रविवार, 21 दिसंबर 2025

404. कांग्रेस समाजवादी पार्टी

राष्ट्रीय आन्दोलन

404. कांग्रेस समाजवादी पार्टी

प्रवेश

1933 के शुरू होने के साथ-साथ सविनय अवज्ञा आंदोलन समाप्ति की ओर बढ़ रहा था। सविनय अवज्ञा आन्दोलन ने देश के लोगों में एक ऐसी आकांक्षा को जगा दिया था जिसे वह पूरा नहीं कर सका राष्ट्रीय राजनीति में यह अनिश्चय और निराशा का दौर था। कई युवकों को गांधीवादी नेतृत्व और रणनीति से मोह भंग हुआ था। वे समाजवादी विचारधारा से आकर्षित थे। विश्व युद्ध III के बीच भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में समाजवादी विचारधाराओं के विभिन्न स्वरूपों की संवृद्धि हुई जेल में रहते हुए कांग्रेस के भीतर के ही कुछ उत्साही नेता समाजवादी समूह की स्थापना का विचार प्रस्तुत करने लगे जो समूह कांग्रेस के भीतर रहकर ही संगठन को वामपंथ की ओर प्रेरित करता। इसकी परिणति कांग्रेस समाजवादी पार्टी की स्थापना के रूप में हुई। कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का मन्तव्य कांग्रेस से अलग होना नहीं था, अपितु 'इसका उद्देश्य कांग्रेस और राष्ट्रीय आंदोलन को समाजवादी दिशा प्रदान करना था' समाजवादी व्यवस्था में धन-सम्पत्ति का स्वामित्व और वितरण समाज के नियन्त्रण के अधीन रहते हैं। आर्थिक, सामाजिक और वैचारिक स्तर पर समाजवाद निजी सम्पत्ति पर आधारित अधिकारों का विरोध करता है। उसकी एक बुनियादी प्रतिज्ञा यह भी है कि संपत्ति का उत्पादन और वितरण समाज या राज्य के हाथों में होना चाहिए।

कांग्रेस समाजवादी पार्टी की स्थापना

गांधीजी के द्वारा राष्ट्रीय नेतृत्व को अपने हाथ में लेने के साथ ही अधिकांश युवा राष्ट्रीय आन्दोलन में सक्रिय हुए। असहयोग आन्दोलन को वापस लिए जाने से गांधीवादी नेतृत्व और रणनीति से इनका मोहभंग हुआ और समाजवादी विचारधारा की ओर ये आकर्षित हुए। 1920 के दशक के अंतिम दौर में इनमें से अधिकांश लोग युवा आन्दोलन में सक्रिय थे। दूसरे दशक के अंतिम वर्षों और तीसरे दशक के दौरान भारत में शक्तिशाली वामपक्ष का उदय हुआ था। इसमें शामिल युवाओं ने राष्ट्रीय आन्दोलन में मूलगामी परिवर्तन लाया। समाजवाद इन युवकों का मान्य विश्वास था। जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चन्द्र बोस इस विश्वास की प्रेरणा के प्रतीक थे। इन युवाओं ने मार्क्सवादी और समाजवादी विचारों का गहन अध्ययन किया था। ये वैसे तो मार्क्सवाद, कम्युनिज्म और सोवियत संघ के प्रति आकर्षित थे, लेकिन भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की वर्तमान धारा से सहमत नहीं थे। उनमें से अधिकांश किसी विकल्प की तलाश में थे। 1933 में जब सविनय अवज्ञा आन्दोलन को स्थगित किया गया तो जवाहरलाल नेहरू जेल में थे। जेल से अपनी पुत्री को लिखे गए पत्रों के द्वारा नेहरू समाजवादी विचारों के द्वारा अपना बौद्धिक जुझारूपन प्रदर्शित कर रहे थे। इन लेखों और पुस्तकों में, खासकर ‘व्हिदर इंडिया में उन्होंने गांधीजी से अपने सैद्धांतिक मतभेदों को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत किया। उन्होंने राष्ट्रीय लक्ष्यों को जुझारू सामाजिक और आर्थिक कार्यक्रमों के साथ जोड़ने की आवश्यकता पर बल दिया। जेल से छूटने का बाद नेहरू ने कांग्रेस के संविधानवादी रणनीति की आलोचना शुरू कर दी। उनके इस कार्य से समाजवादी विचारधारा को बल मिला। नेहरू ने गांधीजी को लिखा, मुझे ऐसा लगता है कि यदि हम आम जनता की आर्थिक आज़ादी चाहते हैं, तो देश के निहित स्वार्थी तत्त्वों को अपने विशेष पद और विशेषाधिकार छोड़ने होंगे। गांधीजी ने जवाब दिया, मैं आपसे पूरी तरह सहमत हूं। भारत किधर (ह्विदर इंडिया) शीर्षक लेखमाला द्वारा नेहरू ने बताया कि किन ऐतिहासिक कारणों से भारत आज ग़ुलामी और ग़रीबी की बेड़ियों में जकड़ा हुआ है। उनके अनुसार इससे मुक्ति का रास्ता समाजवाद ही है। नेहरू ने कांग्रेस के भीतर समाजवाद की वैचारिक आधार शिला रखी और फिर धीरे-धीरे समाजवादियों ने कांग्रेस के अन्दर ही अपने को पर्याप्त रूप से संगठित कर लिया था। हालाकि गांधीजी ने कहा था, नेहरू के कम्युनिस्ट विचारों से किसी को डरने ज़रुरत नहीं है, फिरभी अँग्रेज़ अधिकारियों ने नेहरू को ‘कम्युनिज्म का पुरोधा मानकर फिर से जेल भेज दियाभारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की वर्तमान धारा से असहमत और किसी विकल्प की तलाश कर रहे नासिक जेल में बंद कांग्रेस के कुछ नेता 1933 की दूसरी छमाही के दौरान आपस में मिले। ये थे जयप्रकाश नारायण, एम.आर. मसानी, अच्यूत पटवर्धन. एन.जी. गोरे, अशोक मेहता, चार्ल्स मैकर्नहास, यूसुफ़ मेहर अली, आदि इन्होंने एक स्पष्ट उत्साही समाजवादी समूह की स्थापना का विचार रखा। इस तरह कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के गठन का मसविदा तैयार किया गया। इसका मक़सद था कांग्रेस के भीतर ही रहकर संगठन को वामपंथ की ओर प्रेरित करना था। संपूर्णानंद ने अप्रैल 1934 में भारत के लिए एक कामचलाऊ कार्यक्रम की रूप रेखा तैयार की थी। 17 मई 1934 को नरेन्द्रदेव के सभापतित्व में पटना के अंजुमन-ए-इसलामिया हॉल की एक सभा में ‘कांग्रेस समाजवादी पार्टी’ (सी.एस.पी.) की स्थापना हो गई। इसकी स्थापना में जयप्रकाश नारायण, अच्युत पटवर्धन, अशोक मेहता, एस.एम. जोशी, यूसुफ़ मेहर अली, मीनू मसानी आदि ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई जवहरलाल नेहरू से इसका स्वागत किया लेकिन वे कभी औपचारिक रूप से सी.एस.पी. में शामिल नहीं हुए। समाजवादियों का कांग्रेस पर इतना ज़्यादा प्रभाव बढ़ा कि जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेन्द्र देव और अच्युत पटवर्धन को कांग्रेस कार्य-कारिणी का सदस्य मनोनीत किया गया। यह पार्टी कांग्रेस के भीतर ही रहना चाहती थे, लेकिन उसके नेतृत्व की कड़ी आलोचक थी। यह पार्टी गैर-कांग्रेसी वामपंथी समूहों के साथ सहयोग के लिए तैयार थी। सी.एस.पी. ने शुरू से ही अपने को कांग्रेस को रूपांतरित करने और साथ ही इसको मज़बूत करने के काम में लगाया

