बुधवार, 22 अगस्त 2012

स्मृति शिखर से–21 : हौ राजा, चढ़ाई है!


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-- करण समस्तीपुरी
“हौ राजा...! चढ़ाई है।” यदि कभी रेवाखंड जाने का अवसर मिले तो यह पंक्ति बोलिएगा। विश्वास कीजिये आप वहाँ अजनबी नहीं रह जाएंगे वरण आपके स्वागत में एक निर्मल हास बिखर जाएगा। जाति, धर्म, धन, वर्ग, उम्र सभी सीमाओं से विलग यह जुमला रेवाखंड के दैनिक जीवन का अविभाज्य अंग है। वे इसे सुनकर श्रद्धावनत होते हैं। वे इसे सुनकर क्रोधित भी होते हैं। इसे बोलकर हँसते हैं और युवाओं में तो यह कई क्रियाओं के लिए ‘सांकेतिक वाक्य’ भी हो चुका है।
उनका नाम क्या है पता नहीं। हमारे गाँव में वे हर परिवार के मुखिया का नाम जानते हैं लेकिन सब को राजा कह कर ही संबोधित करते हैं। लोग भी उन्हे अब ‘राजा’ के नाम से ही जानते हैं परन्तु पेशे से भिखारी हैं। सांवला रंग, नाटा कद, भरा हुआ शरीर, कलेजे तक लटकती घनी सफ़ेद दाढ़ी, गेरुआ वस्त्र और हौ राजा...! चढ़ाई है। यही है उनकी पहचान। आस-पास के गाँव में जा भीक्षाटन करते हैं। मेरे गाँव में उनकी बारी प्रायः रविवार को होती है। उस दिन पिताजी का भी साप्ताहिक अवकाश होता है। पहले मेरे पिताजी का नाम लेकर उनके दरबार की जयजयकार करते हैं। फिर कुछ देर बैठते हैं, कुशलक्षेम का आदान-प्रदान होता है और तब फिर, “हौ राजा...! चढ़ाई है।” पिताजी एकाध रुपये देने से पहले कभी-कभी उन्हे चाय भी पिला देते हैं।
बाद के वर्षों में उनकी भिक्षाटन शैली में बड़ा बदलाव आया था। अब वे अन्नदान नहीं स्वीकारते हैं। केवल नकद रुपये। एक, दो, पाँच, दस या बीस। पक्के घर वाले अगर एक रुपये दें तो उन्हें क्रोध भी आ जाता था। लोग उनकी सच्चाई जानते हैं। उन्हें अब यह सब छोड़ देने की सलाह भी देते हैं। कई लोग दुत्कार भी देते हैं। फिर भी उनका संसार यथावत चल रहा है। वे इसे अपना कुल धर्म मानते हैं। कहते हैं कि कभी उनके पूर्वज शैव-सन्यासी थे। भिक्षाटन उनका धर्म है।
अब आइए आपको बताते हैं, उनके “हौ राजा ! चढ़ाई है” का राज़। वैसे हर भिखारी के पास वास्तविक या कृत्रिम आवश्यकता होती है। वह उसके अनुसार वेश और भाषा का उपयोग कर भिक्षाटन करता है। किन्तु ‘राजा’ जी के पास भी ऐसी ही कुछ आवश्यकता थी यह कहा नहीं जा सकता। इसीलिए उनका वेश और उनकी भाषा बहुधा एक सी ही रहती है। “हौ राजा चढ़ाई है।”
चढ़ाई का अर्थ यात्रा से है। बाबाजी कभी गंगाजी की चढ़ाई करते हैं। कभी बैजनाथधाम, कभी अयोध्या, काशी, मथुरा बद्री और केदारनाथ। आश्चर्य यह है कि यात्रा कितनी भी लंबी हो वे लौट आते हैं अगले सात दिनों में ही। रविवार को उनकी चढ़ाई हमारे गाँव में ही होती थी। जब कोई पिछली यात्रा के बारे में पूछ देता था तो वे कभी हँस कर और कभी सकोप टाल जाते थे। कभी-कभी तो श्राप का भय भी दिखा देते थे।
अगहन का महीना था। सर्दी की शुरुआत हो गई थी। एक सोमवार की सुबह पिताजी बाहर धूप में बैठे डाक-खाने का हिसाब-किताब मिला रहे थे। कुछ परेशान दिख रहे थे। अगहन की गुलाबी ठंड में भी उनके माथे पर श्वेद-कण साफ़ देखे जा सकते थे। घबराये हुए से कुछ खोज रहे थे। सब जगह खोजा। हार-थक कर बताया कि कोई सात हज़ार रुपये कम पड़ रहे थे। हमारे सर्वोत्तम प्रयासों के बाद भी वो रुपये नहीं मिले। पिताजी का मन किसी भी काम में नहीं लग रहा था। एक अल्पायी डाक-कर्मी के लिए सात हज़ार रुपये भरना एक साल भर की बचत से भी अधिक थी। अनेक लोगों के आश-भरोस दिलाने के बाद कोई ग्यारह बजे पिताजी थके हारे से घर से निकले ही थे कि पीछे से ‘हौ राजा’... हौ राजा ! की आवाज़ आई।
