- करण समस्तीपुरी
अपने देश में सितंबर मास की एक विशेषता यह है कि
राष्ट्रीय संस्कृति जीवंत हो उठती है। पहले शिक्षक-दिवस फिर हिन्दी-दिवस। दोनों का मेरे जीवन
में महत्वपूर्ण स्थान है। मेरे सभी शिक्षकों का मेरे जीवन और चरित्र निर्माण में
महत्वपूर्ण योगदान रहा है। माता-पिता के उपरांत अध्यापकों का ऋण ही है जिससे कभी
उॠण नहीं हुआ जा सकता। मैं अपने सभी गुरुओं को सादर नमन करते हुए हिन्दी देवी को
स्मरण करता हूँ।
हमारे गाँव के विद्यालयों में शिक्षा हिन्दी-माध्यम
से होती है। किन्तु मुझे हिन्दी में सुलेख और शुद्ध-लेखन की महिमा का ज्ञान प्राप्त
हुआ एक विज्ञान-शिक्षक से। अंसारी बाबू। नाम तो पढ़ा ही होगा पिछले अंक में। बड़े ही
सुहृद शिक्षक थे। तदोत्तर माध्यमिक कक्षाओं में श्री गणेश बाबू और ठाकुर जी जैसे
शिष्य-वत्सल अध्यापकों का सानिध्य मिल गया। ठाकुरजी उस वित्तरहित उच्च विद्यालय के
प्रधानाचार्य थे और गणेश बाबू हिन्दी के अध्यापक।
उपर्युक्त अध्यापक-द्वेय की अध्यापन शैली बड़ी रोचक
है। श्रीवर ठाकुरजी ज्ञान के अक्षय-कोष हैं। रेवाखंड में उनकी प्रतिष्ठा एक ऐसे
लोकप्रिय संपूर्ण शिक्षक की है जिन्हें कला एवं साहित्य विषयक सभी संकायों में
निपुणता प्राप्त है। उनके पाठन-शैली की सबसे बड़ी विशेषता थी उसकी जीवंतता। वे सिर्फ़
विषयगत ज्ञान तक ही सीमित नहीं रहते थे। विषयानुसार वे वेद, उपनिषद, स्मृति,
शे’र-ओ-शायरी, ग़जल, लोकगीत, लोक-संस्कृति यहाँ तक कि फिल्मी गानों तक के पुट देते
रहते।
गणेश बाबू का शिक्षण-शिल्प अभिनयात्मक था। वे किसी
पाठ के वाक्यों को नाटकों के संवाद की तरह बोलते थे। रचना और रचनाकार की पृष्ठभूमि,
एक-एक अंश के शाब्दिक अर्थ, भावार्थ, काव्य-तत्व, साहित्यिक मर्म तक का परिचय करवा
देते थे। विशेषतः भक्तिकालीन कवियों को पढ़ाते हुए उन्होंने मेरे अंदर हिन्दी
साहित्य के लिए जो अनुराग उत्पन्न कराया कि फिर मैं उससे अलग कभी नहीं हो पाया।
महाविद्यालय में विज्ञान के मोह ने घेरा अवश्य था किन्तु साहित्य के आवेग ने शीघ्र
ही मुक्ति दिला दी।
स्नातक-स्नातकोत्तर कक्षाओं में भाषा, साहित्य,
साहित्यिक विधा, साहित्यकार, रस-अलंकार, आलोचना, समीक्षा, भाषा- विज्ञान यही सब
होता रहा। मैं आरंभ से ही कुछ कल्पनाजीवी रहा हूँ। वास्तविक संसार से अलग भी मेरा
एक संसार है, जिसमें मैं सांसारिक दायित्वों से विलग उन्मुक्त विचरण करता रहता हूँ।
कभी-कभी उसी कल्पनालोक से फूट पड़ती है कोई काव्य-किरण या कथाधारा। कभी कोई हास्य।
तीस बसंत पार करने के बावजूद मेरा कल्पनालोक बालावस्था की तरह चंचल है। इसमें अक्सर
निरर्थक और उटपटांग विचार भी आते रहते हैं।
पाँच-सात वर्षों तक साहित्य-साहित्यकारों को
घोंट-घोंट कर पीता रहा किन्तु एक लालसा कल्पनालोक में ही पूरी हो पाती थी। लालसा यह
जानने की कि साहित्यकार भला अपने वास्तविक जीवन में होते कैसे हैं? क्या उनमें कोई
परामान्विक शक्ति होती है? या वे भी हमारी तरह हमारे ही समाज के सामान्य प्राणी
हैं? पुस्तकों में इतनी अच्छी-अच्छी बातें लिखने वाले क्या बोलते भी वैसे ही हैं?
