गुरुवार, 23 अक्टूबर 2025

362. ग्रामोद्योग-संघ की स्थापना

राष्ट्रीय आन्दोलन

362. ग्रामोद्योग-संघ की स्थापना



1934

गांधीजी ने कांग्रेस से रिटायरमेंट ले लिया और गांव के उद्योगों और दूसरे रचनात्मक कामों को फिर से शुरू करने और उन्हें आगे बढ़ाने में दोगुने जोश और जोश के साथ लग गए। उन्होंने वर्धा के सत्याग्रह आश्रम में अपना घर बना लिया और उसे कामों का अड्डा बना दिया। अक्तूबर 1934 की बंबई कांग्रेस ने जहाँ गांधीजी के इस्तीफे को मंजूर किया, वहीं उनके निर्देशन में अखिल भारत ग्रामोद्योग संघ की स्थापना का प्रस्ताव भी पास किया। इस तरह 26 अक्तूबर को ग्रामोद्योग-संघ की स्थापना हुई। ग्रामोद्योग संघ कांग्रेस की राजनैतिक हलचल से परे रहकर ग्रामोद्योग की रक्षा और उन्नति एवं गांवों के नैतिक तथा आर्थिक उत्थान के लिए काम करने के उद्देश्य से बनाई गई थी।

1915 में भारतीय राजनीति में प्रवेश करने के बाद से ही गांधीजी गाँवों के प्रति नया दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता पर ज़ोर देते आ रहे थे। ज़मीन पर बेहद दबाव और सहायक उद्योगों के अभाव के कारण गाँवों में कभी छः तो कभी बारहों महीने बेकारी बनी रहती थी। किसानों की यह घोर दरिद्रता गांधीजी को एक क्षण भी चैन नहीं लेने देती थी। चरखे से किसानों को तात्कालिक राहत मिल जाती थी, इसीलिए गांधीजी उसका काफी समर्थन और प्रचार करते थे। इस संस्था ने दस वर्षों में अपना कारोबार खूब बढा लिया था। 5300 गाँवों में इसकी शाखाएं थीं और इसने कुल मिलाकर 2,20,000 कताई करनेवालों, 20,000 बुनकरों और 20,000 धुनकरों को रोज़ी रोटी दी थी और गाँवों में दो करोड रुपए से भी ज्यादा का भुगतान किया था।

गांधीजी गांवों के प्रति नया दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता पर ज़ोर देते थे। वे गांवों की बेकारी और दरिद्रता से दुखी रहते थे। इसे दूर करने के उपाय सोचते रहते थे। अखिल भारतीय चरखा संघ की स्थापना से किसानों को तात्कालिक राहत तो मिल ही जाती थी। लेकिन यह काम समुद्र में बूंद की तरह था। देश की 85 प्रतिशत जनता गांव में रहती थी। इसलिए उनका आर्थिक और सामाजिक पुनरुत्थान देश को विदेशी शासन से मुक्त करने की आवश्यक शर्त थी।

गांधीजी के अस्पृश्यता-निवारण के कार्यक्रम का एक आर्थिक पहलू भी था। हरिजनों की आर्थिक स्थिति को उन्नत किए बिना उनका उद्धार असंभव ही था। इस दृष्टि से भी ग्रामोद्योगों का पुनर्विकास गांधीजी के निकट अत्यंत आवश्यक और अपरिहार्य हो गया था। 14 दिसंबर को वर्धा में बिना किसी शोर-शराबे के, धूल भरे माहौल में ऑल-इंडिया विलेज इंडस्ट्रीज एसोसिएशन का जन्म हुआ। इसका श्रेय जमनालाल बजाज को जाता है, जिन्होंने एसोसिएशन के इस्तेमाल के लिए बिल्डिंग्स के साथ काफी ज़मीन अलग रखी। पहले मैनेजमेंट बोर्ड के खास सदस्यों में ऑर्गनाइज़र और सेक्रेटरी जे. सी. कुमारप्पा, डॉ. प्रफुल्ल घोष, शंकरलाल बैंकर और डॉ. खान साहिब थे। बोर्ड की लिस्ट में ये सलाहकार थे: रवींद्रनाथ टैगोर, सर जे. सी. बोस, सर पी. सी. रे, सर सी. वी. रमन, डॉ. अंसारी और दूसरे।