समाजवाद क्यों

सी.एस.पी. का गठन इस उद्देश्य से किया गया था कि देश की आर्थिक विकास की प्रक्रिया राज्य द्वारा नियोजित एवं नियंत्रित हो और राजाओं और ज़मींदारों का उन्मूलन बगैर मुआवजे के किया जाए। इस पार्टी के गठन के बाद कांग्रेस के चरित्र में आमूल-चूल परिवर्तन की प्रक्रिया ने ज़ोर पकड़ी। यह सही मायनों में कांग्रेस को जनसंगठन बनाने की प्रक्रिया थी। समाजवादी भारत में आधारभूत संघर्ष चाहते थे, स्वतंत्रता के लिए राष्ट्रीय संघर्ष पर एक जुट थे और समाजवाद तक पहुँचने के लिए उनके अनुसार राष्ट्रवाद आवश्यक अवस्था थी। वे मानते थे कि राष्ट्रीय आन्दोलन से कट जाना आत्मघाती क़दम होगा। उनके अनुसार कांग्रेस ही राष्ट्रीय आन्दोलन का प्रतिनिधित्व करती है। लेकिन उनकी चाहत थी कि कांग्रेस और राष्ट्रीय आन्दोलन को हर हालत में समाजवादी दिशा में ले जाना होगा। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए वे मानते थे कि मज़दूरों और किसानों को संगठित करना चाहिए। उनको राष्ट्रीय संघर्ष की बुनियाद बनाना चाहिए। सोशलिस्ट गांधीजी की बातचीत और समझौता की नीति के ख़िलाफ़ थे। वे ‘सतत संघर्ष’ के समर्थक थे। उन्हें ज़रूरत पड़ने पर हिंसक संघर्ष से कोई एतराज़ नहीं था। वे समाज के वर्गीय चरित्र को बार उजागर करते थे। वे समाजवादी और लोकतांत्रिक राष्ट्र का निर्माण करना चाहते थे जहां आय का समता वादी वितरण हो। समाजवादी विचारधारा के प्रचार-प्रसार में जयप्रकाश नारायण की पुस्तक समाजवाद क्यों? (ह्वाई सोशलिज़्म?) ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। जयप्रकाश नारायण चाहते थे कि कांग्रेस समाजवादी दृष्टि अपनाए और आर्थिक मुद्दों पर कांग्रेस का रुख किसानों और मज़दूरों के पक्ष में होना चाहिए। सांगठनिक क्षेत्र में भी वे कांग्रेस के अन्दर के साम्राज्यवाद विरोधी तत्त्वों को उसके तत्कालीन पूंजीवादी नेतृत्व से अलग करना चाहते थे और उन्हें क्रांतिकारी समाजवाद वाले नेतृत्व के अंतर्गत लाना चाहते थे। जल्द ही समाजवादियों को यह समझ में आ गया कि सांगठनिक स्तर पर जो परिवर्तन वे चाहते हैं वह संभव नहीं है। उन्होंने जल्द ही इस विचार को त्याग दिया। उन्होंने संयुक्त नेतृत्व का विकल्प अपनाया। इसका उन्हें 1939 में त्रिपुरा में और 1940 में रामगढ़ में सफलता भी मिली। जयप्रकाश नारायण ने कहा भी था, हम समाजवादी लोग नहीं चाहते कि कांग्रेस में गुटबाजी हो। हमारी चिंता का विषय कांग्रेस की नीतियाँ और कार्यक्रम मात्र हैं। साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष में हम सब कंधे से कंधा मिलाकर आगे बढ़ाना चाहते हैं। समय के साथ गांधीवादी विचारों का उदारवादी लोकतांत्रिक पक्ष समाजवादी पार्टी की सोच का आधारभूत तत्त्व बन गया। उस समय की वास्तविक स्थिति यह थी कि गांधीजी का कोई विकल्प भी नहीं था। इसलिए सी.एस.पी. ने कांग्रेस के नेतृत्व से इतना अधिक मतभेद नहीं बढाया कि वह टूटने के बिंदु तक पहुँच जाए।

सी.एस.पी. की प्रगति

संयुक्त प्रांत जैसे प्रान्तों में सी.एस.पी. की त्वरित प्रगति हुई। सुमित सरकार का मानना है कि ‘सी.एस.पी. के विस्तार के कारण कांग्रेसी कार्यकर्ता इस बात के लिए बाध्य हुए कि जुझारू कृषि सुधारों के मुद्दों, औद्योगिक मज़दूरों की समस्याओं, रजवाड़ों के भविष्य और जन-जागृति एवं संघर्ष के गैर-गांधीवादी तरीकों के प्रश्नों पर विचार करें।’ सी.एस.पी. के कार्यकर्ताओं ने बिहार और आंध्र के किसान सभा के आन्दोलन से घनिष्ठ संबंध बनाया। 33-34 में आंध्र के तटीय इलाकों में अनेक किसान यात्राओं का आयोजन किया गया। ज़मींदारी प्रथा के उन्मूलन की मांग की गयी। सी.एस.पी. के एन.जी. रंगा ने किसान कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण के लिए नीदुब्रोलु में एक ‘इन्डियन पेजेंट इंस्टीच्यूट की स्थापना की। वामपंथी झुकाव वाले राष्ट्रवादियों, समाजवादियों और कम्युनिस्टों के बीच एकता की नई संभावना अखिल भारतीय किसान सभा के गठन के रूप में अभिव्यक्त हुई। सहजानंद ने किसान सभा को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया और जल्द ही बिहार में बड़ी संख्या में किसानों को अपने साथ लाने में सफल रहे। सी.एस.पी. और कांग्रेस के भीतर काम करके कम्युनिस्ट वामपंथी रुझानवाले राष्ट्रवादियों के साथ अधिकाधिक संपर्क कर रहे थे1936 में जेल से छूटने के बाद एम.एन. राय भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गए। कुछ रायवादी जैसे चार्ल्स मैकर्नहॉस कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हो गए। लेकिन रायवादियों का समाजवादी पार्टी से बहुत से विषयों पर मतभेद बना रहा। बाद के दिनों में दोनों गुटों के मतभेद बढ़ता गया। 1940 में रायवादी इससे अलग होकर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल होने का फैसला किया। कांग्रेस से मतभेद होने और अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने के बाद सुभाष चंद्र बोस ने ‘फॉरवर्ड ब्लॉक’ की स्थापना की।

उपसंहार

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, कांग्रेस समाजवादी पार्टी, जवाहरलाल नेहरू, सुभाष चंद्र बोस और अन्य वामपंथी गुट एक आम राजनीतिक कार्यक्रम में भागीदार थे। विचारधारा के स्तर पर मतभेद के बावजूद इन लोगों ने साथ-साथ काम किया। इन लोगों ने भारतीय राजनीति में समाजवाद को ताक़तवर बनाया। इन्होंने साम्राज्यवाद का विरोध किया। किसान सभाओं और ट्रेड यूनियनों के रूप में मज़दूरों और किसानों को संगठित किया। चौथे दशक के मध्य तक सी.एस.पी. एक ऐसे सेतु के रूप में काम करती रही जिससे होकर जुझारू राष्ट्रवादी कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्ण मार्क्सवादी मार्ग पर जाते रहे। सी.एस.पी. ने समाजवादी समाज की स्वीकृति दिलाई। समाज को रूपांतरित करने के मक़सद से समाजवादी कार्यक्रम अपनाया। उपनिवेशवाद विरोधी और युद्ध विरोधी विदेश नीति अपनाई।

