राष्ट्रीय आन्दोलन
400. क्रांतिकारी आन्दोलन
प्रवेश
एक प्रश्न हमेशा सामने आता है की क्या असहयोग आन्दोलन की परोक्ष असफलता
तथा राष्ट्रवादी परिदृश्य पर छाई उदासी ने क्रान्तिकारी गतिविधियों के लिए
परिस्थितियों का निर्माण किया? साथ ही यह प्रश्न भी महत्वपूर्ण है कि क्रांतिकारियों ने लोगों को किस प्रकार आत्म-विश्वास सिखाया तथा भारतीय
स्वतन्त्रता संग्राम के सामाजिक आधार को व्यापक किया?
सूरत के कांग्रेस अधिवेशन के बाद सरकार ने राजनीतिक अशांति
को दबाने हैं लिए दमनकारी नीति को अपनाया और भारतीयों पर अनेक प्रकार के प्रतिबन्ध
लगा दिये जिसके परिणाम स्वरूप भारतीय राजनीतिक क्षेत्र में एक नवीन धारा का जन्म हुआ जिसे क्रांतिकारी आन्दोलन रहते
है। क्रांतिकारी आंदोलन सरकार, शासन या समाज को
हिंसा के माध्यम से बदलने का एक प्रयास था। इसमें ब्रिटिश शासन से भारत की आजादी
के लिए युवाओं ने देशप्रेम और बलिदान की भावना से हथियार उठाए। उनका उद्देश्य था
कि जनता में भय दूर हो और राष्ट्रवाद की भावना जगे। यह
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक उग्रवादी और महत्वपूर्ण हिस्सा था, जिसने आजादी की लड़ाई को नई दिशा दी। पहले
विश्वयुद्ध के दौरान क्रान्तिकारी आन्दोलनकारियों को बुरी तरह से कुचल दिया गया।
अधिकांश नेता जेल में डाल दिए गए और बाकी भूमिगत हो गए। 1920 में
मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार के तहत सद्भावपूर्ण वातावरण बनाने के लिए आम माफी देकर
इन क्रांतिकारी नेताओं को जेल से रिहा कर दिया गया। असहयोग आंदोलन के स्वतःस्फूर्त
उभार ने स्वतंत्रता के लिए दृढ़ संकल्पित भारत के इन क्रांतिकारी युवाओं को काफी
आकर्षित किया। आतंकवाद का रास्ता छोड़कर देश के युवाओं ने गांधीजी के आह्वान पर उत्साह
के साथ बढ़-चढ़ कर असहयोग आंदोलन में भाग लिया था। चौरीचौरा कांड
के बाद असहयोग आन्दोलन स्थगित कर दिया गया था। इस घटना ने उत्साही युवकों को बहुत
चोट पहुंचाई। आंदोलन की अचानक वापसी उनकी आकांक्षाओं के लिए एक झटका थी। उनका कांग्रेसी
नेतृत्व के प्रति मोहभंग हुआ। उन्हें लगा कि उनके साथ विश्वासघात हुआ है। कुछ युवक
क्रांतिकारी नेता राष्ट्रवादी नेतृत्व की बुनियादी रणनीति और अहिंसक आन्दोलन के
ऊपर प्रश्नचिह्न लगाने लगे। अहिंसक आन्दोलन की विचारधारा से विश्वास उठ जाने के
कारण वे और विकल्पों की तलाश करने लगे। चूंकि न तो स्वराजियों की राजनीतिक
विचारधारा और न ही अपरिवर्तनवादियों के रचनात्मक कार्य उन्हें आकर्षित कर सके थे, इसलिए वे इस विचार के प्रति आकर्षित हुए कि केवल हिंसक तरीके ही भारत को
मुक्त कर सकते हैं। कुछ प्रान्तों में शिक्षित युवकों का क्रान्तिकारी-सिद्धांतों की तरफ झुकाव हुआ। उस समय की कई पत्रिकाओं, जैसे आत्मशक्ति, सारथी, बिजली आदि में ऐसे आलेख और
संस्मरण छापे जाते जिसमें क्रांतिकारियों के त्याग, बलिदान
और शौर्य का गुणगान होता था। 1926 में प्रकाशित शरतचंद्र
चट्टोपाध्याय के ‘पथेर दाबी’ में शहरी मध्यवर्ग की क्रान्ति की बड़ाई की गयी
थी। शचीन्द्रनाथ
सान्याल की लिखी पुस्तक ‘बंदी जीवन’ क्रांतिकारी आन्दोलन के सदस्यों के लिए
तो धर्मग्रन्थ की तरह थी। इन सबसे क्रांतिकारी आन्दोलनों का एक नया दौर शुरू हुआ। इन क्रांतिकारियों का मानना था कि नए तारे के
जन्म के लिए उथल-पुथल आवश्यक है। लेकिन इसका अंतिम लक्ष्य है उन सभी व्यवस्थाओं की
समाप्ति जो मानव द्वारा मानव के शोषण को संभव बनाती है।
वे सशस्त्र क्रांति के माध्यम से औपनिवेशिक सत्ता को उखाड़ फेंकना चाहते थे।
