jab pahunche tab nach shuru hi honewala tha.Hum log samiyane ke pas khadi ek vailgadi par baith gaye. Pahila hi Geet par BIJALI URF NAGMA ne sabh shrotaon ko CLEAN BOLD kar diya.Hum logon ko bhi bahut maja aya. Geet ka ek ansh pesh kar raha hun jisne mujhe DIRECT MUJJAFERPUR se jod diya hai-
    KHAI KE MUJJAFERPUR KE LICHI
    HAMAR GALVA BHAILE LAL
    SAIYAN PAGAL BHAILE NA,
    SIKADI PITI-PITI KEWARIYAN,
    PIYA JAGAWE LAGALAN NA.
    Maph kariyega saheb humro ta apke hi aisan man hai kabhi masti chhadh jala.Ise samay nikal kar padhiyega aur kuchh kahiyega. Hamara distt,hai BUXAR jo kabhi-kabhi direct mujjaferpur se bhi jud jata hai.Atit mein lautane ke liye DHANYAVAD,SIR.

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  50. जड़ों की ओर मुड़ कर देखना हमेशा सुखद होता है...

    जय हिंद...

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  51. aapaka yeh post padkar acha laga. aage bhi umid hai aisa sansmaran padne ko milega.

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  52. बहुत ही अच्छा लगा आपका ये संस्मरण. अपनी ज़मीन से आपका जुड़ाव दिल को छू गया

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  53. उपेन्द्र जी, यही तो है, जमीन से जुड़ा सारी ज़िन्दगी रहना चाहता हूं।

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  54. मनोजजी, सस्नेह नमस्कार...
    आपका मेरे ब्लाग पर आकर मेरा उत्साहवर्द्धन करना बहुत अच्छा लगा । आपके मुजफ्फरपुर की भूली बिसरी यादों से संजोया लेख पढा । विकास, गड्ढों और भूलभुलैया के जो उदाहरण आपकी नजरों से मुजफ्फरपुर के देखे ठीक उसी स्थिति से निरन्तर बढती भीड के साथ मेरा अपना शहर इन्दौर भी गुजर रहा है ।
    यद्यपि यह आसान नहीं है किन्तु यदि कभी संभव हो तो होल्करयुगीन मालवा के मुख्य शहर इन्दौर भी कभी पधारिये । शेष शुभ...

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  55. सुशील जी, आपका और आपके बहुमूल्य विचार के लिए आभार।
    मध्यप्रदेश के प्रायः सभी इलाके घूम आया, इंदौर ही कभी जाना नहीं हुआ। अच्छा है, ज़रूर आएंगे।

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  56. वैसे तो मुजफ्फरपुर से हमारा दूर दूर तक कोई वास्ता नहिं पर आपने यात्रा वृतांत से इस कदर जोड दिया कि अपना सा लगने लगा।

    रोचक प्रस्तूति!!मनोज जी!!

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  57. अपने पुराने घरों को पुनः देखने की उत्सुकता मुझे भी बहुत है।

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  58. अच्छा लगा यह नोश्टाल्जिया!

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  59. मैं बंटी चोर जूठन चाटने वाला कुत्ता हूं। यह कुत्ता आप सबसे माफ़ी मंगता है कि मैने आप सबको परेशान किया। जाट पहेली बंद करवा के मुझे बहुत ग्लानि हुई है। मेरी योजना सब पहेलियों को बंद करवा कर अपनी पहेली चाल्लू करना था।

    मैं कुछ घंटे में ही अपना अगला पोस्ट लिख रहा हू कि मेरे कितने ब्लाग हैं? और कौन कौन से हैं? मैं अपने सब ब्लागों का नाम यू.आर.एल. सहित आप लोगों के सामने बता दूंगा कि मैं किस किस नाम से टिप्पणी करता हूं।

    मैं अपने किये के लिये शर्मिंदा हूं और आईंदा के लिये कसम खाता हूं कि चोरी नही करूंगा और इस ब्लाग पर अपनी सब करतूतों का सिलसिलेवार खुद ही पर्दाफ़ास करूंगा। मुझे जो भी सजा आप देंगे वो मंजूर है।

    आप सबका अपराधी

    बंटी चोर (जूठन चाटने वाला कुत्ता)

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  60. मैं बंटी चोर जूठन चाटने वाला कुत्ता हूं। यह कुत्ता आप सबसे माफ़ी मंगता है कि मैने आप सबको परेशान किया। जाट पहेली बंद करवा के मुझे बहुत ग्लानि हुई है। मेरी योजना सब पहेलियों को बंद करवा कर अपनी पहेली चाल्लू करना था।

