रविवार, 19 जून 2011

भारतीय काव्यशास्त्र-71

भारतीय काव्यशास्त्र-71

आचार्य परशुराम राय

पिछले अंक में ध्वनि 47 भेदों की गणना करते हुए प्रबन्धगत ध्वनि के 12 भेदों में से दो पर चर्चा की गयी थी और यह कहकर बात समाप्त कर दी गयी थी कि अन्य 10 भेदों का निर्णय इसी प्रकार कर लेना चाहिए। इस अंक में असंलक्ष्यक्रमव्यंग्य अर्थात् रस-ध्वनि के चार भेदों- पदैकदेश (प्रकृति-प्रत्यय आदि) द्वारा रस-ध्वनि व्यंग्य, रचना (शैली) द्वारा रस-ध्वनि व्यंग्य, वर्णों द्वारा रस-ध्वनि व्यंग्य और प्रबन्धगत रस-ध्वनि व्यंग्य में से केवल प्रकृति-प्रत्यय द्वारा रस-ध्वनि व्यंग्य पर चर्चा की जाएगी।

पदैकदेश द्वारा रस-ध्वनि व्यंग्य का अर्श है शब्दांश या पदांश द्वारा किसी रस का व्यंजित होना। इसके अन्तर्गत आचार्य मम्मट ने सर्वप्रथम धातु (मूल क्रिया या ROOT VERB) से शृंगार रस की व्यंजकता को लिया है-,

रइकेलिहिअणिअसणकरकिसलयअरुद्धणअणजुअलस्स।

रुद्दस्स    तइअणअणं   पव्वईपरिचुँबिअं    जअइ।।

(रतिकेलिहृतनिवसनकरकिसलयरुद्धनयनयुगलस्य।

रुद्रस्य  तृतीयनयनं  पार्वतीपरिचुम्बितं  जयति।। संस्कृत-छाया)

अर्थात् रतिक्रीड़ा के समय माँ पार्वती के वस्त्र को छीन लेनेवाले भगवान शिव, जिनके दो नेत्र उनके (माँ पार्वती के) कर-किसलय द्वारा बन्द कर लिए गए हैं, का पार्वती द्वारा परिचुम्बित तीसरा नेत्र की विजय प्राप्त कर रहा है।

यहाँ जयति (जि धातु से व्युत्पन्न) से शृंगार रस व्यंजित हो रहा है। क्योंकि तीनों नेत्रों बन्द करना समान है। लकिन तीसरे नेत्र को परिचुम्बन के द्वारा बन्द करना, उसकी उत्कृष्टता, सुन्दरता या उत्कर्ष को व्यक्त करता है और यह जयति शब्द के कारण है। यदि इसके स्थान पर शोभते (शोभित हो रहा है) पद का प्रयोग किया जाता, यह व्यंग्य नहीं आ पाता।

इसी प्रकार प्रातिपदिक शब्द (मूल संज्ञा शब्द अर्थात् विभक्ति रहित शब्द) से शृंगार रस की व्यंजना का उदाहरण देखा जा सकता है-,

प्रेयान् सोSयमपाकृतः सशपथं पादानतः कान्तया,

द्वित्राण्येव पदानि वासभवनाद्यावन्न यात्युन्मनाः।

तावत्प्रत्युत पाणिसम्पुटगलन्नीविनिबन्धं धृतो,

धावित्वैव  कृतप्रणामकमहो  प्रेम्णो विचित्रा गतिः।।

अर्थात् शपथ लेकर भी पैरों पर झुके हुए अपने प्रियतम को नायिका (पत्नी) द्वारा फटकारे जाने पर जब उसका पति खिन्न होकर बाहर जाने के लिए दरवाजे की ओर दो-तीन कदम ही बढ़ाया था कि पत्नी ने खुली जा रही नीवी (पेटीकोट या लहँगे की गाँठ) को दोनों हाथों से सँभालती हुई प्रणाम की मुद्रा में उसे जाने से रोक लिया। अहो प्रेम की विचित्र गति है।

यहाँ पदानि (कदम) संज्ञा पद के कारण यहाँ पत्नी की प्रेम के प्रति उत्सुकता व्यंजित हो रही है (दरवाजा पद के कारण नहीं), पत्नी इतनी प्रेम के लिए उत्सुक थी कि दो-तीन कदम दरवाजे की ओर बढ़ाते ही उसका मान भंग हो गया, अर्थात कहीं वह चला गया तो सब व्यर्थ हो जाएगा, ऐसा न हो इसलिए बाहर जाने के लिए दरवाजे की ओर दो-तीन कदम बढ़ाते ही पत्नी उसे रोक लेती है। अतएव यह संज्ञा पद पदानि (कदम) के कारण संयोग शृंगार व्यंग्य है।

अब देखते हैं कि प्रत्यय या उसके अंश द्वारा होनेवाली रस की व्यंजना को दिखाने के लिए निम्नलिखित उदाहरण प्रस्तुत है-

पथि पथि शुकचञ्चूचारुराभाङ्कुराणां,

दिशि दिशि पवमानो वीरुधां लासकश्च।

नरि नरि किरति द्राक् सायकान् पुष्पधन्वा,

पुरि पुरि विनिवृत्ता मानिनीमानचर्चा।।

अर्थात् वसन्त ऋतु में प्रत्येक पथ पर तोतों के चोंच के समान लाल-लाल निकले नये अंकुरों की मनभावन आभा है, हर दिशा में लताओं को नृत्य कराती हवा बह रही है, सभी पुरुषों पर कामदेव अपने बाणों की वर्षा कर रहा है और प्रत्येक नगर में मानिनी स्त्रियों के मान की चर्चा समाप्त हो गयी है।

