राष्ट्रीय आन्दोलन
412. द्वितीय
विश्वयुद्ध का आरंभ और भारत
1939
फासीवाद पहले ही इटली, जर्मनी
और जापान में जीत चुका था और पूंजीवादी दुनिया के दूसरे हिस्सों में भी अपना बुरा
रूप दिखा रहा था। कांग्रेस ने इसे साम्राज्यवाद और नस्लवाद का सबसे चरम रूप बताकर
इसकी निंदा की। उसने पूरी तरह से माना कि भारत का भविष्य फासीवाद और आज़ादी, समाजवाद
और लोकतंत्र की ताकतों के बीच होने वाले संघर्ष से जुड़ा हुआ है। उसने इथियोपिया, स्पेन, चीन
और चेकोस्लोवाकिया के लोगों को फासीवादी हमले के खिलाफ उनके संघर्ष में पूरा
समर्थन दिया। जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, “आज दुनिया दो बड़े समूहों में बंटी हुई है - एक तरफ
साम्राज्यवादी और फासीवादी, दूसरी
तरफ समाजवादी और राष्ट्रवादी। स्वाभाविक रूप से हम दुनिया की उन प्रगतिशील ताकतों
के साथ खड़े हैं जो फासीवाद और साम्राज्यवाद के खिलाफ़ हैं।” गांधीजी
ने भी फासीवाद के खिलाफ़ मज़बूत भावनाएँ ज़ाहिर कीं। उन्होंने यहूदियों के नरसंहार
के लिए हिटलर की निंदा की और ‘खास और उग्र राष्ट्रवाद का एक नया धर्म शुरू करने
के लिए, जिसके
नाम पर कोई भी अमानवीय काम मानवता का काम बन जाता है।’ उन्होंने
लिखा, ‘अगर कभी
मानवता के नाम पर और मानवता के लिए कोई जायज़ युद्ध हो सकता है, तो जर्मनी के खिलाफ़ युद्ध, एक पूरी जाति पर हो रहे ज़ुल्म को रोकने के लिए, पूरी तरह से जायज़ होगा।’
जब 1936 की शुरुआत में फासीवादी इटली
ने इथियोपिया पर हमला किया, तो
कांग्रेस ने इथियोपिया के लोगों के संघर्ष को सभी शोषित लोगों की आज़ादी के संघर्ष
का हिस्सा घोषित किया। यूरोप से लौटते समय,
जवाहरलाल ने मुसोलिनी से मिलने से इनकार कर दिया। कांग्रेस ने
स्पेनिश गृहयुद्ध में फासीवादी फ्रेंको के साथ जीवन-मरण की लड़ाई लड़ रहे स्पेनिश
रिपब्लिकन को ज़ोरदार समर्थन दिया। नेहरू ने इस बात पर ज़ोर दिया कि स्पेन में चल
रहा संघर्ष सिर्फ़ रिपब्लिकन और फ्रेंको या फासीवाद और लोकतंत्र के बीच नहीं था, बल्कि
पूरी दुनिया में प्रगति और प्रतिक्रियावादी ताकतों के बीच था। 1938 के आखिर में, हिटलर
ने चेकोस्लोवाकिया के खिलाफ अपनी डिप्लोमैटिक और पॉलिटिकल आक्रामकता शुरू की, जिसके
कारण म्यूनिख में ब्रिटेन और फ्रांस ने उसे धोखा दिया। कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने
एक प्रस्ताव पास किया, जिसमें 'जर्मनी
द्वारा चेकोस्लोवाकिया को उसकी आज़ादी से वंचित करने या उसे कमज़ोर बनाने की
बेशर्म कोशिश पर गहरी चिंता' जताई गई, और
'चेकोस्लोवाकिया
के बहादुर लोगों के प्रति गहरी सहानुभूति' भेजी
गई। 1937 में, जापान
ने चीन पर हमला किया। कांग्रेस ने जापान की निंदा करते हुए एक प्रस्ताव पास किया
और भारतीय लोगों से चीनी लोगों के प्रति अपनी सहानुभूति दिखाने के लिए जापानी
सामानों का बहिष्कार करने की अपील की। जब अरब लोग फिलिस्तीन में ब्रिटिश
साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ रहे थे, तब नाज़ी जर्मनी
में सताए और मारे गए और पूरे यूरोप में भेदभाव और उत्पीड़न का शिकार हुए कई यहूदी, ज़ायोनी
नेतृत्व में ब्रिटिश समर्थन से फिलिस्तीन में एक मातृभूमि बनाने की कोशिश कर रहे
