बुधवार, 29 जून 2011

देसिल बयना–87: कोढ़िया उमताये, तो भुसकार जलाए…

 

षडरस हो कि षडऋतु…. असली मजा तो गाँवे-जवार में आता है। शहर-बजार में तो बिना बरखे के फ़ुहार और गर्मियो में ठंडी हवा फ़ेकता है। इजोरिया-अंधरिया कुछ पता नहीं चलता। सच्चे भारथ माता की आत्मा तो गाँवे में बसती है और आत्मा का सौंदर्य… हरि बोल।

रेवाखंड में गेहूँ की कटनी-दौनी-निकौनी हो गयी थी। मटर-मूँग भी टूटकर घर आ गये थे। खेIMG0680A_thumb1तों में चार चास कराकर के चौमास का हवा-पानी पीने के लिये छोड़ दिया था। न रोपनी ना कटनी….। किसानों के लिये यही समय थोड़ा फ़ुर्सत का होता है। ई समय में बूढ़न बाबा मुसकपुर के अल्हा गबैय्या को जरूर बोलाते थे। डेढ़ महीना तक बड़का दलान पर चलता था आल्हाखंड बावनो अध्याय का गीति-नाटक।

ओह… का गबैय्या था…। गाँजा-भंग को तो हाथ भी नहीं लगाता था। मगर परोगराम शुरु करे से पहिले भैंस के सेर भर दूध का छाँक जरूर लगाता था। मोटकी ढोलकी पर थाप देके जौन सुर लगाता था कि पूरा इलाका हिल जाये… टन.. टना..टन… टन…! “अरे बारह बरिस ले कुक्कुर जीये, तेरह बरिस ले जीये सियार….. ! सोलह बरिस ले क्षत्री जीये… आगे जीवन को धिक्कार….!” सच्चे गबैया के गला में बेजोर टान था।

न मैक, ना लाउडिस्पिकर… न जंघलेटर….. ! पंचलाईट के रोशनी में दे ढोल पर चाटी…’किला हिला दे मोहबागढ़ के!’ पंचलाइट बंद हो जाये तो कभी-कभी लालटेन के टिमटिमिया रोशनी में भी जा झाड़ के। बीच-बीच में एकाध गो ऐसन टोन छोड़ता था कि सकल सभा की हँसी फूट जाय। एक बार सुक्कन मामू आगे में बैठे औंघिया रहे थे…। गबैय्या का नजर पड़ा…! तिरकिट धां… करके कहिस…. “अहो मामूजी…! ई बिमारी का तो कौनो इलाज नहीं… मगर एगो सोलहो आना टेस्टेड टोटमा है। उठकर जाइए उधर लघुशंका कर के आँख-मुँह धो लीजिये…. नींद नहीं भाग गयी तो मेरे नाम पर कुत्ता पोस लीजियेगा।”  हा… हा… हा…. ही…. ही…. ही…. हे…हे…. हे…… खी…खी….खी…. बाप रे बाप ! जनानिये-मरदानिये जौन हँसी फूटा कि का बताएँ।

बेचारे सुक्कन मामू तिलमिला गये थे। फिर वही गबैय्या बात संभाला। कहिस, “अरे हम ई में बुरा का कहें हैं….? मरदे उधर जाइये… लघुशंका निवारण करके, पानी से आँख-मुँह धोने बोले… आपहुँ महराज पता नहीं क्या समझ के भड़क गये…! फिर सभा को संभारे खातिर गाने लगा, “छन में छनक भेलई दाई गे… हमर पेटी के कुँजी हेराई गे….!”

नोनफ़र पर वाला दमरुआ बड़का कक्का कने बेगारी खटता था। ससुर के नाती महा-कोढ़ी। देह पर माछी का बराती जीमे मगर ससुरे को हाथ हिलाने में भी जैसे कस्टम डियुटी लगता था। नहाय-धोआय का नाम नहीं मगर आल्हा में बैठता था सबसे आगे। और एक्कहि आसन में पूरा प्रकरण सुन लेता था। दिन से लेकर रात धर खैनी चुनाते-चुनाते ही उका देह-हाथ टटाने लगता था। भीड़-भाड़ को संभालना, लैट-बत्ती, पानी-बीड़ी सब का इंतिजाम-बात गोधन कका पर था।

