गुरुवार, 6 सितंबर 2012

आँच –119


आँच –119
                       आचार्य परशुराम राय 
                     
आँच के पिछले अंक में श्री देवेन्द्र पाण्डेय की कविता पहिए की गयी समीक्षा पर विद्वान मित्रों एव पाठकों ने काफी रोचक टिप्पणियाँ की हैं। मैंने कुछ बातों का प्रत्युत्तर दिया और बाद में अपने ही उत्तरों पर बहुत क्षोभ हुआ। यह सोचकर कि क्या यह आवश्यक था। हो सकता है मेरे उत्तर से उन्हें ठेस पहुँची हो। कवि धूमिल या आदरणीय डॉ.नामवर सिंह आदि के नाम पर मनोनुकूल विचार नहीं बनाए जा सकते। उस समय धूमिल की कविताएँ मेरे पास नहीं थीं। इसलिए साक्ष्य के अभाव में बातें करना या प्रत्युत्तर देना उचित नहीं जान पड़ा। पर प्रत्युत्तर दे डाला। फिर एकाएक विचार आया क्यों न इस पर एक अलग से आँच का उपांक लिखा जाए।

सबसे पहले कविता में प्रवाह की बात करते हैं। जब कविता में प्रवाह की बात की जाती है, तो पता नहीं लोग बिदक क्यों जाते हैं। माना जाता है कि हिन्दी में छन्द-मुक्त कविता का प्रारम्भ महाकवि निराला ने किया। इस प्रकार की कविता के विषय में अपनी पुस्तक पंत और पल्लव में उल्लेख करते हुए वे लिखते हैं कि आधुनिक कविता का आधार कवित्त (एक प्रकार का वार्णिक वृत्त या छंद) है। हालाँकि उनकी छन्दमुक्त कविताओं में मात्रिक छंदों का प्रयोग भी मिलता है। यह एक अलग चर्चा का विषय है। इसे उनकी रचनाओं को लेकर देखा जा सकता है। यहाँ  सवैया, कवित्त और दोहा की एक-एक पंक्ति लेकर छन्दमुक्त कविता के रूप में ढालकर देखते हैं -

सवैया                                 कवित्त
पुर ते                                 चंचला चमाके
निकसी रघुबीर बधू                       चहुँ ओरन ते
धरि धीर                               चरजि गई थी
दए मग में डग द्वै।                      फेरि
                                     चरजन लागी री।
दोहा
सुनहुँ भरत
भावी प्रबल
बिलखि कहेउ मुनिनाथ।

आप निराला की किसी कविता को लें, इसी प्रकार की प्रांजलता मिलेगी। प्रवाह गद्य में भी पाया जाता है। लेकिन दूसरे प्रकार का। इसके लिए किसी भी सशक्त लेखक को ले सकते हैं, चाहे डॉ. विद्यानिवास मिश्र हों या डॉ. नामवर सिंह। वैसे गद्य प्रवाह का आनन्द जितना परमपूज्य आचार्य रजनीश जी या परमपूज्य श्री जे. कृष्णमूर्ति में मुझे मिला उतना अन्य में नहीं। कविता में प्रांजलता और बिम्बों को अछूत समझने वाले लोगों के लिए मैं यहाँ कविवर धूमिल की कविताओं से कुछ पंक्तियाँ यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ-    

भलमनसाहत 
और मानसून के बीच में 
ऑक्सीजन का कर्ज़दार हूँ
मैं अपनी व्यवस्थाओं में 
बीमार हूँ                                                                                   (उसके बारे में)
        
जो छाया है, सिर्फ़ रात है
जीवित है वह - जो बूढ़ा है या अधेड़ है
और हरा है - हरा यहाँ पर सिर्फ़ पेड़ है

चेहरा-चेहरा डर लगता है
घर बाहर अवसाद है
लगता है यह गाँव नरक का
भोजपुरी अनुवाद है।                                                     (गाँव)

