शनिवार, 27 सितंबर 2014

फ़ुरसत में - शब्द

फ़ुरसत में – 120

सिर्फ-एक-शब्द2शब्द

निर्मित्तं किंचिदाश्रित्य खलु शब्दः प्रवर्तते।

यतो वाचो निवर्तन्ते निमित्तानामभावतः॥

निर्विशेषे परानन्दे कथं शब्दः प्रवर्तते।

(कठरुद्रोपनिषद्‌)

  • अर्थात्‌ शब्द की प्रवृत्ति किसी निमित्त को लेकर होती है। परम तत्त्व में निमित्त का अभाव होने से वाणी वहां से लौट आती है। जो निर्विशेष, परम आनन्दस्वरूप ब्रह्म है, वहां शब्द की प्रवृत्ति कैसे हो?
  • कहते हैं इस सृष्टि की रचना शब्द से हुई। कोई ब्रह्मनाद इस ब्रह्मांड में गूंजा, फिर उसने रूप धरना शुरु किया।
  • शब्दों में बड़ी शक्ति होती है। शब्द बहुत गहरा प्रभाव उत्पन्न करते हैं। जहां एक ओर एकाग्र-चिन्तन वांछित फल देता है, वही दूसरी ओर शब्द पाकर दिमाग उडने लगता है । इसलिए हम जब भी कुछ कहें, यह समझ कर कहें कि वे हमारे बोले गए शब्द क्या प्रभाव पैदा करेंगे। प्रेम से बोला गया एक शब्‍द भी अनेक दु:खी आत्‍माओं को शान्ति प्रदान कर सकता है।
  • शब्द विचारों के वाहक हैं। ये हमारे व्यक्तित्व और विचार दोनों बनाते हैं। हमारे बाहर ही नहीं, हमारे भीतर भी शब्द गूंजते हैं। हमारे भीतर क्या गूंज रहा है, हमारा व्यक्तित्व इसी पर निर्भर करता है।
  • महात्मा गांधी ने कहा था, “शब्दों में चमत्कार भरा होता है। शब्द भावना को देह देता है और भावना शब्द के सहारे साकार बनती है।”
  • हमें याद रखना चाहिए, अच्छे कर्मों से शरीर संवरता है और अच्छे विचारों से मन। अप्रिय शब्द पशुओं को भी नहीं सुहाते हैं, जबकि नरम शब्दों से सख्त दिलों को जीता जा सकता है। आखिर कोमल शब्द कठोर तर्क जो होते हैं (Soft words are hard arguments)।
  • महर्षि पतंजलि ने महाभाष्य में कहा है, ‘एकः शब्दः सम्यग्‌ ज्ञातः सुप्रयुक्तः स्वर्गे लोके च कामधुग्‌ भवति।’ अर्थात्‌ एक भी शब्द यदि सम्यक्‌ रीति से ज्ञात हो तथा सुप्रयुक्त हो तो वह इस लोक में और स्वर्ग में मनोरथ पूर्ण करने वाला होता है।
  • शब्द नामक ज्योति सारे संसार को प्रकाशित करती है। गुरुनानक देव जी ने कहा है,

शब्दे धरती, शब्द आकास,

शब्द-शब्द भया परगास।

सगली सृस्ट शब्द के पाछे,

नानक शब्द घटे घट आछे।

  • शब्द ने पृथ्वी, सूर्य, चंद्रमा सारी दुनिया पैदा की है। यही शब्द सबके भीतर अपनी धुनकारें दे रहा है। गोरखनाथ ने कहा है,

सबदहिं ताला सबदहिं कूंचि, सबदहिं सबद जगाया।

सबदहिं सबद परचा हूआ, सबदहिं सबद समाया॥

  • सारे साधु-संतों ने आध्यात्म को समझने के लिए अपने-अपने शब्द दिए हैं। गुरु नानक देव जी ने कहा है, ‘सबदु बीचारि भउसागरु तरै’ – शब्द को विचारने से भवसागर को पार किया जा सकता है।
  • जो जबान से निकलता है सिर्फ़ वही शब्द नहीं हैं। यह तो एहसास का मामला है। रज्जब ने कहा है,

