-- करण समस्तीपुरी
हमारे मिथिलांचल में एक कहावत प्रचलित है, “नहि वो देवी आ नहिये वो कराह !” वही बात सब जगह है। अपने संस्कृति प्रधान देश में कितनी ऐसी सुप्रथा थीं जिस पर सहज गर्व हो। किन्तु पछुआ पवन के तेज झोंके में ये सब लुप्त होते जा रहे हैं। ऐसी ही स्तुत्य प्रथा में से एक थी "आदर्श गुरु-शिष्य परम्परा"। किसी समय में "गुरुर्ब्रहम्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः ! गुरुः साक्षात परब्रहम्म तस्मै श्री गुरुवे नमः !" जैसे आर्ष मंत्र भारत-भूमि पर सहज ही व्यवहारिक थे। राम, कृष्ण, आरुणि, उपमन्यु, कौत्स, एकलव्य और विवेकानंद जैसे गुरुभक्त इस महान श्रृंखला के चिरपरिचित कड़ी हुए हैं। किन्तु आज ये सभी चरित्र पुस्तकों में ही जीवित हैं।
विभिन्न नव आयाम, शाखा, प्रशाखा, उप-शाखाओं के साथ शिक्षा का विस्तार चरम पर है। किन्तु नहीं है तो वह आदर्श परम्परा...! आज तो जहाँ तक दृष्टि जाए गुरु की गर्दन काटने वाले दृष्टद्युम्न और शिष्य का अंगूठा लेने वाले द्रोणाचार्य मिल जाएँगे। दोष किसे देंगे? सब कुछ बदल गया है। सर्वत्र नयी चुनौतियाँ हैं। संक्रमण के इस समय में संबंधों ने भी व्यावसायिक चोला पहन रखा है। इसीलिए "नहि वो देवी आ नहिये वो कराह !"
और जो भी हो मगर प्रति वर्ष सितम्बर मास के प्रथम सप्ताह में अपने देश में गुरुभक्ति की बयार जरूर बह जाती है। साल मे एक ही दिन सही लेकिन पाँच सितम्बर को फिर से "गुरुर्ब्रहम्मा गुरुर्विष्णु" हो जाते हैं। चलिए इसी बहाने मैं भी स्मृति-शिखर पर बसे ‘गुरुर्देवो महेश्वरः’ का पुण्य स्मरण कर लूँ।
मेरा आद्योपांत शैक्षिक जीवन रेवाखंड में ही व्यतीत हुआ। मैं स्वयं को इस अर्थ में बडभागी समझता हूँ कि विद्यालय हो या महाविद्यालय या विश्वविद्यालय... गुरुजनों का विशेष अनुग्रह मुझे सदैव मिलता रहा। विद्यालय में तो इस विशेष अनुग्रह का दो कारण मुझे परिलक्षित होता है। प्रथम यह कि मेरे पितामह (बाबा) गाँव के आदर्श मध्य विद्यालय के प्रतिष्ठित प्रधानाध्यापक रह चुके थे और दूसरा अपने मुँह से कहते तो नहीं बनता है मगर बात यह कि मैं भी पढाई-लिखाई में जरा सचेष्ट सचेष्ट था। बाबा के जमाने से संबंध होने के कारण गाँव के मध्य विद्यालय से कुछ अधिक ही लगाव था। बाद में क्रिकेट के मैदान होने के कारण वह लगाव और बढ़ता गया।
उसी मध्य विद्यालय में अध्यापक थे अंसारी बाबू। नाटा कद, गौर वर्ण, सुगठित शरीर पर कमीज और खूब चौड़ी मोहरी वाला पजामा पहने अंसारी बाबू के मुंह से गमकौआ जर्दा का सुवाष हमेशा निकलता था। कोई चार मील दूर से डायनावो वाली पुरानी साइकिल पर पान चबाते, खानखानाते चले आते अंसारी बाबू को देखते ही स्कूल के उद्दंड छात्रों की सकपकी बँध जाती थी। जब मैं विद्यालयी छात्र था तब तक विद्यार्थियों में आज्ञाकारिता और शिष्टाचार का स्थान उदंडता लेने लगा था। शिक्षकों का भी भरसक यही प्रयास रहता था कि किसी तरह वे इस उद्दंडता के शिकार न हों। किन्तु इस संक्रमण काल में भी अंसारी बाबूक शिक्षक के रूप में एक विशिष्ट स्थान रखते थे।
बड़े-बड़े आक्रामक तेवर वाले शिक्षकों को भी लड़के धत्ता बता देते थे मगर क्या मजाल जो अंसारी बाबू के सामने अनुशासनहीनता दिखाएँ...! एक बात और थी अंसारी बाबू छड़ी को भी छूते थे छठे-छमासे।
मैं तभी छठे दर्जे में था। एक दिन हमारे वर्गसाथियों ने मध्यकालोपरांत खाली घंटी के सदुपयोग की योजना बनाई। निश्चित हुआ कि स्कूल के पीछे वाले सुगबा बेर से लदे कँटीले पेड़ पर अक्रमण किया जाए। इस योजना में बाधक बस एक मात्र अंसारी बाबू का भय ही था। इसीलिए सब की अलग-अलग ड्यूटी लगी। मेरे साथ-साथ एक और लड़के को चौकीदारी दिया गया कि अंसारीजी को इस दिशा में आते देखकर जोर से कू करना...!