क्रांतिकारियों की दो धाराएं हुईं, एक पंजाब, उत्तरप्रदेश और बिहार में, और दूसरी बंगाल में। ये
दोनों धाराएं सामाजिक बदलाव से उपजी नई सामाजिक शक्तियों से प्रभावित हुईं थीं।
प्रथम विश्वयुद्ध के बाद कई मज़दूर संगठन अस्तित्व में आए थे। इस वर्ग की
क्रांतिकारी क्षमता का इस्तेमाल क्रांतिकारियों द्वारा किया गया। दूसरी घटना हुई
थी रूस की बोल्शेविक क्रान्ति। भारतीय युवाओं के लिए यह काफी प्रेरणादायक थी। वे
रूस और उसके सत्तारूढ़ दल बोलशेविक पार्टी से मदद लेने को उत्सुक थे। इसके साथ ही
उन दिनों भारत में अनेक नए साम्यवादी समूह उभरे। इनकी विचारधारा से भी क्रांतिकारी
नवयुवक प्रभावित हुए।
क्रान्ति – एक विचारधारा
क्रांति
से आशय अकस्मात एवं तेज गति से होने वाले परिवर्तनों से है, जो आमूल बदलाव को जन्म
देता हैं। क्रांतिकारी राष्ट्रवादी जल्दी-से-जल्दी अपनी मातृभूमि को विदेशी दासता
से मुक्त कराना चाहते थे। सरदार भगत सिंह और उनके साथियों ने क्रांति को व्यापक
ढंग से परिभाषित करते हुए क्रांतिकारियों के समक्ष एक क्रांतिकारी दर्शन रखा। उनके
विचार से क्रांति का अर्थ हिंसा या लड़ाकूपन नहीं था। इसका उद्देश्य देश की आज़ादी
यानी भारत से साम्राज्यवाद को उखाड़ फेंकना था। एच.आर.ए. ने अपने घोषणा पत्र में
कहा था, इसका उद्देश्य उन तमाम व्यवस्थाओं का उन्मूलन करना है, जिनके तहत एक व्यक्ति दूसरे का शोषण करता है। उसके बाद एक ऐसे समाज की
स्थापना था, जहां व्यक्ति द्वारा व्यक्ति का शोषण न हो। भगवतीचरण वोहरा रचित ‘द
फिलॉसफी ऑफ द बम’ में क्रांति को सामाजिक एवं राजनीतिक और आर्थिक स्वाधीनता के
रूप में परिभाषित किया गया था। 3 मार्च 1931 को अपने अंतिम संदेश में उन्होंने कहा था, “भारत में संघर्ष तब तक चलता रहेगा, जब तक मुट्ठी भर शोषक अपने लाभ के लिए आम
जनता के श्रम का शोषण करते रहेंगे। इसका कोई खास महत्त्व नहीं कि शोषक अंग्रेज़ हैं
या पूंजीपति अंग्रेज़ या भारतीय हैं।” सरदार
भगत सिंह ने समाजवाद को वैज्ञानिक ढंग से परिभाषित किया। वे
कहा करते थे, “क्रान्ति
की तलवार में धार वैचारिक पत्थर पर रगडने से ही आती है।” वे पूंजीवाद और वर्ग प्रभुत्व को समाप्त करना
चाहते थे। वे कहा करते थे, “सांप्रदायिकता उतना ही ख़तरनाक है जितना उपनिवेशवाद।” उन्होंने राबर्ट ब्राउनिंग की एक कविता ‘द लॉस्ट लीडर’ को एक परचे के रूप में छापा
और उसे बंटवाया। इसकी पंक्तियाँ कहती हैं, “चांदी के चंद सिक्कों की ख़ातिर
उसने हमें छोड़ दिया, ... उसके बिना भी हम समृद्धि की सीढ़ियां चढ़ते जाएंगे, उसकी
वीणा के सुर बिना भी गीत हमें अनुप्राणित करते रहेंगे।” वे अंधविश्वास की जकड़न से जनता को मुक्त कराने पर बल देते थे। वे कहते थे, “प्रगति के लिए संघर्षशील किसी भी व्यक्ति को अंधविश्वासों की आलोचना करनी ही होगी और पुरातनपंथी विचारों को चुनौती देनी ही
होगी।”
अपने मुकदमे में शहीद भगत सिंह ने स्पष्ट किया था, “क्रांति मेरे लिए बम और पिस्तौल का संप्रदाय नहीं है। यह तो समाज का
पूर्ण परिवर्तन है, जिसकी अंतिम परिणति विदेशी और भारतीय, दोनों ही प्रकार के
पूंजीवाद को समाप्त करके सर्वहारा की तानाशाही की स्थापना में होगी। क्रान्ति मानव
जाति का अत्याज्य अधिकार है। स्वाधीनता सबका जन्मसिद्ध अधिकार है। श्रमिक ही समाज
का सच्चा पालनहार है। इस क्रांति की वेदी पर हम अपनी जवानी को नैवेद्य बनाकर लाए
हैं, क्योंकि ऐसे महान लक्ष्य के लिए कोई भी बलिदान अधिक नहीं है। हम संतुष्ट हैं।
हम क्रांति के आगमन की प्रतीक्षा कर रहे हैं। इंकलाब ज़िंदाबाद!”