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मनोज कुमार

पिछली कड़ियां-  राष्ट्रीय आन्दोलन

संदर्भ : यहाँ पर

शनिवार, 20 दिसंबर 2025

403. कांग्रेस के अंदर का वाम पक्ष: सुभाषचन्द्र बोस

राष्ट्रीय आन्दोलन


403. कांग्रेस के अंदर का वाम पक्ष:     

सुभाषचन्द्र बोस

प्रवेश

राष्ट्रीय आंदोलन में लगातार वैचारिक बदलाव होते रहे। 1920 के दशक के आखिर और 1930 के दशक में, सुभाष चन्द्र बोस आंदोलन और राष्ट्रीय कांग्रेस को समाजवादी दिशा देने के लिए ज़ोरदार कोशिश की। 1920 के दशक के मध्य और अंतिम भाग में नई पीढ़ी में अशांति व्याप्त थी इसके कारण कई विद्यार्थी और युवा संगठनों का जन्म हुआ। ये संगठन कांग्रेस के दोनों गुट स्वराजियों और अपरिवर्तनवादियों के आलोचक थे। इनका नारा ‘पूर्ण स्वराज का हुआ करता था। इनका दृष्टिकोण साम्राज्य विरोधी था। इनमें अंतर्राष्ट्रीय प्रवृत्तियों की चेतना थी। वे राष्ट्रवाद को सामाजिक न्याय से जोड़े जाने की ज़रुरत महसूस करते थे। 1927 में जेल से रिहा होने के बाद सुभाष चन्द्र बोस (23 जनवरी 1897 - 18 अगस्त 1945) ने ऐसी ही ज़रुरत को अभिव्यक्ति दी। वे आंचलिक भावनाओं के समर्थक थे। इस कारण बंगाल के शहरी युवकों के बीच वह काफी लोकप्रिय थे। भारत की स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष में सुभाषचंद्र बोस की भूमिका का जब मूल्यांकन करते हैं तो हम पाते हैं कि यह बहुत ही महत्वपूर्ण थी

वामपंथ की ओर झुकाव

बहिष्कार आन्दोलन के तहत शिक्षा का बहिष्कार बंगाल में अधिक सफल रहा। सी.आर. दास ने आन्दोलन को बहुत प्रोत्साहित किया और सुभाष चंद्र बोस ‘नेशनल कॉलेज’ के प्रधानाचार्य बन गए। भारतीय सिविल परीक्षा में उत्तीर्ण होने के बावज़ूद भी उसे छोड़कर 1921 में इंग्लैण्ड से भारत लौटकर, बोस महात्मा गांधी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेतृत्व वाले राष्ट्रवादी आंदोलन में शामिल हो गए। उन्होंने कांग्रेस के भीतर जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व वाले समाजवाद से प्रभावित गुट का अनुसरण किया। 12 फरवरी 1922 को गांधीजी द्वारा असहयोग आन्दोलन वापस लिए जाने की खबर सुनकर बोस भौंचक्के रह गए। उन्हें यह समझ नहीं आ रहा था कि एक दूर-दराज़ के गाँव में कुछ लोगों की ग़लत हरकतों का खामियाजा पूरा देश क्यों भुगते। सुभाष चंद्र बोस ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उसे राष्ट्रीय विपत्ति माना और कहा था, यह राष्ट्र के दुर्भाग्य के सिवा कुछ नहीं था ... बोस को 1925 में राष्ट्रवादी गतिविधियों के लिए मांडले जेल भेज दिया गया था। 1927 में उन्हें रिहा कर दिया गया और वे कांग्रेस के महासचिव बने।

1927 में समूचे देश में साइमन कमीशन के बहिष्कार आन्दोलन में नौजवानों की लहर दिख रही थी इस नई लहर में नौजवानों और छात्रों के बीच से नेहरू के साथ बोस एक बड़े नेता के रूप में उभरे उन्होंने सारे देश का दौरा कर हज़ारों नौजवान सभाओं को संबोधित किया समाजवाद के नए क्रांतिकारी विचारों के अंकुरण के लिए उन्होंने लाभदायक भूमि तैयार की हालांकि समाजवादी सोच को लोकप्रिय बनाने में जवाहरलाल नेहरू की भूमिका निस्संदेह सबसे महत्वपूर्ण थी, लेकिन दूसरे समूहों और व्यक्तियों ने भी अहम भूमिका निभाई। सुभाष बोस ऐसे ही एक व्यक्ति थे, हालांकि समाजवाद के बारे में उनका विचार जवाहरलाल के जितना वैज्ञानिक और स्पष्ट नहीं था। अपने संबोधनों में उन्होंने साम्राज्यवाद, पूंजीवाद और ज़मींदारी प्रथा की आलोचना की समाजवादी विचारधारा को अपनाने की वकालत की उन्होंने ‘पूर्ण स्वराज’ को राष्ट्रीय आन्दोलन का लक्ष्य माना और इसे हासिल करने के लिए बल प्रयोग के पक्षधर थे। कलकत्ता में बोस ट्रेड यूनियनों के जमे हुए नेताओं की अनुपस्थिति का लाभ उठाकर श्रमिकों पर अपना प्रभाव जमाना चाहते थे 1928 में बोस ने जमशेदपुर के गोलमुरी टिन प्लेट प्लांट में हो रही श्रमिक आन्दोलन में अधिक रुचि दिखाई। बजबज में बोस ने उनकी सहानुभूति में एक हड़ताल का आयोजन किया। 1933 में जब गांधीजी ने सविनय अवज्ञा आन्दोलन को स्थगित किया, तो सुभाष बोस ने उनके नेतृत्व को अस्वीकार करते हुए यूरोप से वक्तव्य जारी किया था। सुभाष चंद्र बोस ने यूरोप से जारी किए एक कड़े बयान में 1933 में कहा था कि 'मिस्टर गांधी एक राजनीतिक नेता के तौर पर फेल हो गए हैं' और 'एक नए सिद्धांत और नई पद्धति के साथ कांग्रेस के रेडिकल पुनर्गठन' की मांग की थी, जिसके लिए एक नए नेता का होना ज़रूरी है। 1935 में राष्ट्रवादी राजनीति और ट्रेड यूनियन आंदोलन में वामपंथी प्रभाव एक बार फिर तेज़ी से बढ़ने लगा। कम्युनिस्टों, कांग्रेस सोशलिस्टों और जवाहरलाल नेहरू और सुभाष बोस के नेतृत्व वाले वामपंथी राष्ट्रवादियों ने अब कांग्रेस और अन्य जन संगठनों के भीतर एक शक्तिशाली वामपंथी गठबंधन बनाया। 1937 में सुभाष चन्द्र बोस ने कलकत्ता में श्रमिकों को एक होने, संगठित होने और कांग्रेस के साथ मिलकर कार्य करने का आह्वान किया था।

