बुधवार, 18 अप्रैल 2012

स्मृति शिखर से – 14 : एक्सीडेंट एंड एक्स्पेक्टेशन...


स्मृति शिखर से 14

एक्सीडेंट एंड एक्स्पेक्टेशन...


 करण समस्तीपुरी

मैं पिछले कुछ दिनों से परेशान हूँ। मुझे भय लगता है कि कहीं मैं भी शाहरुख खान या अक्षय कुमार की श्रेणी में तो नहीं पहुँच गया। उनके चलचित्र हिट नहीं होते और मेरे ब्लाग प्रविष्टी पर हिट नहीं आती। आप भी सोच रहे होंगे कि कैसा अहमक है। सितारों की श्रेणी से डरता है। किन्तु मैं तो ठहरा निरा देहाती। बुजुर्गों ने जो भी फ़रमाया उसी की गाँठ बाँध ली। देखिए अपने बशीर (वद्र) काका कह गए,
“परखना मत परखने में कोई अपना नहीं रहता।
किसी के आइने में देर तक चेहरा नहीं रहता॥
बड़े लोगों से मिलने में हमेशा फ़ासला रखना,
जहाँ दरिया समंदर से मिला दरिया नहीं रहता॥”

सच में भाई...! कहीं बड़े व्यक्तित्व से मिलकर अपना अस्तित्व ही समाप्त न हो जाए इसीलिए मुझे भय लगता है। इसीलिए मैं शाहरुख और अक्षय (की तुलना) से दूर ही रहना चाहता हूँ। लेकिन आप तो जानते ही होंगे आखिर कामयाबी किसे प्यारी नहीं होती।

हाँ तो भैय्या... कामयाबी मिलती कैसे है? हिट का फ़ार्मुला क्या है? उ तो भला बिद्दा दीदी बता गईं। फ़िल्में सिर्फ़ तीन चीज से चलती हैं “इंटरटेनमेंट, इंटरटेनमेंट और इंटरटेनमेंट।” उ... ला... ला....! मगर बिद्दा दी...! पा और नो वन किल्ड जेसिका’ में कौन सा ‘इंटरटेनमेंट था? और इंटरटेनमेंट तो तब पता चलेगा जब दर्शक सनीमाहाल तक आएंगे। दर्शक को सनीमा-हाल तक खींचे का फ़ार्मुला हम बताते हैं।

देखिए भूमंडलीकरण का युग है। दुनिया बड़ी तेजी से बदल रही है। सब कुछ में युनिवर्सल अपील होना चाहिए। युनिवर्सल अपील के लिए अँगरेजी चाहिए। हिंदी का हाल-समाचार तो आप जानते ही है। किताबें, समाचार-पत्र, आकाशवाणी, दूरदर्शन या चलचित्र...! शिट...! इनका भी कोई स्तर होता है....! अब पता नहीं अँगरेजी में कितना स्तर होता है...। मगर आज-कल एक फ़ार्मुला सौ फ़िसद सही है। सनीमा का नाम अँगरेजी में रख लो, हिट तो हो ही जाएगी। थ्री इडिअट्स, पा, बाडीगार्ड, नो वन किल्ड जेसिका, डर्टी पिक्चर, वन्स अपोन अ टाइम इन मुंबई, हाउसफ़ुल...! अंदर मिटिरियल कुछो रहे नाम अँगरेजी में रख लेंगे...! आखिर सवाल है स्तर का। उ तो अँगरेजी से ही आती है। तो हम भी सोचे कि कहीं नाम के उन्वान से ही हमरा पोस्ट भी हिट हो जाए इसीलिए इसका शीर्षक दे दिए “एक्सीडेंट एंड एक्स्पेक्टेशन”!  

