बुधवार, 15 जून 2011

देसिल बयना 85 : आँख में लोर नहीं, दाँत निपोर…

-- करण समस्तीपुरी





बाबूजी के तारफोन पर तो मन बल्लियों उछलने लगा था, “बबुआ..! पटना शहर से रिश्ता आया है। लड़की पढ़ी-लिखी है। खाता-पीता परिवार है। दान-दहेज का परवाह नहीं मगर घर-खानदान संस्कारी है…। बैसाख सुक्कुल पख में लगन धराये हैं..। आज-बिहान में संघमितरा का जरीबेसन (रिजर्वेशन) ले लेयो।”


फोन पर तो सिरिफ़ हाँ-हूँ ही बोल सके मगर कलेजा तो धौंकनी की तरह चलने लगा था। सबसे पहिले गिलास भर पानी पीये। जरीबेसन का तो अभी ख्यालो नहीं आ रहा था। आँख खोलकर मने-मन कनिया की सूरत-मूरत, चाल-ढाल गुनने-धुनने लगे। दिरिस इतना फ़ास्ट-फ़ारवार्ड होने लगा कि क्षने भर में जयमाल-फेरा, ससुराल की ललित-लीला से लेकर शहर बंगलौर में ख्याली घर भी बस गया। ध्यान टूटा तो बटुआ उठाए और सरपट दौड़ गये रेलबी-टीसन। ढ़ाई महीना पहिलहि से टिकिट कटाकर रोज कलेंडर में तारीख काटे लगे, ललका कलम से।



ढाई महीना तो ढाई जुग हो गया था मगर पहाड़ जैसा दिन को काटकर उ घड़ी भी आइये गयी। “अइले शुभ के लगनमा…. शुभे हो शुभे।” महतारी पूरे गाँव को हकार रखी थी। रेवाखंड पहुंचते ही पाँच दिन पहिलहि से दही-हल्दी, उबटन-पसाहिन शुरु हो गया। महुरत भी आ गया। नया शेरवानी पर साफ़ा बांधकर ऐसे तने मानो कि एक दिन का अकबर हमहि हों। बुआ सब आँख में काजल लगा दी थी ताकि 'मोरे बबुआ को नजरियो न लागे…..!’ मैय्या अशीसती हुई साफ़ा में सुई छुपा दी थी… जो हर बुरी बला से लोहा लेकर हमरे बबुआ को बचाये रहे। गीत-नाद के बीच मोटर में सवार होकर पकड़ लिये थे पश्चिम मुँह के रस्ता। गाँधी-सेतु पर जाम में फ़ंसे तो हमरा तो खूने जाम होने लगा मगर दोहाई रामजी के… किसी तरह भोर होये से पहिले फेरा भी लग गया।



सब विध-वाध सम्पन्न हुआ। अगिला दोपहरिया में भतखई भी हुआ खूब गीत-गारी के साथ। “जैसन इंडिया के गेट… वैसन समधी जी के पेट… साला झूठ बोले ला….!” हा.. हा… हा… हा… मार मुस्की मजा आ गया था। छोटका फूफ़ा तो जौन ठठाकर हँसे कि मुँह का कौर ऐसे सरका कि जनानी-जात को गीत भी बदलना पड़ा, “ई समधी भरुआ भात खाये न जाने…. बाटा का जूता खिलाओ…. सुनाओ सखी गाली… स्वागत में गाली सुनाओ। घंटा भर से उपर चला भतखई। दही परसाने लगा तो फ़ाइनल गीत शुरु हुआ “जादे जो खायेगा, पेट फूल जायेगा…. धोती में होगा पखाना रे… महंगी का जमाना।”



हंसी-खेल में विदाई की मर्मस्पर्शी बेला भी आ गयी। फिर वर-दुल्हिन का गाँठ जोर कर समदन शुरु हो गया। आह… मिनिट भर में ही कितना अंतर आ गया। अभी तक गीत में जो उल्लास था… उसकी जगह बिछोह (वियोग) आ गया था। “आ… रे बड़ रे जतन से हम सिया धिया के पोसल… सेहो धिया राम लेने जाय…. सुसुकी रोवे मातु सुनयना…. पाछे सिया कुहकत जाय…… !” ओह… हमरा गला भी रुंध गया था।



“बाबू हो…. माँ….. चाची ए….. हो भैय्या…. ओह ! मैया, बहिनि, काकी-भाभी, मामी-मौसी…. सबको पकड़-धकर के ऐसा रोना-धोना शुरु हुआ कि मत पुछिये….। हमरा तो लगता था कि कहीं हमरे आँखों से आँसू भी ना टपक पड़े। पुरैनिया वाला पाहुन को बोला कर कहे, “ई सब बंद कराइये और गाड़ी बढ़वाइये…. नहीं तो अब दुल्हिन के साथ-साथ हमभी शुरु हो जायेंगे…!” बड़ी हँसमुख थे पुरैनिया वाला पाहुन। बड़ी बात बनाते थे। कैसनो महौल को हल्का कर दें।



