मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011

लघुकथा :: कथनी और करनी

कथनी और करनी

IMG_0545_thumb[1]मनोज कुमार

totaआज राधाबाबू के जन्म दिन के अवसर पर एक भव्य समारोह आयोजित किया गया है।

भले ही उनके घुँघराले बाल युवावस्था में ही काल-कवलित हो गए हों या चालीसा पार करते-करते गठिया ने घुटनों को जाम कर दिया हो। लेकिन इन सबसे उनके सौन्दर्यबोध में कोई अन्तर नहीं आया था। उनका आदर्श है – ‘यस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः, स एव वक्ता स च दर्शनीयः’।

....... यह प्रोजेक्ट तो मुझे ही मिलना चाहिए, जैसे भी हो। मैं औरों की तरह नहीं जो बरदाश्त कर लूँ। ........... कोई तो कमजोर नब्ज होगी। काम के लिए तो बीस परसेन्ट काफी हैं। चालीस में नहीं मानता है तो उठवा लो घर में से किसी को। अपने काम के प्रति दृढ़ प्रतिज्ञ हूँ मैं, जो चाह लेता हूँ, करता हूँ” वे अपने पेशे के प्रति खुद को समर्पित मानते ही नही, शब्दों में सदा बोल भी उठते हैं।

सिपहसलारों ने उनकी इस बात पर तालियों के साथ सहमति प्रकट की - पुल वाले इंजीनियर को ही लो। भला आदमी था। ईमानदार था। बेचारा गया काम से। काम आपका बना और मुआवजा भरा सरकार ने। श्च ... श्च ... श्च। अबला को क्लर्की मिल गई। अब उसका घर चल रहा है। उसकी नौकरी के लिए कितना प्रयास किया था आपने। आज तक आपका अहसान नहीं भूली है, नाम लेती है

इतने में किसी ने आकर सूचना दी, ‘मीडिया वाले और बाकी लोग भी पधार चुके हैं।’

वे गण्य-मान्य लोगों के साथ बाहर आए। लान में मंचनुमा स्टेज पर आकर माइक के पीछे स्थान ग्रहण किया। उनका वक्तव्य शुरू हुआ, में अपनी परम्परा, नैतिकता और संस्कारों को संकल्प के साथ जीना चाहिएसद्भाव, शान्ति और सौहार्द का वातावरण निर्मित हो इसके लिए हमें एक-दूसरे से मेल-मिलाप बढ़ाकर दिल में प्यार और भाईचारा का दीपक जलाना चाहिए, प्रकाश फैलाना चाहिए। हमें वह हर प्रयास करना चाहिए जिससे समाज में एक दूसरे के प्रति प्रेम, स्नेह, आदर और सम्मान का भाव बढ़े .....।”

वक्तव्य समाप्त होते ही पार्श्व में उनका पसंदीदा गीत ‘जोत से जोत जलाते लो, प्रेम की गंगा बहाते चलो ......!” बज उठा। उपस्थिति लोगों की जोरदार तालियाँ देर तक गूँजी। एक बंकिम स्मिति उनके अधरों को स्पर्श करती हुई तेजी से गुजर गई।

राधाबाhin_bday_ca-2बू किसी भी अवसर पर अंदरखाने में शहर के धनाड्य और संभ्रांत मित्रों के साथ जाम टकराने से नहीं चूकते। आज भी शहर के गण्य-मान्य लोगों के साथ ड्राइंग रूम की मद्धिम रोशनी में जाम का दौर चल रहा है। जन्मदिन के उपलक्ष्य में शहर की सबसे मंहगी बेकरी से एक बृहद् आकार का हृदयनुमा केक मंगाया गया है। उन्होंने पहले फूंक मारकर प्रकाश बिखेर रही मोमबत्तियों को बुझाया। फिर चाकू से दिल के आकार के केक के टुकड़े कर डाले ...... पहला टुकड़ा अपने मुँह में रखा।

बाहर लोग अभी भी उनके अभिनन्दन में जयकार कर रहे थे ।

*****

26 टिप्‍पणियां:

  1. हमारे नेतागण यही सब तो कर रहे हैं.
    बातें कुछ,काम कुछ.
    बहुत सुन्दर व्यंग प्रस्तुत किया है आपने.

