अब ख़ुशी के गीत गाना व्यर्थ है
श्यामनारायण मिश्र
जल रहीं धू-धू दिशाओं की चिताएं
अब ख़ुशी के गीत गाना व्यर्थ है
जो मसीहा शांति के संदेश लाए
जी चाहता है पांव उसके चूम लूं
जहां मिटती हो ग़रीबी दीनता
वह मदीना और मथुरा घूम लूं
किंतु लगता है हवेली से डरा हर एक
काबा – चर्च - मठ असमर्थ है
बाज़ार से संसद भवन की कुर्सियों तक
कुछ लुटेरों के भयानक हाथ फैले
और औसत आदमी ग़म खा रहा
पी रहा कुंठा घुटन के द्रव विषैले
हालात का चाबुक उधेड़े जा रहा
रोज़ कोमल चेतना की पर्त है
ज़रा पानी को शिराओं के उबालो
बन गया यदि ख़ून तो कुछ काम आएगा
बिंब दूषित नालियों में इस महाजन के
देख कुढ़ता और कितनी देर जाएगा
घूटन तो परिवेश में वैसे बहुत है
निश्वास का तेरे भला क्या अर्थ है
बाज़ार से संसद भवन की कुर्सियों तक
जवाब देंहटाएंकुछ लुटेरों के भयानक हाथ फैले
और औसत आदमी ग़म खा रहा
पी रहा कुंठा घुटन के द्रव विषैले
सच्चाई को बड़ी खूबसूरती के साथ बयान किया है.
बहुत सुन्दर नवगीत है.
आदमी पल पल मर रहा है मगर जी रहा है.
मुझे लगभग ४०-५० साल पुरानी फिल्म प्यासा का एक गाना याद आ रहा है जिसमें ये पंक्तियाँ हैं :-
तुम्हारी है तुम ही संभालो ये दुनिया.
मेरे सामने से हटालो ये दुनिया.
बाज़ार से संसद भवन की कुर्सियों तक
जवाब देंहटाएंकुछ लुटेरों के भयानक हाथ फैले
और औसत आदमी ग़म खा रहा
पी रहा कुंठा घुटन के द्रव विषैले
हालात का चाबुक उधेड़े जा रहा
रोज़ कोमल चेतना की पर्त है............हालात बद से बदतर आप अनागत कह गए थे .
सोमवार, 10 सितम्बर 2012
ग्लोबल हो चुकी है रहीमा की तपेदिक व्यथा -कथा (गतांक से आगे ...)
ज़रा पानी को शिराओं के उबालो
जवाब देंहटाएंबन गया यदि ख़ून तो कुछ काम आएगा
बहुत संवेदनशील रचना निशब्द कर दिया आपने , सोंच और लेखनी को नमन....
यह सब होने के बाद भी हम जी ले रहे हैं, यही क्या कम है।
जवाब देंहटाएंये जीना भी कोई जीना है प्यारे, कुछ मनुज का खून पीकर जी रहे हें और कुछ उसको पिला कर मर रहें हें.
हटाएंबाज़ार से संसद भवन की कुर्सियों तक
जवाब देंहटाएंकुछ लुटेरों के भयानक हाथ फैले
और औसत आदमी ग़म खा रहा
पी रहा कुंठा घुटन के द्रव विषैले
हालात का चाबुक उधेड़े जा रहा
रोज़ कोमल चेतना की पर्त है
सम सामायिक घटनाओं पर तीखा व्यंग्य लेकिन क्या कुछ कर पाते हें?
बाज़ार से संसद भवन की कुर्सियों तक
जवाब देंहटाएंकुछ लुटेरों के भयानक हाथ फैले
और औसत आदमी ग़म खा रहा
पी रहा कुंठा घुटन के द्रव विषैले
यथार्थ को कहती सुंदर रचना .... आभार इस प्रस्तुति के लिए
दिल को छू लेनेवाली एक मार्मिक अभिव्यक्ति..... सधन्यवाद
जवाब देंहटाएंवाह ... कमाल की अभिव्यक्ति ...
जवाब देंहटाएंजो माहोल है उसमें बदलाव लाये बिना ... सच में खुशी के गीत नहीं गाये जा सकते ...
जल रहीं धू-धू दिशाओं की चिताएं
जवाब देंहटाएंअब ख़ुशी के गीत गाना व्यर्थ है.....यथार्थ को दर्शाती सुन्दर अभिव्यक्ति ...
हालात का चाबुक उधेड़े जा रहा
जवाब देंहटाएंरोज़ कोमल चेतना की पर्त है......yahi sach hai.....
श्यामनारायण मिश्र जी की रचनाओं का जबाब नही,,,,,
जवाब देंहटाएंआज के हालात को सार्थक कहती रचना,,,,,
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जल रहीं धू-धू दिशाओं की चिताएं
जवाब देंहटाएंअब ख़ुशी के गीत गाना व्यर्थ है
जो मसीहा शांति के संदेश लाए
जी चाहता है पांव उसके चूम लूं
जहां मिटती हो ग़रीबी दीनता
वह मदीना और मथुरा घूम लूं
किंतु लगता है हवेली से डरा हर एक
काबा – चर्च - मठ असमर्थ है
आग पर चलकर कहीं दरिया सुखाने मैं चला
रेत के घरोंदे अगोरे साहिल किनारे सागर के
मनोज जी पता नहीं इस नवगीत का रचना काल क्या है, किन्तु स्वर्गीय मिश्र जी सचमुच भविष्योन्मुख कवि थे.. और कह सकता हूँ कि उनकी कविताओं में वास्तविकता का बाहुल्य है!! नमन उस कवि को!!
जवाब देंहटाएंकालजयी हैं कविता के भाव... आदमी का संघर्ष निरंतर है... बढ़िया गीत
जवाब देंहटाएंजो मसीहा शांति के संदेश लाए
जवाब देंहटाएंजी चाहता है पांव उसके चूम लूं
जहां मिटती हो ग़रीबी दीनता
वह मदीना और मथुरा घूम लूं
किंतु लगता है हवेली से डरा हर एक
काबा – चर्च - मठ असमर्थ है
मनोज जी. बेहद सुन्दर रचना प्रस्तुत की आपने. अरसे बाद ऐसी रचना पढ़ने को मिली.
Bahut hee achhee rachana pesh kee hai aapne.
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना......
जवाब देंहटाएंयर्थाथ का स्वर देती है आपकी कविता...
जवाब देंहटाएंबहुत समसामयिक और सुंदर गीत !
जवाब देंहटाएंबाज़ार से संसद भवन की कुर्सियों तक
जवाब देंहटाएंकुछ लुटेरों के भयानक हाथ फैले
और औसत आदमी ग़म खा रहा
पी रहा कुंठा घुटन के द्रव विषैले
हालात का यथार्थ चित्रण ।
आपकी रचना हम में से हरेक को हिम्मत दे कि विरोध करें इस सबका ।
ग़म खा कर भी आदमी आदमी कहलाना पसंद करता है..
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