भगत सिंह और
उनके साथियों ने क्रांति के उद्देश्य और दायरे को व्यापक रूप दिया, उसे केवल राजनीतिक उथल-पुथल तक सीमित न रखकर सामाजिक और वैचारिक परिवर्तन
का माध्यम बना दिया। इन क्रांतिकारियों के अनुसार क्रांति का उद्देश्य लोगों की मनोवृत्तियों
को तीव्र गति से परिवर्तन करना था। जिसके लिए वे लोगों के समक्ष व्यक्तिगत बलिदान
देकर उदाहरण प्रस्तुत करते थे। उन्हें लगता था कि बलिदान देकर ही युवकों को
आंदोलित किया जा सकता है। क्रांति के
लिए आवश्यक है कि समाज के अधिकांश व्यक्ति वर्तमान सामाजिक दशाओं को पूर्ण रूप में
बदलने के लिए जागरूक होकर सक्रिय प्रयत्न करे। क्रांति चेतन प्रयत्नों के द्वारा
किया गया परिवर्तन है। क्रांति वह है जो किसी देश में राजनीतिक सत्ता के आकस्मिक
परिवर्तन से आरंभ होती है और फिर वहीं के सामाजिक जीवन को नए रूप में ढाल देती है।
क्रांतिकारियों का मानना था कि क्रांतिकारी कार्रवाइयों से अंग्रेजों का दिल दहल
जाएगा। ऐसी घटनाओं से भारतीय जनता को संघर्ष की प्रेरणा मिलेगी और ब्रितानी
हुकूमत का भय उनके मन से मिट जाएगा।
1920 के दशक में राजनीतिक और आर्थिक स्थिति
1920 के दशक में क्रांतिकारी आन्दोलन के उदय के लिए अनेक कारण थे। उन दिनों भारत का राष्ट्रीय परिदृश्य असामान्य
रूप से शांत था। अंग्रेज़ गांधीजी को एक बीत चुकी बात मान रहे थे, जिसकी राजनैतिक
ताकत समाप्त हो चुकी थी। स्वतंत्रता संग्राम बिखरी हुई हालत में था। नेताओं के बीच
मतभेद सर्व विदित था। पूरे देश में सांप्रदायिकता अपना रंग दिखा रही थी। राजनीति मुख्यतः कौंसिलों तक ही
सीमित थी। गांधीजी सक्रिय राजनीति से दूर रचनात्मक कार्य
में व्यस्त थे। अंग्रेज़ मानते थे गांधीजी के रचनात्मक कार्यक्रम से साम्राज्य को
कोई खतरा नहीं था। लॉर्ड बर्केनहेड ने तो यहां तक कह डाला था, “बेचारे गांधी तो खत्म ही हो गए। अपने चरखे के साथ एक ऐसा दयनीय
व्यक्ति नज़र आते हैं, जो प्रशंसकों की भीड़ नहीं जुटा सकता।”
राजनीतिक
निष्क्रियता के इस दौर में अन्य विपदाओं की कमी नहीं थी। बंगाल और असम में बाढ़ से
भयंकर तबाही हुई। मद्रास प्रेसीडेंसी के कुछ ज़िलों और राजपूताना की अधिकतर
रियासतों में सूखा पड़ा। त्रावणकोर के गांव जातीय अत्याचार से जल उठे। देश के कई
भागों में हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए। 1920 के दशक के मध्य से आर्थिक विषमताएं तीव्र होने लगी थीं। उद्योग जगत में पूंजीवाद सशक्त हो
रहा था। अपने आपको यह देशव्यापी स्तर पर संगठित करने लगा था। 1927 में जी.डी.