थे। भारतीयों ने नाज़ी नरसंहार के शिकार सताए गए यहूदियों के प्रति सहानुभूति जताई, लेकिन
उन्होंने अरबों को उनके हक से वंचित करने के उनके प्रयासों की आलोचना की। उन्होंने
अरबों का समर्थन किया और यहूदियों से सीधे अरबों के साथ समझौता करने का आग्रह
किया।
1938 में
यूरोप पर युद्ध के बादल मंडरा रहे थे। फासीवाद के उदय और शांति, लोकतंत्र
और समाजवाद तथा राष्ट्रों की स्वतंत्रता के लिए इससे पैदा हुए खतरे ने स्थिति को
कुछ हद तक बदल दिया। भारतीय राष्ट्रीय नेतृत्व फासीवाद (फासीवाद (Fascism)
एक उग्र-राष्ट्रवादी, सत्तावादी
राजनीतिक विचारधारा है जो तानाशाही, शक्तिशाली
राष्ट्रवाद, विपक्ष का दमन और मजबूत केंद्रीकृत
सरकार पर जोर देती है, जहाँ राष्ट्र या
राज्य को व्यक्ति से ऊपर रखा जाता है और एक मजबूत नेता के तहत एक पदानुक्रमित समाज
की स्थापना की जाती है।) और युद्ध और विजय
की ओर फासीवादी अभियान का कड़ा विरोध करता था। 1914-18 का
महायुद्ध, “युद्ध को सदा के लिए
समाप्त करनेवाला युद्ध”
साबित नहीं हुआ। शांति-संधि ने जितनी समस्याओं
को सुलझाया उनसे कहीं अधिक समस्याओं को पैदा कर दिया था। राष्ट्र-संघ के माध्यम से
'सामूहिक
सुरक्षा की
प्रणाली से जितनी आशाएं की गई थीं वे सब निष्फल सिद्ध हुईं। अमरीका के
न रहने, रूस
को अलग कर दिए जाने और सदस्य राष्ट्रों द्वारा अंतरराष्ट्रीय हितों की अपेक्षा राष्ट्रीय
हितों को अधिक प्रधानता देने के कारण राष्ट्र-संघ बहुत ही अक्षम हो गया था। जापान
ने उसके अधिकार को
चुनौती दी और अपनी विस्तारवादी नीति पर अमल करना शुरू कर दिया। अबीसीनिया पर इटली
के आक्रमण, जर्मन द्वारा विसैन्यीकृत क्षेत्र पर अधिकार
एवं आस्ट्रिया के राज्यापहरण और स्पेन के गृहयुद्ध
में विदेशी हस्तक्षेप आदि घटनाओं ने सिद्ध कर दिया कि अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में जिसकी
लाठी उसकी भैंस का कानून चल रहा था। जनवाद और राजनैतिक एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता
खतरे में पड गई थी। तानाशाही सरकारों ने अपने-अपने देश में सारे विरोधियों को कुचल दिया
था और वे युद्ध की पूरी तैयारियों के साथ दूसरे देशों पर आक्रमण करने का मौका तलाश रही
थीं। संक्षेप में साम्राज्यवाद खुद युद्ध का एक बड़ा कारण था।
कांग्रेस
मंत्रिमंडलों के सत्ता में आने के दो साल बाद, 1 सितंबर, 1939 में दूसरा विश्व
युद्ध शुरू हो गया। इसी दिन नाज़ी जर्मनी ने पोलैंड पर हमला किया। इसके पहले वह
मार्च 1938 में आस्ट्रिया और मार्च 1939 में चेकोस्लोवाकिया पर क़ब्ज़ा कर चुका था। फांस और ब्रिटेन अभी तक हिटलर के
प्रति तुष्टिवादी नीति अपना रखे थे। लेकिन पोलैंड पर हुए इस आक्रमण से वे जर्मनी
के ख़िलाफ़ युद्ध लड़ने के लिए सामने आ गए। 3 सितंबर को ब्रिटिश सल्तनत
जर्मनी के नाज़ी सरकार के साथ भिड़ गई। नेविल चैंबरलेन के नेतृत्व वाली लिबरल सरकार
की ब्रिटिश संसद में पराजय हुई। कंजरवेटिव दल के विंस्टन चर्चिल प्रधानमंत्री बने।
3 सितंबर 1939 को चर्चिल ने कांग्रेस या केन्द्रीय विधायिका से विचार-विमर्श किए
बिना ही भारत को इंग्लैंड के साथ जर्मनी के विरुद्ध युद्ध में शामिल करने की घोषणा