आचार्यवर श्री परशुराम राय जी एक बार कहे थे कि शीर्षक खूँटी की तरह होता है। एक बार ठोक दीजिए और फिर जैसा मन करे वैसा कपड़ा लटकाते रहिए उस पर। सिल्क (स्मिता) टांगेंगे तो अच्छा दिखेगा चिथड़े टाँगेगे तो डर्टी लगेगा। लेकिन खूँटी तो सब को उठा लेगा। और तब तक वहन करेगा जब तक लदे हुए कपड़े का भार खूँटी की औकात से अधिक न हो जाए। अब भैय्या खूँटी ठोंक दिए हैं तो कुछ न कुछ तो टांग ही देंगे। बांकी आप पंच परमेश्वर जानिए।

हाँ तो भई... हम कह रहे थे कि हमारे जीवन में एक्सीडेंट ओह सारी... (अब तो शीर्षक हो गया तो कुछ भी चलेगा...) ! संयोग का भी बड़ा महत्व होता है। यह आता है और जीवन को एक नया रंग देकर चला जाता है। और हम गाते रह जाते हैं “तुम जो आए जिंदगी में बात बन गई...!” वैसे मेरा जीवन-मार्ग तो बहुत सपाट रहा है। विषमता और विसंगतियाँ तो रही हैं किन्तु उतार-चढ़ाव और तीखे मोड़ बहुत कम आए हैं। ऐसे में एक्सीडेंट के चांसेस आफ़-कोर्स बहुत कम होंगे। लेकिन संयोग तो संयोग है।

भारत के किसी भी भाग की तरह हमारे गाँव में भी क्रिकेट का बड़ा क्रेज है। मुझे भी क्रिकेट खेलने का बड़ा शौक था। मेरे गाँव की क्रिकेट टीम इलाके में अच्छी मानी जाती थी लेकिन मुश्किल ये कि उसमें सिनियर्स हमें खेलने ही नहीं देते थे। बड़ी जद्दोजहद के बाद बाउंड्री लाइन से बाहर गेंद पकड़ने का काम मिलता था। फिर अगर वहाँ सफ़ाई के साथ गेंद को फ़िल्ड कर मैदान में थ्रो कर दिआ तो मैदान में इंट्री की प्राथमिक योग्यता मिल जाती थी।

इंतिजार लंबा था लेकिन मैं थर्डमैन बाउंड्री के बाहर गेंद पकड़ता रहा। उसी दरम्यान एक टुर्नामेंट के मध्य कुछ सिनियर खिलाड़ियों के बीच झगड़ा-झंझट हो गया और टीम टुकड़ों में बँटकर समाप्तप्राय हो गई। फ़िर कुछेक सिनियर-जुनियर मिलकर टीम को मजबूत करने के प्रयास में जुट गए। अगले मैच में मुझे भी प्लेइंग-एलेवन में जगह मिली और आशानुरूप इस बार थर्डमैन बाउंड्री के अंदर ही फ़िल्ड करने का मौका मिला। उन दिनों इलाकाई टीम में थर्डमैन को इम्पार्टेंट फ़िल्डींग पोजिशन नहीं समझा जाता था और यहाँ पर प्रायः नवसिखियों को ही लगाया जाता था विकेटकीपर के बैक-अप के तौर पर।

मैच की दूसरी ही गेंद थी। तेज गेंद आफ़ स्टंप से बाहर निकल रही थी। बल्लेबाज ने बल्ला अड़ा दिया। गेंद विकेटकीपर से छिटक कर और तेज भागी। मैं अपनी पोजिशन से भागा...! गेंद के पास पहुँचता इस से पहले ही एक गोल-सा पत्थड़ का घूमता हुआ टुकड़ा मेरे जूते के नीचे पड़ा और मैं फ़िसल कर गिर पड़ा। गिरने में वह पत्थड़ मेरे थाई के नीचे आ गया और मैं स्लाइड करता हुआ गेंद के सीध में आ गया। पता नहीं गेंद कैसे मेरे हाथ में आ गई। मुझे तो तब पता चला जब दर्शकों ने खूब जोरदार तालियाँ बजाई।
 