पाहुन हँसते-बोलते रुदन-मंडली को साइड करते हम-दोनों को धकियाकर मोटरकार की तरफ़ बढ़ रहे थे। उकी महतारी तो लगता था कि रोते-रोते कलेजा फ़ार लेगी। बहिनिया अलगे गर्दन झुका के जो हिचकी भड़ रही थी कि चुप कराये वाला भी रोये लगे…! उधर से गोबधन मामू कहे लगे, “आह…. दुन्नु बछिया के तरह थी… एकहि थाल में साथे कौर उठाये-गिराये… साथे खाना, साथहि सोना, खेल-धूप सब साथे… एक दोसर के परछाईं थी दोनो… सबसे जादे तो यही को खलेगा….!” धत तोरी के… मामू चुप का करायेंगे… उतो और रुदन भड़का दिये…। इधर कनिया भी रोने लगी और उधर बहिनिया भी चिग्घारने लगी।



किसी तरह हमलोग गाड़ी के पास आये कि उधर से उका भाई आ गया दंतखिसरा। उ सार चार कदम अलगे से दीदी-दीदी कह के दांत निपोरे लगा। हम कहे लो हो गया लगे लखन लाल की जय। इ साला सूखे घाव को फिर जगा दिया। अब फिर एक राउंड रोना-धोना। मगर पुरैनिया वाला पाहुन के मुँहतेजी बहुत काम आया। उसको मजकियाते हुए बोले, “मार साला… बहिन के ब्याह हो गया राते अभी आया है पिपही बजाने… ! सब रो-धो के चुप होय गया है तो ई आया है दीदी-दीदी करके झुठौका सिनेह दिखाने…! उ क्या कहता है न, 'आँख में लोर नहीं दांत निपोर!”



हें… हें… हें… हें…. ! ’आँख में लोर नहीं दांत निपोर!’ खीं… खीं… खीं… खीं….! उ मौका पर भी सबकी हँसी फूट गयी थी। उ दंतखिसरा भी मुरी झुका के चुप हो गया था। हमरी गाड़ी भी तीन बार आगे-पीछे कर के बढ़ चली थी। हँसी दब नहीं रही थी तो पाहुन की कहावत फिर दोहरा दिये, “आँख में लोर नहीं दांत निपोर!’ हें… हें… हें… हें… ! आपभी न पाहुन कमाल कहावत गढ़्ते हैं। ’आँख में लोर नहीं दांत निपोर!’ हें.. हें… हें… हें…. !”



पाहुन भी मुसुकियाते हुए बोले, “कहावत नहीं सच्चे कहे। अब देखे नहीं… उकी आँख सूखी हुई थी और दीदी-दीदी चिल्लाकर गला फ़ार रहा है। अपने से तो अजगुत बात देखी नहीं जाती। व्यवहारिक कारण कुछ नहीं दिखावा ज्यादे करे तो कहना पड़ेगा न, ’आँख में लोर नहीं दांत निपोर!’ मतलब झूठे का प्रदर्शन। है कि नहीं भौजी ! कनिया से मुखातिब हुए थे। उसका सिसकना भी कम हो गया था। गाड़ी फिर से गाँधी-सेतु को पार करने लगी थी। हरि ओम तत्सत।


23 टिप्‍पणियां:

  1. कुछ तकनिकी कारणों से यह पोस्ट दुबारा प्रकाशित करना पड़ा। पहले। आपकी प्रतिक्रियाएं हमारे लिये अमूल्य प्रोत्साहन हैं। पहले आये दो पाठकों की प्रतिक्रिया क्षमायचना के साथ यहाँ पुनःप्रकाशित करता हूँ।


    निर्मला कपिला ने कहा…
    ्रोचक बयना बहुत दिनो बाद पढी। धन्यवाद।

    Wednesday, 15 June, 2011

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  2. अरुण जी आपसे भी क्षमा चाहता हूँ और धन्यवाद देता हूँ।

    अरुण चन्द्र रॉय ने कहा…
    बहुत बढ़िया चरित्र चित्रण... बाकी गीत में गारि की परमपरा जो अपने यहाँ है वह आत्मीयता अन्यत्र नहीं.... बयना से आदमी गावे पहुँच जाता है... बहुत सुन्दर... बहुत बढ़िया...

    Wednesday, 15 June, 2011

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  3. बहुत सुन्दर, शानदार और रोचक पोस्ट!

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  4. कहावत के साथ साथ तुम्हारी शादी के दृश्य भी देख लिए ..रोचक वर्णन

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  5. बहुत दिनों के बाद आई हूं आपकी देसिल बयना में करण जी, ज्यादा क्या कहूं .... हमेशा की तरह लाजवाब!!

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  6. अरे कारण बाबू,
    आप त हमरा के पोरका साल का याद दिया दिए... बहुत अच्छा पोस्ट...