    जवाब देंहटाएं
  2. वर्तमान लौकिक व्यवहार पर व्यंग्य करती कहानी अच्छी लगी।

    जवाब देंहटाएं
  3. आज के तथाकथित प्रगतिशील समाजसेवियों के कुछ इसी तरह के चरित्र को उजागर करती कथा अपना प्रभाव छोड़ने में समर्थ हुई है।

    आभार,

    जवाब देंहटाएं
  4. दोहरे चरित्र को दिखाती लघुकथा.. बहुत प्रभावशाली

    जवाब देंहटाएं
  5. हर दुसरे कदम पर ऐसे समाजसेवी लोग मिल जाते हैं , उनकी हकीकत से वाकिफ भी होते हैं लोग ,मगर क्या करें , उनका रुतबा तालियाँ बजने को विवश करता है !
    सच बयान करती लघु कथा !

    जवाब देंहटाएं
  6. हाथी के दाँद!
    खने के अलग,
    दिखाने के अलग!

    जवाब देंहटाएं
  7. दिखावे की दुनिया है ...अंदर कुछ और बाहर कुछ और ...सच्चाई बयाँ करती अच्छी लघु कथा

    जवाब देंहटाएं
  8. कथनी और करनी के महत्व को रेखांकित करती कहानी ...आज के सन्दर्भ को सही परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करती है ...

    जवाब देंहटाएं
  9. यथार्थ को दर्शाती लघुकथा।

    जवाब देंहटाएं
  10. यही हाल है आजकल समाज का ..दिखाते कुछ हैं करते कुछ हैं
    अच्छी लघुकथा.

    जवाब देंहटाएं
  11. कितने घरों के दिये बुझकर और दिलों पर छुरियाँ चलाकर टुकड़े टुकड़े करके जन्म्दिन मनाले वाले समाज सेवी को जन्मदिन मुबारक.. तुम जियो हज़ारों साल ताकि एक दिल के टुकड़े होते रहें हज़ार!!

    जवाब देंहटाएं
  12. पहचानना मुश्किल होता है कि चेहरे के पीछे असली चेहरा कौन सा है। इनकी कोई आत्मा नहीं होती। दोहरे चरित्र पर व्यंग्य करती लघुकथा बेहतर बन पड़ी है।

    जवाब देंहटाएं
  13. ये केक के नहीं दिलों के टुकड़े करते हैं।

    अचछी लघुकथा। आभार।

    जवाब देंहटाएं
  14. मै तो हेरान हुं लोग ऎसे लोगो को शुभकामनाऎ देते ही क्यो हे? क्योकि इन की महानता किसी से नही छुपी होती....

    जवाब देंहटाएं
  15. कथा का शिल्प बेजोड़ है। आपने पुराने सन्देश में जान फूंक दिया है। बहुत अच्छा लगा। धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
  16. उन्होंने पहले फूंक मारकर प्रकाश बिखेर रही मोमबत्तियों को बुझाया। फिर चाकू से दिल के आकार के केक के टुकड़े कर डाले ......

    सटीक प्रभावशाली रचना -
    बधाई .

    जवाब देंहटाएं
  17. *****‘पुल वाले इंजीनियर को ही लो। भला आदमी था। ईमानदार था। बेचारा गया काम से। काम आपका बना और मुआवजा भरा सरकार ने। श्च ... श्च ... श्च। अबला को क्लर्की मिल गई। अब उसका घर चल रहा है। उसकी नौकरी के लिए कितना प्रयास किया था आपने। आज तक आपका अहसान नहीं भूली है, नाम लेती है’।*****

    मुश्क़िल शायद यह भी है कि समाज भी ‘व्यक्ति’ को नहीं उसकी सामाजिक छवि को स्वीकार करता है। एक बेहतर लघुकथा।

    जवाब देंहटाएं
  18. बहुत ही सटीक और चुटीला व्यंग ! आदर्शवाद का मुखौटा पहने ऐसे दोहरे चरित्रवालों की कमी नहीं है हमारे आस पास ! हमें सतर्कता और सावधानी से इनको पहचानने की ज़रूरत है ! सारगर्भित आलेख के लिये धन्यवाद एवं आभार !

    जवाब देंहटाएं
  19. बहुत ही करारा और सटीक व्यंग्य प्रस्तुत किया है आपने मनोज भाई| इस तरह के साहित्यिक प्रयासों की नितांत और निरंतर आवश्यकता है| सिक्के के हर पहलू पर न सिर्फ़ लिखा जाना चाहिए, बल्कि उसे सकारात्मक रूप से पढ़ा भी जाना चाहिए|

    जवाब देंहटाएं

आपका मूल्यांकन – हमारा पथ-प्रदर्शक होंगा।