कुछ पेड़ पर चढ़े। कुछ पेड़ के नीचे बेर चुनने लगे और हम रखवाली करने लगे। बेर-तोड़ो अभियान प्रगति पर था। मेरा साथी चौकीदार लघुशंका के लिए चला गया था और मैं एक अज्ञात भय और पहली बार चोरी के बेर खाने के रोमांच के द्वंद में फँसा हुआ था। एक सज्जन मंद कदमों से चलते हुए कब मेरे पास पहुँच गए मुझे भान नहीं रहा। सहसा बेर चुनने वाले लड़कों से एक ने चीखते हुअ कहा, “भाग रे... मास्साएब..!” कुछ पेड़ से धमाधम कूद भागे, कुछ पकड़ाए और कुछ अभी भी दम साधे पेड़ के कंटीली डालियों पर ही आश्रय लिए रहे। पकड़ाए चोर में मैं भी था।
अपराध तो सबका समान ही था मगर बैक-रिकॉर्ड को ध्यान में रखते हुए सबको सजा सुनाई गई। यह हमारा पहला स्कूली अपराध था अतः पारिवारिक गरिमा और विद्यालय आने का निहित उद्देश्य समझा कर बाइज्जत बरी कर दिया गया। तभी ज्ञात हुआ कि यह सारा इन्साफ अन्सारी बाबू की कचहरी में ही हो रहा था। ये था हमारे आदार्श अध्यापक से हमारा प्रथम साक्षात्कार! तदोपरांत अंसारी बाबू के प्रति जो असीम श्रद्धा उत्पन्न हुई कि आदर्श शिक्षक की बात होते ही हठात वही स्मरण आते हैं। हालांकि छठे वर्ग में अंसारी बाबू की कोई घंटी नहीं थी सो उनकी शिक्षण पद्धति और क्षमता से दो-चार तो नहीं हो सका मगर जब-तब व्यक्तिगत सहायता के लिए उनके पास पहँच जाता था और वे भी वात्सल्यपूर्वक हमारी समस्याओं का निदान करते थे।
इस प्रकार मैं वर्ग-प्रोन्नति परीक्षा में उत्तीर्ण हो सप्तम कक्षा में पहुँच गया किन्तु मन में अवसाद था। मेरी के प्रतिद्वंदी सहपाठी वर्ग में प्रथम आयी थी और मुझे दूसरा स्थान मिला था। विगत पाँच वर्षों से प्रथम स्थान का अधिकारी बालमन बालिका-सहपाठी के आगे झुकने के लिए तैय्यार नहीं था। विद्यालय से यह वितृष्णा होने लगी कि इन लोगों ने जान-बूझ कर ऐसा किया है। पुनश्च यह अंसारी बाबू का ही सरल सानिध्य और उत्साहवर्धन था कि हम एक पुनः दुगुगा हिम्मत से जुट गए। एकटा विशेष बात यह थी कि सातंवी कक्षा के वर्ग-शिक्षक वही थे। पहली घंटी मे गणित और तीसरी मे विज्ञान की कक्षा लेते थे। फिर तो मेरी जिज्ञासा को पंख लगते चले गए। यह मुझे अब समझ में आ रहा है कि यह आशीर्वाद अंसारी बाबू का ही था जो मैं अंतरस्नातक तक स्वतःस्फूर्त विज्ञान और गणित की पढाई करता चला गया।
इसी कक्षा की एक घटना ने मुझे हिन्दी के तरफ़ अनुरक्त किया। अनसारी बाबू हमारा गृहकार्य चेक कर रहे थे। एक सचेष्ट विज्ञान-शिक्षक की मुश्तैद नजर से बरतनी और व्याकरण सम्बन्धी दोष का बचना भी असंभव था। फिर मेरी सफाई कि ‘विज्ञान में इतना चलता है’ के जवाब में अंसारी बाबू कहते हैं, "नहीं...! यह गलती है और गलती कहीं नहीं चलती है। क्या विज्ञान अथवा गणित के किताब में हिज्जे और वाक्य रचना ग़लत रहते हैं?” मैं निरुत्तर था। बाद में निश्चय किया कि यथासंभव शुद्ध और सही लिखूँगा। इसी प्रयास में हिन्दी में जो अनुरक्ति हुई उसीकी परिणति है कि आज आपके सामने उपस्थित हूँ।
एक शिक्षकक रूप मे अंसारी बाबू की एक और महत्वपूर्ण विशेषता थी, सुंदर लिखाबट। फ़ाउन्टेन-पेन से जब वे कागज़ पर लिखते थे तो लगता था सफ़ेद प्लेट मे काले मोती सजे हों। सुलेख के प्रति वो हमेशा छात्रों को सजग रखते। उनके निर्देश और सराहना के बल से मेरी लेखनी भी सुघर होने लगी। आज मैं निश्चयपूर्वक कहता हूँ कि विश्वविद्यालय की परीक्षाओं में मेरे प्राप्तांक के पाँच प्रतिशत मेरी लिखावट के हैं। समय पंख लगाकर उड़ रहा था। मध्य-विद्यालय के दोनों वर्ष मैं प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हो आगे की शिक्षा के लिए गाँव के ही उच्च विद्यालय में दाखिल हो गया।
