रविवार, 7 अगस्त 2011

भारतीय काव्यशास्त्र – 78


भारतीय काव्यशास्त्र – 78

आचार्य परशुराम राय

पिछले दो अंकों में गुणीभूतव्यंग्य के दूसरे भेद अपरांग गुणीभूतव्यंग्य पर चर्चा की गयी थी। जिसमें देखा गया कि एक रस दूसरे रस का, रस  भाव का, एक भाव दूसरे भाव का, एक रसाभास दूसरे रसाभास का, भावशान्ति, भावोदय, भाव-संधि और भाव-शबलता दूसरे का अंग होकर किस प्रकार गुणीभूतव्यंग्य की अवस्था को जन्म देते हैं। इस अंक में भी अपरांग गुणीभूतव्यंग्य की कुछ और अवस्थाओं पर चर्चा की जाएगी।    
आगे चर्चा करने से पहले यह बताना आवश्यक है कि आचार्यों ने रस, भाव, रसाभास, भावाभास और भावशान्ति के गुणीभूत होकर अपरांग (दूसरे का अंग) हो जाने से रसवत्, प्रेयस्, ऊर्जस्वि और समाहित अलंकार माना है, अर्थात् किसी रस के अन्य का अंग होने पर रसवत् अलंकार, भाव के अन्य का अंग होने पर प्रेय अलंकार, रसाभास और भावाभास के अन्य का अंग होने पर ऊर्जस्वि अलंकार और भावशान्ति के अन्य का अंग होने पर समाहित अलंकार। प्राचीन आचार्य केवल रसवदादि अलंकारों में केवल चार अलंकारों की गणना करते हैं- गुणीभूतो रसो रसवत् भावस्तु प्रेयः रसाभासभावाभासौ ऊर्जस्वि भावशान्ति समाहितः। लेकिन आचार्य मम्मट और आचार्य कविराज विश्वनाथ रस, रसाभास, भाव, भावाभास, भावोदय, भावशान्ति, भावसंधि और भावशबलता के एक दूसरे का अंग होने पर उनके नाम से आठ रसवदादि अलंकार मानते हैं। आचार्य आनन्दवर्धन अपने ग्रंथ ध्वन्यालोक में भी इसी तथ्य की पुष्टि करते हैं-
प्रधानेSन्यत्र  वाक्यार्थे  यत्राङ्गं  तु  रसादयः।
काव्ये तस्मिन्नलङ्कारो रसादिरिति मे मतिः।।
अर्थात् रसादिक (रस के आठ अंग) जहाँ किसी अन्य वाक्यार्थ में अंगीभूत हों वहाँ वे अलंकार होते हैं।
अब संलक्ष्यक्रमव्यंग्य के दो भेद अलंकारध्वनि और वस्तुध्वनि की अपरांगता के कारण भी अपरांग गुणीभूतव्यंग्य के दो भेदों पर चर्चा करते हैं। सर्वप्रथम संलक्ष्यक्रम अलंकारध्वनि की अपरांगता के परिणामस्वरूप अपरांग गुणीभूतव्यंग्य का उदाहरण लेते हैं। यहाँ उद्धृत श्लोक में धन की लालसा मे भटकते हुए एक असफल भिक्षुक पुरुष का कथन है-
जनस्थाने भ्रान्तं कनकमृगतृष्णान्धितधिया वचो वैदेहीति प्रतिपदमुदश्रु प्रलपितम्।    
   कृतालङ्काभर्तुर्वदनपरिपाटीषु घटनामयाSSप्तं रामत्वं कुशलवसुता न त्वधिगता।।
      अर्थात्  स्वर्णमृग की तृष्णा में विवेकशून्य होकर जनस्थान (राम के पक्ष में दण्डकारण्य में एक स्थान और भिक्षुक के पक्ष में नगर का भाव) में घूमते हुए वैदेहि, वैदेहि (राम के पक्ष में सीता और भिक्षुक के पक्ष में वै देहि, वै देहि मुझे दीजिए ही अर्थ)  बार-बार कहकर आँसू बहाता रहा, राम ने लंकापति के दस मुखों पर बाणों की वर्षा किए उसी प्रकार मैंने भी अपने धूर्त मालिकों के इशारों पर सारा कार्य किया। इस प्रकार मैंने रामत्व तो प्राप्त कर लिया, किन्तु कुशलवसुता मुझे नहीं मिली। यहाँ कुशलवसुता का अर्थ राम के पक्ष में सीता (कुश और लव जिनके पुत्र है) और भिक्षुक के पक्ष में कुशल वसुता अर्थात् प्रचुर धन है।