क्या किताबों के वही आदर्श उनके व्यावहारिक जीवन में भी होते हैं? आदि-आदि। ये सभी
प्रश्न या तो अनुत्तरित रह जाते अथवा मेरी कल्पना ही उसका कुछ मनपसंद उत्तर गढ़
लेती।
धीरे-धीरे कविता-कहानी लिखने की प्रक्रिया बढ़ी तो
कुछ परिचितों ने हास्य के लिए, कुछ ने उपहास के लिए और कुछ ने उत्साह के लिए मुझे
भी ‘साहित्यकार’ कहना शुरु कर दिया। मैं बड़ी दुविधा में पड़ जाता। एक बात और रही है
कि मैं अपने आचरण के प्रति बड़ा सजग रहता हूँ। मैं अभी तक स्वयं को हिन्दी साहित्य
का महज एक विद्यार्थी ही समझता हूँ किन्तु तभी बड़ी कठिनाई हो जाती थी। मैं सोचता
चलो कहने वालों का मान रखने के लिए ही सही किन्तु साहित्यकार सुलभ आचरण तो कर लूँ।
लेकिन मुश्किल ये कि मैं ने किसी साहित्यकार को देखा ही नहीं था। उनका आचरण भला
क्या जानता! जीवन अपने रास्ते बढ़ता गया।
सन 2009 में चाचाजी (मनोज कुमार) हिन्दी का ब्लाग
आरंभ कर मेरी लेखनी में भी स्याही भरने लगे। जीवन एक बार फिर व्यवसायिक राजपथ के
समांतर उन्ही पुरानी पगडंडियों पर भागने को मचलने लगा। काव्य-प्रसून, कथांजलि,
देसिल-बयना, आँच, फ़ुर्सत में, काव्यशास्त्र...! वह लालसा फिर जग गयी। साहित्यकार को
देखने की लालसा। साहित्यकार से मिलने की लालसा। उन्हें स्पर्श कर यह निश्चित कर
लेने की लालसा कि वे भी इसी समाज के स्थूल प्राणी ही हैं। किन्तु ये प्राणी मिलेंगे
कहाँ? यह प्रजाति या तो तेजी से विलुप्त होती जा रही है या कुकुरमुत्ते की तरह ऐसे
उग रही है कि भ्रम चहुँ दिश। जो नामचीन हैं वहाँ तक पहुँचना दुर्लभ और जिनका नाम
नहीं है उनकी पहचान कठिन।
कुछ मेरी भी बात ...मित्रों!जब ब्लॉगिंग में पहला कदम रखा था, तो कल्पना भी नहीं की थी कि यह सफर एक हज़ारवीं पोस्ट तक पहुँच जाएगा। पर आज यह सपना सच हुआ। आपके प्रोत्साहन की ऊर्जा हमें मिलती रही और हम निरंतर आगे बढ़ते रहे। लगभग तीन साल पहले इसी महीनेमेंइस ब्लॉग पर पहली पोस्ट प्रकाशित की गई थी और आज हम हाज़िर हैं हज़ारवीं पोस्ट के साथ। हमें इस बात का संतोष है कि हमने एक भी ऐसी पोस्ट नहीं प्रकाशित की जिससे ब्लॉग जगत की मर्यादा को सामान्यतः और किसी ब्लॉगर को विशेषतः क्षति पहुंचती हो।इस ब्लॉग की कई रचनाओं को विभिन्न मंच, साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में स्थान प्राप्त हुआ। ... और आज हज़ारवीं पोस्ट तक आते-आते इस ब्लॉग की रचनाओं को जो सम्मान मिला है उसने हमारा मनोबल काफ़ी बढ़ाया है और हमें आत्मसंतुष्टि प्रदान की है। ऐसे में इसी ब्लॉग पर स्व. आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री से हमारी भेंट-वार्ता की पांच अंकों की श्रृंखला का “अलोचना” जैसी प्रतिष्ठित सहित्यिक पत्रिका, जिसके प्रधान संपादक डॉ. नामवर सिंह हैं, के ताज़े अंक (पैंतालीस) में स्थान मिलना एक बड़ी उपलब्धि है।