भारतीय
काव्यशास्त्र – 124
आचार्य
परशुराम राय
पिछले अंक से अलंकारों पर चर्चा प्रारम्भ करते हुए
अलंकार के भेदों का उल्लेख किया गया था। इस अंक में शब्दालंकारों के भेद पर चर्चा
की जाएगी।
शब्दालंकारों के
भेद पर भी आचार्यों में मतभेद है। भोजराजदेव ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ
सरस्वतीकण्ठाभरणम् में 24 शब्दालंकारों की सूची दी है। लेकिन अधिकांश आचार्यों ने
इसे स्वीकार नहीं किया है, क्योंकि वे सभी समानार्थी शब्दों के परिवर्तन के प्रति
असहिष्णु नहीं हैं। समानार्थी शब्दों के परिवर्तन के प्रति असहिष्णुता और
सहिष्णुता ही क्रमशः शब्दालंकार और अर्थालंकार की सीमा रेखाएँ हैं। अतएव छः शब्दालंकार
माने गए हैं - वक्रोक्ति,
अनुप्रास, यमक, श्लेष, चित्र और पुनरुक्तवदाभास। आचार्य सोमेश्वर ने
काव्यप्रकाश पर की गई टीका में इन्हें निम्नलिखित श्लोक में सूचीबद्ध किया है-
वक्रोक्तिरप्यनुप्रासो यमकं श्लेषचित्रके।
पुनरुक्तवदाभासः शब्दालङ्कृतयस्तु षट्।।
वक्रोक्ति को परिभाषित करते
हुए आचार्य मम्मट लिखते हैं कि वक्ता द्वारा अन्य प्रकार से कहे हुए वाक्य
का अर्थ श्लेष या कहने के लहजे (काकु) के द्वारा श्रोता वक्ता के अभिप्राय से
भिन्न समझे, उसे वक्रोक्ति अलंकार कहते हैं-
यदुक्तमन्यथावाक्यमन्यथाSन्येन
योज्यते।
श्लेषेण काक्वा वा ज्ञेया सा वक्रोक्तस्तथा द्विधा।।
वक्रोक्ति अलंकार दो प्रकार का होता
है - श्लेष
वक्रोक्ति और काकुवक्रोक्ति। श्लेषवक्रोक्ति के पुनः दो भेद होते हैं - सभंगश्लेष
वक्रोक्ति और अभंगश्लेष वक्रोक्ति।
सभंगश्लेष वहाँ होता है,
जहाँ शब्द को संधि-विच्छेद या समासविग्रह के द्वारा तोड़कर वक्ता के अभिप्राय से
भिन्न अर्थ लिया जाय। इसके लिए निम्नलिखित श्लोक काव्यप्रकाश में उद्धृत किया गया
है-
नारीणामनुकूलमाचरसि चेज्जानासि कश्चेतनो
वामानां प्रियमादधाति हितकृन्नैवाबलानां भवान्।
युक्तं किं हितकर्तनं ननु बलाभावप्रसिद्धात्मनः
सामर्थ्यं भवतः
पुरन्दरमतच्छेदं विधातुं कुतः।।
यहाँ वक्ता कहता
है कि नारियों के अनुकूल आचरण करते हो। इसलिए तुम समझदार हो।
श्रोता नारीणाम्
(स्त्रियों के) का संधिविच्छेद कर न अरीणां (शत्रुओं के) अर्थ समझकर
उत्तर देता है - कौन ऐसा
बुद्धिमान है जो शत्रुओं के (वामानाम्) अनुकूल आचरण करेगा, अर्थात् कोई नहीं।
लेकिन इसका श्रोता
(पूर्व वक्ता) वाम का अर्थ शत्रु न लेकर वामा (स्त्री) लेता है,
(संस्कृत में वाम और वामा दोनों का षष्ठी विभक्ति, बहुवचन में वामानाम् रूप बनता
है) और यह समझ बैठता है कि कौन बुद्धिमान स्त्रियों के शासन में रहना पसन्द करेगा,
अर्थात् कोई नही। और उससे पूछता है कि क्या आप अबलाओं का हित करनेवाले नहीं हैं
(हितकृत् न एव अबलानां भवान्)? लेकिन दूसरा व्यक्ति
(श्रोता) अबलानाम् का अर्थ निर्बलानाम् (निर्बलों का) लेते हुए समझता है कि
दुर्बलों के हितों का नाश करनेवाले नहीं हो? और उत्तर देता है- कि क्या बात करते हैं, निर्बलों के हित का विनाश करना
क्या उचित, अर्थात् बिलकुल नहीं (बलाभावप्रसिद्धात्मनः हितकर्तनं युक्तं किम्?)। लेकिन इसका श्रोता
या पूर्ववक्ता यहाँ बलाभाव का अर्थ बल के अभाववाला या निर्बल न लेकर बल नामक असुर
को जीतनेवाला इन्द्र लेकर समझता है कि क्या देवराज इन्द्र के हित का विनाश करना
उचित है, अर्थात् नहीं। और उत्तर देता है कि आप में इन्द्र के हित का विनाश करने
की सामर्थ्य कहाँ है?