कर दी। इससे भारतीय स्वाभिमान को ठेस पहुंची। उन दिनों प्रांतों में लोकप्रिय
मंत्रिमंडलों का शासन था। भारत किस पक्ष में है, इसकी घोषणा करने से पहले कम-से-कम
इन मंत्रिमंडलों की तो सरकार सलाह लेती। लेकिन ब्रिटिश सरकार ने इसकी ज़रूरत ही
नहीं समझी। अब भारत एलाइड देशों (संयुक्त राष्ट्रों) के साथ जर्मनी, इटली और जापान
के सामने युद्ध लड़ रहा था। नेहरूजी ने लिखा
है, “एक
आदमी ने, और वह भी विदेशी, चालीस करोड़ लोगों को बिना उसकी राय के लड़ाई में झोंक
दिया।”
युद्ध
शुरू होने और वायसराय की घोषणा से कि भारत युद्ध में शामिल हो गया, स्थिति
बदल गई, और
पहले ही दिन से यह साफ़ हो गया कि अब चीजें पहले जैसी नहीं रहेंगी। अगर कांग्रेस
मंत्री सत्ता में रहते, तो उन्हें डिफेंस
ऑफ़ इंडिया ऑर्डिनेंस को लागू करना पड़ता, जिसे
जल्द ही एक एक्ट बनाया जाना था, और कई दूसरे
ऑर्डिनेंस भी लागू करने पड़ते जो लोगों के नागरिक अधिकार छीन लेते और पुलिस और
मजिस्ट्रेट को कड़े अधिकार देते। पूरे प्रशासनिक सिस्टम को केंद्र सरकार के हिसाब
से युद्ध की ज़रूरतों के हिसाब से ढालना पड़ता। प्रांतीय स्वायत्तता पर कड़ी
पाबंदी होती। क्या मंत्रालय ऐसी परिस्थितियों में काम कर पाते?
कांग्रेस
को फासीवादी हमले के शिकार लोगों के प्रति पूरी सहानुभूति थी। युद्ध छिड़ने पर उसका
समर्थन फासीवादी विरोधी ताकतों को ही जाता। कांग्रेस के नेताओं ने सवाल उठाया कि
एक ग़ुलाम राष्ट्र दूसरे देशों की आज़ादी की लड़ाई में कैसे सहयोग कर सकता है? भारत
एक फासीवाद-विरोधी युद्ध में सक्रिय रूप से समर्थन कर सकता था, बशर्ते
उसकी आज़ादी तुरंत मान ली जाए। कांग्रेस जंग
के
प्रयासों
में
मदद
देने
को
तैयार
थी
बशर्ते
आज़ादी
की
दिशा
में
कदम
उठाए
जाएँ।
राज
कदम
उठाने
को
तैयार
नहीं
था।
गांधीजी 1938 और 1939 में आने वाले युद्ध के लिए एक नैतिक विकल्प ढूंढ रहे थे।
उन्हें पता था कि उनके विचारों को खारिज कर दिया जाएगा। लेकिन उन्हें उन्हें
व्यक्त करना ही था।
ब्रिटिश
सरकार को जल्द ही इस बात का एहसास हो गया कि यदि थोड़ी सी सूझ-बूझ से वह काम लेती
तो न सिर्फ़ उसे भारतीय जनता की सहानुभूति मिलती बल्कि युद्ध के लिए समर्थन भी
मिलता। भूल-सुधार के लिए वायसराय लिनलिथगो ने गांधीजी को मिलने के लिए बुलाया। उन
दिनों गरमी में सरकार की राजधानी दिल्ली से शिमला चली जाती थी। अगले दिन, गांधीजी
पहली दिल्ली ट्रेन से शिमला के लिए रवाना हुए। स्टेशन पर जनता चिल्ला रही थी, 'हमें
कोई समझौता नहीं चाहिए', जब महात्मा ट्रेन
की ओर जा रहे थे। उस दिन उनका मौन व्रत था, इसलिए
वे मुसकुराए और चले गए। गांधीजी शिमला पहुंचे। गांधीजी ने युद्ध के लिए हिटलर को
ज़िम्मेदार ठहराया। उन्होंने 16 सितंबर 1939 को हरिजन में लिखा, 'मैं
इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि युद्ध के लिए हिटलर ज़िम्मेदार है। मैं उसके दावे का
आकलन नहीं करता। यह बहुत संभव है कि डेंजिग को शामिल करने का उसका अधिकार
निर्विवाद है, अगर
डेंजिग के जर्मन अपनी स्वतंत्र स्थिति छोड़ना चाहते हैं। हो सकता है कि पोलिश
कॉरिडोर पर कब्ज़ा करने का उसका दावा एक न्यायसंगत दावा हो। मेरी शिकायत यह है कि