उस एक घटना के बाद से लोगों को लगा कि मैं जोंटी रोड्स का ग्रामीण अवतार हूँ। उनकी उम्मीदें यहाँ तक बढ़ गई थी कि मुझे चुंबक कहने लगे थे जिससे गेंद चिपक सी जाती है। मुझे उनकी उम्मीदों पर खरा उतरने के लिए एंड़ी-चोटी का जोड़ लगाना पड़ता था। मैं बहुत प्रतिभावान क्रिकेटर नहीं था मगर उनकी उम्मीदों ने बहुत चुस्त फ़िल्डर बना दिया था। बाद में विकेट-कीपिंग की जिम्मेदारी भी मिल गई। एक मैच में मैंने कुल नौ शिकार किए थे। पाँच स्टंपिंग और चार कैच।

एक बार एक बल्लेबाज एक्स्ट्रा कवर और मिड-आफ़ पर बहुत शानदार स्ट्रोक्स लगा रहा था। मुझे मेरे कप्तान ने विकेट के पीछे से हटाकर वहाँ लगा दिया। मैंने दो-तीन बार अच्छी फ़िल्डिंग कर निश्चित बाउंड्री बचाई थी। मेरी दिशा में गेंद आने से पहले ही दर्शक तालियाँ बजाने लगते थे। एक बार गेंद आई। मैं उस ओर लपका। सामने झाड़ियों से ढका एक गड्ढ़ा था। उस में उलझकर गिर पड़ा और गेंद मेरे आगे से निकल गई। ताली बजाने के लिए खड़े लोगों की उम्मीद पर तुषारापात हो गया। तालियों के बदले गालियों की बौछार हुई। मेरी प्रवृति बहुत सहनशील मानी जाती है। फिर भी मैं ने कप्तान से कहकर फ़िल्डिंग चेंज कर लिया।

एक्सीडेंटली अच्छी फ़िल्डिंग के आफ़्टरमैथ में लोगों की एक्स्पेक्टेशन इतनी बढ़ गई कि मुझे अच्छा फ़िल्डर बनना ही पड़ा। आज भी उस इलाके में मेरी एक पहचान यह भी है। लेकिन मैं सोचता हूँ कि सचिन क्यों महान हैं। मैं तो कुछ पचास-सौ लोगों की उम्मीद का भार भी नहीं उठा पाया। सचिन वर्षों से दुनिया भर के क्रिकेट फ़ैन के उम्मीदों को न केवल जी रहे हैं बल्कि जश्न मना रहे हैं।

बचपन से ही मैं पढ़ाई-लिखाई में सचेष्ट समझा जाता था। हर विषय में औसत से कुछ अधिक। गाँव के लिए यह स्केल एक्स्ट्रीमली टैलेंटेड जैसा था। कोई और प्रतियोगी था नहीं सो मैं सभी वर्गों में प्रथम आता गया। परिजनों को मुझ से कुछ अधिक ही उम्मीद हो गई थी। आई.एससी. के बाद जब मैंने स्नातक में हिन्दी लेने का निर्णय किया तो मौन विरोध सामने आया। साइंस और भाषा-साहित्य दोनों में मुझे लगभग समान अंक मिले थे। लोगों को मेरा यह निर्णय अटपटा लग रहा था। लड़का बेकार हो गया है। लोगों ने मुझसे सारी उम्मीदें छोड़ दी थी। मैं खुश था। जबरन गणित और विज्ञान के सूत्र तो रटने नहीं पड़ेंगे। आज सच कहता हूँ, परिश्रम के बल पर साठ-सत्तर प्रतिशत अंक आ जाते थे मगर विज्ञान विषय पढ़ने में मेरा मन कभी नहीं लगा। शायद मैं उसके लिए बना ही नहीं था।

वो तो भला हो कि कुछ दिनों के बाद चाचा जी (इस ब्लाग के व्यवस्थापक) गाँव आए थे मेदक से। उन्होंने मेरी माता जी के सामने न केवल मेरा प्रोत्साहन किया बल्कि यह भी कहा था कि किसी भी क्षेत्र में अच्छा करने पर स्कोप अच्छा रहता है। मैं खुश तो बहुत हुआ लेकिन यह समझता था कि हिंदी में मुझे अच्छा करने की जरूरत नहीं है। मैं आलरेडी बहुत अच्छा हूँ। परिवार में ऐज अ प्रतिभाशाली स्टुडेंट मेरी प्रतिष्ठा फिर बहाल होने लगी थी।