    मैं कुछ घंटे में ही अपना अगला पोस्ट लिख रहा हू कि मेरे कितने ब्लाग हैं? और कौन कौन से हैं? मैं अपने सब ब्लागों का नाम यू.आर.एल. सहित आप लोगों के सामने बता दूंगा कि मैं किस किस नाम से टिप्पणी करता हूं।

    मैं अपने किये के लिये शर्मिंदा हूं और आईंदा के लिये कसम खाता हूं कि चोरी नही करूंगा और इस ब्लाग पर अपनी सब करतूतों का सिलसिलेवार खुद ही पर्दाफ़ास करूंगा। मुझे जो भी सजा आप देंगे वो मंजूर है।

    आप सबका अपराधी

    बंटी चोर (जूठन चाटने वाला कुत्ता)

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  61. मैं बंटी चोर जूठन चाटने वाला कुत्ता हूं। यह कुत्ता आप सबसे माफ़ी मंगता है कि मैने आप सबको परेशान किया। जाट पहेली बंद करवा के मुझे बहुत ग्लानि हुई है। मेरी योजना सब पहेलियों को बंद करवा कर अपनी पहेली चाल्लू करना था।

    मैं कुछ घंटे में ही अपना अगला पोस्ट लिख रहा हू कि मेरे कितने ब्लाग हैं? और कौन कौन से हैं? मैं अपने सब ब्लागों का नाम यू.आर.एल. सहित आप लोगों के सामने बता दूंगा कि मैं किस किस नाम से टिप्पणी करता हूं।

    मैं अपने किये के लिये शर्मिंदा हूं और आईंदा के लिये कसम खाता हूं कि चोरी नही करूंगा और इस ब्लाग पर अपनी सब करतूतों का सिलसिलेवार खुद ही पर्दाफ़ास करूंगा। मुझे जो भी सजा आप देंगे वो मंजूर है।

    आप सबका अपराधी

    बंटी चोर (जूठन चाटने वाला कुत्ता)

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  62. नामचीन साहित्यकार भी अपने अंतिम दिनों में किस अवस्था में जीता है,कभी शास्त्रीजी के संदर्भ में इस पर भी लिखें।

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  63. राधारमण जी, ज़रूर लिखेंगे इस विषय पर भी। बहुत संभव हुआ अगला फ़ुरसत में इसी पर होगा। r

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  64. बहुत अच्छी तरह से वृतांत पेश किया है. हम भी आपके साथ साथ मुजफ्फरपुर की सेर कर आये. और अपनी यादों की गलियों में पहुँच अपने स्कूल भी घूम आये. और हंसी आई जब इतने बदलाव के बाद आपको रास्ते ढूँढने पड़े...और बच्चो की वो निगाहें बिलकुल समझ पा रहे थे उस प्रतिक्रिया को.

    और आपको कैसे एहसास मिले होंगे ऐसी जगहों पर जा कर ...ऐसे एहसासों से हम भी २-४ हुए हैं.

    सुंदर प्रस्तुति.

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  65. अनामिका जी, आपके विचार और भावनात्मक टिप्पणी ने सच को पकड़ा है। आभार आपका।

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  66. इतने दिलचस्प तरीके यह संस्मरण लिखा है आपने मनोज जी कि मैं इत्मीनान से इसे पढ़ने का लोभ नहीं रोक पाई और अच्छा किया जो पहले हडबडी में इसे नहीं पढ़ा.अपने बचपन के शहर को व्यस्क अवस्था में देखना कितना नॉउसटोलौजिक होता है यह समझा जा सकता है.इसी तरह की अनुभूति हुई थी जब रानीखेत के अपने घर में ही मेहमान बन कर गई थी मैं एक बार..
    आज हमने भी महसूस कर लिया मुज्जफरपुर को.
    बहुत शुक्रिया इतनी प्यारी पोस्ट का.

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  67. यह एकदिवसीय यात्रा बहुत ही रोचक थी. सच में... नए अनुभव, बदलते परिवेश, आचार्य जानकी बल्लभ शास्त्री जी से भेंट, मौके पर उनके द्वारा कहे गए नायाब कथन.... माय गोड... वंस इन अ लाइफटाइम एक्सपेरिएंस !

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  68. शिखा जी सच में बड़ा नॉस्टॉलजिक था वहां जाना। आपका आभार कि आपने हमारा उत्साहवर्धन किया।

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  69. सच में करण यह एक वन्स इन अ लाइफ़ टाइम एक्स्पीरियंस वाली ही यात्रा था।

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  70. ''काव्य की भांति पूरा शहर सम-विषम छंद'' शहर तो शायद ऐसे ही सभी होते हैं, लेकिन यह दृष्टि नहीं.

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