बिड़ला और पुरुषोत्तमदास ठाकुरदास ने मिलकर फ़ेडेरेशन ऑफ इंडियन चैबर्स ऑफ कॉमर्स
एंड इंडस्ट्रीज़ (FICCI) की स्थापना की। जनसामान्य के जीवन की
परिस्थितियों में कोई सुधार नहीं हो रहा था।
जनसंख्या में तीव्र वृद्धि हो रही थी। कृषि उत्पाद में कोई वृद्धि नहीं हो रही थी।
कामगार वर्ग को मालिकाना के हमलों का सामना करना पड रहा था। भारतीय कपड़ा उद्योग को
विदेशी कंपनियों से प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा था। कामगारों की छटनी हो
रही थी। अनेक क्षेत्रों में निम्न-वर्गों का स्वतःस्फूर्त विद्रोह उठ खड़ा हुआ था।
सामंत विरोधी किसान आन्दोलन हो रहा था। जगह-जगह जातिगत आन्दोलन हो रहा था। श्रमिक
आन्दोलनों के कारण मीलों में हड़तालें हो रही थी। असहयोग आन्दोलन वापस ले लेने के बाद
साम्राज्य विरोधी उभार ठंडा पड़ता गया। इसके कारण भारत में अंग्रेज़ सरकार की नीति
कठोर होती जा रही थी। उनकी दमनात्मक कार्रवाई बढ़ती जा रही थी।
असहयोग आंदोलन वापस ले लेने के बाद बंगाल,
संयुक्त प्रांत और पंजाब में कई शिक्षित युवक क्रांतिकारी तरीक़ों से आंदोलन के
पक्ष में एकजुट होने लगे। इसके नेता थे क्रांतिकारी रामप्रसाद ‘बिस्मिल’, युगेश चटर्जी और शचीन्द्रनाथ सान्याल। जनवरी
1924 में गोपीनाथ साहा ने डे नाम
के एक अंग्रेज़ की हत्या कर डाली, हालांकि उनका लक्ष्य कलकत्ता का पुलिस कमिश्नर
टेगर्ट था। इस घटना के बाद बंगाल में बड़े स्तर पर गिरफ़्तारियां हुईं। सचिन सान्याल
और जोगेश चटर्जी ने संयुक्त प्रांत में ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन’ की
स्थापना की। वे डकैतियों के ज़रिए आंदोलन के लिए धन एकत्रित करते थे। उनका उद्देश्य
सशस्त्र क्रान्ति के माध्यम से औपनिवेशिक सत्ता को उखाड़ फेंकना और एक संघीय
गणतंत्र ‘संयुक्त राज्य भारत’ (यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ
इंडिया) की स्थापना करना था।
‘काकोरी कांड’
अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए इस
संगठन को बड़े पैमाने पर प्रचार कार्य और नौजवानों को प्रशिक्षण देने की ज़रुरत थी।
इसके लिए धन की ज़रुरत थी। HRA ने अपने
उद्देश्य की प्राप्ति के लिए काकोरी में एक बड़ी कार्रवाई की। यह घटना काकोरी काण्ड के नाम से
मशहूर है। 9 अगस्त 1925 को दस व्यक्तियों ने लखनऊ के पास एक छोटे से गांव काकोरी में 8 डाउन ट्रेन को रोक लिया और इस ट्रेन पर जा रहे रेल विभाग के ख़ज़ाने को लूट
लिया। सरकार इस घटना से बहुत ही क्रोधित हुई। भारी संख्या में युवकों को गिरफ़्तार
किया गया। उन पर मुक़दमा चलाया गया। अशफ़ाक़उल्लाह ख़ां, रामप्रसाद बिस्मिल, रोशन सिंह
और राजेन्द्र लाहिड़ी को फांसी दे दी गई। चार क्रांतिकारियों को आजीवन उम्रक़ैद की
सज़ा दी गई और उन्हें आन्डमान के सेल्यूलर जेल भेज दिया गया। 17 अन्य लोगों को लंबी सज़ा दी गई। चंद्रशेखर आज़ाद अंग्रेज़ों की गिरफ़्त में
नहीं आए। इस तरह क्रांतिकारियों के लिए काकोरी केस एक बड़ा आघात था, लेकिन इससे
उनका हौसला कम नहीं हुआ। बल्कि उनका हौसला बढ़ता गया। क्रांतिकारी संघर्ष के लिए कई
और युवा सामने आए। उत्तर प्रदेश में विजय कुमार सिन्हा, शिव वर्मा और जयदेव कपूर
और पंजाब में सरदार भगत सिंह, भगवतीचरण वोहरा और सुखदेव ने चंद्रशेखर आज़ाद के