हवा गरम है
और धमाका एक हलकी-सी रगड़ का
इंतज़ार कर रहा है
कठुआये हुए चेहरों की रौनक
वापस लाने के लिए
उठो और हरियाली पर हमला करो
जड़ों से कहो कि अंधेरे में
बेहिसाब दौड़ने के बजाय
पेड़ों की तरफदारी के लिए
ज़मीन से बाहर निकल पड़े
बिना इस डर के कि जंगल
सूख जाएगा।
यह सही है कि नारों को
नयी शाख नहीं मिलेगी
और न आरा मशीन को
नींद की फुरसत
लेकिन यह तुम्हारे हक में हैं
इससे इतना तो होगा ही
कि रुखानी की मामूली-सी गवाही पर
तुम दरवाज़े को अपना दरवाज़ा
और मेज़ को
अपनी मेज कह सकोगे। 
                                                         (सिलसिला)
     कविवर धूमिल बिम्बों को अछूत नहीं मानते थे। इनकी शब्द-योजना में लाक्षणिक प्रयोग की बहुलता है। या यों कहिए कि इनकी कविताओं में नए मुहावरे और लक्ष्यार्थ पाठक को अभिभूत कर देते हैं। इनकी कविताओं में प्रांजलता का कहीं अभाव नहीं है। यह याद दिलाना चाहता हूँ इनका काल साठोत्तरी कविताओं का काल है। छंदों के ज्ञाता यदि इन कविताओं में एक सतर्क नजर डालें, तो उन्हें इनमें भी छंद नजर आएँगे।

इसे दुर्भाग्य कहा जाय या सौभाग्य कि इनकी रचनाओं को एक विशेष खेमे द्वारा हाइजैक कर लिया गया और अन्य खेमों ने इनकी ओर देखने का कष्ट नहीं किया या इनकी कविताओं का अध्ययन उस खेमे से बाहर करने का कोई साहस नहीं जुटा पाया। हो सकता है ऐसा हुआ भी हो और मुझे पढ़ने का सुअवसर न मिल सका हो। जहाँ तक मुझे पढ़ने को मिला एक खेमे विशेष के हितों को सिद्ध करनेवाले आयामों का विश्लेषण ही किया गया है। इनकी कविताओं के ऐसे कई पहलू हैं, जिनपर विद्वान लोग चर्चा करें, तो अच्छा रहेगा।

कविता के विषय में उनके मन्तव्य को समग्रता में देखना होगा। अपने मन के अनुकूल एक वाक्य को लेकर उनकी पूरी दृष्टि को वैसा ही मान लेना बेमानी होगा। श्री अनूप शुक्ल के फुरसतिया ब्लॉग पर उद्धृत आभार सहित कविता के विषय में उनके कुछ विचार यहाँ दिये जा रहे हैं- 

1.  कविता
घेराव में
किसी बौखलाये हुये
आदमी का संक्षिप्त एकालाप है।
2.  कविता
भाष़ा में
आदमी होने की
तमीज है।
3.  कविता
शब्दों की अदालत में
अपराधियों के कटघरे में
खड़े एक निर्दोष आदमी का
हलफनामा है।

  धूमिल की काव्यशैली, भाव-भंगिमा आदि को समझने के लिए मात्र एक चश्मे से देखने के बजाय खुली आँख और खुले मन से देखने और समझने की आवश्यकता है, अपनी अक्षमता को छिपाने के लिए नहीं।

     अब आगे बढ़ते हैं इस (/) चिह्न की ओर जिसको लेकर काफी हाय-तौबा मची। इसकी शुरुआत, जहाँ तक मेरी समझ है, व्यावसायिक पत्रों में अपनी अनभिज्ञता को ढकने के लिए प्रयोग हुआ और आज भी हो रहा है, ताकि अपने मनोनुकूल उसे व्याख्यायित किया जा सके। जहाँ तक मैंने हिन्दी भाषा पढ़ी है, विराम चिह्नों में इसका उल्लेख नहीं किया गया है। वर्तमान में केन्द्रीय विद्यालय के लिए प्रकाशित दो ख्यातिलब्ध विद्वानों द्वारा लिखित व्याकरण की पुस्तक में विराम चिह्नों पर चर्चा तक नहीं हुई है। भाषा के प्रारम्भिक दौर में इनका प्रयोग नहीं होता था। परन्तु लिखित भाषा को समझने में कठिनाई को दूर करने के लिए इनका प्रचलन शुरु हुआ। इनके अभाव में प्रायः सही भाव समझने में कठिनाई होती है और पाठक कुछ का कुछ समझ लेता है, जैसे इस वाक्य को देखिए- उसे रोको मत जाने दो। इसे पढ़कर पाठक क्या समझेगा - उसे जाने देना है या रोकना है, विराम चिह्न के सही प्रयोग के बिना समझना कठिन है।