जहाँ यह अवसर हमारे लिए गर्व और उत्साह का है वहीं एक उत्तरदायित्व के बोध का भी है. अतःहम और अधिक जिम्मेदारी के साथ इस ब्लॉग जगत में अपनी भूमिका निभाते रहें, इस प्रण के हम अपनी पूरी टीम के सदस्य सर्व श्री परशुराम राय, हरीश गुप्त करण समस्तीपुरी और सलिल वर्मा के साथ आपके स्नेह और प्रोत्साहन की आकांक्षा रखते हैं! - मनोज कुमार
उन्हीं दिनों प्रादेशिक समाचार पत्र के अंतर्जालीय
प्रारूप में एक दो-चार पंक्तियों की खबर पढ़ी। दर्जन भर पशु-पक्षियों के पालन-पोसन
हेतु हिन्दी के प्रख्यात कवि आचार्य जानकीबल्लभ शास्त्री को अपने घर के जमीन का एक
हिस्सा ‘फिर’ बेचना पड़ा। उनकी कविता पढ़ी थी नवम या दशम कक्षा में। ‘किसने वह
बाँसुरी बजाई’। मन बरबस उस बाँसुरी के स्वर को ढुँढने लगा। यूँ तो आचार्य जी रहते
हमारे पास के शहर मुजफ़्फ़रपुर में ही थे किन्तु उनसे मिलने की योजना सुदूर दक्षिण
भारतीय शहर बंगलोर में आने के बाद बनी। छठ-पूजा में घर जाना निश्चित हुआ। चाचाजी
(इस ब्लाग के व्यवस्थापक) से बात हुई तो उन्होंने तत्क्षण अनुमति, सहमति और साहचर्य
का भरोसा दे दिया।
नवंबर 2010, हम सभी लोग गए मुजफ़्फ़रपुर। चाचाजी का
आरंभिक जीवन उसी शहर
में बीता था किन्तु कथित विकास के बयार ने अपने शहर को भी अजनबी कर दिया था। एक
छोटे से संघर्ष के बाद ब्रह्मपुरा रेलवे कालोनी के अपने उस निवास को ढ़ूंढ पाए
जिनमें उनका बचपन, तरुनाई और छात्र जीवन बीता था। भावुक हो गए थे। भावनात्मक
स्मृतियों का एक युग साथ आई चाचीजी के आँखों से भी गुजर गया था। दुल्हन बन कर पहली
बार उसी घर में जो आई थीं।
चाचाजी हम सभी को बताने लगे कि तब जहाँ और जिस चौकी
पर हम बैठे थे वहीं और उसी तरह की एक चौकी पर बैठ उन्होंने प्राथमिक से स्नातकोत्तर
तक की पढ़ाई और फिर सिविल-सेवा की तैय्यारी भी आरंभ किया था। भावनाओं के आवेग ने कंठ
तो अवरुद्ध कर ही दिया था चाचाजी की पनियाई आँखें भी कुछ खोज रही थी, शायद चौकी से
लगा रहने वाला वह मेज जिस पर उनकी किताबें और केरोसिन से जलने वाली लालटेन रहा करते
थे।
उसी शहर में आचार्य जानकीबल्लभ शास्त्री भी रहते थे।
‘चतुर्भुज-स्थान’ के पास। उस स्थान की विसंगति देखिए कि भगवान विष्णु के नाम पर बसा
मुहल्ला उत्तर बिहार के सबसे बड़े ‘रेड-लाइट’ एरिया के रूप में जाना जाता है। रामबाग
रोड से होकर जाना पड़ता है। रामबाग...! चाचाजी की आँखों में यादों का एक दौर उमर आया
था। इसी रास्ते पर तो जिला स्कूल हुआ करता था... उनकी माध्यमिक शिक्षा का मंदिर।
प्रगति की तेज गति ने शहर के यातायात की गति को
अत्यंत ही मंद कर दिया। उस पर से तुर्रा यह कि हवाई-पुलों ने आने और जाने वाली