पिताजी पहले से ही चिढ़े थे उनपर भी भरास निकल गई। पुनश्च वे पास आये और मुट्ठी में बँधे सौ रुपये के नोटों की गड्डी आगे कर दिया। पिताजी का सर चकराने लगा। फिर बाबाजी ने याद दिलाई कि वे नोट उसी कुर्ते में रह गए थे जो पिताजी ने कल उन्हे दिया था। पिताजी का मस्तक श्रद्धा से नत हो गया। मेरे गाँव में लोग उनके ईमान का लोहा मानते हैं। कहते हैं कि वर्षों से वे आते रहे हैं। लोगों से सविनय या लड़कर भीख लिया होगा परन्तु किसी के फ़ेंके हुए सोने पर दृष्टि भी नहीं डाली होगी।
बड़े दिल वाले थे वे। वास्तविक अर्थों में राजा। ग्रीष्म का प्रथम चरण पधार चुका था किन्तु क्रिकेट का नशा हमारी युवक-मंडली के सर चढ़ कर बोल ही रही थी। अंतर यही आया था कि अब हम दोपहर के बदले सुबह में ही खेल लेते थे। किसी दूसरे गाँव से क्रिकेट का मैच खेलकर हम वापस आ रहे थे। साइकिल से। धूप की तीखी रेखा हमारे सर के ठीक ऊपर प्रहार करती चुभ सी जा रही थी। पहले खेल की थकान और फिर धूप, आँखों से जो जैसे अंगारे निकल रहे थे और मारे प्यास के गला सूखा जा रहा था।
एक बड़े से हवेलीनुमा के घर के सामने चापाकल देखकर हम सभी रुके। बारी-बारी से हाथ-मुँह धोकर अंजुरी में भर-भर पानी पीने लगे। आहा...! तृप्ति की अनुभूति! तभी एक पहचानी सी आवाज हमारी पिपासा-समन में बाधक बन गई। “हौ राजा...!”
हमें लगा कि बाबाजी वहाँ भी अपने कर्मपथ पर हैं किन्तु नहीं तभी वे विश्राम में थे। सुखद आश्चर्य यह कि वह घर उन्हीं का था। उन्होंने हमें पानी नहीं पीने दिया। बलात खींच ले गये दालान में। पहले नीबू के सर्बत से हमारा गला तर करवाया। फिर ‘चूरा-दही’। संकोच करते देख बोल पड़े, “राजा...! यह सब तुम्हारा ही है। हमारा कुछ है? अपने भाव से विवश कर उन्होंने खाने के बाद ही आने दिया।
उस दिन उनकी आँखों की चमक देखते ही बनती थी। वो चमक जो एक याचक की आँखों में नहीं आती। कई बार अपनी बहू और घर का काम करने वाले लड़के को डाँट भी दिया था। हर्षातुर हो हर आने-जाने वाले को बोल रहे थे, “सौभाग्य है हमारा। आज हमारा राजा सब हमरे द्वार पर आया है।” फिर हमें देख बोल पड़ते थे, “राजा... ऐसा सौभाग्य फिर आयेगा...?” स्वयं के द्वार पर भी उनकी आँखों में याचना आ गई थी।
उसी दिन मालूम पड़ा कि उनके सबसे बड़े पुत्र बिहार पुलिस में दारोगा हैं। एक पुत्र रेलवे में चल टिकट निरीक्षक हैं। एक भारत सरकार के श्रम मंत्रालय के दिल्ली स्थित मुख्यालय में वरिष्ठ सहायक हैं। सबसे छोटा संघ लोक सेवा आयोग की तैय्यारी में है। फिर भी वो इतने सहज हो याचना करते हैं। लोगों की दुत्कार भी सह लेते हैं। कोई उनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति का हवाला दे भिक्षाटन छोड़ने की सलाह देता है तो सविनय कहते हैं, “राजा....! ई कैसे छोड़ देंगे ? जड़ तो यही है। आखिर यही कर के इतना सब कुछ किए...। जड़े काट देंगे तो पेड़ सुखिए जाएगा न राजा...! वैसे भी बेटा-बहू कुछ भी हो जाए...हम तो वही हैं राजा...! हौ राजा ! अब निकालो एक-आध रुपैय्या...! फ़लाँ तीर्थ का चढ़ाई है।”










11 टिप्‍पणियां:

  1. हौ राजा चढ़ाई है ! .... आह ! आनंद आ गया..हमलोग भी चढ़ाई करते थे.. कभी विदेश्वर बाबा की तो कभी कपलेश्वर बाबा की...कभी चढ़ाई होती थी उगना महादेव की..... बहुत प्रचलित है यह मुहावरा...कभी हमलोग महाभोज के लिए भी कहते थे... लोकरंग का अदभुद नमूना है आपका लेख... शुभकामना...