जैसा कि पाठक विद्वानों ने चर्चा की है कि (/) का प्रयोग समकालीन कविता में ऐसे विन्यासपरक संकेतों का चलन समाप्त हो चुका है और इसके स्थान पर पंक्ति बदलकर लिखना या (/) चिह्न का प्रचलन शुरु हो गया है। इस विषय में कुछ कहना उचित नहीं है। क्योंकि शायद समकालीन कविता मैंने नहीं पढ़ी है। इसका प्रयोग कविता में ब्लॉग पर ही देखा है, अन्यत्र नहीं।
कुछ मित्रों ने तो यहाँ तक कह डाला है कि कविता एकदम परफेक्ट है और आचार्य परशुराम राय के विचारों से सहमत नहीं हैं। यहाँ पाठकों के लिए तो नहीं, हाँ कवि के लिए मेरा सुझाव है कि प्रशंसक और विरोधी दोनों ही मनुष्य के विकास में बाधक होते हैं। पहिए कविता में बिखराव बहुत है। रिक्शेवालों के लिए चीटियों की तरह अन्नकण मुँह में दबाए विशेषण का प्रयोग पूरे सन्दर्भ में अनावश्यक है, अतएव कवि को सदा जागरूक होकर लोगों के विचारों को ग्रहण करना चाहिए। क्योंकि भीड़-भाड़ में प्रायः सभी वाहन धीरे-धीरे चलने लगते हैं। यदि आदरणीय सलिल वर्मा की बात मान लें कि बालकनी से देखा गया दृश्य हो सकता है, तो और भी वाहन, जैसे सायकिल आदि के लिए क्यों नहीं लिखा गया। कहने का तात्पर्य यह कि कविता लिखने के बाद उसमे प्रयुक्त सभी पदों का उपयुक्तता के आधार पर मूल्यांकन स्वयं करना चाहिए। यही नहीं और भी ऐसे पद अनावश्यक पड़े हैं। एक पंक्ति में यही कहूँगा कि इसे कविता योग्य रूप देने के लिए पुनरावलोकन करने की आवश्यकता है। पूरी कविता का निचोड़ यह है कि कविता उतनी स्तरीय नहीं है, जैसा प्रशंसकों ने बताया है। केवल एक तथ्य को प्रकाशित करने के लिए कि पहियों पर दौड़नेवाले मनुष्य की अन्तिम यात्रा बिना पहिए की होती है, के लिए जो विस्तार दिया गया है, उसकी जरूरत नहीं है। क्योंकि वर्णन सामान्य है, अन्यथा बाह्य प्रकृति का भी समावेश होता।

 कवि के बचाव पक्ष में कमर कसने का कोई कारण नहीं समझ में आया। क्योंकि कोई ऐसी अनर्गल बातें उसमें नहीं लिखी गई थीं और न ही उसे कूड़ा कहा गया है। कुछ मित्रों की टिप्पणियाँ मुद्दे से हटकर थीं। उनका उद्देश्य जो भी रहा हो, कोई मायने नहीं रखता। नये विचार सुविधाजनक हों, कोई बात नहीं, लेकिन पुरातन इतने खटकने नहीं चाहिए। बिजली चली जाती है तो सुविधाकारक नवीन उपकरण काम नहीं करते। प्राकृतिक सुविधाएँ ही काम करती हैं। पाठ्यक्रमों में हम सूर, तुलसी, कबीर आदि को स्थान देना पिछड़ेपन की पहिचान समझते हैं। इसलिए उन्हें पाठ्यक्रमों से हटाने के लिए मुर्दाबाद, जिन्दाबाद के नारे लगाने में हम नहीं हिचकते। लेकिन मेरी समझ में नहीं आता कि इनसे अधिक कौन आधुनिक है। रामचरितमानस का पाठ करते हैं। पर कविवर धूमिल आदि को पढ़ते हैं। एक बहुत बड़ा तबका है जो मानस का पाठकर मुक्ति की आशा करता है। लेकिन कविवर धूमिल को पढ़कर नहीं। कविवर धूमिल, आदरणीय डॉ.नामवर सिंह आदि जिनके नाम लिए गए हैं, वे ही केवल काव्य-जगत के नियन्ता नहीं हैं। दूसरी बात कि जो कविता लिखते हैं, उनमें से कितनों ने इन्हें पढ़ा है या जो इनको समझते हैं। मैं यह भी बता दूँ कि मैंने उक्त रचनाकार एवं आलोचक को पढ़ा है और उनका आदर करता हूँ, और उनके विचार कालातीत नहीं हैं।