सड़कों को भी बाँट दिया था। बड़े संघर्ष के बाद हम आचार्य जानकी बल्लभ शास्त्री जी का
घर खोज पाए। ‘निराला-निकेतन’। एक बड़े से नीले काष्ठ-फ़लक पर सफ़ेद अक्षरों में अंकित
था। सिर किसी तीर्थ सी श्रद्धा से नत हो गया। मुख्य-द्वार से कोई बीस मीटर की दूरी
पर बने दो-मंजिला भवन के देहरी में बिछी चौकी पर आचार्य जानकीबल्लभ शास्त्री
विराजमान थे। कृषकाया पर आधे बाँह की बनियान और कमर से नीचे धोती लपेटे। शरीर का
निम्नार्ध पक्षाघात से शून्य हो चुका था।
प्रांगण में अनेक गाएँ और बैल बँधे थे। उनमें से कुछ
खा और कुछ पगुरा रहे थे। कुत्ते-बिल्लियों
की निर्भय अठखेलियाँ चल रही थी। कुत्ते-बिल्लियों के बच्चे साधिकार आचार्यजी की गोद
में, काँधे पर, सिर पर, विछावन पर खेल रहे थे। शास्त्रीजी कभी उन्हे सस्नेह सहलाते
और कभी सामने पड़े बिस्किट के डब्बे से बिस्किट तो कभी कटोरे में भर-भर कर दूध
पिलाते थे। मानवेत्तर प्राणियों के लिए एक महामानव के हृदय में इतनी सदय संवेदना
देखकर मन श्रद्धावनत हो गया।
सच में वह निराला-निकेतन था। आचार्यजी के अनुसार
निराला-निकेतन के दरबाजे सबके लिए खुले थे। चाहे वह मनुष्य हो, पशु-पक्षी या कोई।
जो चाहे, आए, रहे। वे किसी को भगाएँगे नहीं, जाने को नहीं कहेंगे। उस परिसर के अंदर
जो भी आए उसका भोजन और आश्रय देना शास्त्रीजी के कर्तव्यों में सबसे ऊपर था।
उम्र नब्बे के पार हो चली थी लेकिन वाणी में वही ओज
था। शुद्ध हिन्दी बोलते थे किन्तु क्लिष्ट नहीं। बीच-बीच में कई बात भूल जाते।
उन्हें दुहराते थे। स्मृति की कड़ियाँ टूट रही थी मगर छूट नहीं पाती थी। बड़ी ही
आनंद-दायक सुदीर्घ वार्ता हुई। उनके जीवन की अंतिम बड़ी भेंटवार्ता। बड़े ही अपनेपन
से बतियाए थे। हमारे अबोध, नादान, तार्किक सभी प्रश्नों के उत्तर दिए। अपने निराले
जीवन की हरेक परत खोलते गए। उनके समय, उनका साहित्य और उनका व्यक्तित्व से संबंधित
हमारी सभी जिज्ञासाओं का शमन अपने स्नेहिल वाणी में सयंत उत्तरों से करते रहे।
आचार्यजी का व्यकित्व उद्दात था। जिजीविषा उद्दाम
थी। उनके आदर्श उनके व्यवहारों में निरुपित थे। पितृदेवो भवः! उन्होंने अपने आवास
में ही एक मंदिर बनवाकर पिता की मुर्ति स्थापित करवा दी थी और नित्य प्रति उन्हीं की पूजा
करते थे। जीव मात्र के लिए स्नेह! दर्जनों पालतू और यायावर पशु उनकी संवेदना में
समादृत थे। कर्म ही पूजा है! शिक्षण और साहित्य-साधना ही उनके तीर्थ-व्रत थे। जहाँ
पर दिन में बैठने में भी हमें मच्छरों से महाभारत करना पड़ रहा था वहीं शास्त्री जी
रात-रात भर जग कर कई प्रबंध काव्य रचे। जन भावना का गायक! सिर्फ़ उपलब्धि पूछने पर
यह कहते हुए पद्मश्री सम्मान ठुकरा देना कि जब मेरी उपलब्धि ही पता नहीं है तो