कांग्रेस के अध्यक्ष बने

तीसरे दशक के दौरान सारा विश्व महान आर्थिक मंदी में डूबा हुआ था इसलिए समाजवादी विचार काफी लोकप्रिय हुए पूंजीवादी व्यवस्था की प्रतिष्ठा को भारी धक्का लगा लोग समाजवाद की तरफ आकर्षित हो रहे थे उन दिनों बोस का कांग्रेस का अध्यक्ष चुनने में वामपक्ष की स्पष्ट झलक दिखाई देती है 1938 में कांग्रेस का अधिवेशन हरिपुरा (गुजरात) में हुआ। क्रांतिकारी चिंतन के लिए मशहूर सुभाष चन्द्र बोस कांग्रेस के अध्यक्ष बनाए गए। इससे समाजवादियों को बल मिलानेताजी सुभाष चन्द्र बोस, कांग्रेस के सबसे कम उम्र वाले अध्यक्ष थे। उनके प्रभाव से अनेक साम्यवादी जैसे इ.के. गोपालन, इ.एम.एस. नंबूदरीपाद कांग्रेस समाजवादी दल में आ गए। सुभाष ने संघीय योजना का विरोध किया। उन्होंने राष्ट्रीय योजना समिति नियुक्त की थी इस प्रकार उन्होंने राष्ट्रीय योजना, एकता और राष्ट्रीय संघर्ष के लिए लोक संगठन पर बल दिया। यह ब्रिटेन के समझौते के ख़िलाफ़ था। उन्होंने राष्ट्रीय संघर्ष का अह्वान किया। सुभाष की इस घोषणा से कांग्रेस के अंदर बेचैनी फैली। वामपंथी और दक्षिणपंथी शक्तियों में टकराहट अनिवार्य हो गई। यह घोषित किया गया कि पूर्ण स्वराज के अंतर्गत रजवाड़े और ब्रिटिश भारत, दोनों ही आते हैं। लेकिन यह भी स्पष्ट किया गया कि फिलहाल कांग्रेस रजवाड़ों में हो रहे जन आंदोलन को केवल नैतिक समर्थन और सहानुभूति ही दे सकती है। इनको कांग्रेस के नाम पर नहीं चलाया जाना चाहिए। एकीकरण की बात तो दूर, उत्तरदायी सरकार की मांग तक नहीं की गई थी। इसके अलावा कांग्रेस के अंदर से नेताओं द्वारा धर्मनिरपेक्षता पर अधिक ज़ोर से बल दिया जाने लगा।

फिर से अध्यक्ष पद के लिए खड़े होने का निर्णय

सुभाष काफी लोकप्रिय थे। उनकी लोकप्रियता कांग्रेस में ही कुछ नेताओं को खटकती थी। सुभाष चन्द्र बोस को सर्वसम्मति से 1938 में कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया था। 1939 में उन्होंने फिर से इस पद के लिए खड़े होने का निर्णय किया। 21 जनवरी 1939 को अपनी उम्मीदवारी पेश करते हुए, बोस ने कहा कि वह 'नए विचारों, विचारधाराओं, समस्याओं और कार्यक्रमों' का प्रतिनिधित्व करते हैं जो 'भारत में साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष के लगातार तेज होने' के साथ उभरे हैं। उन्होंने कहा कि राष्ट्रपति चुनाव अलग-अलग उम्मीदवारों के बीच 'निश्चित समस्याओं और कार्यक्रमों के आधार पर' लड़े जाने चाहिए। लोगों का ख़्याल था कि पारस्परिक सद्भाव के साथ सर्वसम्मत से अध्यक्ष का चुनाव हो जाएगा। गांधीजी का विचार था कि मौलाना आज़ाद को अध्यक्ष बनाया जाए। इससे साम्प्रदायिक समस्या को हल करने में मदद मिलेगी। मौलाना आज़ाद 1923 के एक विशेष सत्र के अध्यक्ष भी रह चुके थे। इसलिए गांधीजी ने दुबारा सुभाष बाबू को अध्यक्ष बनाने का प्रोत्साहन नहीं दिया। अध्यक्ष के मुद्दे को लेकर इस अधिवेशन के समय कांग्रेस के वामपंथी और दक्षिणपंथी गुटों में संघर्ष हुआ। कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी जैसे वामपंथी गुट के सदस्यों ने अध्यक्ष पद के उम्मीदवार के रूप में सुभाष चंद्र बोस का नाम आगे बढ़ाया और सुभाष ने उसे स्वीकार भी कर लिया। दक्षिणपंथी गुट की तरफ़ से सरदार पटेल, राजेन्द्र प्रसाद, जे.बी. कृपलानी और कांग्रेस कार्यसमिति के चार अन्य सदस्यों द्वारा मौलाना आज़ाद के नाम की घोषणा की गई। लेकिन दूसरे ही दिन बंबई से मौलाना आज़ाद ने सूचित किया कि कांग्रेस अध्यक्ष पद की उम्मीदवारी से वह अपना नाम वापस लेते हैं। पटेल और नेहरू शुरू से ही बोस की दावेदारी के विरुद्ध थे।  पटेल तो इसके विरुद्ध काफी मुखर भी थे। नेहरू को शायद अपनी स्थिति को बोस की उपस्थिति से चुनौती दिख रही थी। गांधीजी के सामने दुविधा की स्थिति थी। गांधीजी को लगा कि अगर बोस फिर से चुने जाते हैं, तो पार्टी टूट सकती है। उन्होंने अध्यक्ष पद के उम्मीदवार के तौर पर पट्टाभि सीतारमैय्या का नाम सुझाया। 29 जनवरी, 1939 को चुनाव हुए और गांधी जी की इच्छा के विरुद्ध भारी बहुमत (1580/1377) से सुभाष चन्द्र बोस को कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया। गांधीजी ने सीतारमैय्या की हार को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया और कहा, सुभाष के प्रतिद्वन्द्वी की हार मेरी हार है। अब दक्षिणपंथियों ने सुभाष के साथ सहयोग नहीं करने का निश्चय किया। उन्हें लग रहा था कि वे एक ऐसे अध्यक्ष के साथ काम नहीं कर सकते, जिसने उनके राष्ट्र-प्रेम पर सार्वजनिक रूप से लांछन लगाया हो। सुभाष बोस सरदार पटेल और कांग्रेस के अन्य प्रमुख नेताओं को दक्षिणपंथी करार देते हुए यह आरोप लगाते थे कि ये नेता सरकार से समझौते की कोशिश कर रहे थे और इन्होंने संभावित मंत्रियों की सूची भी तैयार कर रखी थी। 22 फरवरी को 15 में से 13 सदस्यों ने कार्यकारी समिति से यह कहते हुए त्यागपत्र दे दिया कि सुभाष ने सार्वजनिक रूप से उनकी आलोचना की है। नेहरू सुभाष से खुले आम मुठभेड़ नहीं करते थे, पर बोस से वे भी सहमत नहीं थे। जवाहरलाल नेहरू ने भी एक अन्य बहाने से त्यागपत्र दे दिया था। दरअसल सुभाष बोस राजनीतिक यथार्थ को अलग नज़रिए से देखते थे। उनका मानना था कि कांग्रेस संघर्ष शुरू करने की स्थिति में है और जनता उसका साथ देने के लिए तैयार है। उन्होंने अपने भाषण में कहा भी था कि ब्रिटिश सरकार को छह महीने का समय दिया जाए और इस अवधि में उसने भारत को आज़ाद नहीं किया तो सामूहिक सिविल नाफ़रमानी आंदोलन छेड़ दिया जाए। गांधीजी को लगता था कि संघर्ष का दूसरा दौर शुरू तो करना चाहिए लेकिन अभी अल्टिमेटम देने का समय नहीं आया है, क्योंकि कांग्रेस और जनता दोनों ही अभी इसके लिए तैयार नहीं हैं। एक तरफ़ साम्प्रदायिकता का तांडव हो रहा था, मज़दूरों और किसानों पर कांग्रेस की पकड़ ढीली हो चुकी थी, वहीं दूसरी तरफ़ कांग्रेस का जनाधार खिसकता जा रहा था, सत्तालोलुपता और भष्टाचार ने पार्टी को कमज़ोर कर दिया था। कांग्रेस का अन्तर्कलह त्रिपुरी कांग्रेस में उभरकर सामने आ गया। अध्यक्ष के रूप में बोस के चुनाव से कुछ भी हल नहीं हुआ, इसने कांग्रेस के त्रिपुरी सेशन में उबलते हुए संकट को और बढ़ा दिया।