गांधीजी जो कहते थे सबसे पहले स्वयं उसपर आचरण करके दिखाते थे। वह वर्धा से थोडी दूर सेवाग्राम में रहते थे। यह बहुत ही छोटा और पिछडा हुआ गाँव था। सेवाग्राम गांधीजी के ग्राम-कल्याण योजनाओं का केन्द्र तो था ही, अखिल भारतीय ग्रमोद्योग संघ का प्रधान कार्यालय भी मगनवाड़ी (वर्धा) में रखा गया। कम पूँजी और सिर्फ गाँव  की ही मदद से चल सकने वाले उद्योगों की सहायता, विकास और विस्तार के लिए यहां पर एक प्रशिक्षण केन्द्र भी खोला गया।

भारत के सात लाख गाँवों को गरीबी, बीमारी और अज्ञान के अभिशापों से मुक्त करना आसान काम नहीं था। इसके लिए विभिन्न क्षेत्रों में निरंतर काम करते रहने की ज़रूरत थी। गांधीजी जानते थे कि शहर के बुद्धिजीवी वर्ग की सक्रिय सहायता के बिना गाँवों का उद्धार असंभव है। इसलिए उन्होंने कांग्रेस को अपने वार्षिक अधिवेशन गांवों में करने की सलाह दी। फैजपुर, हरिपुरा, त्रिपुरी आदि कांग्रेस अधिवेशन इस दिशा में सराहनीय कदम था। हर समस्या को गांधीजी गांव की आवश्यकता और ग्रामीणों के दृष्टिकोण से देखते-समझते थे। उसका ग्रामोपयोगी हल खोजते थे। ग्रामोत्थान श्रम-साध्य और समयसाध्य कार्य है। इसमें सतत लगे रहना पड़ता है।

गांधीजी कहते थे कि स्वदेशी का मतलब यही नहीं है कि वस्तु-विशेष देश में बनी हुई हो, बल्कि वह गाँव की बनी हुई होनी चाहिए। शहर द्वारा गाँव के शोषण को गांधीजी ने हिंसा का ही एक रूप माना था। उन्होंने नगरवासियों से अनुरोध किया कि वे अपने दैनिक उपभोग की वस्तुओं को ध्यान से देखें कि उनमें कौन स्वदेशी और कौन विदेशी है और एक-एक करके उन्हें गाँव की बनी चीज़ों से बदलते चले जाएं। गाँव की बनी चीजें कुछ महँगी हो सकती हैं, लेकिन उनकी मजदूरी और मुनाफा भी तो गांववालों को ही मिलेगा, जिन्हें रोज़ी-रोटी की इतनी अधिक आवश्यकता है। उनका मानना था कि शहर और गाँव के बीच के आर्थिक और सामाजिक अंतर को मिटाना ही होगा।

गांधीजी के कई सहयोगियों का कहना था कि ऐसे निरापद काम से स्वाधीनता-प्राप्ति के लक्ष्य में क्या सहायता मिल सकती है? यह तो मुख्य राजनैतिक सवाल को उलझन में डालकर गौण समस्याओं की ओर राष्ट्र का ध्यान आकर्षित करना हुआ। गांधीजी ने इसका जवाब दिया थामेरी समझ में नहीं आता कि जब सरकार की आर्थिक नीतियों का ऊहापोह राजनैतिक काम माना जा सकता है तो ग्रामोत्थान की अत्यंत आवश्यक समस्याओं पर सोचना-विचारना और उनका हल खोजना राजनैतिक क्यों नहीं है?”

कुछ लोग गांधीजी की आलोचना करते हुए कहते कि गांधीजी अपनी पिछड़ी सोच के तहत विज्ञान और उद्योग की प्रगति से मुंह मोड़कर जिस आदिकालीन अर्थ-नीति की सिफ़ारिश कर रहे हैं, वह तो देश को ग़रीबी के गड्ढे से कभी उबरने ही नहीं देगी। पश्चिमी टेक्नॉलोजी या पश्चिमी बाजार का जब महात्मा गांधी विरोध करते थे, उसे पिछड़ी सोच की निशानी नहीं कहा जा सकता।  गांधीजी कहा करते थे, ‘मास प्रोडक्शन’ और ‘प्रोडक्शन फ़ॉर दि मासेज़’ में बड़ा अन्तर है। मुक्त उद्यम में बड़े पैमाने पर उत्पादन तो ज़रूर होता है, लेकिन यह अमीरों को और अमीर और ग़रीबों को और ग़रीब बना देता है। वह मशीनों के विरोध में नहीं थे। चरखा भी तो एक मशीन ही था। वह उस यंत्र का उपयोग चाहते थे जो जनता को लाभ पहुंचाने वाला हो।