यहाँ केवल नारीणाम्
पद का सन्धि-विच्छेद से न+अरीणाम् कर देने से
उल्लिखित प्रत्येक कथन का श्रोता और वक्ता अलग-अलग अर्थ समझ बैठे। अतएव इसमें
सभंगश्लेष वक्रोक्ति अलंकार है। आचार्य विश्वेश्वर जी ने इसके लिए हिन्दी की
निम्नलिखित कविता उद्धृत की है। इसकी पहली पंक्ति माता पार्वती के प्रति भगवान शिव
की उक्ति है और दूसरी पंक्ति में माता पार्वती का उत्तर है -
गौरवशालिनी प्यारी हमारी, सदा तुम इष्ट अहो।
हौं न गऊ, नहिं हौं अवशा, अलिनी हूँ नहीं अस काहे कहो।
यहाँ भगवान शिव
द्वारा प्रयुक्त गौरवशालिनी पद का अर्थ माता पार्वती ने इसमें
सन्धि-विच्छेद कर गौः+अवशा+अलिनी कर गाय, अवशा
और अलिनी (भ्रमरी) समझकर उत्तर देती हैं। अतएव इसमें भी सभंगश्लेष वक्रोक्ति
है।
अभंगश्लेष
वक्रोक्ति में संधि-विच्छेद या समास-विग्रह से पद को बिना अलग किए वक्ता के
अभिप्राय से भिन्न अर्थ समझ लिया जाता है -
अहो केनेदृशी बुद्धिर्दारुणा तव निर्मिता।
त्रिगुणा श्रूयते बुद्धिर्न तु दारुमयी क्वचित्।।
अर्थात् किसने
तुम्हारी ऐसी दारुण (निर्दय कठोर) बुद्धि बनाई? लेकिन श्रोता ने दारुणा का अर्थ (दारु का तृतीया बहुवचन में दारुणा)
काष्ठेन (काठ से) समझकर उत्तर देता है- (सांख्य दर्शन में) तीन गुणों से बनी
बुद्धि तो सुनी जाती है, काठ से बनी बुद्धि तो नहीं सुनी जाती।
यहाँ बिना
संधि-विच्छेद या समास-विग्रह किए दारुणा पद का वक्ता के अभिप्राय से भिन्न
अर्थ काठ से निर्मित श्रोता ने लिया है। अतएव इसमें अभंगश्लेष वक्रोक्ति
है। हिन्दी में भूषण कवि का यह कवित्त अभंगश्लेष वक्रोक्ति के उदाहरण के लिए
उद्धृत किया जा रहा है-
सहितनै तेरे बैर बैरिन कों कौतिग सो,
बूझत फिरत कहौ काहे रहे तचि हौ।
सरजा के डर हम आए इत भाजि तौSब,
सिंध सों डराइ याहू ठौर तें उकचिहौ।
‘भूषन’ भनत वै कहैं कि हम
सिव कहैं,
तुम चतुराई सों कहत बात रचि हौ।
सिव जो पै सत्रु तौ निपट कठिनाई,
तुम बैर त्रिपुरारि के तिलोक में न बचिहौ।।
यहाँ वक्ता ने
शिवाजी के बैरी सरजा (शरजाह नाम की उपाधि) और शिवाजी से डरने की बात कही है, जबकि
श्रोता ने इसका इसका अर्थ सिंह और महादेव लेकर उत्तर दिया है। अतएव यहाँ भी अभंगश्लेष
वक्रोक्ति है।
कंठ-ध्वनि में
परिवर्तन (By using stress on the different
words)
से भिन्न अर्थ समझे जाने की स्थिति को काकु वक्रोक्ति कहा जाता है-
गुरुजनपरतन्त्रतया दूरतरं देशमुद्यतो
गन्तुम्।
अलिकुलकोकिल ललिते नैष्यति सखि सुरभसमयेSसौ।।