       अंत में एक हाइकू उसके दो अनुवाद दिए जा रहे हैं। एक जापानी हाइकू के अंग्रेजी अनुवाद का हिन्दी के दो प्रसिद्ध कवियों द्वारा किए गए अनुवाद नीचे दिए जा रहे हैं। मैं उनके नाम यहाँ जानबूझकर नहीं दे रहा हूँ। टिप्पणी में कहीं दूँगा -
The old pond      एक पुराना तालाब                   ताल पुराना 
A frog jumps in   और उछलते मेढक की आवाज         कूदा दादुर
Plop.           पानी के अन्दर।                    गडुप।         
  
आप सभी काव्य-मर्मज्ञों से अनुरोध है कि बताएँ कौन सा अनुवाद अच्छा है, चाहे शैली की दृष्टि से या शिल्प या काव्यात्मकता की दृष्टि से या ओवर आल।

यहाँ नाम इसलिए नहीं दे रहा हूँ कि खेमेबाजी न शुरु हो जाय।

इस अंक का समापन निम्न पंक्तियों से करते हुए इस स्तम्भ से विदा ले रहा हूँ-


बन्दउ ब्लॉग प्रमुख गन चरना।

छमहु जानि दास निज सरना।।

*****

                                                             

14 टिप्‍पणियां:

  1. आपने अपनी बात बहुत तार्किक ढंग से रखी ..... (/) इस चिह्न का प्रयोग कभी कभी कविता की पंक्तियाँ अलग समझी जाएँ उसके लिए अक्सर किया जाता है .... मैंने जब किसी काव्य संग्रह का परिचय लिखा है तब कविता ज्यादा स्थान न घेरे उसमें प्रयोग किया है ।

    जैसे हाइकु में ---

    ये मेरा मन / झर झर जाता है/ पीले पत्तों सा ।

    हाइकु के अनुवाद में मुझे दूसरा वाला अच्छा लगा । हाइकु के अनुवाद वाली पोस्ट मैं पढ़ चुकी हूँ

    जवाब देंहटाएं
  2. आभार आचार्य ||

    ताल पुराना पाय के, दादुर करे गुड़ूप |
    टर्राता टर टर टिकत, छोड़े अपना कूप |
    छोड़े अपना कूप, मित्रता भाव निभाते |
    एक कुंए की बात, बैठ के मन बहलाते |
    करे प्रशंसा ढेर, बहुत आये फुदकाना |
    पहली पहल सवेर, देखता ताल पुराना ||

    उत्कृष्ट प्रस्तुति का लिंक लिंक-लिक्खाड़ पर है ।।

    जवाब देंहटाएं
  3. आदरणीय आचार्य जी,

    सर्वप्रथम तो मैं आपका हृदय से आभारी हूँ जो आपने इस कविता के लिए इतना समय दिया। पिछली पोस्ट में मैने आपकी समीक्षा के उत्तर में यही लिखा था...