गांधीजी के लिए स्वराज और आजादी का मतलब सिर्फ मानचित्र पर एक अलग मुल्क का होना भर नहीं था। वह चाहते थे देश भी आजाद हो और देश के लोगों की सोच भी आजाद हो।  इसीलिए वह ग्रामोद्योग को बढ़ावा देने, देश के अंदर बने उत्पाद को ज्यादा से ज्यादा बढ़ावा देने की बात करते थे।

यह उनका पश्चिमी तकनीकों के खिलाफ सत्याग्रह था। उनकी सोच थी कि अगर हम पश्चिम तकनीकों और बाजार से जुड़े रहेंगे तो फिर लोगों को अपनी अहमियत और मौलिकता का आभास नहीं होगा, जो किसी भी स्वतंत्र समाज के लिए पहली जरूरत होती है। जब गांधीजी पश्चिमी तकनीकों का विरोध करते थे तब वह उनसे नफरत नहीं करते थे और न उन्हें खारिज करते थे। वह कहते थे हमारे लिए वह न जरूरी है न प्रासंगिक।

अंग्रेजों की एक साजिश भी थी कि वह हमें मशीनों पर इस तरह निर्भर करें जिससे हम कभी उबर नहीं पाए। हमारे हुनर और कारोबार को समाप्त कर दिया गया था। गांधीजी ने इस चुनौती को पहले ही भांप लिया। उन्होंने लोगों के बीच पश्चिमी तकनीक के विरोध को अस्मिता से जोड़ा। लोगों में राष्ट्रीय भावना को जगाया। गांधीजी का यह भी मानना था कि मशीन इंसान के सोच को नियंत्रित करती है, एक सीमा में बांधती है। वह मशीन पर निर्भरता को खुली सोच में सबसे बड़ी बाधा भी मानते थे।

आदर्श भारतीय गाँव की गांधीजी की कल्पना एक ऐसे ‘गणतन्त्र’ की थी, जो अपनी मुख्य आवश्यकताओं के लिए पडोसियों पर निर्भर न हो। गांधीजी के अहिंसात्मक समाज के आदर्श का मूलाधार राजनैतिक सत्ता का विकेन्द्रीकरण था। गांधीजी की राय में अहिंसात्मक समाज का संगठन इस प्रकार से किया जाए कि आंतरिक असमानताओं और तनावों को समाप्त किया जा सके। कारखानों की सभ्यता पर अहिंसात्मक समाज का निर्माण नहीं किया जा सकता। केवल आत्म-निर्भर गांवों पर ही उसका निर्माण हो सकता है। गांधीजी कहते थे, ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था की जो मेरी कल्पना है, उसमें शोषण के लिए कोई स्थान नहीं है। इसलिए हिंसा भी नहीं है। क्योंकि शोषण से हिंसा का उदय होता है। इसलिए अहिंसामूलक होने से पहले ग्राममूलक होना ज़रूरी है।

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मनोज कुमार

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संदर्भ : यहाँ पर

 