अर्थात् गुरुजनों
की आज्ञा से विदेश जाने को वे तैयार हुए। इसलिए हे सखि, भवरों एवं कोयलों के मधुर
ध्वनि के समय (वसन्त में) वे नहीं लौटेंगे।
यहाँ नायिका द्वारा
अपनी सखी से कही गई बात है। दूसरे वाक्य को सहेली यों कहती है - अलिकुलकोकिल ललिते नैष्यति सखि
सुरभसमयेSसौ? अर्थात् क्या वे
वसन्त में नहीं आएँगे? अर्थात् अवश्य
आएँगे। इस प्रकार काकु से विपरीत अर्थ लिए जाने के कारण यहाँ काकुवक्रोक्ति
अलंकार है।
इसी प्रकार हिन्दी
का यह सोरठा काकुवक्रोक्ति का उदाहरणर है -
क्यों ह्वै रह्यो निरास, कहि-कहि नहिं हरिहैं विपति।
राखिय दृढ़ विस्वास, हरि ह्वै नहिं हरिहैं बिपति?
यहाँ विपत्ति का
मारा व्यक्ति निराश होकर बार-बार कहता है- नहिं हरिहैं बिपति (दुख दूर नहीं
करेंगे)। दूसरा व्यक्ति उसी को काकु द्वारा कहता है- नहिं हरिहैं बिपति? विपत्ति दूर नहीं
करेंगे? अर्थात् अवश्य
करेंगे। अतएव इस सोरठे में भी काकुवक्रोक्ति अलंकार है।
इस
अंकमें बस इतना ही।
*****
बहुत ही रोचक वर्णन.. बहुत ही सुन्दर व्याख्या.. आचार्य जी, मुझे इस विषय में बड़ा आनंद आता है और इसका प्रयोग बिना विषय को जाने हुए मैं यदा-कदा करता रहता हूँ..
जवाब देंहटाएंप्रायः फेसबुक पर लोगों की बातों पर कमेन्ट करते समय इस प्रकार की आलंकारिक भाषा लोगों को प्रभावित करती है और कई बार हास्य भी उत्पन्न करती है.. मज़ा तो तब आता है अजब कहने वाले ने किसी दूसरे अर्थ में बात कही होती है और टिप्पणीकर्ता ने उसका एक अन्य अर्थ में उत्तर दिया होता है..
कई बार वे अर्थ मूल वक्तव्य को एक नवीन आयाम प्रदान करते हैं और कई बार अर्थ का अनर्थ भी कर डालते हैं!! जैसे नारीणाम् को न अरीणाम् ग्रहण करना.. बहुत सुन्दर दृष्टांत!!
आभार इस बहुमूल्य पोस्ट के लिए....
जवाब देंहटाएंसादर
अनु
अलंकारों के बीच सूक्ष्म अंतर को बहुत से उदाहरणों को समझ कर लगा कि हमें प्रयोग करते वक़्त सतर्कता रखनी चाहिए। कविता में इस तरह के प्रयोग से तो चमत्कार ही उत्पन्न हो जाएगा।
जवाब देंहटाएंअद्भुत.
जवाब देंहटाएंबहुत ख़ूब!
जवाब देंहटाएंआपकी यह सुन्दर प्रविष्टि आज दिनांक 03-09-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-991 पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ
अच्छी जानकारियां मिलीं.आभार .
जवाब देंहटाएंवक्रोक्ति पर सबसे ज्यादा काम ब्लॉगजगत में हुआ है।
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