स्नातक प्रथम वर्ष के परिणाम आ चुके थे। दूसरे साल के लिए नामांकण शुरु था। आर्थिक मजबूरी के कारण मैं अंतिम दिन और वो भी जरा देर से कालेज पहुँचा। जल्दीबाजी में कुछ आवश्यक दस्तावेज भी लाना भूल गया था। जिनके द्स्तखत से दूसरे साल में एडमिशन की मंजूरी मिलती उन्होंने मेरा फ़ार्म फ़ेंक दिया। घर दूर था। साइकिल से जाने और फिर जरूरी दस्तावेज लेकर आने में कम से कम दो घंटे लगते। मैं रुआंसा सा कालेज से निकल रहा था। मानविकी संकाय के पास दो शिक्षक आपस में बात कर रहे थे, “वाह...! इस बार तो आपका विभाग चमक गया...! कितना तीन साल...? तीन साल के बाद न कोई लड़का फ़्रस्ट-क्लास किया है न...?” दूसरे शिक्षक ने कहा, “हाँ...!” पहले, “क्या नाम है उसका?” दूसरे, “कोई करण है...! कालेज का नाम कर दिया लेकिन पता नहीं अभी तक सेकेंड इयर में एडमिशन भी नहीं लिया है...?” 

“कोई करण है....!” मैं गुजरते हुए सहसा मुड़ गया। वैसे प्रथम आना मेरे लिए न तो कोई नई बात थी न ही उतनी बड़ी। मैंने उसके लिए कोई विशेष तैय्यारी की थी और ना ही कुछ खास उम्मीद। लेकिन शिक्षकों के वार्तालाप से लगा कि कुछ कमाल हुआ है। मैंने उनके पास आकर साभिवादन बताया कि मेरा नाम ही है करण...! मैं प्रथम आया हूँ। लेकिन वे भी नहीं मान रहे थे। फिर हिंदी विभाग में गए। वहाँ व्याख्याता महोदय शशिभूषण शशि ने मुझे देखते ही गले लगा लिया। स्तुतिगान बंद होने पर मैंने अपने एडमिशन की समस्या बताई। फिर हिंदी विभागाध्यक्ष (वार्तालाप वाले दो सज्जनों में से एक) के अनुमोदण पर मेरी अर्जी मंजूर कर ली गई। अगली कक्षाओं में शिक्षक गण सगर्व बताते थे, “य़ह है केशव कर्ण। “इसी को” हिंदी में फ़्रस्ट क्लास आया है। उनकी उम्मीद थी कि यह सिलसिला तीनों वर्षों तक बना रहेगा। पिछले कई वर्षों से मानविकी संकाय में मेरे कालेज से कोई फ़र्स्ट नहीं किया था युनिवर्सिटी में। उम्मीदें...! ज्योतिर्मय उम्मीदें।

शिक्षकों के संभाषणोपरांत मुझे फ़र्स्ट-क्लास की गरिमा का ज्ञान हुआ। एक बार फिर उम्मीदों पर जीने का सिलसिला शुरु हुआ। दूसरे साल में सामान्य प्रथम श्रेणी सत्तर प्रतिशत के आँकड़े को पार कर गया था। तीसरे साल में नब्बे को स्पर्श कर लिया। पिछले तीस साल का सर्वोच्च स्कोर। नौ वर्षों बाद मिथिला युनिवर्सिटी में समस्तीपुर कालेज के छात्र ने प्रथम स्थान प्राप्त किया था। नैक की टीम कालेज के मूल्यांकन के लिए आई थी। “मेरे पास करण है...!” मेरे शिक्षकों ने मेरा नाम कालेज की उपलब्धियों मे से बताया था। अब तो स्नातकोत्तर में भी सर्वोच्च स्थान प्राप्त करना बनता था।