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  2. कभी कभी जिन्दगी हमें चित कर देती है. सोचने का मौक़ा ही नहीं देती.

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  3. परिस्थितियों के आकलन को एक नया नज़रिया मिला गया ......

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  4. आज तो आपके स्मृति शिखर से हमने भी कुछ स्मृतियों के पल पुनः जी लिए.. "हौ राजा! चढाई है!"..लोक व्यवहार का यह मुहावरा हमारे ज़माने का एक मुहावरा याद दिला गया.. "जा, बढ़ा के!!" आपने तो 'राजा' और 'चढाई' दोनों की व्याख्या कर दी, लेकिन 'जा बढ़ा के' का, न तो उद्गम मालूम है न इतिहास..
    फिर याद आया एक राजा, जिसे बांधकर अपने साथ ले जाने सिकंदर महान आया था, लेकिन न ले जा सका. हमारा देश ऐसे राजाओं से भरा पड़ा है(था)... और आखिर में, लगता है यह गुलज़ार साहब का जन्म-सप्ताह है इसलिए हर पोस्ट में मुझे उनकी झलक दिख रही है.. अरुण जी की कविता में भी और आपकी इस स्मृति से भी.. फिल्म किताब में ऐसे ही रेलगाड़ियों में भीख माँगने वाले एक भिखारी को दुत्कारने पर एक व्यक्ति अपने मित्र को समझाता है कि इनसे ऐसे मत बोलो, यह यहाँ के सबसे "रईस" भिखारी हैं. तीन तो कोठियां हैं इनकी मुम्बई में.. सच है करण जी, निर्लिप्तता का इतना अच्छा उदाहरण और कहीं नहीं मिल सकता. इस एक भाव में, ईमानदारी, त्याग, सादगी और अपने काम के प्रति प्रेम और परमात्मा के प्रति समर्पण की भावना निहित है!!
    अद्भुत है यह वर्णन!!!

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  5. नत मस्तक श्रद्धा हुई, उन्नत कर्म प्रधान |
    हौ राजा बम बम बजे, लगे तान प्रिय कान |
    लगे तान प्रिय कान, मान बढ़ जाय विलक्षण |
    परम्परा निर्वाह, धर्म का कर संरक्षण |
    नेक नियत आतिथ्य, पुजारी हूँ बाबा का |
    वा री भिक्षा वृत्ति, कबहुँ पर धन न ताका ||

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  6. रोचक लोक रीतियाँ..सुन्दर वर्णन..

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  7. ऐसे अनूठे चरित्र समाज को कितना कुछ दे जाते हैं जिसका मुल्यांकन किया ही नहीं जा सकता। मात्र एक ईमानदारी के बल पर भिक्षा मांगते हुए भी दाता बन जाते हैं। मैं हमेशा कहता हूँ कि सभी को संस्मरण जरूर लिखने चाहिए। सभी की जिंदगी में कभी न कभी ऐसे व्यक्तियों से सामना होता है जो श्रद्धेय होते हैं, प्रेरक होते हैं।

    ..इसे साझा करने के लिए आभार।

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  8. केशव बाबू, आपका यह वर्णन अन्तर्मन को गुदगुदा गया।

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  9. जो व्यक्ति अपने मूल को नहीं त्यागता वह सच का आग्रही होता है और जिसने बीते कल को भुला आज को ही मूल मन लिया उसे क्या कहें ?

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  10. 'हौ राजा "एक काल पात्र सा खडा है इस संस्मरण में ...कृपया यहाँ भी पधारें -
    ram ram bhai
    बुधवार, 22 अगस्त 2012
    रीढ़ वाला आदमी कहलाइए बिना रीढ़ का नेशनल रोबोट नहीं .
    What Puts The Ache In Headache?

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  11. हो राजा, आपकी कई पोस्टें रह जाती है बिना पढ़े .... आनंद का अहसास और पुरानी लोक परम्पराओं की जानकारी एक साथ मिलती है.

    साधुवाद.

    जै राम जी की.



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