त्रिपुरी अधिवेशन

त्रिपुरी अधिवेशन (8-12 मार्च) के समय सुभाष जी बीमार थे। गांधीजी राजकोट से अपना अनशन समाप्त कर लौटे थे। गोविंद वल्लभ पंत ने गांधीजी के नेतृत्व में विश्वास प्रकट किया गया। उन्होंने एक प्रस्ताव पेश किया जिसमें पुरानी कार्यसमिति, गांधीजी के नेतृत्व और 20 वर्षों से चली आ रही कांग्रेस की नीतियों में पूरी आस्था प्रकट की गयी थी और सुभाष बोस से कहा गया था कि वे गांधीजी की इच्छाओं के अनुसार अपनी कार्यसमिति बनाएं133 के मुक़ाबले 218 मतों से पास इस प्रस्ताव द्वारा सुभाषजी पर दवाब डाला गया कि वे गांधीजी की इच्छानुसार कार्यकारिणी का गठन करें। नेहरू ने इस प्रस्ताव का समर्थन किया। उन दिनों सुभाष से उनके निजी संबंध बहुत अच्छे नहीं थे। वामपंथी वर्ग ने भी प्रस्ताव का विरोध नहीं किया। जयप्रकाश नारायण ने भी एक मज़बूत कांग्रेस के नाम पर प्रस्ताव का विरोध नहीं किया। गांधीजी ने उस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया और सुभाष से कहा कि वे अपनी मर्ज़ी की कार्यसमिति बनाएंसुभाष गांधीजी की इच्छानुसार अपनी मर्ज़ी की कार्यकारिणी का गठन करने के लिए तैयार नहीं थे, वे सर्वसम्मत वर्किंग कमेटी चाहते थे। 3 फरवरी को ही उन्होंने घोषणा कर रखी थी, यदि मैं देश के महानतम व्यक्ति का विश्वास प्राप्त नहीं कर सकता, तो मेरी चुनावी जीत निरर्थक है।

कांग्रेस के अध्यक्ष पद से त्याग पत्र

सुभाष बोस तीन महीने तक प्रयास करते रहे कि एक सर्वसम्मत वर्किंग कमेटी का गठन हो सके। वे चाहते थे कि आने वाले संघर्ष का नेतृत्व तो गांधीजी ही करें, लेकिन संघर्ष की रणनीति सुभाष और वामपंथी दल तय करे। गांधीजी यह नहीं चाहते थे। गांधीजी ने सुभाष को लिखा, मैं पिछड़ चुका हूं और सत्याग्रह के सेनापति के रूप में मेरी भूमिका ख़त्म हो चुकी है। बोस को इसके सिवाय कोई रास्ता नहीं दिखाई पड़ रहा था कि वे इस्तीफ़ा दे दें। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक 29 अप्रैल 1939 को कलकत्ता में हुई। कांग्रेस की एकता बनाए रखने के लिए उन्होंने इस बैठक में कांग्रेस के अध्यक्ष पद से त्याग पत्र दे दिया। उनके स्थान पर कट्टर गांधीवादी और दक्षिणपंथी राजेन्द्र प्रसाद को लाया गया। इस तरह कांग्रेस एक और संकट से उबर गई।

फारवर्ड ब्लॉक की स्थापना

सुभाष चन्द्र बोस को समाजवादियों और कम्युनिस्टों का भी सहयोग नहीं मिला। ये लोग किसी भी क़ीमत पर राष्ट्रीय आन्दोलन की एकता को बचाए रखना चाहते थे। कम्युनिस्ट पार्टी ने एक वक्तव्य देकर कहा, साम्राज्यविरोधी संघर्ष एक पक्ष का ऐकांतिक नेतृत्व नहीं, बल्कि गांधीजी के मार्गदर्शन में संयुक्त नेतृत्व है। 3, मई को सुभाष और उनके समर्थकों ने कांग्रेस के अंदर ही एक नए दल फारवर्ड ब्लॉक की स्थापना की घोषणा की। शुरू में उनका विचार कांग्रेस के भीतर रहकर कार्य करने और विभिन्न वामपंथी समूहों को एक करने का था, जिसके लिए फारवर्ड ब्लॉक ने जून 1939 में ‘वामपंथी एकजुटता समिति’ की स्थापना की। इसके लिए उन्हें साम्यवादियों का सहयोग मिला। लेकिन जयप्रकाश नारायण जैसे कांग्रेस समाजवादी दल के नेताओं ने उनके कार्यों का विरोध किया। कांग्रेस के भीतर सुभाष की शक्ति को समाप्त कर देने की चाल चली गई। पटेल ने कमेटी में एक प्रस्ताव पारित करवा लिया था कि प्रदेश कांग्रेस कमेटियों की पहले अनुमति लिए बिना कांग्रेस का कोई भी सदस्य सविनय अवज्ञा में भाग नहीं ले सकता। इसके विरोध में सुभाष ने 9 जुलाई को अखिल भारतीय विरोध दिवस मनाया। उनके विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्रवाई की गई। 11 अगस्त को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने उन्हें बंगाल प्रांतीय कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष पद से भी हटा दिया। यह आदेश निकाला गया कि वह तीन वर्षों तक कांग्रेस के किसी भी पद पर नहीं रह सकते। कांग्रेस से सुभाष का संबंध हमेशा के लिए समाप्त हो गया।

सुभाष चन्द्र बोस की गिरफ़्तारी

जुलाई 1940 में सुभाष बोस ने कलकत्ता में हॉल्वेल स्मारक को हटाने की मांग करते हुए एक सफल सत्याग्रह का नेतृत्व किया था। हॉल्वेल स्मारक काल कोठरी के शिकार हुए अंग्रेज़ों की स्मृति में बनाया गया था। यह भवन बंगाल के अंतिम स्वतंत्र मुस्लिम शासक सिराजुद्दौला के सम्मान से जुड़ा था। इसे हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रतीक के रूप में भी देखा जाता था। द्वितीय विश्व युद्ध के शुरू होने के बाद ब्रिटिश सरकार ने जुलाई 1940 में भारत सुरक्षा क़ानून के अंतर्गत सुभाष चन्द्र बोस को गिरफ़्तार कर लिया गया। उन्हें प्रेसीडेंसी जेल में रखा गया। जेल में उन्होंने अनशन आरंभ कर दिया। उनकी तबीयत बिगड़ गई। स्वास्थ्य के आधार पर उन्हें जेल से निकाल कर उनके एल्गिन रोड वाले मकान में नज़रबंद कर दिया गया। जनवरी 1941 में नज़रबंदी से नेताजी निकल भागने में क़ामयाब हुए। वे अफगानिस्तान, रूस होते हुए जर्मनी पहुंचे।