कार्तिक महीना था। दिवाली की तैय्यारी जोर पर थी। हमारे घर के पास ही रामार्चा पूजा हो रही थी। मैं प्रसाद लिए चला आ रहा था कि एक छोटे से लड़के ने वज्रपात किया, "भइया जानय छहक, अंसारी जी मर गेलखिन !" प्रसाद का गिलास हाथ से छूट गया...! मैं सज्ञाशून्य..! बाद में पता चला कि वो विगत मास से निलंबित चल रहे थे और इसकी सूचना उन्हें नहीं थी। जब वेतनप्राप्ति नहीं हुई तो कारण जान एक बड़े-से परिवार के मुखिया और कन्यादान के बोझ से दबे पिता परिस्थिति से मुंह चुरा रेल के नीचे आकर इस निर्दयी दुनिया को अलविदा कह गए। कोई कहता था कि उन्होंने छुट्टी की अर्जी दे रखी थी मगर प्रधानाध्यापक ने नहीं देखा। कोई कहता था कि जिस सहकर्मी के हाथों उन्होंने अर्जी उन्होंने ही दबा रखा तो कुछ लोग कहते थे कि वे खुद ही लापरवाह थे। बात कुछ भी हो मगर मुझे एक ही बात अब तक कचोटती है कि उन्होंने ‘यह’ क्यों किया? बाद में तो सारा रोष और परिताप निरर्थक ही था। विद्यालय प्रांगन मे विशाल शोक सभा हुई। दोषी के प्रति कठोर कार्रवाई, विद्यालय परिसर मे अंसारी बाबू की विशाल प्रतिमा और अश्रितों को पूर्ण सहायता के संकल्प लिए गए। अंसारी बाबू के परिवारक की दशा ता नहीं पता, दोषी के प्रति कार्रवाई और प्रतिमा कागजी संकल्प मात्र ही रह गए। उनकी प्रतिमा कहीं लगे या न लगे, मेरे स्मृति शिखर पर वे सदैव अमर हैं। शिक्षक दिवस पर, "तस्मै श्री गुरुवे नमः!"
आँखें नम हो गईं.. अंसारी बाबू को श्रद्धांजलि... अंसारी बाबू की प्रतिमा नहीं लगी होगी कहीं भी.... किसी को दंड भी नहीं मिला होगा... वास्तव में शिक्षक दिवस ईश्वर चन्द्र विद्यासागर के जन्मदिवस पर होना चाहिए था... और इस पर विचार भी चल रहा था किन्तु कांग्रेस से डॉ. राधाकृष्णन जी की निकट के प्रसाद स्वरुप उनके जन्मदिवस को शिक्षक दिवस मना गया... खैर...
जवाब देंहटाएंऐसी स्मृतियां कभी विस्मृत नहीं होतीं... और उन्हें मन में संजोए रखने वाला अपनी जड़ों से जुड़ा रहता है।
जवाब देंहटाएंमन को चॊ गई..अंसारी बाबू को श्रद्धांजलि...
जवाब देंहटाएंभाव भीनी श्रद्धांजलि श्री अंसारी जी को और उनके शिष्य प्रेम को .
जवाब देंहटाएंसच कहा, गलती कहीं नहीं चलती है..
जवाब देंहटाएंबहुत संवेदनशील पोस्ट, निशब्द कर दिया , अंसारी बाबू को श्रद्धांजलि..
जवाब देंहटाएंbehad marmik.....man dukha gaya.....
जवाब देंहटाएंआपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 06-09 -2012 को यहाँ भी है
जवाब देंहटाएं.... आज की नयी पुरानी हलचल में ....इस मन का पागलपन देखूँ .
एक भावुक कर देने वाली रचना।
जवाब देंहटाएंउस विद्यालय के प्रांगण में क्रिकेट खेलने का सुख मैं भी ले चुका हूं और उसके महत्व से जुड़ी कई सुनी-सुनाई बातें फिर से याद आ गईं।
बहुत भाव भरा संस्मरण बंधु हृदय द्रवित हो गया !
जवाब देंहटाएंमन को छूती प्रस्तुति ... आभार
जवाब देंहटाएंसभी गुरूवरो को समर्पित
जवाब देंहटाएंलगता है अच्छों की गुज़र नहीं इस दुनिया में !
जवाब देंहटाएंphir se padhkar aur apni tippni dekhkar achha laga... shikshak diwas ki hardik shubhkamnayen
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