रविवार, 3 जुलाई 2011

भारतीय काव्यशास्त्र – 73

भारतीय काव्यशास्त्र – 73

आचार्य परशुराम राय

पिछले अंक में पदैकदेश के अन्तर्गत काल, वचन, पुरुष और पूर्वनिपात द्वारा रस-ध्वनि व्यंग्य पर चर्चा की गई थी। इस अंक में विभक्ति, प्रत्यय, उपसर्ग और निपात द्वारा रसध्वनि व्यंग्य पर चर्चा की जाएगी।

सर्वप्रथम विभक्ति द्वारा रस व्यंजकता का उदाहरम लेते हैं-

प्रधनाध्वनि धीर धनुर्ध्वनिभृति विधुरैरयोधि तव दिवसम्।

दिवसेन तु नरप भवानयुद्ध विधिसिद्धसाधुवादपदम्।।

अर्थात् हे धीर राजन्, आपके शत्रुओं ने युद्धभूमि में वीरों के धनुष-टंकारों के बीच दिनभर युद्ध किया, किन्तु कुछ नहीं कर पाये और आपने एक ही दिन के युद्ध में ब्रह्मा और सिद्धगण के साधुवाद का साधुवाद प्राप्त कर लिए, अर्थात् विजयी हो गये।

यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि युद्ध केवल एक ही दिन हुआ। लेकिन शत्रु के लिए दिवस शब्द को द्वितीया विभक्ति में दिवसम् प्रयोग किया गया है, जबकि अपने राजा के लिए दिवस शब्द को तृतीया विभक्ति में दिवसेन। अष्टाध्यायी के एक सूत्र अपवर्गे तृतीया (2.3.6) के अनुसार अपवर्ग अर्थात् फल की प्राप्ति को सूचित करने के अर्थ में तृतीया का प्रयोग होता है। तात्पर्य यह कि शत्रु दिनभर केवल युद्ध में ही लगे रहे और उन्हें कुछ नहीं मिला। किन्तु एक ही दिन में आपने विजय प्राप्त कर लिया, यह व्यंग्य दिवसेन पद से व्यंजित होता है।

अब प्रत्यय से रसध्वनि की व्यंजकता का उदाहरण लेते हैं। यह श्लोक मालतीमाधव नामक संस्कृत नाटक से उद्धृत किया गया है-

भूयो भूयः सविधनगरीरथ्यया पर्यटन्त

दृष्ट्वा दृष्ट्वा भवनवलभीतुङ्गवातायनस्था।

साक्षात् कामं नवमिव रतिर्मालती माधवं यद्

गाढोत्कण्ठाललितलुलितैरङ्गकैस्ताम्यतीति।।

अर्थात् अपने छज्जे पर बैठी ऊँचे वातायन (झरोखे) से निकटवर्ती नगर की सड़क बार-बार घूमते हुए साक्षात् कामदेव के समान (सुन्दर) माधव को देख-देखकर तीव्र उत्कंठा के कारण खिन्न रति (के समान सुन्दर) मालती अनुकम्पित अंगों से मुरझायी जा रही है।

यहाँ अङ्गकैः पद में अङ्ग शब्द के साथ तद्धित प्रत्यय का प्रयोग अनुकम्पा के अर्थ में किया गया है, जिसके कारण विप्रलम्भ शृंगार व्यंजित हुआ है।

अब उपसर्ग से रसध्वनि के व्यंग्य का उदाहरण नीचे दिया जा रहा है। यह श्लोक भी मालतीमाधव नाटक से लिया गया है-

परिच्छेदातीतः सकलवचनानामविषयः

पुनर्जन्मन्यस्मिन्ननुभवपथं यो न गतवान्।

विवेकप्रध्वंसादुपचितमहामोहगहनो

विकारः कोSप्यन्तर्जडयति च तापं च कुरुते।।

अर्थात् एक अवर्णनीय अनुभूति मेरे हृदय को संज्ञा-शून्य और तप्त कर रही है, एक ऐसी आदि और अन्त से परे, हर प्रकार की अभिव्यक्ति से परे एक अनुभूति, जो अबतक इस जन्म में अनुभव में नहीं आयी और जो विवेकशून्य कर रही है जिससे महामोह की ग्रस्तता से मुक्त होना कठिन हो गया है। यह कौन ऐसा विकार है जो अत्यन्त जड़ बना रहा है और कष्ट दे रहा है।

यहाँ प्रध्वंस पद में प्रयुक्त प्र उपसर्ग से विप्रलम्भ शृंगार व्यंग्य है।

अन्त में निपात (अव्यय) द्वारा रस-व्यंजकता का उदाहरण लेते हैं

कृतं च गर्वाभिमुखं मनस्त्वया किमन्यदेवं निहताश्च नो द्विषः।

तमांसि तिष्ठन्ति हि तावदंशुमान् न यावदायात्युदयाद्रिमौलिताम्।।

अर्थात् हे राजन्, आपके अपने गर्व की ओर अभिमुख होते ही, यह क्या, हमारे शत्रु मारे गये, अर्थात् आपके युद्ध में प्रवृत्त होते ही शत्रुओं का विनाश हो गया। अंधकार का अस्तित्व तभीतक रहता है, जबतक सूर्य उदयाचल के शिखर पर नहीं पहुँचता।

यहाँ (और) निपात के प्रयुक्त होने के कारण दोनों का- युद्ध में प्रवृत्त होना (अपने अहंकार की ओर अभिमुख होना) और शत्रुओं का वध- एक समय पर होना तुल्ययोगिता (अलंकार) को सूचित करता है और इससे वीर रस की व्यंजना है।

यहाँ ध्वनि काव्य की चर्चा पूरी होती है। अगले अंग में ध्वनि की संख्या पर कुछ प्रमुख आचार्यों के विचारों पर चर्चा की जाएगी। इसके बाद गुणीभूत-व्यंग्य का आरम्भ होगा।

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11 टिप्‍पणियां:

  1. ज्ञान वर्धन के लिए आभार .हमारे लिए उपयोगी जानकारी .हम हैं विज्ञान के विद्यार्थी साहित्य के अनुरागी .

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  2. काव्य शास्त्र पर ज्ञानवर्धक सार्थक चर्चा.....

    हिंदी साहित्य के लिए महत्वपूर्ण ............बहुत-बहुत आभार

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  3. आचार्य जी का लेख बहुत ही ज्ञानवर्धक है.आभार.

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  4. हिन्दी ब्लोग-जगत और हिन्दी साहित्य के आगामी पीढ़ी के अध्येता आचार्यजी के अवदानों का सदा ऋणी रहेंगे...! धन्यवाद !!

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