आज़ाद हिन्द फ़ौज

विदेश में ब्रिटेन के विरुद्ध कड़ा संघर्ष ज़ारी रखने की प्रेरणा मुख्यतः सुभाष चंद्र बोस के साहसिक अभियानों से मिली। 17 जनवरी, 1941 को नेताजी पुलिस की नज़रबंदी से भाग निकलने में क़ामयाब हो गए। भारत छोड़कर वे अफ़गानिस्तान और रूस होते हुए बर्लिन (जर्मनी) पहुंचे। वह धुरी-राष्ट्रों के सहयोग से भारत में ब्रिटिश साम्राज्य को परास्त कर भारत की आज़ादी प्राप्त करना चाहते थे जर्मनी ने रूस पर आक्रमण कर दिया और मित्र राष्ट्रों में शामिल हो गया था। नेताजी रूस से इस उद्देश्य से जर्मनी चले आए कि वहाँ पर मदद प्राप्त कर सकेंगे। बर्लिन सरकार के सहयोग से उन्होंने बर्लिन रेडियो से अंग्रेज़ विरोधी प्रचार आरंभ किया। उन्होंने जर्मनी में भारतीय युद्धबंदियों के सहयोग से आज़ाद हिंद फ़ौज के गठन का सुझाव रखा। इस प्रस्ताव को जर्मन सरकार ने स्वीकार कर लिया। 1941 में उन्होंने बर्लिन में इंडियन लीग की स्थापना की। जर्मनी में बोस को नेताजी की उपाधि मिली। नेताजी ने जर्मनी की सहायता से रूस होकर भारत पर आक्रमण की योजना बनाई। भारतीय सैनिकों को दो दस्ते का गठन किया। रोम और पेरिस में उन्होंने स्वतंत्र भारत केंद्र स्थापित किए। परन्तु उन्हें पर्याप्त जर्मन सहायता नहीं मिल पाई। जर्मनों ने ‘इंडियन लीग’ को रूस के विरुद्ध प्रयुक्त करने का प्रयास किया। यह नेताजी को अच्छा नहीं लगा। उन्होंने जापान जाने का निश्चय किया ताकि उसकी मदद से भारत मुक्ति युद्ध का संगठन कर सकें।  

इस बीच जापान की युद्ध में तेज़ी से विजय मिलने लगी। सिंगापुर, मलाया और बर्मा अंग्रेज़ों के हाथ से निकल गए। भारत भी अब जापानियों के लक्ष्य में था। ब्रितानियों ने भारतीय अफसरों और सैनिकों को छोड़ते हुए मलाया और बर्मा को खाली कर दिया था। आज़ाद हिंद फौज का ख़्याल सबसे पहले मोहन सिंह के मन में मलाया में आया। वे ब्रिटेन की भारतीय सेना के अफ़सर थे। जब ब्रिटिश सेना पीछे हट रही थी, तब मोहन सिंह जापानियों के साथ हो गए। जापानियों ने भारतीय युद्ध-बंदियों को मोहन सिंह के सुपुर्द कर दिया। 45 हज़ार युद्ध बंदी मोहन सिंह के प्रभाव क्षेत्र में आ गए थे। उन्होंने इसी समय रासबिहारी बोस के साथ टोकियो में भारतीय युद्ध बंदियों की सहायता से आज़ाद हिंद फ़ौज के गठन का निर्णय किया। लगभग 40 हज़ार लोग आज़ाद हिंद फौज में शामिल होने की इच्छा जता चुके थे। मोहन सिंह ने फ़ौज का विधिवत गठन किया। इसके प्रधान सेनापति बने। यह बड़े ही सुखद आश्चर्य की बात है कि युद्धकाल में भारतीय सेना के जिन सैनिकों ने जापान के आगे हथियार डाल दिए थे, उन्हीं के द्वारा भारतीय राष्ट्रीय सेना – आज़ाद हिंद फ़ौज - इंडियन इंडिपेंडेंस लीग की स्थापना की गई। भारत छोड़ो आन्दोलन से आज़ाद हिन्द फ़ौज को एक नई ताक़त मिली। मलाया में ब्रिटिश विरोधी प्रदर्शन किए गए। 1 सितंबर 1942 को आज़ाद हिन्द फौज की पहली डिविजन का गठन 16,300 सैनिकों को लेकर किया गया। जापानी तब तक भारत पर हमला करने के बारे में सोचने लगे थे। दिसंबर 1942 तक आज़ाद हिंद फौज की भूमिका के बारे में जापानी और भारतीय अधिकारियों में गहरे मतभेद हो गए। मोहन सिंह और निरंजन सिंह गिल को गिरफ़्तार कर लिया गया। जापानी चाहते थे कि भारतीय फौज 2,500 सैनिकों की प्रतीकात्मक हो, जबकि मोहन सिंह का लक्ष्य दो लाख सिपाहियों का था।

बैंकॉक में जून, 1942 में आज़ाद हिंद फौज का सम्मेलन हुआ। इसमें नेताजी को जापान आने का निमंत्रण मिला। इसमें सुभाष जी ने भारतीय सैनिकों की सहायता से अंग्रेज़ों से युद्ध करने का सुनहरा मौका देखा। वे 2 जुलाई 1943 को जर्मन और जापानी पनडुब्बी द्वारा जर्मनी से जापानी नियंत्रण वाले सिंगापुर पहुंचे। वहां से वे टोकियो गए। उनके टोकियो पहुंचने के बाद जापान के प्रधानमंत्री तोजो ने घोषणा की कि जापान भारत पर क़ब्ज़ा करना नहीं चाहता। बोस सिंगापुर लौट आए। अब बोस के नेतृत्व में आज़ाद हिंद फौज का दूसरा चरण शुरू हुआ। वहां उन्होंने दिल्ली चलो का विख्यात नारा दिया। जापानी सरकार से उन्हें सहयोग मिला। उन्होंने इंडिपेंडेंस लीग और आज़ाद हिंद फ़ौज की बागडोर संभाल ली। सेना का नए ढंग से पुनर्गठन किया। गांधी, आज़ाद और नेहरू रेजिमेंट सेना में बनाई गई। नेहरू के साथ मतभेद होने के बावजूद सुभाष के मन में अंतिम समय तक नेहरू के प्रति सम्मान रहा, तभी तो उन्होंने आजाद हिंद फ़ौज की एक रेजिमेंट का नाम 'नेहरू रेजिमेंट' रखा। प्रवासी भारतीय युवती लक्ष्मी सहगल की सहायता से झांसी की रानी महिला रेजिमेंट भी बना।