सम्मान क्यों दे रहे हैं किन्तु मेरे आग्रह पर छियानबे वर्ष की उम्र में भी राग
केदार के अलाप के साथ प्रसिद्धि और लोकप्रियता का पर्याय गीत ‘किसने यह बाँसुरी
बजाई’ गाकर सुनाते हैं। औदात्त प्रणय...! उस समय भी ‘राधा’ नामक प्रबंध काव्य में
छपी अर्धांगिनी के चित्र को देख उनकी आँखों ने जैसे प्रणय की मूक परिभाषा कह दिया
हो। अतिथि देवो भवः! बीमार पत्नी को भी हमारे आगमन की सूचना देने की व्याकुलता।
दोनों प्राणी की शारीरिक अशक्तता के बावजूद भोजन करके जाने का आग्रह और विदा लेते
समय पुनः आने का अनुरोध...! उनके कहे एक-एक वाक्य सूक्ति से लगते हैं। जैसे “मैं
भाग्यशाली हूँ इस अर्थ में कि मुझे कोई जानता ही नहीं है।” “प्रेम करना एक बात है
और प्रेम पर भाषण करना एक और बात।” “अच्छे लोग बीमार ही रहते हैं। बीमार नहीं
रहेंगे तो या तो पियक्कड़ हो जाएँगे या पागल।” जीवन के तिक्त अनुभवों ने उनकी
सूक्तियों में चमत्कारिक व्यंग्यार्थ भर दिये हैं।
शास्त्रीजी से हुई भेंट को दो साल हो गए। उनकी भी
इच्छा थी और हमने भी सोच रखा था कि अब जब कभी गाँव जाएँगे उनसे मिलकर आयेंगे।
किन्तु अगली बार हमारी गाँव-यात्रा से पहले ही आचार्यजी गोलोक-प्रस्थान कर गए।
‘निराला-निकेतन’ में बीते एक-एक पल को हमने ब्लाग पर पहले से ही संजोए रखा है। सत्य
कहूँ तो मेरे जीवन से यदि वह एक दिन निकाल दें तो बाकी हिस्सा अत्यंत हल्का हो
जाएगा। वह एक दिन मेरी पूरी जिन्दगी है। किन्तु आज उन्हें स्मृति के शिखर पर लाने
का श्रेय मैं श्री सचिन पूरी जी को देना चाहूँगा।
सचिन पूरी जी (+91-9860224624) महाराष्ट्र के
अहमदपुर शहर में अध्यापन कार्य करते हैं। आचार्य जानकी बल्लभ शास्त्री के कृतित्व पर शोध-कार्य कर रहे हैं।
पिछले दिनों सचल दूरभाष यंत्र की घंटी बजी। उधर से एक अनजान पुरुष आवाज आई। वे किसी
पत्रिका में मेरा ‘इंटरव्यू’ छपने पर बधाई दे रहे थे। रातो-रात सेलिब्रिटी होने के
भाव को छिपाते हुए मैंने साश्चर्य कहा कि आजतक किसी पत्र-पत्रिका को इंटरव्यू दिया
ही नहीं मैं ने तो छपा कैसे ? तब उन्होंने बताया कि मेरा नहीं (वही तो...! मैं कब
से इतना बड़ा सेलिब्रिटी हो गया?) बल्कि आचार्य जानकी बल्लभ शास्त्री जी का वह
इंटरव्यू छपा है जो हमने किया था। पत्रिका है “आलोचना”। वहीं से मेरा नंबर भी
उन्हें मिला। यही सज्जन हैं सचिन पूरी। तभी तो मैंने उन महानुभाव को धन्यवाद कह
दिया किन्तु विश्वास अब हो रहा है जब ‘आलोचना’ का वह अंक हाथ में है। मैं नहीं
जानता किन्तु यदि यह उपलब्धि है तो मैं इसे आज इस ब्लाग के हजारवें प्रविष्टी के साथ आपसे शेयर करता
हूँ। इसके वास्तविक अधिकारी आप ही हैं।
बधाई और शुभकामना करण जी.... आज का पोस्ट विविधता से पूर्ण है... विस्तृत कमेन्ट बाद में...