वेद सूं बाणी कूप जल दुख सूं प्रापत्ति होई।

सबद साखि सरवर सलिल सुख पीबै सब कोई॥

  • हम हमारे शरीर के भीतर भी शब्द की अनुभूति करते हैं। जब हम ध्यान करते हैं तो मंत्र (शब्द) गूंज बनकर नाद उत्पन्न करते हैं। यही भीतरी अनुगूंज हमारे ध्यान में उतरती है।
  • धरनीदास की बानी में कहा गया है,

सब्दु सकल घट ऊचरे, धरनी बहुत प्रकार।

जो जाने निज सब्द को, तासु सब्द टकसार॥

  • जैसा शब्द हमारे भीतर गूंजता है, हम वैसे ही हो जाते हैं। जिसे परमात्मा की तलाश होती है उसके मन में परमात्मा के शब्द गूंजते हैं। जिसे भौतिक और दैहिक सुख की तलाश रहती है उसके मन में भौतिक इच्छाओं की गूंज रहती है।
  • आपके मुख से उच्‍चारित सभी शब्‍दों में से कितने शब्‍द परमात्‍मा के प्रति होते हैं? परमात्मा को पाने के लिए हम जब व्याकुल होते हैं और उस व्याकुलता में, उस छटपटाहट में जो शब्द उच्चरित होते हैं, वे नाम जप बन जाते हैं। इसकी पुनरावृत्ति से, निरंतरता से, साधना से एक दिन परमात्मा उपलब्ध हो जाते हैं।
  • जैनेन्द्र जी की मानें तो, “शब्द बड़ी साधना से उठ पाते हैं; उन्हें गिराने की चेष्टा नहीं होनी चाहिए”।

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15 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (28-09-2014) को "कुछ बोलती तस्वीरें" (चर्चा मंच 1750) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच के सभी पाठकों को
    शारदेय नवरात्रों की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. अप्रकट को प्रकट करने वाले शब्द बीजरूप होते है
    जब ध्यान की उर्वरक जमीन में अंकुरित, पल्लवित होकर
    जीवन को अमृत के फूलों से भर देते है
    तब व्यक्तित्व में एक अनोखी सुगंध आने लगती है !
    सटीक, सार्थक चिंतन !

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  3. बहुत सुन्दर आलेख
    नवरात्र की हार्दिक शुभकामनायें!

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  4. शब्द अनमोल हैं...और उनके भाव हम पर वैसा ही प्रभाव डालते हैं...

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  5. शब्द ही जीवन है...बहुत विचारणीय आलेख...

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  6. शब्दों की महत्ता ... उनके चमत्कारी होने में कोई शक हो ही नहीं सकता ...
    शब्द अनमोल हैं ...

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  7. बहुत ही सारगर्भित लेख। शब्दों को लेकर आपने इतना कुछ बताया कभी सोचा नहीं था। बहुत ही अच्छा लगा पढकर। स्वयं शून्य

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  8. मन की अरुचियों या कुण्ठा ,
    शब्द पिचकारियों मे भर क्यों उलीचना !
    शब्दों मे चिपके अणु बड़े संक्रामक हैं,
    हवा के साथ -साथ दूर तक जायेंगे
    अनुभव, जो पाये है
    पचने दो !
    कच्चापन लपटों की आँचों में सिंकने दो,
    रस बन कर बसने दो!
    वाणी को तपने दो !
    *
    मानस की लहरों मे डूबें, गहराईयों मे
    घुलें-धुलें ,स्वच्छ और
    पार दर्शी शब्दों मे
    जो भी कहोगे वो अनंत बन जायेगा !

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