21 अक्तूबर, 1943 को उन्होंने सिंगापुर में स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार आज़ाद हिंद सरकार और भारतीय राष्ट्रीय सेना (आज़ाद हिन्द फ़ौज़) का गठन किया।  सुभाष चंद्र बोस स्वतंत्र भारत की अस्थाई सरकार के अध्यक्ष होने वाले थे। आज़ाद हिन्द सरकार में रासबिहारी बोस को एक सम्मानित स्थान प्रदान किया गया। रासबिहारी बोस 1915 से जापान में आत्म-निर्वासन भोग रहे थे। अपना अभियान शुरू करने के पहले सुभाष बोस ने गांधीजी का आशीर्वाद प्राप्त किया। गांधी से विरोध होने के बावजूद जब वह सिंगापुर से अपना पहला भाषण दे रहे थे, तो गांधीजी को 'राष्ट्रपिता' कह कर संबोधित किया और उनसे आशीर्वाद देने के लिए कहा। सुभाष जी की सरकार को जापान, जर्मनी और इटली की मान्यता मिल गई। अस्थाई सरकार ने हिन्दुस्तानी को राष्ट्रभाषा के रूप में, जय हिन्द को अभिवादन के रूप में, कांग्रेस के तिरंगे झंडे को राष्ट्रीय झंडा और रवीन्द्रनाथ टैगोर की कविता जन गण मन अधिनायक जय हे, भारत भाग्य विधाता को राष्ट्रगान के रूप में स्वीकार किया।

दक्षिण-पूर्वी एशिया में बसे व्यापारिक समुदायों ने आर्थिक मदद पहुंचाई। 4 जुलाई, 1944 को उन्होंने लोकप्रिय नारा दिया, तुम मुझे ख़ून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा। उनका उद्देश्य भारत की भूमि से अंग्रेज़ों और उनके मित्रों को निकालने के लिए आजीवन संघर्ष करना था। उन्होंने ब्रिटेन और अमेरिका के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। बोस ने आज़ाद हिंद फौज के मुख्यालय रंगून और सिंगापुर में बनाए। मई और जून 1944 के बीच आज़ाद हिंद फ़ौज भारतीय भूमि पर सक्रिय रहे। जापान से उन्हें आंडमान और निकोबार टापू प्राप्त हो गए। इनका नाम बदल कर शहीद और स्वराज कर दिया गया। वहां का शासन अस्थायी सरकार ने अपने हाथ में ले लिया। शाहनवाज ख़ान के नेतृत्व में आज़ाद हिंद फ़ौज की एक टुकड़ी भारत-बर्मा सीमा पर इंफाल के हमले में मित्र राष्ट्रों से युद्ध करने के लिए भेजी गई। इसने कॉक्स बाज़ार के निकट एक भारतीय चौकी पर अधिकार कर लिया। तिरंगा झंडा लहराया और राष्ट्र गीत गाया। कोहिमा भी फ़ौज के नियंत्रण में आ गया। लेकिन वहां भारतीय सैनिकों के साथ बहुत दुर्व्यवहार हुआ। उन्हें रसद और हथियार से वंचित रखा गया। जापानी सैनिकों के लिए उन्हें निम्न श्रेणी के काम करने के लिए कहा जाता था। इससे उनका मनोबल टूटने लगा।

मई, 1944 से जापान की युद्ध में पराजय होने लगी। जापान को बर्मा से पीछे हटना पड़ा। अंग्रेज़ों ने जापानियों के साथ-साथ आज़ाद हिंद फ़ौज के जवानों पर भी काफ़ी अत्याचार किया। कितने ही मारे गए और गिरफ़्तार किए गए। आज़ाद हिंद फ़ौज के सैनिक बंदी बना लिए गए। आज़ाद हिंद फ़ौज के 20,000 क़ैदियों पर सार्वजनिक मुक़दमे चलाने का निर्णय लिया गया। साथ ही 7,000 को नौकरी से निकालने और बिना मुक़दमा चलाए हिरासत में रखने की कार्रवाई भी की गई।

आज़ाद हिंद फ़ौज पर मुक़दमा

पहला मुक़दमा नवंबर 1945 में लालक़िले में किया गया। इसमें एक हिंदू (पी.के. सहगल), एक मुसलमान (शाहनवाज) और एक सिख (गुरबख्श सिंह ढिल्लों) को एक साथ कठघरे में खड़ा किया गया। आज़ाद हिन्द फौज के क़ैदियों को बहुत ही गुप्त तरीक़े से भारत लाया गया था। सरदार वल्लभ भाई पटेल को पता चला कि आज़ाद हिंद फ़ौज के कई अधिकारियों को बड़ी गोपनीयता से दिल्ली लाया गया है। उन पर सैन्य द्रोह का अभियोग लगाया गया है। सरदार ने यह बात गांधीजी को बताई। गांधीजी ने इन अधिकारियों के बारे में वायसराय लॉर्ड वेवेल को पत्र लिखा। श्री सुभाष बाबू द्वारा खड़ी की गई सेना के सैनिकों पर चल रहे मुक़दमे की कार्रवाई को मैं ध्यान से देख रहा हूं। कुछ क़ैदियों को फौजी अदालत में मुकदमा चला कर गोली मार दी गई है। जिन लोगों पर मुक़दमा चल रहा है, उनकी भारत पूजा करता है। निःसंदेह सरकार के पास जबरदस्त शक्ति है। परन्तु यदि सर्वव्यापी भारतीय विरोध के बावज़ूद उस शक्ति का उपयोग किया गया, तो वह उस शक्ति का दुरुपयोग होगा। जो कुछ किया जा रहा है, वह उचित नहीं है। ...

आज़ाद हिंद फौज बचाव समिति का गठन

कांग्रेस कार्यसमिति ने राय व्यक्त की कि कांग्रेस आज़ाद हिन्द फौज के सदस्यों का मुक़दमे में बचाव करे। कांग्रेस ने आज़ाद हिंद फौज बचाव समिति का गठन किया। भूलाभाई देसाई के नेतृत्व में तेजबहादूर सप्रू, जवाहरलाल नेहरू, आसफ़ अली और कैलाशनाथ काटजू ने मुकदमे की पैरवी की। नेहरू ने 25 साल बाद बैरिस्टर का अपना लबादा पहना था। गांधीजी सरदार पटेल के साथ इन बंदियों से मिलने दो बार गए, एक बार क़ाबूल लाइन्स में और दूसरी बार लालक़िले में। इनमें आज़ाद हिन्द फौज के संस्थापक जनरल मोहन सिंह, मेजर जनरल शाहनवाज ख़ां, कर्नल हबीबुर्रहमान, मेजर जनरल लोकनाथ, कैप्टन ढिल्लों और लेफ़्टिनेंट लक्ष्मी सहगल आदि प्रमुख थे।

पूरे देश में सहानुभूति की लहर

जब सरकार ने आज़ाद हिन्द फ़ौज के अफसरों के विरुद्ध मुक़दमा चलाने का निर्णय लिया तो सारे देश में राष्ट्रवादी विरोध की लहर दौड़ गयी। इस लहर में सभी राजनीतिक दलों के साथ मुस्लिम लीग भी शामिल हो गई। सारे देश में अभूतपूर्व प्रदर्शन हुए। एक विशेष प्रकार की सहानुभूति पूरे देश में चरम पर थी। सहानुभूति सांप्रदायिक सीमाओं को पार कर गई थी। 21 नवंबर, 1945 को कलकत्ता में छात्रों ने आज़ाद हिंद फौज के समर्थन में विद्रोह कर दिया। छात्रों के जुलूस पर पुलिस ने गोली चलाई जिसमें दो छात्रों की मृत्यु हो गई।  अंग्रेज़ इस बात से घबरा गए थे कि आज़ाद हिंद फ़ौज की भावना भारतीय सेना में भी फैलती जा रही है। सैनिक अदालत ने आज़ाद हिन्द फौज के अफसरों और सदस्यों को फांसी की सज़ा सुनाई। इसके विरुद्ध सारे देश में भावनाओं का ऐसा आवेग उमड़ा जिसके सामने सरकार को घुटने टेक देने पड़े। सज़ा ख़त्म कर देनी पड़ी। अफसरों को रिहा कर दिया गया।