नेतृत्व में ‘हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन’ को संगठित कर काम को आगे बढ़ाया और 1928 में इस संगठन का नाम रखा ‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन’।
क्रांतिकारी आंदोलनकारियों में
पश्चिम बंगाल से सूर्य सेन, उत्तर भारत से सरदार भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद
प्रमुख थे। कुछ दिनों में इन्होंने अपने शौर्य, प्रताप और बहादुरी और बलिदान से
समूचे राष्ट्र को झकझोर दिया। त्याग, बलिदान और देशभक्ति की इन्होंने ऐसी मिसालें
क़ायम की जो भारतीय राष्ट्रीय स्वतंत्रता के आन्दोलन में अद्वितीय है।
लाहौर
षडयंत्र कांड
उन दिनों लाला जी की मौत से पूरे
देश में रोष था। साल 1928 में साइमन कमीशन के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन में वरिष्ठ
कांग्रेस नेता लाला लाजपत राय को पुलिस की लाठियों ने घायल कर दिया। इसके कुछ ही
दिनों बाद उनका निधन हो गया। उनकी मौत ने युवा क्रान्तिकारियों को फिर से
व्यक्तिगत आतंकवाद और ह्त्या की राह पकड़ने
पर मज़बूर कर दिया। उन्होंने तय किया कि उन्हें कुछ
ऐसा करना होगा, जो अंग्रेजों को जड़ से हिला दे। 17 दिसंबर
1928 को भगत
सिंह, राजगुरु और चंद्रशेखर आजाद ने मिलकर लाला जी को मारने
वाले पुलिस अधिकारियों में से एक सांडर्स की हत्या कर दी। एच.एस.आर.ए. की तरफ से पोस्टर लगाया गया,
जिस पर लिखा था, “लाखों लोगों के चहेते नेता की एक सिपाही द्वारा हत्या पूरे देश का
अपमान था। इसका बदला लेना भारतीय युवकों का कर्त्तव्य था। सांडर्स की हत्या का हमें
दुःख है, पर वह उस अमानवीय और अन्यायी व्यवस्था का एक अंग था, जिसे नष्ट करने के लिए हम संघर्ष कर रहे हैं।”
असेंबली
में बम फेंका जाना
एच.एस.आर.ए.
द्वारा जनता को यह समझाया जाने लगा की इसका उद्देश्य अब बदल गया है और वह
जनक्रांति में विश्वास रखता है। उन दिनों सरकार जनता, विशेषकर
मज़दूरों के मौलिक अधिकारों पर प्रतिबंध लगाने के मकसद से दो विधेयक ‘पब्लिक
सेफ़्टी बिल’ और ‘ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल’ पास कराने की तैयारी में थी।
इसके प्रति विरोध जताने के लिए भगत सिंह और उनके सहयोगी बटुकेश्वर दत्त ने 8 अप्रैल 1929 दिल्ली
की केन्द्रीय विधान सभा की प्रेक्षक गैलरी से दो बम नीचे सदन के पटल पर फेंका। उस
समय सरदार पटेल के बड़े भाई विट्ठल भाई पटेल पहले भारतीय अध्यक्ष के तौर पर सभा की
कार्यवाही का संचालन कर रहे थे। किसी को कोई विशेष चोट नहीं आई। यह बम सिर्फ़ आवाज़
उत्पन्न करने वाला था। भगत सिंह बहरी अंग्रेज सरकार के कानों तक देश की सच्चाई की
गूंज पहुंचाना चाहते थे। उन्होंने परचे फेंके जिनमें लिखा था, “बहरे कानों तक अपनी आवाज़ पहुंचाने के लिए”। बम फेंकने के बाद भगत सिंह और
बटुकेश्वर दत्त भाग सकते थे, लेकिन उन्होंने अपनी गिरफ़्तारी दे
दी। गिरफ़्तारी देकर अदालत को वे अपनी विचारधारा के प्रचार का माध्यम बनाना चाहते
थे। गिरफ़्तारी के वक़्त भगत सिंह के पास उनकी रिवॉल्वर भी थी। कुछ समय बाद ये
सिद्ध हुआ कि पुलिस अफ़सर सांडर्स की हत्या में यही रिवॉल्वर इस्तेमाल हुई थी।
इसलिए, असेंबली सभा में बम फेंकने के मामले में पकड़े गए भगत सिंह
को सांडर्स की हत्या के मामले में (लाहौर षडयंत्र कांड) अभियुक्त बनाकर फांसी की