वह इस दावे की जाँच एक स्वतंत्र ट्रिब्यूनल से नहीं होने देगा।' गांधीजी ने कहा था कि हिटलरवाद का मतलब
है 'नंगी
बेरहम ताकत, जिसे
एक सटीक विज्ञान में बदल दिया गया है और वैज्ञानिक सटीकता के साथ इस्तेमाल किया
जाता है।' यह
उन्हें बिल्कुल भी पसंद नहीं था।
उन्होंने
वायसराय को आश्वासन दिया कि उनकी सहानुभूति इंग्लैंड और फ्रांस के साथ है, लेकिन
अहिंसावादी होने के नाते वह मित्र राष्ट्रों को केवल नैतिक समर्थन दे सकते हैं।
गांधीजी यह जानते थे कि अहिंसा द्वारा भारत को विदेशी आक्रमण से बचाने का उनका यह
प्रस्ताव व्यावहारिक रूप से शायद ही किसी कांग्रेसी को स्वीकार हो, लेकिन अपने
शांतिवाद और अहिंसा पर वे दृढ़ और अविचलित थे। गांधीजी के लिए अहिंसा एक सिद्धांत
था, जबकि
कांग्रेस के लिए यह 'हमेशा एक नीति' थी।
कांग्रेस ने उम्मीद किए गए फायदों के लिए अहिंसा को अपनाया। गांधीजी फल की परवाह
किए बिना अहिंसा चाहते थे। आस्था की दृढ़ता के कारण प्रायः उनके निकट आदर्श और
वास्तविकता में कोई अंतर नहीं रह जाया करता था। उस समय कांग्रेस के अधिकांश लोग यह
समझते थे कि चोट करने का सही समय है क्योंकि ब्रिटेन मुसीबत में है। लेकिन गांधीजी
इसे अनैतिक समझते थे। उन्होंने कहा था, “हम
ब्रिटेन की तबाही में अपनी आज़ादी नहीं खोज सकते। यह अहिंसा का रास्ता नहीं है।”
भारत और
द्वितीय महायुद्ध
यूरोप पर युद्ध के बादल मंडरा रहे थे। युद्ध का
ख़तरा जितना बढ़ता गया, हिंसा की शक्तियां उतनी ही बलवती होती गईं। पर्ल बन्दरगाह पर
जो हुआ वह बड़ा ही दुखद था। उसके बाद की घटनाओं से सारे देश में तनातनी की स्थिति
पैदा हो गई थी। कांग्रेस की कार्य-समिति की आपातकालीन बैठक बुलाई गई। उस समय तक
जापानी बहुत ज़्यादा नहीं बढ़े थे। फिर भी युद्ध अब बहुत दूर की बात नहीं थी। कई
कांग्रेसी नेता युद्ध, विशेष रूप से भारत में रक्षा-कार्य में योगदान देने के लिए
उत्सुक थे, बशर्ते कि एक राष्ट्रीय सरकार की स्थापना हो जाए। उनका मानना था कि इस
राष्ट्रीय सरकार की सहायता से वे देश के सभी तत्वों का सहयोग प्राप्त कर लेंगे।
जनता को यह विश्वास दिला सकेंगे कि यह हमारा एक राष्ट्रीय कार्य है। यह गोरों के
इशारे पर नहीं हो रहा है।
हालाकि इस विषय पर अधिकांश लोगों में सहमति थी,
पर गांधीजी अहिंसा के अपने बुनियादी सिद्धांत को त्यागने को तैयार नहीं थे। गांधीजी
एक बार फिर एक राजनीतिक भंवर में फँस गए थे। दुनिया जब आग की लपटों से घिरी हो तो
उनका कर्तव्य क्या था? लपटों को बुझाने की कोशिश करना या उनको हवा देना। पहले
विश्वयुद्ध में उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य का समर्थन किया था। बोअर युद्ध
के समय भी उन्होंने साम्राज्य को अपनी सेवाएँ दी थीं। उन दिनों गांधीजी अंग्रेजों की सरकार को भारत के लिए
कल्याणकारी समझते थे इसीलिए अफ्रीका से भारत लौटते समय वे इंग्लैण्ड में रुक गये थे ताकि युद्ध
में घायल अंग्रेजी फौज की सेवा कर सकें। तबीयत खराब होने पर वे घायल सैनिकों की सेवा का काम तो बीच
में छोड़ कर भारत आ गये थे लेकिन वायसराय के अनुरोध पर भारतीय युवाओं को अंग्रेजी फौज में शामिल करने
