रविवार, 15 अप्रैल 2012

भारतीय काव्यशास्त्र – 108


भारतीय काव्यशास्त्र – 108
आचार्य परशुराम राय
पिछले अंक में कुछ ऐसी परिस्थितियों पर चर्चा की गयी थी, जिनमें काव्य-दोष गुण बन जाते हैं। ऐसी ही कुछ अन्य परिस्थितियों पर यहाँ चर्चा की जा रही है। निम्नलिखित श्लोक मे शृंगार रस से शान्तरस को परिपोषित किया गया है -
सत्यं  मनोरमा  रामाः  सत्यं रम्या विभूतयः।
किं तु मत्ताङ्गनापाङ्गभङ्गलोलं ही जीवितम्।।
अर्थात् स्त्रियाँ बहुत मनोरम होती हैं, यह सत्य है और यह भी सत्य है कि सम्पत्ति भी रमणीय होती है। लेकिन इनका उपभोग करने वाला जीवन स्त्री के कटाक्ष की भाँति क्षणभंगुर होता है।
यहाँ स्त्री एवं सम्पत्ति की रमणीयता की वास्तविकता को स्वीकारते हुए जीवन को स्त्रियों के कटाक्ष की तरह क्षणभंगुर बताकर शान्तरस को परिपुष्ट किया गया है। यहाँ शृंगार का वर्णन बाध्यता के कारण हुआ है। अतएव यहाँ भी बाध्यता के कारण शान्तरस के विरोधी शृंगार रस के विभावों और अनुभावों का वर्णन शान्त रस का ही पोषक है। क्योंकि यहाँ शृंगार के विभाव और अनुभाव पाठक के मन में शृंगार रस की अनुभूति नहीं कराते हैं, बल्कि सौन्दर्य और सम्पत्ति की वास्तविकता के परिप्रेक्ष्य में जीवन की क्षणभंगुरता के कारण उनके प्रति विरक्ति पैदा करते हैं और इस श्लोक में कवि के इष्ट शान्त रस को परिपुष्ट करने में सहायक हैं। इसलिए यहाँ शान्तरस के विरोधी शृंगार रस के विभाव और अनुभाव का वर्णन दोष न होकर गुण हो गया है।
यहाँ एक और बात स्पष्ट करनी आवश्यक है। काव्यशास्त्रियों ने रसों का परस्पर विरोध दो प्रकार का बताया है - 1. एक-दैशिक रस-विरोध और 2. कालिक रसविरोध। एक-दैशिक रसविरोध के दो भेद किए गए हैं-
1.                 आलम्बन (एक विभाव-रस का कारण) ऐक्य होने से। जैसे - वीररस और शृंगार रस के आलम्बन के ऐक्य में विरोध होता है।
2.                 आश्रय (जिसमें रस की उत्पत्ति होती है) ऐक्य होने से। जैसे - वीररस और भयानक रसों का एक आश्रय में होना सम्भव नहीं है। वीरता के साथ भय नहीं रह सकता। या दूसरे शब्दों में जिस व्यक्ति से भयानक रस की उत्पत्ति हो रही हो, उसी समय उससे वीररस की अभिव्यक्ति सम्भव नहीं है।
विरोधी रसों का नैरन्तर्य (निरन्तरता के साथ) से वर्णन होने से रसदोष की जो स्थिति बनती है उसे कालिक रसविरोध कहते हैं। जैसे एक ही काव्य में शान्त और शृंगार रसों का या ऐसे ही विरोधी रसों का एकान्तर क्रम में लगातार वर्णन होने से, शान्त के बाद शृंगार, फिर शान्त, फिर शृंगार, तो यह कालिक रसविरोध की स्थिति बनती है। 
इसके पहले यह नियम बताया गया कि बाध्यता के चलते विरोधी रस (स्थायिभाव), अनुभाव और संचारिभाव का एक साथ वर्णन होने पर दोष नहीं होता। अब  एक-दैशिक रसविरोध के भेदों की स्थिति में विरोध के परिहार के लिए आश्रय भिन्न करने का प्रावधान बताया गया है। जैसे वीररस और भयानक रस का आश्रय-ऐक्य का विरोध है। यदि एक ही वर्णन में दोनों रसों के आश्रय को अलग कर दिया जाए, वीररस का आश्रय नायक को और भयानक रस का आश्रय प्रतिनायक को कर दिया जाय, तो यह विरोध समाप्त हो जाता है तथा रसदोष का परिहार हो जाता है।
इसी प्रकार विरोधी रसों के नैरन्तर्य (निरन्तरता) से बचने के लिए एक रस को दूसरे से अलग कर देना चाहिए, अर्थात् बीच में किसी अविरोधी रस का समावेश कर देना चाहिए। ऐसा करने से विरोध समाप्त हो जाता है।
इस अंक में बस इतना ही। अगले अंक में उपर्युक्त स्थिति का उदाहरण सहित व्याख्या के साथ-साथ विरोधी रसों के विरोध को समाप्त करने के अन्य रूपों पर चर्चा की जाएगी।    
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13 टिप्‍पणियां:

  1. इसी प्रकार विरोधी रसों के नैरन्तर्य (निरन्तरता) से बचने के लिए एक रस को दूसरे से अलग कर देना चाहिए, अर्थात् बीच में किसी अविरोधी रस का समावेश कर देना चाहिए। ऐसा करने से विरोध समाप्त हो जाता है।
    सार्थक जानकारी ..आभार.

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  2. बहुत सुन्दर वाह!
    आपकी यह ख़ूबसूरत प्रविष्टि कल दिनांक 16-04-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-851 पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ

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  3. बहुत सुन्दर वाह!
    आपकी यह ख़ूबसूरत प्रविष्टि कल दिनांक 16-04-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-851 पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ

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  4. .बेहतरीन पोस्ट के लिए बधाई

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  5. कमाल का शास्त्र है यह भी!! बड़ा क्षोभ होता है खुदपर कि कुछ भी नहीं सीखा और कविताई करने लगता हूँ!!

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    1. आप बिना पढ़े अच्छी कविताई कर लेते हैं और मैं इसे जानते हुए कविताई नहीं कर पाता। इसलिए आप अच्छे हैं। पहले कविताएँ ही लिखी गयी हैं। शास्त्र प्रणयन तो बाद में हुआ है। यदि कविता न होती तो यह शास्त्र नहीं होता. आभार.

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  6. हम लोग बिना यह सब विचारे ग़लत-सलत लिख जाते हैं।
    आभार इन सब से हमारा परिचय कराने के लिए।

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  7. सार्थक जानकारी .......बहुत सुन्दर वाह!

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