सज़ा दी गई। सरदार भगत सिंह फांसी के फंदे को गले लगाकर हंसते-हंसते शहीद हो गए। उनके
इस बलिदान ने स्वतंत्रता आन्दोलन को गति प्रदान की। एक गुप्त रिपोर्ट में तो यहां
तक कहा गया था, “कुछ समय के लिए तो उन्होंने, उस समय के अग्रणी राजनीतिक व्यक्तित्व
के रूप में, मि. गांधी को भी मात दे दी थी।” 23 मार्च 1931 को भगत सिंह, सुखदेव
और राजगुरु को फांसी की सज़ा दे दी गई। इसके बाद लोगों में आक्रोश की लहर दौड़ गई।
युवा क्रांतिकारी अदालत में जो बयान
देते उसका अखबारों और अन्य माध्यमों से पूरे देश में उसका प्रचार होता। अदालतों में ’इन्कलाब
जिंदाबाद’ के नारे लगते। ‘सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है’, और ‘मेरा रंग दे बसंती चोला’ जैसे गीत गाए जाते। बेड़ियों में जकडे इन युवाओं की तस्वीरें जनता को झकझोर देती। सरदार भगत सिंह का नाम देश के हर व्यक्ति की जुबान पर था। जेल में क्रांतिकारियों के अनशन से देश को जनता क्षुब्ध और
उद्वेलित हो जाती। इन हड़ताली क्रांतिकारियों के
समर्थन में पूरे देश में एक लहर सी दौड़ रही थी। अनशन के 64वें दिन 13 सितंबर को जतिन दास की मृत्यु हो गयी। खबर सुनकर पूरा देश रोया। लाहौर से जब उनका पार्थिव शरीर कलकत्ता लाया गया, तो लाखों लोगों की
भीड़ उनके अंतिम दर्शन के लिए उमड़ पड़ी।
चटगांव विद्रोह
बंगाल
में भी क्रांतिकारी काफी संगठित और सक्रिय थे। वे भूमिगत कार्रवाइयां कर रहे थे।
इनमें से कुछ कांग्रेस संगठन में भी काम करते थे। इन युवा क्रांतिकारियों को
सी.आर. दास से काफी मदद मिलती थी। लेकिन सी.आर. दास के निधन के बाद बंगाल में
कांग्रेस का नेतृत्व दो खेमों में बंट गया। एक था ‘युगान्तर’ गुट जिसके
नेता थे सुभाषचन्द्र बोस और दूसरा गुट था ‘अनुशीलन’ जिसके नेता थे जे.एम.
सेन। 1924 में गोपीनाथ साहा ने कलकत्ता के बदनाम पुलिस कमिश्नर चार्ल्स टेगार्ट की
हत्या की कोशिश की, लेकिन ग़लती से एक अन्य अंग्रेज़ डे मारा गया। प्रतिशोध में
सरकार दमन पर उतारू हो गई। उन सभी नेताओं को गिरफ़्तार कर लिया गया जिन पर
क्रांतिकारी होने या क्रांतिकारियों का समर्थक होने का शक था। सुभाषचन्द्र बोस भी गिरफ़्तार कर लिए गए। साहा को फांसी दे दी गई। इससे क्रांतिकारी
आंदोलन को गहरा झटका लगा।
इसी
दौरान सूर्य सेन ने नया गुट बनाया। वे असहयोग आंदोलन में भी काफी सक्रिय रहे थे।
चटगांव के राष्ट्रीय विद्यालय में शिक्षक के रूप में काम करते थे। लोग उन्हें
मास्टर दा कहते थे। क्रांतिकारी गतिविधियों में लिप्त रहने के कारण 1926 से 1928 तक दो साल की सज़ा भी काट चुके थे। 1929 में वे चटगांव ज़िला कांग्रेस कमेटी के सचिव थे। उन्हें कविता से बहुत
लगाव था। बहुत से युवा क्रांतिकारी उनके समर्थक बन गए थे। उनका मानना था कि
सशस्त्र विद्रोह से अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद को उखाड़ फेंका जा सकता है। उन्होंने एक
विद्रोही कार्रवाई की योजना बनाई। इसमें चटगांव के दो शस्त्रागारों पर क़ब्ज़ा कर
हथियारों को लूटना, नगर की टेलीफोन और टेलीग्राफ संचार व्यवस्था को नष्ट करना और
रेल संपर्क को भंग करना शामिल था। 18 अप्रैल 1930 को रात दस बजे इस योजना पर अमल होना था। रात दस बजे गणेश घोष के नेतृत्व