के लिए उन्होंने व्यापक अभियान चलाया था। ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति गांधीजी का
सम्मान और लगाव पहले विश्व युद्ध के समय की तुलना में अब काफ़ी कम हो चुका था। इस
दौरान गांधीजी देख चुके थे कि अँग्रेज़ सरकार का रवैया भारत की जनता के प्रति सहानुभूति का नहीं है। जालियांवाला बाग नरसंहार, लाला लाजपत राय जैसे बुजुर्ग नेताओं की बर्बर पिटाई
और अहिंसक आंदोलन में नेताओं की ताबड़तोड़ गिरफ्तारी
आदि कई ऐसी घटनाएँ थी जिन्होंने अंग्रेजी शासन के प्रति गांधीजी के मन में असंतोष भर दिया था।
युद्ध में भी उनकी आस्था पहले की तुलना में
बिल्कुल ही जाती रही थी। अहिंसा के पुजारी के लिए युद्ध किसी समस्या का समाधान नहीं था। मनुष्य द्वारा
मनुष्य के वध से किसी का भला नहीं हो सकता ऐसा उनका मानना था। युद्ध की निकटता
उनके और उनके विश्वास के लिए एक चुनौती बन गई थी। उन्होंने यह ज़रूर कहा था, “मेरी हमदर्दियां पूरी तरह मित्र राष्ट्रों के
साथ है,” मगर वे “समस्त युद्ध को पूरी तरह गलत” मानने लगे थे। उन्होंने कमज़ोर राष्ट्रों को
सलाह दी, अधिक शस्त्र-सज्जित राज्यों का संरक्षण प्राप्त करके अथवा अपने सैन्यबल
को बढ़ाकर नहीं, अपितु अहिंसात्मक प्रतिरोध के ही द्वारा आक्रमणकारी से आत्म-रक्षा
करें। गांधीजी का मानना था कि अहिंसा आक्रमण का मुकाबला करने का सिर्फ़ एक ढंग ही
नहीं, ज़िन्दगी का एक तरीक़ा भी है। उन्होंने हमेशा यह बात कही थी कि किसी को मरे
बिना मरना वीरता का श्रेष्ठतम रूप था। नाज़ी और फासिस्ट सैन्यवाद का मूल उद्देश्य
नए साम्राज्यों की स्थापना करना था। यह एक ऐसी होड़ थी जिसके द्वारा वे कच्चे माल
के ज़ख़ीरे और नए बाज़ार प्राप्त करना चाहते थे। युद्ध को जन्म देने का कारण था
मनुष्य का अतिद्दिप्त लोभ और राष्ट्रीयता को मानवता से ऊंचा स्थान देनेवाली जातीय
अहम्मन्यता।
गांधीजी की इंग्लैंड-यात्रा के समय वहाँ के एक
अखबार 'स्टार' ने एक व्यंग्य चित्र छापा था, जिसमें कोपीनधारी गांधीजी को काली कमीजवाले
मुसोलिनी, भूरी कमीजवाले हिटलर, हरी कमीजवाले डि वेलरा और लाल कमीजधारी स्तालिन
के साथ खडा दिखाया गया था।
उस व्यंग्य-चित्र का शीर्षक था, “और इसके पास तो कोई भडकीली कमीज ही नहीं!” शीर्षक का शब्दार्थ भी सही था और ध्वन्यार्थ
भी। मानवी भाई-चारे में विश्वास रखने वाले अहिंसावादी के निकट राष्ट्र और जातियाँ भले और बुरे में, मित्र और शत्रु में विभाजित नहीं होतीं। इसका यह मतलब नहीं कि गांधीजी आक्रांता और
आक्रमण से आशंकित देशों में भेद नहीं करते थे।
गांधीजी
इस असंगति के प्रति सचेत थे कि ब्रिटेन यूरोप में स्वाधीनता और लोकतंत्र के लिए लड़
रहा था,
जबकि भारत में वह इन्हीं सिद्धांतों के साथ घात कर रहा था।
गांधीजी दुविधा से ग्रस्त थे। एक तरफ यूरोप में हो रही तबाही को लेकर वे चिंतित थे
और पराजित फ्रांस के साथ हमदर्दी रखते थे। वे अंग्रेजों के प्रशंसक थे कि उनको पीठ
दीवार से लगी थे लेकिन वे बहादुरी से लडे जा रहे थे। दूसरी तरफ वे उनको ब्रिटिश सरकार
के दुराग्रह को लेकर दुखी थे कि भारत की आकांक्षाओं और कल्याण के प्रति उसकी
उदासीनता भारत की जनता की कटुता और हताशा में बढोत्तरी कर रही थी।