      यदि यहाँ मया रामत्वम् आप्तम् (मैंने रामत्व को प्राप्त लिया) न कहा जाता तो भी शब्दशक्तिमूलध्वनि से राम का अर्थ आ जाता। किन्तु मया रामत्वम् आप्तम् कह देने से तादात्म्य प्रकट हो गया और श्लेष अलंकार से व्यंजित होने वाला उपमालंकार मैं रामत्व को प्राप्त हो गया वाक्य का अंग हो गया। अर्थात् उपमान-उपमेय भाव के मैंने रामत्व पा लिया वाच्य का अंग होने से यहाँ अपरांग गुणीभूतव्यंग्य हो गया है।
      अब अर्थशक्तिमूल वस्तुध्वनि की वाच्यांगता का उदाहरण लेते हैं-
      आगत्य सम्प्रति वियोगविसंष्ठुलाङ्गीमम्भोजिनीं क्वचिदपि क्षपितत्रियामः।
      एनां प्रसादयति  पश्य  शनैः  प्रभाते  तन्वङ्गि! पादपतनेन सहस्ररश्मिः।। 
      अर्थात् हे तन्वंगि, सहस्ररश्मि (सूर्य) कहीं और रात व्यतीत कर अब सबरे वियोग से संकुचित देहवाली कमलिनी के चरणों पर गिरकर उसे प्रसन्न कर रहा है।
      यहाँ नायक के पक्ष में यह व्यंजित होता है कि वह रात किसी दूसरी स्त्री के साथ व्यतीत कर सबेरा होने पर अपनी नायिका को खुशामद करते हुए प्रसन्न करने का प्रयास कर रहा है। अर्थात् सूर्य और कमलिनी का व्यवहार वाच्य है एवं नायक-नायिका का व्यवहार व्यंग्य। यह नायक-नायिका व्यवहार व्यंग्य सूर्य-कमलिनी व्यवहार वाच्य का अंग है। क्योंकि सूर्य-कमलिनी व्यवहार के अभाव में उस व्यंग्य का अस्तित्व नहीं बनता। अतएव यहाँ वस्तुध्वनि की अपरांगता सिद्ध होने से अपरांग गुणीभूतव्यंग्य होगा।
      अपरांग गुणीभूतव्यंग्य के उदाहरण के रूप में एक हिन्दी का उदाहरण लेते हैं-
      डिगत पानि डिगुलात गिरि, लखि सब ब्रज बेहाल।
      कंप  किसोरी  दरस  तें,  खरे  लजाने   लाल।।
      इस दोहे में कंप सात्त्विक भाव से व्यंजित होनेवाला स्थायिभाव रति (शृंगार रस) संचारिभाव लज्जा का अंग बन गया है। अतएव यहाँ अपरांग गुणीभूतव्यंग्य है।
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10 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर ज्ञान वर्धक जानकारियाँ और आचार्य के मुख -वाणी का प्रसाद -सुन्दर संकलन और सूर्य कमलिनी का व्यवहार -
    वह रात किसी दूसरी स्त्री के साथ व्यतीत कर सबेरा होने पर अपनी नायिका को खुशामद करते हुए प्रसन्न करने का प्रयास कर रहा है। अर्थात् सूर्य और कमलिनी का व्यवहार -
    मेहनत भरा कार्य आप का -धन्यवाद

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  2. सदा की तरह यह अंक भी ज्ञानवर्धक रहा।

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  3. ज्ञानवर्धक आलेख है!
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    मित्रता दिवस पर बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!

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  4. कल 08/08/2011 को आपकी एक पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  5. आपकी पकड़ और भाषा ज्ञान गजब है, बहुत अच्‍छा लगा ।

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  6. ज्ञानार्जन के लिए आपके आलेख पढ़ना आवश्यक है. आभार.

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  7. सटीक व्याख्यायु्क्त आलेख...

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  8. मनोज जी और आचार्य वर
    आप दोनों साहित्य को समृद्ध कर रहे हैं

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