में पुलिस शस्त्रागार पर क़ब्ज़ा कर लिया गया। लोकीनाथ बाउल के नेतृत्व में सैनिक
शस्त्रागार पर क़ब्ज़ा कर लिया गया। टेलीफोन और टेलीग्राफ संचार व्यवस्था को नष्ट
करने और रेल संपर्क को भंग करने में भी इन्हें सफलता मिली। पूरी कार्रवाई को ‘इंडियन
रिपब्लिकन आर्मी’ के नाम से अंजाम दिया गया था। खादी टोपी और कुर्ता पहने
सूर्यसेन ने वंदे मातरम्, इंक़्लाब ज़िंदाबाद और महात्मा गांधी की जय के उद्घोष के
साथ तिरंगा फहराया और एक कामचलाऊ क्रांतिकारी सरकार के गठन की घोषणा कर दी। सेना
के आक्रमण से बचने के लिए इन क्रांतिकारियों ने चटगांव छोड़कर पहाड़ियों में शरण ले
ली। 22 अप्रैल की दोपहर तक जलालाबाद की पहाड़ियों को कई हज़ार
सैनिकों ने घेर लिया। दोनों ओर से ज़बरदस्त संघर्ष हुआ। अंग्रेज़ सेना के 80 सैनिक और युवा क्रांतिकारियों के 12 साथी मारे गए।
सूर्य सेन और उनके कई साथी बगल के गांव में छिपने में सफल रहे। तीन सालों तक ये
क्रांतिकारी इसी गांव में रहे। 16 फरवरी 1933 को सूर्य सेन गिरफ़्तार कर लिए गए। उन पर मुकदमा चला और 12 जनवरी 1934 को उन्हें फांसी दिया गया। बाक़ी अन्य
साथी भी पकड़े गए और उन्हें भी लंबी सज़ा दी गई। इन क्रांतिकारी गतिविधियों ने क्रांतिकारी सोच वाले युवकों को उत्साहित
किया। क्रांतिकारी गतिविधियों ने ज़ोर पकड़ा। बलिदानी युवकों की संख्या बढती गयी। संघर्ष में
युवकों ने जान की बाज़ी लगा
दी। मिदनापुर जिले में तीन अँग्रेज़ मजिस्ट्रेट मारे गए। दो गवर्नरों की हत्या के प्रयास
किए गए। दो पुलिस महानिरीक्षक और 22 अधिकारी मारे गए। सरकार दमन पर उतारू हो गई।
20 दमनकारी कानून जारी किए गए। चटगाँव में कई गांवों को जला दिया गया। सारे इलाके
में आतंक का राज कायम हो गया। 1933 में देशद्रोह के आरोप में नेहरूजी को गिरफ्तार
कर लिया गया। उन्हें दो साल की सज़ा दी गई।
क्रांतिकारियों का योगदान और उपसंहार
1920
के दशक की क्रांतिकारी गतिविधियों ने क्रांतिकारी सोच वाले युवकों को उत्साहित
किया। उन्होंने देश की आज़ादी के संघर्ष में अपने त्याग और बलिदान से समां बाँध
दिया। इन क्रांतिकारी आंदोलनों की एक प्रमुख विशेषता यह थी कि इनमें महिलाएं भी
साथ दे रही थीं। ये क्रांतिकारियों को शरण देने,
सन्देश पहुंचाने और हथियारों की रक्षा करने का काम करती थीं। ज़रुरत पड़ने पर बन्दूक
लेकर भी संघर्ष करती थीं। कई महिलाओं को आजीवन कारावास की सज़ा भी हुई। इनमें से
कुछ प्रमुख नाम हैं प्रीतिलता वाडेदार, कल्पना दत्त, शांति घोष, सुनीति चौधरी।
प्रीतिलता वाडेदार ने पहाड़तली, चटगाँव में रेलवे इंस्टीच्यूट पर छापा मारा और इस
संघर्ष में मारी गईं। कल्पना दत्त (जोशी) को सूर्यसेन के साथ गिरफ्तार कर लिया
गया। उन्हें आजीवन कारावास की सज़ा दी गई। शान्ति
घोष और सुनीति चौधरी ने ज़िलाधिकारी को गोली मारकर हत्या की थी। 1932 में बीना दास
ने दीक्षांत समारोह में उपाधि ग्रहण करते हुए बहुत नज़दीक से गवर्नर पर गोली चलाई
थी।
ज्यों-ज्यों क्रांतिकारी
गतिविधियों ने ज़ोर पकड़ा, त्यों-त्यों अंग्रेज़ों का दमन भी तीव्रतर होता गया। सत्ता
के दमन से क्रांतिकारी आन्दोलन धीमा पड़ता गया। फरवरी 1931 में इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में मुठभेड़ के दौरान
चंद्रशेखर आज़ाद शहीद हुए। उसके बाद पंजाब, उत्तरप्रदेश और बिहार से क्रांतिकारी