ब्रिटिश सरकार में भी इस बीच बड़ा परिवर्तन हुआ था। लिबरल पार्टी की चेंबरलेन
की सरकार की हार हुई थी और कांजरवेटिव पाटी
के विंस्टन चर्चिल इंग्लैण्ड के प्रधान मंत्री बने थे। इंग्लैण्ड की सरकार ने भारत को भी कांग्रेस से सलाह
लिये बिना युद्ध में घसीट लिया था। विरोध के कारण कांग्रेस के मंत्री मंडल के इस्तीफों के बाद देश
में गवर्नर शासन हो गया था। अगर भारत ब्रिटेन के साथ समानता के आधार पर
युद्ध-प्रयासों में भाग ले सकता तो अधिकाँश कांग्रेसी नेता इसका स्वागत करते।
गांधीजी ने इसका प्रस्ताव भी रखा था। गांधीजी सशर्त अहिंसा में विश्वास नहीं रखते
थे लेकिन वे यथार्थवादी ज़रूर थे। वे अपने सहयोगियों के बहुमत को हिंसा के पूर्ण
निषेध के रास्ते पर नहीं ले जा सकते थे। सहयोगी भी तो देशभक्त राजनीतिज्ञ थे।
उन्होंने राष्ट्र को सलाह दी कि वह मित्र राष्ट्रों के युद्ध-प्रयासों में पूरी
भागीदारी के आधिकारिक कांग्रेसी प्रस्ताव का अनुमोदन करे, इस शर्त के साथ कि
ब्रिटेन बिना किसी शर्त के भारत के आत्मनिर्णय के अधिकार को मान्यता दे।
25
अगस्त को बंगाल के प्रीमियर फजलुल हक और पंजाब के प्रीमियर सिकंदर हयात खान ने, इस
मामले में मुस्लिम लीग के फैसले का इंतजार किए बिना, बंगाल
और पंजाब के लोगों से अपील की कि वे संकट की इस घड़ी में साम्राज्य का साथ दें। 27
अगस्त को हैदराबाद के निज़ाम, त्रावणकोर के
महाराजा, रामपुर
के नवाब और कपूरथला के महाराजा सहित कई भारतीय शासकों ने अपनी सेवाएं राजा-सम्राट
को सौंप दीं। 29 अगस्त को जोधपुर, कोल्हापुर, बहावलपुर, सीतामऊ
(मध्य भारत का एक छोटा राज्य) के शासकों ने भी इसी तरह युद्ध के लिए अपनी सेवाएं
दीं। 9 सितंबर तक कुल 83 रियासतों के शासकों ने साम्राज्य के प्रति अपनी वफादारी
जताई थी और युद्ध में आदमी, पैसा, सामान
और निजी सेवा देने की पेशकश की थी।
वर्धा कार्यसमिति बैठक
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस
शांतिवादियों का संगठन नहीं थी। उसने सिर्फ़ स्वतंत्रता के लिए अहिंसा को अपनाया
था। इसे अपना धर्म और व्रत नहीं बना लिया था। उसके लिए यह एक नीति मात्र थी। 10 से 14 सितंबर, 1939 तक वर्धा में कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक हुई। गांधीजी ने पाया कि उनके
रुख का समर्थन करने वाला कोई नहीं है। गांधीजी के सुझाव पर इस बैठक में
सुभाषचन्द्र बोस, आचार्य नरेन्द्र देव और जयप्रकाश नारायण को भी आमंत्रित किया गया
था। राजेंद्र प्रसाद ने जिन्ना को वर्धा आने का न्योता देते हुए एक तार भेजा।
जिन्ना ने जवाब दिया कि कांग्रेस अध्यक्ष बाद में दिल्ली में उससे इस मामले पर बात
कर सकते हैं। बैठक में काफी मतभेद उभरे। गांधीजी मित्र राष्ट्रों के प्रति
सहानुभूति के पक्ष में थे। उनका कहना था, बिना शर्त अंग्रेजों को उनके युद्ध में
अपना समर्थन देना चाहिए, जो केवल नैतिक हो सकता था। समाजवादियों का तर्क था कि यह साम्राज्यवादी
युद्ध है। दोनों पक्ष अपने-अपने औपनिवेशिक स्वार्थों की रक्षा करने के लिए युद्ध
लड़ रहे हैं। इसलिए हमें किसी भी पक्ष का समर्थन नहीं करना चाहिए। इस समय कांग्रेस
का नैतिक कर्तव्य है कि वह स्थिति का फायदा उठाए और सिविल नाफ़रमानी आन्दोलन छेड़