मंगलवार, 21 अक्टूबर 2025

361. गांधीजी का कांग्रेस से अलग होना

राष्ट्रीय आन्दोलन

361. गांधीजी का कांग्रेस से अलग होना


1934

गांधीजी की गतिविधियों और बातों से यह अफवाह फैल गई कि वह कांग्रेस को पूरी तरह से छोड़ने का इरादा रखते हैं। उन्होंने इसकी पुष्टि भी की और वर्धा, 17 सितंबर, 1934 को लिखे एक लंबे बयान में इसके कारण भी बताए। "यह अफवाह सच थी कि मैंने कांग्रेस से सारे संबंध तोड़ने के बारे में सोचा था। वर्किंग कमेटी और पार्लियामेंट्री बोर्ड की मीटिंग के दौरान वर्धा आए मेरे दोस्तों के कहने पर, मैं उनसे सहमत था कि मेरे लिए कांग्रेस छोड़ना ज़्यादा सुरक्षित होगा। पंडित गोविंद बल्लभ पंत और रफी अहमद किदवई ने एक बीच का रास्ता सुझाया था, कि संगठन के किसी भी सक्रिय प्रशासन में हिस्सा लिए बिना कांग्रेस में ही रहा जाए, लेकिन सरदार वल्लभभाई पटेल और मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने उस रास्ते को पूरी तरह से मना कर दिया था। सरदार वल्लभभाई पटेल मुझसे सहमत थे कि मेरे लिए कांग्रेस से रिटायर होने का समय आ गया है, लेकिन कई दूसरे लोग इस बात से सहमत नहीं थे। सभी फायदे और नुकसान पर ठीक से सोचने के बाद, मैंने आखिरी कदम को कम से कम अक्टूबर में कांग्रेस की मीटिंग के बाद तक टालने का सुरक्षित और समझदारी भरा रास्ता अपनाया है। कांग्रेस के बहुत बड़े बुद्धिजीवी मेरे तरीके और विचारों, और उन पर आधारित प्रोग्राम से थक चुके थे। मैं कांग्रेस की प्राकृतिक वृद्धि में मदद करने के बजाय रुकावट था। सबसे ज़्यादा प्रजातंत्रिक और प्रतिनिधि संगठन बने रहने के बजाय, उस पर मेरा व्यक्तित्व हावी था। उसमें तर्क करने की आज़ादी नहीं थी।

गांधीजी को यह विश्वास हो गया था कि उनके कुछ अनुयायियों को उनके तरीक़ों से अरुचि हो गई है। कई कांग्रेसियों और गांधीजी के नज़रिए में एक बढ़ता हुआ और बहुत बड़ा अंतर था। ऐसा उनका मानना था कि सहमत न होते हुए भी वे उनकी नीतियों को स्वीकार करने का बहाना करते हैं। कांग्रेस पर उनका व्यक्तित्व इस कदर छा गया है कि उसके जनवादी काम करने में बाधा पहुंचती है। यह उचित नहीं है।

दृष्टिकोण संबंधी मतभेद तो कई और थे। सविनय अवज्ञा आंदोलन के स्थगित होने से मतभेदों ने उग्र रूप धारण कर लिया था। असहयोग आन्दोलन का जन्मदाता होने के बावजूद, गांधीजी को पूरा यकीन था कि देश के मौजूदा हालात में और सिविल रेजिस्टेंस की कोई आम स्कीम न होने पर, कांग्रेस के अंदर एक पार्लियामेंट्री पार्टी कांग्रेस के बनाए किसी भी कार्यक्रम का ज़रूरी हिस्सा है, लेकिन इस बात पर कांग्रेसजनों के बीच बहुत ज़्यादा मतभेद थे। कई कांग्रेसी निराश हो गए थे।

अस्पृश्यता निवारण के संबंध में गांधीजी के नैतिक और धार्मिक दृष्टिकोण को उनके बहुत से अनुयायी सही नहीं मानते थे। छुआछूत पर भी, गांधीजी के सोचने का तरीका शायद कई कांग्रेसियों से अलग था। उनके लिए, यह एक बहुत ही धार्मिक और नैतिक मुद्दा था। कई लोग मानते थे कि इस सवाल को इस तरह उठाकर सिविल प्रतिरोध संघर्ष के रास्ते में रुकावट डालना उनकी बहुत बड़ी गलती थी।

जब गांधीजी ने चरखा चलाने पर फिर से ज़ोर देना शुरू किया और उसे राष्ट्र का दूसरा फेफडा कहा तो उनके अनेक सहयोगियों को उनकी यह बात भी उचित नहीं लगी। गांधीजी का मानना था कि हम इसलिए खत्म हो रहे हैं क्योंकि हम सिर्फ़ एक फेफड़ा इस्तेमाल कर रहे हैं, और फिर भी कुछ ही कांग्रेसियों को पूरे भारत में चरखे की ताकत पर भरोसा है।