मेरे और चाचाजी (श्री मनोज कुमार) के बीच कहावतों पर कार्य करने की संकल्पना बहुत दिनों से थी। इस ब्लाग पर देसिल बयना शुरु कर दिया। शुरुआती एकाध अंक बहुत किताबी थे। एक बुध को फ़ुर्सत का अभाव था। ऐसे में वो वह ग्रामीण पृष्ठभूमि और वही (बिहारी) बोली जो मेरी अपनी है, जिसके उपयोग में मुझे श्रम नहीं करना पड़ता, उसी में लपेटकर झटपट में कुछ लिख दिया। पाठकों की टिप्पणियाँ उस समय अधिक नहीं आती थी मगर चाचा जी को यह बहुत पसंद आया। उन्होंने कहा कि आंचलिक अभिव्यक्ति के लिए यही भाषा सटीक है। बाद में लोग जुड़ते गए और कारवाँ बनता गया। सलिल चाचा, अरुण भाई, राहुल सर, रंजना दीदी, सरिता आंटी, आचार्यवर, हरीशजी, प्रवीणजी जैसे सुहृद ब्लागर्स एवं शुभचिंतकों का स्नेह और मार्गदर्शन भी मिलता गया... शायद उसी बोली की बदौलत। आप लोगों की उम्मीदों ने देसिल बयना को एक सौ ग्यारह के पार पहुँचा दिया। देसिल बयना की प्रस्तुति का आइडिया एक्सीडेंटली क्लिक कर गया। वैसे गद्य लेखन भी मैंने एक्सीडेंटली ही शुरु किया था। 

लाइफ़ बहुत सेट्ल होती जा रही है। मुझे रास नहीं आ रहा। काश...! फिर कोई क्रिएटिव एक्सीडेंट हो...! मैं उम्मीद कर रहा हूँ। जीवन का कोई नया परिप्रेक्ष्य खुले। अगले दो सप्ताह तक रेवाखंड की यात्रा पर रहूँगा। देखता हूँ उस मिट्टी में अब भी वही तासीर है या नहीं। कुछ मिला तो आपसे भी शेयर करुंगा। अभी धन्यवाद।

30 टिप्‍पणियां:

  1. ऐसे ही बढ़ते रहें,लिखते रहें और लोग पढ़ते रहें।

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  2. गाँव का तेज छात्र सहजता से

    विज्ञान विषय नहीं छोड़ पाता ।

    या लोग छोड़ने नहीं देते -

    आपका बढ़िया निर्णय ।।

    शुभकामनाये ।

    जोंटी ।।

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  3. यह लेख तो सीधा छक्का है करण ....बहुत मजबूत बैट है तुम्हारे पास :))
    हार्दिक शुभकामनायें

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  4. उम्मीद पर खरा उतरना ही तो कमाल ( करण ) का काम है ... बहुत बढ़िया अब क्रिएटिव एक्सीडेंट होना ही चाहिए ... वैसे तो एक्सीडेंट से सभी लोग घबराते हैं पर ऐसा एक्सीडेंट खास है ॥

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  5. जैसे हैं, वैसे बने रहें, सहज रहें, सरल रहें।

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  6. केशव जी, मुझे आज एक और उदाहरण मिला की down to earth किसे कहते हैं. आपसे चार सालों से संपर्क में हूँ, मगर मुझे पता भी नहीं चला .. "तीसरे साल में नब्बे को स्पर्श कर लिया। पिछले तीस साल का सर्वोच्च स्कोर।"
    बहुत लोग होतें है जो पहली मुलाकात में ही दूसरों को प्रभावित करने के लिए अपनी Achievements के बारे में बता देते हैं.. मैं भले ही आपके ब्लॉग पे उतना कमेन्ट नहीं करता हुं लेकिन मैं सारे पोस्ट पढ़ता हुं .. आप कमाल का लिखते हैं.. भगवान् आपको हमेशा खुशी प्रदान करें और आप ऐसे ही लिखते रहें ..

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  7. SUPER HIT है..............
    :-)

    ढेरों शुभकामनाएँ.