    आपके बताये सुझावों के अनुरूप संशोधन पर ध्यान देता हूँ। लेकिन अभी वैसे ही रहने देता हूँ ताकि पाठक उसे वैसा ही पढ़ सकें जैसा कि आपने लिखा है। गहन समीक्षा के लिए हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ। ब्लॉग जगत के इसी पक्ष से दुखी रहता हूँ कि कोई आलोचना नहीं करता, सुझाव नहीं देता। इस कविता की किस्मत अच्छी थी जो आँच पर चढ़ी।..आभार।

    मेरे इस कमेंट से आपको कोई तकलीफ पहुँची हो तो क्षमा चाहता हूँ। अभी इस पर विमर्श जारी है और आगे भी होने की संभावना है। अतः न कविता संशोधित करना ठीक है न इस समीक्षा पर अपने विचार देना ही ठीक है। मैं तो अभी उस विद्यार्थी की तरह प्राप्त अंको और कटे के निशान को देख रहा हूँ जिसने उत्तर लिखकर अपनी कापी जमा कर दी है। मैं तो बस आपके इस आदेश का अनुपालन कर रहा हूँ...अतएव कवि को सदा जागरूक होकर लोगों के विचारों को ग्रहण करना चाहिए।

    अब इस विषय पर इतना विमर्श हो चुका है तो अपना मत भी दूँगा कि मैने 'चीटियों की तरह अन्नकण मुँह में दबाये' केवल 'रिक्शों' के साथ ही क्यों प्रयोग किया। साथ ही यह भी कि अल्प विराम के स्थान पर (/) का प्रयोग क्या समझ कर किया। मेरी समझ ही ठीक है ऐसा मैं कभी नहीं मानता क्योंकि आप और दूसरे लेखकों का साहित्यिक ज्ञान मुझसे कहीं श्रेष्ठ है।
    ..सादर।

    जवाब देंहटाएं
  4. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं
  5. आचार्य जी हिंदी कविता की दुर्गति इस लिए भी हो रही है कि मुक्त कविता को रिदम से बिल्कुल ही मुक्त समझ लिया है है नई पीढी के कवियों ने. हिंदी गीत और नव गीत में ये रिदम तो हैं लेकिन कविता से यह अनुपस्थित ही हैं.. इसलिए इसका आकर्षण भी कम हुआ है... अंग्रेजी कविता जब आज़ाद हो रही थी और ब्लैकं वर्स आ गया था.. तब भी वहां इन्टरनल रिदम कविता का हिस्सा हुआ करता था..... पी बी शैली की कवितायेँ इसका बड़ा उदहारण हैं... खास तौर पर राइम टू एंसियेंट मरिनर में... हिंदी कविता में निराला के मुक्त छंद कविताओं में भी रिदम हैं.. जो भी सफल कवि हुए हैं उनमे मुक्त छंद होने के बाद भी आतंरिक रिदम तो रहा ही है...

    आज जब ब्लॉग जगत में तरह तरह की बातें हो रही हैं... आंच पढ़कर लगता है कि ब्लॉग जगत में साहित्यिक गरिमा है... लाइक.. नाईस... सुन्दर... बढ़िया अभिव्यक्ति... आदि टिप्पणियों से परे....देवेन्द्र पाण्डेय जी सौभाग्यशाली हैं जो उनकी कविता आंच पर पकी है... आपके बातों से सहमत हो कविता में संसोधन करें या न करें.. किन्तु यह लेख सबको पढना ही चाहिए....

    जाते जाते... हिंदी नव गीत के जनक माने जाने वाले श्री देवेन्द्र शर्मा इन्द्र आधुनिक कवि को यदि 'गीत हन्ता' मानते हैं तो गलत नहीं है.... कविता में एक रिदम क्रांति की जरुरत है... जो आप जैसी आलोचना से आएगी...

    जवाब देंहटाएं
  6. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं
  7. आँच-118 पर चर्चा में भाग लेना चाहा था पर मेरी टिप्पणी लिखने के बावजूद लग नहीं पाई थी तथापि विषयान्तर होते हुए भी काफी चर्चा कविता और आलोच्य कविता पर हुई। मैं इसे चीर-फाड़ की संज्ञा तो नहीं दूँगा। हाँ, इसका सबसे सकारात्मक पक्ष यह था कि इस सब को कवि ने बहुत सहज भाव से लिया। उन्हें इसके लिए धन्यवाद देना चाहूँगा।