हलाकि सोशलिस्ट ग्रुप बनने का उन्होंने स्वागत किया था, फिरभी उदीयमान समाजवादी गुट को वे खुद ही अविश्वास की दृष्टि से देखते थे। उन्हें जल्दबाज़ों की टोली कहते थे।

कांग्रेस के बुद्धिजीवी वर्ग और उनके विचारों में सबसे अधिक अंतर था अहिंसा के प्रश्न को लेकर। लगातार पन्द्रह वर्षों तक सिखाने और आचरण करने के बाद भी अपने को गांधी मतावलंबी कहने वाले लोग  अहिंसा को न तो ठीक से समझ पाए थे और न ही अपना सके थे। सामूहिक सविनय अवज्ञा आम कांग्रेस-जन को ज़रूर पसंद आई थी, लेकिन वह तो गांधीजी की अहिंसात्मक कार्यप्रणाली का सिर्फ एक अंग थी।

गांधीजी ने पटना में सिविल रेजिस्टेंस को रोकने की सिफारिश की थी और सिविल रेजिस्टेंस के साफ नतीजे हासिल न कर पाने की नाकामी की ओर ध्यान दिलाया था। उनका मानना था कि न ही हम आतंकवादियों को यह दिखा पाए कि हमें अपनी अहिंसा पर उनकी हिंसा से ज़्यादा भरोसा है। इसके उलट, हममें से कई लोगों ने उन्हें यह महसूस कराया कि हमारे दिलों में भी वैसी ही हिंसा की भावना है जैसी उनके दिलों में है। हमारी सोच, बात और काम में पूरी तरह अहिंसा नहीं रही।

रचनात्मक कार्यक्रम उसका दूसरा पहलू था, जिसे अधिकांश कांग्रेसजन अराजनैतिक समझते थे। कांग्रेस ने अपने विधान में शांतिपूर्ण और उचित उपायों द्वारा स्वराज्य की प्राप्ति शब्द डाल दिए थे। गांधीजी के सत्यतापूर्ण और अहिंसक शब्दों को उड़ा दिया गया था। गांधीजी को लगने लगा कि उनका व्यक्तित्व एक दुःस्वप्न का काम कर रहा है और कांग्रेस में विचार-स्वातंत्र्य का गला घोंट रहा है।

इन मतभेदों के कारण अक्तूबर, 1934 में गांधीजी कांग्रेस से अलग हो गए। उन्होंने पटेल को कहा था, मैं कांग्रेस को आज़ाद कर रहा हूं, और अपनी इच्छानुसार काम करने के लिए ख़ुद आज़ाद हो रहा हूं। ... मैं नाराज़ होकर, तैश में आकर या निराशा के कारण पृथक नहीं हो रहा हूँ। वे अकसर कहते थे, मैं तो अब पार्टी का चवन्निया सदस्य तक नहीं हूं। वह कांग्रेस को आज़ाद कर रहे थे और अपनी इच्छानुसार काम करने के लिए खुद आज़ाद हो रहे थे। उसके बाद के तीन वर्षों तक उन्होंने राजनैतिक कार्यों में नहीं, ग्रामीण अर्थव्यवस्था के अध्ययन, मनन और ग्रामोद्धार के काम में लगाए।

बै. त्रिकमदास ने गांधीजी से कहा, समाजवादियों ने कांग्रेस छोड़ने का तय किया है गांधीजी ने कहा था, 'मेरा उपवास समाप्त होने तक कांग्रेस में बने रहो। सम्भव है कि शायद मैं ही तुम्हारे पक्ष में शामिल हो जाऊँ।