सुभाष बोस का निधन

ऐसा माना जाता है कि रंगून से टोकिये जाते हुए हवाई जहाज की एक दुर्घटना में सुभाष बोस की 18 अगस्त, 1945 को मृत्यु हो गई। जब नेहरू को विमान दुर्घटना में सुभाष बोस के निधन की ख़बर मिली तो वह रो पड़े। भावुक होकर उन्होंने कहा, "सुभाष अब उन सब मुसीबतों से कहीं दूर चले गए हैं जिनका बहादुर सैनिकों का अपने जीवन में सामना करना पड़ता है। मैं कई मामलों में सुभाष से सहमत नहीं था, लेकिन भारत की आज़ादी के लिए संघर्ष में उनकी ईमानदारी का मेरे मन में कोई संदेह नहीं था।"

 

गांधी और बोस: वैचारिक मतभेद

गांधीजी और सुभाष बोस अपनी बेहद अलग विचारधाराओं के बावजूद एक दूसरे के लिए गहरा सम्मान रखते थे। दोनों ने स्वतंत्रता के लिए राष्ट्रीय संघर्ष में एक दूसरे द्वारा किए गए कार्यों की सराहना की। 1942 में, गांधीजी ने बोस को "देशभक्तों का राजकुमार" कहा। जब बोस की मृत्यु की सूचना मिली, तो गांधीजी ने कहा कि नेताजी की देशभक्ति किसी से कम नहीं है...! उनकी वीरता उनके सभी कार्यों से झलकती है। नेताजी भारत की सेवा के लिए हमेशा के लिए अमर रहेंगे। दूसरी तरफ बोस भारतीय राष्ट्रवाद के प्रतीक के रूप में गांधीजी के महत्व से पूरी तरह वाकिफ थे और 1944 में रंगून से एक रेडियो प्रसारण में उन्हें "हमारे राष्ट्र का पिता" कहा था। जब त्रिपुरी सत्र के बाद उन्हें इस्तीफा देने के लिए विवश होना पडा, तो उन्होंने कहा था कि "यह मेरे लिए एक दुखद बात होगी अगर मैं अन्य लोगों का विश्वास जीतने में सफल रहा लेकिन भारत के सबसे महान व्यक्ति का विश्वास जीतने में असफल।" बाद में, बोस ने कहा कि "महात्मा गांधी ने भारत और भारत की स्वतंत्रता के लिए जो सेवा प्रदान की है, वह इतनी अनोखी और अद्वितीय है कि उनका नाम हमारे राष्ट्रीय इतिहास में - हमेशा के लिए स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाएगा"। संयोग से, दोनों महापुरुषों ने भारत को आगे बढाने का रास्ता समाजवाद को माना, हालांकि थोड़े अलग तरीके से। गांधीजी ने समाजवाद के पश्चिमी रूप की सहमति नहीं दी, जिसे उन्होंने औद्योगीकरण से जोड़ा, लेकिन जयप्रकाश नारायण द्वारा जिस तरह के समाजवाद की वकालत की गई, उससे सहमत थे। गांधी और बोस दोनों धार्मिक व्यक्ति थे और साम्यवाद को नापसंद करते थे। दोनों ने अस्पृश्यता के खिलाफ काम किया और महिलाओं की मुक्ति के लिए आवाज उठाई। लेकिन वे अपने तरीकों और अपनी राजनीतिक और आर्थिक विचारधाराओं में व्यापक रूप से भिन्न थे। गांधी अहिंसा और सत्याग्रह में दृढ़ विश्वास रखते थे, जो किसी भी लक्ष्य को प्राप्त करने का अहिंसक तरीका है। बोस का मानना था कि अहिंसा की विचारधारा पर आधारित गांधी की रणनीति भारत की स्वतंत्रता हासिल करने के लिए अपर्याप्त होगी। जब यूरोप पर युद्ध के बादल मंडरा रहे थे, तो उन्होंने स्थिति को ब्रिटिश कमजोरी का फायदा उठाने के अवसर के रूप में देखा। उन्होंने खुलकर आलोचना की कि अंग्रेज एक तरफ तो नाज़ी नियंत्रण के तहत यूरोपीय राष्ट्रों की स्वतंत्रता के लिए लड़ने का दावा करते हैं, वहीँ दूसरी तरफ भारत सहित अपने स्वयं के उपनिवेशों को स्वतंत्रता देने से इनकार कर रहे हैं। भले ही वह स्वतंत्रता और समानता और अन्य उदार आदर्शों में विश्वास करते थे और नाजियों के अहंकारी नस्लवाद को अस्वीकार करते थे, नाजियों या फासीवादियों और बाद में इंपिरियल जापान की मदद लेने में उन्हें कोई मलाल नहीं था। जर्मनी और जापान के साथ उनका जुड़ाव क्रांतिकारी रणनीति से संबंधित था न कि वैचारिक सिद्धांतों से। गांधीजी को फासीवादियों और नाजियों के विचारों के प्रति गहरी अरुचि थी और वे अंग्रेजों के खिलाफ सहयोगी के रूप में उनका उपयोग करने के बारे में सपने में भी नहीं सोच सकते थे। उन्होंने नाज़ी जर्मनी और इंपिरियल जापान को न केवल हमलावरों के रूप में बल्कि खतरनाक शक्तियों के रूप में देखा।

उपसंहार

सुभाष चन्द्र बोस भारत के स्वतन्त्रता संग्राम के अग्रणी तथा सबसे बड़े नेताओं में से एक थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान, अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ने के लिए, उन्होंने जापान के सहयोग से आज़ाद हिन्द फ़ौज का गठन किया था। आज़ाद हिन्द फ़ौज और सुभाष चंद्र बोस अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सके। यह सही है कि बहुत से नेताओं ने जापान और उसके फासिस्टवादी मित्रों की सहायता से भारत को स्वतंत्र कराना पसंद नहीं किया, लेकिन युद्ध के अंतिम वर्षों में सुभाष चंद्र बोस और आज़ाद हिन्द फ़ौज ने भारत में उन राष्ट्रवादियों की हताश भावना को ढांढस बंधाया जो निराशा और असहायता से त्रस्त थे। उनके द्वारा दिया गया "जय हिन्द" का नारा भारत का राष्ट्रीय नारा बन गया है। देश की स्वाधीनता के लिए लड़ रही एक वास्तविक सेना ने देशभक्तों के मानस पर जो प्रभाव डाला वह अतुलनीय है। जो लोग उग्र विचारधारा के समर्थक थे, उनके लिए सुभाष एक प्रेरणा स्रोत बन गए। ब्रिटेन के विरुद्ध कड़ा संघर्ष ज़ारी रखने की प्रेरणा मुख्यतः विदेश में सुभाष बोस के साहसिक अभियानों से मिली। नेताजी ने सेना के जवान और भारतीय जनता के हर वर्ग के सामने साहस और देशभक्ति की ऐसी मिसाल रखी जो प्रेरणा देने वाली भी थी और मर्यादा से जोड़ने वाली भी।

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मनोज कुमार

पिछली कड़ियां-  राष्ट्रीय आन्दोलन

संदर्भ : यहाँ पर