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  8. उम्मीद पर दुनिया कायम है इसलिए गीता का कहा मानिये और फल की इच्छा किये बिना बस कर्म किये जाइये कामयाबी एक दिन ज़रूर मिलेगी...शुभकामनायें

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  9. बिहारी बोली बोलते करोड़ों हैं,मगर लिख आप या सलिलजी जैसे इक्का-दुक्का ही पाते हैं। बिहारी बोली को पहली बार लिखित रूप देना,एक नई भाषा के सृजन की पहल है। कालांतर में,इसके साहित्यिक मूल्य की समीक्षा ज़रूर होगी। इस मायने में भी आप(सलिलजी के साथ) अव्वल ही ठहरे।

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    1. आभार राधारमण जी! मैं स्वयं करण जी को अव्वल मानता हूँ.. ह्रदय से और अभिव्यक्त भी करता रहा हूँ समय पर औपचारिक/अनौपचारिक मंच पर!!

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    2. पहले तो राधारमण जी का आभार और सलिल चचा को प्रणाम...! चचाजी मैं तो आपके स्कूल का स्टूडेन्ट मात्र हूँ। वैसे बिहारी बोली के प्रयोग और प्रेरणा की दास्तान भी बहुत लंबी है। कभी स्मृति शिखर पर लाएंगे। धन्यवाद!

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  10. करन बाबू, जीवन में एक छोटी सी घटना भी कभी जीवन में गुणात्मक परिवर्तन लाने के लिए पर्याप्त होती है। इस ब्लॉग ने मेरे जैसे फिसड्डी आदमी को लाइन पर लाने का काम किया। आप तो एक बड़े ही प्रतिभाशाली व्यक्ति हैं। और देसिल बयना की तो बात ही और है। मनोज कुमार जी द्वारा प्रारम्भ किया गया यह ब्लॉग या विचार या राजभाषा हिन्दी हिन्दी-ब्लॉग जगत के लिए काफी सामग्री प्रस्तुत करता है। आपकी भाषा काफी रोचक और मनोरंजक है। आज की पोस्ट काफी प्रेरक है। आभार।

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  11. क्रिकेट से बात शुरू करते हुए देसिल बयना तक पहुंचे और अंग्रेज़ी महिमा का गान भी किये आप.. करण बाबू देखिये देसिल बयना को नेल्सन फिगर (१११) तक पहुंचा दिए आप.. जब हम बिहारी बोली में लिखना सुरू किये तब आपका देसिल बयना नहीं पढ़े थे, नहीं तो उसी दिन अपना कलम तोड़ देते.. आज भी कहते हैं हम कि चचा ज़रूर हैं लेकिन आपका लेखन के मुकाबले में हम सिर झुकाते हैं.. आपसे परिचय एक्सिडेनटली हुआ और आज तक जुड़े हैं..
    विज्ञान से साहित्य वाला कीड़ा हमरे अंदर भी था मगर हमको कोई मनोज जी जैसा चाचा नहीं मिला बल्कि 'दादागिरी'के आगे नतमस्तक होना पड़ा.. काश हम भी साहित्य पढ़े होते तो आपलोग जेतना नीमन बात कर पाते!!
    आपके इस श्रृंखला का नाम "स्मृति शिखर से" गलत रखे हैं आप.. पहिले डिसाइड कर लीजिए कि हर हफ्ते नया शिखर छूना है कि शिखर पर बैठकर रेवाखंड का स्मृति बांचना है.. काहे कि आपका हर पोस्टवे पिछलका से ऊंचा निकल जाता है!!
    जीते रहिये और लौटिये कुछ अनुपम स्मृति के साथ!! दुल्हिन को आसीस!!

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    1. आदरणीय चचा जी,

      प्रणाम !

      मुझे खुशी है कि आपने अपनी बोली में लिखने से पहले देसिल बयना नहीं पढ़ा था। यदि आपने कलम तोड़ दिया होता तो बाद के अंको को लिखने का विश्वास हमारे अंदर भी नहीं बढ़ पाता...! मैं सच कह रहा हूँ आपको और आपकी शौली को ब्लाग पर पाकर उस बोली और उस पृष्ठभूमि से जुड़कर लिखते रहने का प्रोत्साहन, प्रेरणा और आशीष मिलता रहा...! मेरा आत्मविश्वास बढ़ता गया...! और एक्सीडेंटली देसिल बयना नेल्सन फ़िगर पर ’रिटायर्ड हर्ट’ हो कर पबेलियन में बैठा है।