लेकिन कांग्रेस उन्हें अकेला छोड़ने का जोखिम नहीं उठा सकती थी।

बम्बई कांग्रेस

अक्तूबर 1934 की बंबई कांग्रेस ने गांधीजी के कांग्रेस से इस्तीफ़े को मंजूर कर लिया। इसके साथ ही इस अधिवेशन में गांधीजी के निर्देशन में अखिल भारतीय ग्रामोद्योग संघ की स्थापना का प्रस्ताव भी पास कर दिया। गांधीजी का कांग्रेस से रिटायर होने का इरादा सिर्फ एक नए अध्याय की शुरुआत थी; वह बड़े रचनात्मक काम शुरू करना चाहते थे। कांग्रेस दिशा-निर्देश के लिए गांधीजी की तरफ देखती थी और आज़ादी पाने के लिए सत्याग्रह के तरीके पर टिके रहने का इरादा रखती थी। राजेंद्र प्रसाद ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा: "तरीका बिल्कुल साफ है। यह एक्टिव, डायनामिक, अहिंसक, मास एक्शन है। हम एक बार फेल हो सकते हैं, हम दो बार फेल हो सकते हैं, लेकिन हम किसी दिन सफल होंगे ही। कई लोगों ने अपनी जान गंवाई है। और भी कई लोगों ने आज़ादी की लड़ाई में अपनी कुर्बानी दी है। हमें उन मुश्किलों से डरना नहीं चाहिए जो हमारे सामने हैं और न ही डर या एहसान से अपने सीधे रास्ते से भटकना चाहिए। हमारे हथियार अद्वितीय हैं और दुनिया इस बड़े प्रयोग की प्रगति को दिलचस्पी और बड़ी उम्मीदों के साथ देख रही है।"

'ग्रामोद्योग-संघ कांग्रेस की राजनैतिक हलचल से परे रहकर' ग्रामोद्योग की रक्षा और उन्नति एवं गाँवों के नैतिक तथा आर्थिक उत्थान के लिए काम करने के उद्देश्य से बनाई गई थी। गांधीजी अपनी और कांग्रेस की गति-विधियों को जो नई दिशा दे रहे थे, यह प्रस्ताव उसी का सूचक था।

28 अक्टूबर को, सेशन के आखिरी दिन, एक दिल को छू लेने वाला दृश्य था जब गांधी कांग्रेस से अपना आधिकारिक संबंध तोड़ने के लिए पंडाल में आए। 80,000 लोगों की पूरी ऑडियंस एक आदमी के सामने खड़ी हो गई और महान लीडर के प्रति अपना सम्मान दिखाया। उन पर भरोसे का एक प्रस्ताव पास किया गया: "यह कांग्रेस महात्मा गांधी की लीडरशिप में अपना भरोसा दोहराती है और... उनके फैसले को बिना मन के स्वीकार करते हुए, देश के लिए उनकी खास सेवाओं के लिए अपना गहरा आभार दर्ज करती है और उनके इस भरोसे को तसल्ली के साथ नोट करती है कि जब भी ज़रूरत होगी, कांग्रेस को उनकी सलाह और गाइडेंस मिलेगी।"

गांधी ने कहा, "कांग्रेस संगठन में मेरी दिलचस्पी अब से दूर से देखने और उन सिद्धांतों को लागू करने तक ही सीमित रहेगी जिनके लिए कांग्रेस खड़ी है। अगर हम पूरी तरह से सच बोलना चाहते हैं, तो हमें यह मानना ​​होगा कि कांग्रेस के प्रोग्राम का मुख्य हिस्सा धीरे-धीरे सामाजिक, नैतिक और आर्थिक रहा है। और यह एक शक्तिशाली प्रोग्राम इसलिए बनता है क्योंकि यह ज़रूरी तौर पर राजनीतिक से जुड़ा है, यानी देश को विदेशी गुलामी से आज़ादी दिलाना, न कि विदेशी दोस्ती से, यानी विदेशी देशों के साथ पूरी बराबरी की शर्तों पर अपनी मर्ज़ी से मेलजोल। मैं एक चेतावनी भी देना चाहता हूँ। मुझे उम्मीद है कि कोई यह नहीं सोचेगा कि खद्दर क्लॉज़ और लेबर फ्रैंचाइज़ तुरंत लागू नहीं होंगे। वे होते हैं। मैं लापरवाही का दोषी हूँ क्योंकि मैंने पहले इन बातों पर ज़ोर नहीं दिया था ताकि उन्हें सिविल नाफ़रमानी शुरू करने की एक शर्त बनाया जा सके। कांग्रेस से मेरा रिटायरमेंट उस लापरवाही का प्रायश्चित माना जा सकता है, हालाँकि यह पूरी तरह से अनजाने में हुई थी। मेरा मकसद सिविल नाफ़रमानी की क्षमता का विकास करना है। ऐसी नाफ़रमानी जो पूरी तरह से सिविल को कभी भी बदले की भावना नहीं जगानी चाहिए।"

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मनोज कुमार

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