इसमें किर् धातु में वर्तमान कालिक तिङ् (ति) प्रत्यय के कारण यह व्यंजित हो रहा है कि पुष्पधन्वा कामदेव के बाणों की वर्षा अभी चल रही है, समाप्त नहीं हुई। इसी प्रकार निवृत्त पद में क्त भूतकालिक प्रत्यय (past participle) विशेषण के रूप में कर्त्ता कारक में प्रयोग होने से मानिनी स्त्रियों के मान बिलकुल शेष नहीं है, उनका मान पूरी तरह समाप्त हो गया है। ये अर्थ उक्त प्रत्ययों से युक्त पदों के प्रयोग के कारण सम्भव हो सका है।

निम्नलिखित श्लोक में भी प्रत्ययांश द्वारा होनेवाले व्यंग्य को दिखाया गया है। यह विप्रलम्भ शृंगार की व्यंजना का उदाहरण है-

लिखन्नास्ते भूमिं बहिरवनतः प्राणदयितो,

निराहाराः सख्यः सततरुदितोच्छूननयनाः।

परित्यक्तं सर्वं हसितपठितं पञ्जरशुकै-

स्तवावस्था चेयं विसृज कठिने मानमधुना।।

यह अमरुकशतक का श्लोक है। नायक से बहुत दिनों से रूठी नायिका को मनाने के लिए उसे उसकी सहेली का समझाना इसमें बताया गया है। सहेली कहती है कि तुम्हारा प्रेमी बाहर सिर झुकाए जमीन कुरेद रहा है, उसके दुख से दुखी सभी सहेलियाँ भोजन करना छोड़ दी हैं और निरन्तर रोने के कारण उनकी आँखें भी सूज गयी हैं, और तो और पिंजरे में बन्द तोते भी हँसना और पढ़ना छोड़ चुके हैं और तुम हो कि मानती ही नहीं। हे कठोर हृदयवाली, अब तो मान जाओ।

यहाँ लिखन् पद लिख् धातु में शतृ प्रत्यय लगने से निष्पन्न हुआ है। शतृ प्रत्यय लगने के कारण लिखन् का अर्थ है निरुद्देश्य रूप से जमीन को कुरेदते हुए। यदि लिखति वर्तमानकालिक क्रिया रूप होता तो उसका अर्थ किसी उद्देश्य के साथ लिखना अर्थ होता। इसी प्रकार आस्ते पद यह व्यंजित करता है कि वह तुम्हारे मानने तक बैठा रहेगा। यदि यहाँ आसितः प्रयोग होता तो अर्थ निकलता कि उसका बैठना निरुद्देश्य है। इसी प्रकार भूमिं (भूमि/जमीन) एक वचन द्वितीया विभक्ति में प्रयोग यह व्यंजित करता है कि उसका भूमि को कुरेदना उद्देश्यहीन है। यदि सप्तमी विभक्ति (अधिकरण कारक) में भूमौ प्रयोग होता तो सोद्देश्य भूमि का कुरेदना अर्थ होता।

निम्नलिखित श्लोक में संज्ञा शब्द का षष्ठी विभक्ति (सम्बन्ध कारक) में प्रयोग से व्यंग्य का उदाहरण लिया जा रहा है। यह श्लोक मूल रूप से प्राकृत भाषा में है। इसलिए इसका सस्कृत रूप भी कोष्ठक में दे दिया गया है-

गामारुहस्मि गामे वसामि णअरठ्ठिइं ण जाणामि।

णाअरिआणं पइणो हरेमि जा  होमि  सा होमि।।

(ग्रामरुहास्मि ग्रामे वसामि नगरस्थितिं न जानामि।

नागरिकाणां पतीन् हरामि या भवामि सा भवामि।। संस्कृत छाया)

अर्थात् मैं गाँव में पैदा हुई और गाँव में ही रहती हूँ, शहर के तौर-तरीकों को नहीं जानती हूँ; मैं जो भी होऊँ, शहरी स्त्रियों के पतियों को वश में करना जानती हूँ।

इस श्लोक में प्रयुक्त “नागरिकाणां पतीन्”  में नागरिक शब्द को सम्बन्ध कारक (षष्ठी विभक्ति) में प्रयोग होने के कारण शहरी पतियों के प्रति उपेक्षा या अनादर का भाव व्यंजित होता है। क्योंकि व्याकरण के अनुसार षष्ठी विभक्ति का प्रयोग अनादर के अर्थ में होता है- षष्ठी चानादरे (च+अनादरे)। इस प्रकार यहाँ शहरी स्त्रियों के पतियों को गाँव की रहने वाली स्त्री द्वारा आकर्षित करने की क्षमता का उत्कर्ष व्यंग्य है।

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7 टिप्‍पणियां:

  1. इस ज्ञान वर्धक पोस्ट के लिए अनेकानेक साधुवाद

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  2. काव्य शास्त्र में श्रृंगार रस सम्बन्धी सार्थक जानकारी देने के लिए बहुत-बहुत आभार ..

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  3. निशब्द आपके ग्यान के आगे। शुभकामनायें।

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  4. एक खजाना है आपकी यह श्रंखला.

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  5. ज्ञान बाँटने के लिए आभार।
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    पितृ-दिवस की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ।

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