उ रात भी भोजन के बाद धीरे-धीरे पूरा रेवाखंड बड़का दलान पर जमा होने लगा। गबैया भी अपनी ढोलकी पर टीम-टाम कर रहा था। लेकिन ई का… आज तो शुरुए से ललटेन भुकभुका रहा है। पता चला कि गोधन कका कहीं कुटुमैती चले गये थे। पूरा दलान ठसाठस मगर चुनौती ई कि पँचलाइट जलाएगा कौन? ई पंचलाइट नहीं हुआ, राजा जनक के दरवार का शिवधनुष हो गया कि दरोनाचारज का चक्करब्यूह जो अर्जुन नहीं है तो भेदेगा कौन?

झिगुनिया गोधन कका का पिछलग्गु था। आज ओस्ताद नहीं थे तो चेला मैदान संभाल लिया। फ़ुस..फ़ुस…फ़ुस…! पहिले पंचलाइट में हवा भरा। फिर कनैठी दिया। एंह… उपर से मटिया तेल का फ़ुहार तो ऐसे फ़ेंके लगा जैसे शिवजी के माथा से गंगा मैय्या निकल रही हों। फिर उल्टा कनैठी किया। फिर बिसकरमा बाबा का नाम लेकर दिया सलाई रगड़ा… भवाक…. भुक-भाक… स्स्स्स्स्स्स्स्स….. आह्हा…. जल गया पंचलाइट। फिर ढोल पर चाटी और ’मत घबराओ मित्र हमार…. देश में लड़की बहुते मिलतौ…. भाई के खोजि के करैह… ब्याह… पार न पैबा… उ नगरी से… किरलक… किरलक…किरलक…किरलक…. ढनाक…!’

प्रकरण अपना शवाब पर था, “क्षत्री जात महा-जग रगड़ी…. धरि कालहुँ से नाहिं डराय…. अरे…. धर से शीश देबा अलगाय…. हट जा ओझा मेरे सोझा से….! अरे…. पंडीज्जी के हिलय बतीसो दांत…..पेट में पानी हड़बड़ बोले….. किरलक…किरलक…किरलक…. ढनाक…!’ आह… पूरा हजूम घुटने पर आ गया था। गबैय्या भी तरातर ढोल पर चाटी दे रहा था और गर्दन घुमा-घुमाकर पूरे जोश में गा रहा था, “मंगनी उखर जाय तलवार… बुरबक झगड़ा राजपूत के….!” घुप्प…. ले बलैय्या के… गोधन कका रहते थे टेम-टेम पर पंचलाइट में हवा-पानी भरते रहते थे। ई झिगुनिया एक्कहि बेर जला के छोड़ दिया… हो गया बीचे सिन में घुप्प….!

बड़का कक्का अपने आरामकुर्सी पर से चिल्लाए कहाँ गया रे दमरुआ…. अरे गोधन नहीं है जरा आजो तो हाथ-पैड़ हिलाओ…. देखो लैट बंद हो गया… ललटेन जलाओ… कहाँ गया झिगुनिया…..?” पता नहीं झिगुनियाँ कहाँ था…. मगर पूरी भीड़ अंधरिये में हो-लो-लो-लो… कर रही है। गबैय्या बेचारा चुप है। कभी-कभी ढोलक पर अंगुली मार देता है। बड़का कक्का फिर घुड़के तो बेचारा दमरुआ अंगैठी करते हुए उठा, ’ओह… ललटेम में तो बड़ी मोस्किल है। सीसा खोलो, साफ़ करो.. बत्ती बढ़ाओ.. जलाओ… फिर उपर मुड़ी खींचो… नीचे सीसा फिट करो…. डिबिये जला देते हैं मालिक!”