आंदोलन लगभग ख़त्म ही हो गया। सूर्यसेन की शहादत से बंगाल में
क्रांतिकारी संघर्ष का गौरवपूर्ण अध्याय समाप्त हो गया। लेकिन राष्ट्रीय मुक्ति
संघर्ष में इनका योगदान अमूल्य है। क्रांतिकारियों ने अपने ढंग से ब्रिटिश शासन को
कमजोर किया। स्वतन्त्रता के संघर्ष में उन्हें जनता का भरपूर समर्थन मिला। इन्होंने
देश में राष्ट्रीय चेतना का संचार किया। लेकिन इस बात से पूरी तरह सहमत नहीं हुआ
जा सकता कि असहयोग आन्दोलन की परोक्ष असफलता तथा राष्ट्रवादी परिदृश्य पर छाई
उदासी ने क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए परिस्थितियों का निर्माण किया। एक तो
असहयोग आन्दोलन को, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से, असफल मानना एक भूल होगी। 1857 के विद्रोह के बाद पहली बार
असहयोग आंदोलन के परिणामस्वरूप अंग्रेजी राज की नींव हिल गई। इस आंदोलन ने उस समय के
राष्ट्रवाद के आधार को और व्यापक बनाया। इसने अंग्रेज़ी राज के ख़िलाफ़ पूरे देश में
बिजली-सी लहर पैदा की। लोगों में अभूतपूर्व उत्साह पैदा हुआ। जनता में
साम्राज्यवाद के विरोध की चेतना जगाना निश्चय ही असहयोग आंदोलन की विशेष देन है।
हां कुछ हद तक यह सही है कि 1920 के दशक में क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए परिस्थितियों के निर्माण के लिए
उत्तरदायी कई कारणों में से एक कारण
असहयोग आन्दोलन के स्थगन से राष्ट्रवादी परिदृश्य पर छाई निष्क्रियता (उदासी) भी था। क्रांतिकारी गतिविधियाँ तो 1920 के दशक
के पहले भी होती रही थी। क्रांतिकारी आन्दोलनकारियों की
अपनी एक विचारधारा थी। देश की राजनीतिक और आर्थिक दशा से अधिकाँश युवा वर्ग
क्षुब्ध था। सरकारी दमन से उनमें रोष व्याप्त था। वे ब्रिटिश शासकों के अत्याचार
का उनकी ही भाषा में जवाब देना चाहते थे। स्वाभिमान की रक्षा उनका प्रमुख लक्ष्य
था। भारत के बाहर हुए कई उपनिवेशवाद विरोधी क्रांतियों की सफलता के उदाहरण
उनके सामने थे। साम्राज्यवादियों के अत्याचार के विरुद्ध
वे सशस्त्र विरोध करना उचित मानते थे। वे अपेक्षाकृत कम समय में परिणाम प्राप्त
करना चाहते थे। क्रांतिकारी विचारधारा के तहत कई संगठन थे, जो न सिर्फ भारत में बल्कि भारत के बाहर से भी
अपनी गतिविधियाँ चलाकर भारत को स्वतंत्रता दिलाना चाहते थे। क्रांतिकारियों ने पूरे भारत के सामने एक रणनीति रखी। आज़ादी के लिए बलिदान उनका उद्घोष वाक्य था। इनका अनन्य राष्ट्रप्रेम, अदम्य साहस, अटूट प्रतिबद्धता और गौरवमय बलिदान
भारतीय जनता के लिए प्रेरणा-स्रोत बने। देश के लिए सर्वस्व बलिदान
करने वाले, हंसते-हंसते फाँसी पर चढ़ने वाले
तथा जेलों में बर्बरतापूर्ण यातनाएं सहने वाले क्रांतिकारियों ने भारत के युवकों
में जागृति फैलाने और साम्राज्य के विरुद्ध संघर्ष में जुट जाने के लिए तैयार करने
में जो भूमिका निभायी उसका ही नतीजा था कि जब देश की स्वतंत्रता के लिए ‘करो-या-मरो’ का लक्ष्य सामने आया तो असंख्य भारतवासियों
द्वारा भारत माता की आज़ादी के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने की प्रतिस्पर्धा लग
गयी थी।
*** *** ***
मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय
आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ
पर