    कविता कितना भी आधुनिक रूप क्यों न धर ले, उसके मूलभूत अंगोपांग सदा प्रासंगिक बने रहेंगे अन्य़था जिसे लोग आधुनिक और बुद्धितत्व की प्रधानता वाली कविता के नाम पर कविता कहेंगे लेकिन उसमें प्रवाह, प्रांजलता, व्यंजना, संश्लिष्ठता, काव्य की भाषा और रसनिष्पत्ति का अभाव होगा, वह कविता अधिक दिनों तक नहीं चल पाएगी। हाँ, डमरू बजाने से कुछ समय तक डमरू का शोर तो सुनाई दे सकता है। हमारी निजी सीमाएँ कविता की व्याख्या कदापि नहीं बन सकती। मेरा एक छोटा सा प्रश्न है कि लोग आज भी साठ-सत्तर के दशक के फिल्मी गीत ही अधिकांश क्यों गुनगुनाते हैं जबकि नए गीत ज्यादा धामाके के साथ प्रस्तुत तो होते हैं लेकिन मन मस्तिष्क में स्थान नहीं बना पाते। क्यों ? कुछ तो विशेषता है उन गीतों में।

    इस अंक की अंतिम पंक्तियों में आचार्य राय जी का संकेत हम सबके लिए, ब्लाग जगत के लिए क्षतिकारक है। हमारा उनसे आदर सहित विनम्र निवेदन है कि वह कृपया अपने निर्णय पर पुनर्विचार करें।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. शिष्यों पर होवे कृपा, गुरुवर क्यूँ नाराज ?
      क्षमा मांगते आपसे, सुने विनय आवाज |
      सुने विनय आवाज, कपाटों को पुनि खोलें |
      हम सब तो नादान, कृत्य से हुवे अबोले |
      सतत कृपा की चाह, राह न बंद कीजिये |
      नियमित हो यह आंच, हमें भी चढ़ा दीजिये ||

      हटाएं
  8. बहुत सुंदर
    बह्त ही सटीक है!
    हरीश प्रकाश गुप्त जी से सौ आने सहमत हूँ क्योंकी मैं खुद डमरू बजाता हूँ !

    जवाब देंहटाएं
  9. आज के दौर में छंद मुक्त को तो जैसे सुविधा विधा मान लिया गया हो और छंदमुक्त कह कर कुछ भी परोसा जा रहा है.ऐसे में निराला और धूमिल का उदाहरण उन लिखने वालों के लिए वास्तव में उपयोगी होगा.पठनीय और संग्रहणीय पोस्ट है.
    प्रस्तुत अनुवाद में हाइकु तो कोई नहीं है,हाँ क्षणिकाएं कह सकते हैं.हाइकु का भी अपना छंद विधान है.कोशिश करता हूँ अंग्रेजी कविता का हाइकु (5-7-5) में अनुवाद करने की.लीजिये देखिये:-
    एक मेढक
    पानी में कूद गया
    गुप-गुडुप


    जवाब देंहटाएं
  10. आपकी व्याख्या और समीक्षा सदा विचारणीय रहती है आज भी आपने वही बोध कराया है प्रणाम .

    जवाब देंहटाएं
  11. ...चीटियों की तरह अन्नकण मुँह में दबाए विशेषण का प्रयोग पूरे सन्दर्भ में अनावश्यक है, अतएव कवि को सदा जागरूक होकर लोगों के विचारों को ग्रहण करना चाहिए। क्योंकि भीड़-भाड़ में प्रायः सभी वाहन धीरे-धीरे चलने लगते हैं। यदि आदरणीय सलिल वर्मा की बात मान लें कि बालकनी से देखा गया दृश्य हो सकता है, तो और भी वाहन, जैसे सायकिल आदि के लिए क्यों नहीं लिखा गया।...