दे। नेहरूजी इससे अलग मत रखते थे। उनका मानना था कि ब्रिटेन, पोलैण्ड और फ़्रांस का
पक्ष न्याय का पक्ष है। ब्रिटेन और साम्राज्यवादी देश हैं। यह युद्ध प्रथम विश्व
युद्ध के अंत के बाद से पूंजीवाद के गहराते हुए अंतर्विरोध का परिणाम है। इसलिए
भारत को आज़ाद होने के पहले न तो युद्ध में शामिल होना चाहिए और न ही ब्रिटेन की
कठिनाइयों का लाभ उठा कर सिविल नाफ़रमानी अन्दोलन छेड़ना चाहिए।
कांग्रेस कार्य-समिति के स्वीकृत प्रस्ताव में नाज़ी हमले
और नाज़ीवाद और फासीवाद की भर्त्सना की गई। नाज़ी आक्रमणकारियों के प्रतिरोध में लगे
राष्ट्रों से सहानुभूति व्यक्त करते हुए यह शर्त भी रख दी कि जिस स्वतंत्रता और
जनवाद की रक्षा के लिए भारत से सहायता मांगी जा रही है, उन्हें पहले भारत में लागू
किया जाए। अगर सहयोग चाहिए तो वह ज़बरदस्ती से नहीं, बल्कि सिर्फ़ बराबरी के आधार पर सहयोग से ही मिल सकता
है। 14 सितंबर, 1939 को कांग्रेस की वर्किंग या एग्जीक्यूटिव कमेटी ने एक घोषणापत्र जारी
किया, जिसमें पोलैंड में फासीवादी हमले की निंदा की गई, लेकिन यह भी याद दिलाया गया कि पश्चिमी लोकतंत्रों ने
मंचूरिया, एबिसिनिया, स्पेन और चेकोस्लोवाकिया में इसी तरह की घटनाओं को नज़रअंदाज़ किया था या
उनका विरोध नहीं किया था। आगे कहा गया कि पश्चिमी लोकतंत्रों को पहले अपना
साम्राज्यवाद छोड़ना होगा, तभी वे भरोसे के साथ यह दावा कर पाएंगे कि वे साम्राज्यवाद से लड़ रहे हैं, न कि सिर्फ अपने प्रतिद्वंद्वियों से। 'एक स्वतंत्र लोकतांत्रिक भारत हमले के खिलाफ आपसी रक्षा
और आर्थिक सहयोग के लिए खुशी-खुशी दूसरे स्वतंत्र देशों के साथ जुड़ेगा....' कमेटी ने भारतीय लोगों से संकट की उस गंभीर घड़ी में
एकजुट रहने की अपील की।
गांधीजी उस घोषणापत्र को तैयार करने वाली चार दिन की
चर्चा के दौरान मेहमान के तौर पर मौजूद थे। इसे अपनाने के बाद, उन्होंने टिप्पणी की, 'मुझे दुख हुआ कि मैं अकेला था जो यह सोच रहा था कि
अंग्रेजों को जो भी समर्थन दिया जाना चाहिए, वह बिना शर्त और अहिंसक तरीके से दिया जाना चाहिए।' गांधीजी को 'जैसे को तैसा' वाला प्रस्ताव पसंद नहीं आया; अगर आप भारत को आज़ाद करेंगे तो भारत लड़ेगा। गांधीजी
सशर्त अहिंसा में विश्वास नहीं रखते थे। लेकिन वे यथार्थवादी ज़रूर थे। उन्होंने
समझ लिया था कि वे अपने कांग्रेसी सहयोगियों को मौजूदा हालात में अहिंसा के मार्ग
पर लेकर नहीं चल सकते थे। इसलिए उन्होंने बुद्धिमत्ता और गरिमा के साथ ख़ुद को पीछे
कर लिया। उन्होंने कांग्रेसियों से कहा था, “जब आपको मेरी ज़रूरत होगी मैं आपके पास ही हूं। परन्तु
मैं आपकी नीति और कार्यक्रम का मार्गदर्शन अब नहीं कर सकता।” साथ ही राष्ट्र को सलाह दी कि वह मित्र राष्ट्रों के
युद्ध-प्रयासों में पूरी भागीदारी के कांग्रेस के प्रस्ताव का इस शर्त के साथ
अनुमोदन करें कि ब्रिटेन बिना किसी शर्त के भारत के आत्मनिर्णय के अधिकार को
मान्यता दे। गांधीजी ने कहा कि सवाल यह है: क्या ग्रेट ब्रिटेन एक अनिच्छुक भारत
को युद्ध में घसीटेगा या एक इच्छुक सहयोगी के साथ मिलकर सच्चे लोकतंत्र की रक्षा
के लिए काम करेगा?