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  7. बहुत मजा आयेल.. "अइले शुभ के लगनमा…. शुभे हो शुभे" .. "मोरे बबुआ को नजरियो न लागे"…."जैसन इंडिया के गेट… वैसन समधी जी के पेट .." .. इ सब गीत देखके अपन ब्याह के याद आयब गेल ..
    और "आह…. दुन्नु बछिया के तरह थी… एकहि थाल में साथे कौर उठाये-गिराये… साथे खाना, साथहि सोना, खेल-धूप सब साथे… एक दोसर के परछाईं थी दोनो… सबसे जादे तो यही को खलेगा…." पढ़ी के लागल आंख के आगाँ सब भा रहल ये ..
    धन्यवाद .. बहुत बहुत धन्यवाद ..

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  8. विवाह की मज़ेदार प्रस्तुति.मुझे पढ़ते समय वहां पर अपनी उपस्थिति याद आ रही थी.पुनः आशीर्वाद आपको भी और बहू को भी.

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  9. पढ़कर शादी में शरीक होने का आनंद आ गया ! एक एक दृश्य चलचित्र की तरह साफ़ साफ़ देखने को मिला !
    आपकी प्रस्तुति में अदभुत रोचकता समाहित होती है !

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  10. Aha aha kehan baat likhaliye ahan tay... hamra ek saal pahile bhel apan vivah yaa aabi gel.... Bahute badhiya.

    Sandeep

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  11. Ram ram Karan Babu...Aj gmail par apka msgwa padhkar raha he ni gaya "डोंट मिस आज का देसिल बयना"

    To Hum bhage bhage desil bayna padhne aa gaye...miss karne ka to bate ni tha...aur e ka dekh rahe hai humre byah ka charcha ho raha hai yaha...humko ko 12 may ka sabe drish samne aa gaya...

    Aur etna din bad apka desil bayna padhe to pichla sab desil bayna yad aa gaya...bahute khub likhe ajo ap...es bar ka desil bayna to humre liye kuch hatkar he hai...

    Ab apki tarif ka kare apko pate he ki ap kya hai aur ketna acha likhte hai..Dhanyawad hai ..bas aj k desil bayna par pahile wala nam sab miss kiye hai..bake to ap kamale kar diye...’आँख में लोर नहीं दांत निपोर..ha ha ha ha ha ha ha ha ...Vidai wale din ketna roye the aur aaje vidai ki bat par hasiye ni ruk raha...

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  12. aadarniy sir
    bahut bahut hi achhi lagi is bar ki desil bayana ki ptastuti.
    padh kar laga hamare riti-riwaz v paramprayen aaj bhi kayam hain.
    byah -geeto ko to padh kar bahut hi aanand aaya.
    bahut hi achhi lagi prastuti----
    sadar naman
    poonam

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  13. सभी पाठकों को हृदय से धन्यवाद.

    विशेष कर आशीष जी, आप हमारे ब्लोग पर पहली बार आये हैं। अभिनंदन एवं आभार।

    कुंवर जी,
    आप हमारे विवाह में भी आये और यहाँ भी आपका आशिर्वचन मिल रहा है।
    मर्मग्यजी, संगीताजी, निर्मलाजी, बबली एवं संदीपजी,
    आपका नियमित प्रोत्साहन हमारी रचनात्मक ऊर्जा का इंधन है।
    अभी तक लास्ट बट रियली नाट द लीस्ट रचना जी एवं रीताजी,
    आप बहुत दिनों के बाद हमारे ब्लोग पर आई हैं। इसलिये आपका आभार अगली भेंट में।
    आगत-अनागत सभी पाठकों को हार्दिक धन्यवाद!

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  14. धन्यवाद की कड़ी में जाते-जाते पूनमजी का नाम भी जोड़ रहा हूँ।

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  15. बहुत बढ़िया चरित्र चित्रण| धन्यवाद।

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  16. ’आँख में लोर नहीं दांत निपोर!

    मजेदार हरबार और लगातार. हार्दिक शुभकामनाएँ.

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  17. एक बहुत ही गंभीर मुद्दे को हलके में कह देना, व्यंग को इस्तेमाल करके बिलकूल ही भाव विह्वलित कर देना, विशुद्ध देहातीपन से जीवन दर्शन समझाना, लेखक का अपने लेखनी पर अपने अधिकार को दर्शाता है. सीमित संशाधन रहते हुए भी रचनात्मकता को कैसे जीवित रखा जाय इस ब्लॉग से सीखा जा सकता है.

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  18. खूब खूब खूब आशीर्वाद....
    अपने बियाह का वर्णन कोई कोई ऐसा कर सकता है...
    जियो...
    हम सोच ही रहे थे कि जाने कब कनिया का फोटो दिखाओगे...
    करेजा जुड़ा गया...

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  19. शादी के दृश्य देख कर लगा कि मुझे भी न्योता दिया गया था...
    हार्दिक शुभकानाएं.

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  20. आनंद आ गया ई निम्मन देसिल बयना पढ़के। दिल से निकली बात दिल से जो लेखे हैं।
    पूरा दिरिस ही खींच दिए हैं। आपका कलम ऐसही अबाध गति से चलता रहे।

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