    यह बालकनी से देखा गया दृश्य नहीं है। यह बंद कमरे में जीवन भर देखते आये दृश्यों को याद करके यकबयक उपजी अनुभूती है। मात्र रिक्शों के संबंध में नहीं, प्रत्येक वाहन के संबंध में मैने कुछ न कुछ लिखा है। यह वस्तुतः उनको चलाने वालों के संबंध में है। 'चीटियों की तरह अन्नकण दबाये' विशेषण रिक्शे वाले के संबंध में लिखा है। जो जीवन रिक्शे वाले जीते हैं वे दूसरे वाहन चालक नहीं जीते। मैने ऐसा महसूस किया कि रिक्शे वाले चीटियों की तरह मात्र अन्नकण के लिए ही ताउम्र जद्दोजहद करते रहते हैं। साइकिल वालों के लिए भी मैने...आपस में गले मिलते / ठठाकर हँसते..शब्द का प्रयोग किया है। यहाँ मैने यह दर्शाने का प्रयास किया कि और वाहन चालकों की तुलना में साइकिल वाले ही आपस में प्रेम से बतियाने का क्षण ढूँढ पाते हैं। कोई रोटी के चक्कर में भाग रहा है, कोई एक दूजे से आगे बढ़ने की दौड़ में भागा जा रहा है। इन बेतरतीब भागते वाहनों के माध्यम से जीवन की भागदौड़ को ही बताने का प्रयास किया है।

    'रोको मत जाने दो' बिना अल्प विराम के नहीं लिखा जा सकता। लेकिन मेरी समझ कहती है कि काँपते/हाँफते घिसटते/दौड़ते में (/) का प्रयोग 'या' या 'सभी के' के अर्थ में किया जा सकता है।

    ...मेरा यह प्रयास स्तरीय नहीं रहा इसके लिए दोषी मेरा शब्द सामर्थ्य ही है, आपकी समीक्षा नहीं। मैं साहित्य का ज्ञाता नहीं, अदना सा विद्यार्थी ही हूँ। आपने जिन महान साहित्यकारों के कविता प्रवाह से इसकी तुलना की है, यह कविता उसके योग्य नहीं। आपकी पहली समीक्षा से मैं जितना प्रफुल्लित था। (वहाँ मेरा कमेंट दूसरे विद्वानो के कमेंट से पहले का है।) आपके इस विद्वता पूर्ण पोस्ट के अंतिम वाक्य से उतना ही दुखी हूँ। आप आँच पर लिखें चाहे न लिखें लेकिन मेरी हर कविता आपकी ऐसी ही समीक्षा की प्रतीक्षा हमेशा करती रहेगी। हो सके तो अपने निर्णय पर पुनः विचार करने का कष्ट करें क्योंकि आपने पहली समीक्षा में लिखा है..यह विचार मेरे अपने हैं, इससे कवि का या पाठकों का सहमत होना जरूरी नहीं है।
    ..सादर।

    जवाब देंहटाएं
  12. आंच का यह अंक विमर्श को आगे बढ़ाता है। इसी तरह के विचारों और विमर्श ने ब्लॉग जगत में आंच की गरिमा को शीर्ष पर पहुंचाया है और इसकी साख सौ से अधिक अंकों के बाद भी बनी हुई है।
    मुझे लगता है कि इस अंक में कही गई अधिकांश बातें पिछले अंक में मेरी अल्प बुद्धि से की गई टिप्पणी की ऊपज है। आंच के इस अंक में जो विचार व्यक्त किए गए हैं उसकी सभी बातों से सहमत हूं, सिवाए अंतिम पंक्तियों के।
    राय जी तो हमारे लिए मार्गदर्शक रहे हैं। इसलिए मैं उम्मीद करता हूं कि अपने बड़प्पन से हम अनुजों की धृष्टता को नज़र्‍रअंदाज़ करते हुए वे आंच की लौ को जलाए रखेंगे।

    जवाब देंहटाएं
  13. आंच ११९ में उठाई गई अवधारणाओं और तमाम बिन्दुओं से सहमत साहित्य का अकादमिक तो नहीं शौकिया छात्र रहा हूँ ,लय,ताल और बिम्बों भावों के अनुरूप शब्द चयन के कविता अ -रूप है ,विरूप है .
    पहिया कविता मैं ने भी पढ़ी है कई बार पढ़ी है .
    मनोज काइरोप्रेक्टिक चिकित्सा भारत में भी मुंबई ,हैदराबाद ,बेंगलुरु आदि अनेक नगरों में उपलब्ध है अलबत्ता इसका शिक्षण नहीं है अकादमिक रूप में .गूगल सर्च में काइरोप्रेक्टिक इन इंडिया ,डालें ,सर्च करें नाम पते ,दूर भाष आ जायेंगे .

    जवाब देंहटाएं

आपका मूल्यांकन – हमारा पथ-प्रदर्शक होंगा।