26 सितंबर 1939 को हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स में बहस के दौरान, सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट ज़ेटलैंड ने
भारत की सभी राजनीतिक पार्टियों द्वारा पोलैंड में जर्मन हमले की निंदा का स्वागत
किया, लेकिन इस बात पर अफ़सोस जताया कि
कांग्रेस को युद्ध में सहयोग करने में मुश्किल हो रही थी, "सिवाय उन शर्तों के जो दोनों देशों
के बीच राजनीतिक संबंधों को प्रभावित करती हैं"। वायसराय लिनलिथगो ने कार्यसमिति के प्रस्ताव को कोई सकारात्मक रुख नहीं दिखाया। उसने एक सलाहकार समिति
गठित्त कर दी जिससे सरकार जब ज़रूरी समझे राय ले सकती थी। उसने यह भी आश्वासन दिया
कि युद्ध के बाद सरकार विभिन्न हितों के प्रतिनिधियों से इस विषय पर बातचीत करेगी
कि 1935 के अधिनियम में क्या संशोधन किए
जाएं। राष्ट्रवादी मांग को निरस्त करने के लिए और भारतीय जनमत को विभाजित करने के
लिए अंग्रेज़ों ने मुसलिम लीग का सहारा लिया। लीग को मुसलमानों का प्रवक्ता मान
लिया गया। उसे ‘वीटो’ का अधिकार दे दिया गया। ब्रिटेन के विदेशमंत्री ने तो यहां
तक कह डाला कि “हिन्दुओं और
मुसलमानों के बीच मौज़ूद मतभेदों पर ज़ोर दिया जाए और कांग्रेस को विशुद्ध हिन्दू
संगठन घोषित कर दिया जाए।” देश भर में इस पर तीखी प्रतिक्रिया हुई। गांधीजी ने नाराजगी के स्वर में
कहा, “ब्रिटिश सरकार फूट डालो और राज करो
की पुरानी नीति अपना रही है। वायसराय की घोषणा यह दरसाती है कि ब्रिटेन के वश में
हो तो भारत में लोकतंत्र नहीं आ सकता। ... कांग्रेस ने रोटी की मांग की, पर उसे
दिया गया है पत्थर!”
पांच दिन बाद, वर्किंग कमेटी ने ब्रिटेन की मदद करने के खिलाफ वोट
दिया। उसने प्रांतों की कांग्रेस सरकारों को इस्तीफा देने का भी निर्देश दिया। कांग्रेस
वर्किंग कमेटी के प्रस्ताव के अनुसार 27 अक्टूबर को इस्तीफा देने वाली पहली
कांग्रेस सरकार मद्रास की थी, जिसके मुखिया राजगोपालाचारी थे। गोविंद बल्लभ पंत के नेतृत्व वाली यूनाइटेड
प्रोविंसेज मिनिस्ट्री ने 30 अक्टूबर को इस्तीफा दे दिया। बिहार और बॉम्बे में
कांग्रेस मंत्रालयों ने, जिनके प्रमुख क्रमशः श्रीकृष्ण
सिन्हा और बी. जी. खेर थे, 31 अक्टूबर को अपना इस्तीफा दे
दिया। बिश्वनाथ दास के नेतृत्व वाले उड़ीसा मंत्रालय ने 4 नवंबर को इस्तीफा दे
दिया। डॉ. खान साहब के नेतृत्व में N.W.F.P. के मंत्रियों ने 7 नवंबर को अपना इस्तीफ़ा दे दिया, और सेंट्रल प्रोविंसेज की
मिनिस्ट्री ने 8 नवंबर को इस्तीफ़ा दे दिया। असम में, 16 नवंबर को कांग्रेस के नेतृत्व
वाली गठबंधन सरकार ने इस्तीफा दे दिया।
गांधीजी और राजेंद्र प्रसाद ने वायसराय से बातचीत में
उन पर ज़ोर डाला कि वे कांग्रेस द्वारा उठाए गए मुख्य मुद्दे, यानी ब्रिटिश युद्ध के लक्ष्यों को
स्पष्ट करने के बारे में ब्रिटिश सरकार का रुख साफ करें। गांधीजी ने सलाह दी कि
कांग्रेसियों को फिलहाल कांग्रेस संगठन को मज़बूत करने पर काम करना चाहिए, और सांप्रदायिक एकता, हरिजन उत्थान और चरखा चलाने के काम
में खुद को लगाना चाहिए। 8 नवंबर को गांधीजी ने एक बयान में कहा: जैसा कि मैं
वायसराय की ईमानदारी पर विश्वास करता हूँ, मैं अपने साथी कार्यकर्ताओं से
आग्रह करूँगा कि वे धैर्य न खोएँ। तब तक कोई सविनय अवज्ञा आंदोलन नहीं हो सकता, जब तक, पहला, वायसराय समझौते की संभावनाएँ तलाश
रहे हैं, दूसरा, मुस्लिम लीग रास्ते में रुकावट डाल रही है, और तीसरा, कांग्रेस की कतारों में
अनुशासनहीनता और फूट है। . . . जब तक मुस्लिम लीग के साथ कोई काम करने लायक समझौता
नहीं हो जाता, तब तक सविनय प्रतिरोध का मतलब लीग के खिलाफ प्रतिरोध होगा। कोई भी कांग्रेसी
इसका हिस्सा नहीं बन सकता।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय आन्दोलन
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