बड़का कक्का फिर घुड़के, “मार ससुरा बुद्धी के बैरी…. अरे डिबिया के लुक-झुक में आल्हा के गीत होगा…. उ तो मिनिटे में ढोल के धम्मक से ही बम बोल जायेगा… कोढ़िया कहीं के…. जलाओ ललटेन।” अच्छा ठीक है…. आपको रोशनिये से न काम है… तो हइ लीजिये…. दिया सलाई रगड़ा… वहीं पाँच डेग पर बड़का भुसकार (गेहुँ का भूसा रखने के लिये बांस-फूस से बना स्टोर) था। वही पर फेंक दिया…. ! आह तोरी के…. जेठ महिना के पछिया में सूखा भुसकार में भभाक से आग पकड़ लिया…. रोशनी और धाह तो ऐसन कि ज्वालामुखी फूट पड़ी हो….। उ तो कहिये कि आल्हा का भीड़ था जो कुआँ-पोखर दौड़े….. हाथे-पाथे पानी-माटी…. ईंट-पत्थर मार के आग पर काबू किया। उ दमरुआ ससुर अबहुँ किनार में हाथ बांधे खड़ा तमाशा देख रहा था।

खैर… किसी तरह सब मिल-जुलकर आग बुझाया और फिर लगा सब दमरुआ को दुत्कारे…। सुनते-सुनते दमरुआ बोला, “हमको का कहते हैं… हम तो डिबिया जला रहे थे…. मालिके न कहे कि ड्बिया में रोशनी नहीं होगा….. लालटेन में ओतना मेहनत करते तैय्यो कितना रोशनी होता… सोचे भुसकार तो अपने है… !” दमरुआ जारी ही था कि गबैय्या बोल पड़ा, “देख लिये हो बाबू…. आठम अचरज रेवाखंड में…! जिनगी में तो कौनो काम नहीं किया… आज हमरे पिरोगिराम में ई कोढ़िया उमताया तो भुसकारे में आग लगा दिया…!”

“हूँ…..!”  सकल सभा बोल पड़ी थी। उसी दिन से ई कहावत ही बन गया। “कोढ़िया उमताए तो भुसकार जलाए!” मतलब कि अकर्मण्य को जोश आने पर भी निरर्थक या अनर्थ ही होता है।

15 टिप्‍पणियां:

  1. “कोढ़िया उमताए तो भुसकार जलाए!” मतलब कि अकर्मण्य को जोश आने पर भी निरर्थक या अनर्थ ही होता है।

    शानदार विवरण...

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  2. भाषा अच्छी लगी।

    कहावतों से भरपूर
    बहुत खूब

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  3. करन जिस तरह के देसज शब्दों और भावों का उपयोग करते हैं आप वह भाषा विज्ञानियों के बहुत काम आएगा आगे चलकर.... एक और बढ़िया बयना ...

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  4. बहुत ही सुन्दर भावाभिव्यक्ति| धन्यवाद|

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  5. आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल कल ३० - ६ - २०११ को यहाँ भी है

    नयी पुरानी हल चल में आज -

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  6. ज़बर्दस्त पोस्ट। मज़ा आ गया आज का देसिल बयना पढ़कर। सुंदर शैली में लिखे इस पोस्ट को पढ़ते वक्त सारे दृष्य जीवंत हो गए।

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  7. आज त बचवा के दुआर से गियान के गगरी अऊर अकिल का अलमारी भरकर जा रहे हैं.. देसिल बयना त कमाल हईये है आज त नया सब्द सीखने को मिला.. जन्घलेटर.. इतना जोरदार सब्द एक्के गो सुने थे गुल्कोंच.. मगर आज त हम माथा नेवा दिए.. ई मिठास रेबाखंड का सऊंसे देस में फ़ैल रहा है अऊर ई बोली का चासनी डाबीटी वाला आदमी का चिन्नी ण बढ़ गया त हमारा नाम बदल दीजियेगा..
    जुग जुग जियो बाबू!!

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  8. आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल कल ३० - ६ - २०११ को यहाँ भी है

    नयी पुरानी हल चल में आज -

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  9. विषय और समाज में घटित घटना के अनुरूप भाषा का प्रयोग बड़ा ही आकर्षक है। साधुवाद।

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  10. मनोज जी ,
    क्या बात है , बिलकुल गाँव में ही पहुंचा दिया , क्षेत्रीय भाषा में बहुत सुन्दर प्रस्तुति

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  11. कौनो फिकिर मत कर करन बबुआ,तोहार देशिल बयना के मिठास से मन त भर जाला लेकिन ओकरे साथ-साथ उ मन भी एकदमे देशिल हो जाला। तनि ठंढा आवे द तब देखीएगा गाना का मजा।
    सरकाई ल खटिया जाड़ा लगे......।
    धन्यवाद।

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  12. बुझाता है कि अकर्मण्य आदमी देहे से नहीं,दिमागो से बेकार होता है।

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