जवाब देंहटाएंबधाई हो करण जी..
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत बधाई ..आपको , मनोज जी को और मनोज की पूरी टीम को. विविधता और उत्कृष्ठता इस ब्लॉग का परम गुण है. कायम रहे यही दुआ है.
जवाब देंहटाएंहजारवीं पोस्ट के लिए इस ब्लॉग की पूरी टीम को बधाई .... आलोचना पत्रिका में जानकी बल्लभ शास्त्री जी का लेख छपा इसके लिए भी बधाई ।
जवाब देंहटाएंएक दिन में बहुत कुछ समेट लिया ...
बहुत बहुत बधाई करण भाई |
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें ||
आपकी इस हजारवीं प्रविष्टि पर स्म्रितिशिखर की सर्वोच्च ऊंचाई दिखाई दी.. मेरा नाम भी जोडकर आपने मुझे कृतार्थ किया है.. मैं तमाम सदस्यों को शुभकामनाएं देता हूँ क्योंकि यहाँ आकर मैंने आचार्य जी से काव्यशास्त्र की बारीकियां सीखीं, हरीश जी से पैनी नज़र पाई, आपकी फुर्सत की घड़ियाँ और करण जी के स्मृति प्रवाह देखे.. कुल मिलाकर आपको हजारीलाल कहूँ कि हजारी प्रसाद.. बस बधाई!!
जवाब देंहटाएंआचार्यजी के बारे में आपके माध्यम से जान चुके थे, आज याद ताजा हो आयी।
जवाब देंहटाएंबधाई बधाई
जवाब देंहटाएंसाहित्यकार से मिलने की लालसा। उन्हें स्पर्श कर यह निश्चित कर लेने की लालसा कि वे भी इसी समाज के स्थूल प्राणी ही हैं। किन्तु ये प्राणी मिलेंगे कहाँ? यह प्रजाति या तो तेजी से विलुप्त होती जा रही है या कुकुरमुत्ते की तरह ऐसे उग रही है कि भ्रम चहुँ दिश। जो नामचीन हैं वहाँ तक पहुँचना दुर्लभ और जिनका नाम नहीं है उनकी पहचान कठिन।
जवाब देंहटाएंplease think over it
ब्लॉग के सहस्रार पर करन बाबू का स्मृति-शिखर शिवत्व के रूप में सुशोभित हो रहा है। यह श्रेय आपको मिला, इसके लिए बहुत-बहुत बधाई। इस ब्लॉग के संस्थापक एवं सभी सदस्यों को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ। इस यात्रा में पाठक-वृंद को उत्साहवर्धन के लिए हृदय से आभार।
जवाब देंहटाएंhardik badhayee......
जवाब देंहटाएंब्लाग यात्रा की हजारवीं पोस्ट के लिए अपने सभी प्रिय पाठकों, मित्रों को हार्दिक बधाई। करण जी, इस विशिष्ट उपलब्धि से आपके सम्बद्ध होने पर आपको विशेष बधाई।
जवाब देंहटाएंहज़ारवीं पोस्ट तक पहुँची ,इस पूरी टीम को बधाई !विविधता को बनाये रख कर विभिन्न क्षेत्रों में चल रहा यह कार्य निरंतर आगे बढ़ता रहे !
जवाब देंहटाएंहजारवी पोस्ट के लिये बधाई । करण जी का स्म़ृति चित्र बहुत सुंदर ।
जवाब देंहटाएंहज़ारवीं पोस्ट ..मिठाई तो खिलाईये और बधाई पा जाईये!!
जवाब देंहटाएं