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  12. आपके रेवाखंड के इस संस्मरण के कई अवसरों के साक्षी रहे हैं, और कई अनुभवों को भोगा भी है। याद आता है भोला भ‍इया के साथ क्रिकेट खेलना जिसमें बैट लकड़ी के पटरे का होता था, और गेंद बांस के गिरह की। और स्कूल के मैदान के पिच से मारा गया शॉट का खेत में काम करती एक महिला पर गिरना और उसका मुंहझौंसा से शुरु होकर नए पुराने आशीषों का सुनाना।
    लेखनी आपकी चलती रहे और स्वाभाविक स्टाइल में यही कामना है।

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    1. हमारे जमाने तक डीएससी, एसजी और जोनेक्स का बैट और ब्लैक कोबरा, सीमर, और पिटरसन का गेंद आया गया था...! लेकिन पैड और ग्लब्स बड़ी मुश्किल से मिलता था। हेलमेट तो फ़टफ़टिये चलाने वाला (बिना वायजर के) से काम चला लेते थे (सिरिफ़ देखाने के लिए)।

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  13. वाह! रोचक स्मृतियाँ हैं आपकी।
    यदा कदा पढता रहता हूँ यहाँ, बधाई हो आपको ऐसे एक्सीडेंट की।
    ये चुम्बक नाम से अपना भी खूब नाता रहा है, वो फिर कभी।

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  14. ''शीर्षक ‘खूँटी’ की तरह'' वाली बात शायद पदुमलाल पुन्‍नालाल बख्‍शी जी ने अपने निबंध ''क्‍या लिखूं'' में लिखी है.
    आपकी रेवाखंड यात्रा से यहां उर्जा का नया संचार हो, शुभकामनाएं.

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    1. सर,

      नमस्ते..! उद्धरण के स्रोत को सही करने के लिए धन्यवाद...! मैंने शायद पढ़ा नहीं था....! वार्तालाप में एक दिन आचार्यजी ने बताया था। आचार्यजी से यह चर्चा हो रही थी अरुणचंद्र राय जी की कविता "गीली चीनी" की समीक्षा के संदर्भ में। संभव है उन्होंने स्रोत को उद्धृत न किया हो या किया हो तो मैं सुन नहीं सका था....!

      एक बार पुनः आभार !

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  15. अच्छा रहा सफ़र पर अभी तो रास्ता और आगे-आगे जा रहा है !

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  16. भाषा की सरलता और सहज प्रवाह आपके लेखन को रोचक बनाते हैं... देसिअल बयना पढ़ना सदैव एक सुखद अनभूति है...
    सादर
    मंजु

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  17. wah.....karan babu........bahut neek.....

    nisandeh.....ahanke padhait-padhait..........ahan sa' umeed kichu adhik
    bha' gel aichh.....

    bakiya, salil bhaijee ke tip hamar mano-nukul thik....

    sadar.

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  18. कई बार पढ़ गया इसे... हम लोग तो बांस के जरैठ को बढई से घिसवा के क्रिकेट का गेंद बना लेते थे... जो पता ही चलता था कि कब बाउंस हो जायेगा का स्पिन... आपको पढ़ कर आनंद आ जाता है...

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  19. मनोज जी, आपके इस ब्लॉग को कई वर्षों से पढ़ रहा हूँ. मगर धीरे-धीरे रुचि खत्म होती गई. फिर कोई दो-चार रोज पहले(लगभग एक वर्ष के बाद) ऐसे ही कहीं से भटकता हुआ यहाँ आया और करण जी की लिखी पोस्ट को एक दफ़े पढ़ना शुरू किया तो तब से इसे ही पढ़े जा रहा हूँ.. देसिल बयना कि लंबी श्रृखला भी पढ़ डाला.. अभिभूत हूँ पढ़ कर. फिलहाल आपको बधाई देता हूँ ऐसे प्रतिभाशाली भतीजे के लिए..
    और करण जी के लिए एक सूचना - "दोस्त, अपना ई-पता देना. मेरा prashant7aug[AT]gmai[DOT]com है. बैंगलोर आता हूँ तो आपसे मुलाक़ात करना चाहूँगा"

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